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डॉ. अम्बेडकर के मतानुसार मनु शूद्रों के भी आदिपुरुष व आदरणीय पूर्वज: डॉ. सुरेन्द कुमार

जैसा कि प्राचीन भारतीय परपरा को उद्धृत कर यह सप्रमाण दिखाया गया है कि प्राचीन वैदिक इतिहास के अनुसार मनु स्वायभुव आदितम ऐतिहासिक राजर्षि हैं और वे सबके श्रद्धेय है। डॉ0 अबेडकर ने प्राचीन मनुओं के विषय में इन्हीं ऐतिहासिक तथ्यों को स्वीकार करते हुए उन्हें आदरणीय पुरुष माना है। वे लिखते हैं –

(क) ‘‘स्वयंभू के पुत्र मनु (स्वायंभुव) के एक पुत्र प्रियंवद थे। उनके पुत्र अग्नीध्र हुए। अग्नीध्र के पुत्र नाभि और नाभि के पुत्र ऋषभ हुए। ऋषभ के एक और वेदविद् पुत्र हुए जिनमें नारायण के परमभक्त भरत ज्येष्ठ थे। उन्हीं के नाम पर इस देश का नाम ‘भारत’ पड़ा।…..उपरोक्त से पता चलता है कि सुदास किन प्रतापी राजाओं का वंशज था।’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 13, पृ0 104)

(ख) आगे वे इस वंश का कुछ और विवरण प्रस्तुत करते हैं। स्वायभुव मनु की सुदीर्घ वंश परपरा में आगे चलकर सातवां मनु वैवस्वत हुआ। उसके पुत्र इक्ष्वाकु से क्षत्रियों का सूर्यवंश चला और पुत्री इला से चंद्रवंश चला। उसकी वंश परपरा को दर्शाते हुए वे लिखते हैं-

‘‘पुरूरवा वैवस्वत मनु का पौत्र और इला का पुत्र था। नहुष पुरूरवा का पौत्र था। निमि इक्ष्वाकु का पुत्र था जो स्वयं मनु वैवस्वत का पुत्र था। इक्ष्वाकु की ख्त्त्वीं पीढ़ी में त्रिशंकु हुआ। इक्ष्वाकु की भ्वीं पीढ़ी में सुदास था। वेन, मनु वैवस्वत का पुत्र था। ये सभी मनु के वंशज होने के कारण सभी सुदास से सबन्धित होने चाहिएं। ये सुदास के शूद्र होने के प्रमाण हैं।’’ (वही, खंड 13, पृ0 152)

यहां डॉ0 अबेडकर के निष्कर्षों में कुछ संशोधन की आवश्यकता है। एक तो यह कि सुदास के शूद्र घोषित किये जाने का यह मतलब नहीं है कि उसका पूर्वापर सारा वंश शूद्र था। इस तरह तो मनु स्वायंभुव भी शूद्र कहा जायेगा। दूसरा, यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंशक्रम नहीं है, केवल प्रसिद्ध पुरुषों की तालिका है। अन्य नवीन इतिहासकारों के अनुसार सुदास वैवस्वत मनु की 63 वीं प्रमुख पीढ़ी में थे। इसी वंश में राम 76 वीं प्रमुख पीढ़ी में हुए।

ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुङ्ग, वैवस्वत मनु के वंश के प्रमुख पुरुषों की 170 पीढ़ी पश्चात् हुआ है जिसकी चर्चा डॉ0 अबेडकर बार-बार ब्राह्मणवाद के संस्थापक राजा के रूप में करते हैं। स्वायभुव मनु से तो यह बहुत-बहुत दूर की पीढ़ी में आता है। यह ‘शुङ्ग’ वंश में उत्पन्न सामवेदी ब्राह्मण था और मौर्य सम्राट् बृहद्रथ का मुय सेनापति था। इसने उसका वध करके राज्य पर बलात् कजा किया था।

(ग) डॉ0 अबेडकर के मतानुसार वर्तमान शूद्र मूलतः क्षत्रिय जातियों से सबन्धित थे और वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के सूर्यवंश से थे। इस प्रकार वैवस्वत मनु शूद्रों के आदिपुरुष सिद्ध होते हैं और स्वायंभुव मनु, जो मूल मनुस्मृति के रचयिता हैं, वे उनके भी आदितम पुरुष सिद्ध होते हैं। डा. अबेडकर लिखते हैं-

‘‘शूद्र सूर्यवंशी आर्यजातियों के एक कुल या वंश थे। भारतीय आर्य समुदाय में शूद्र का स्तर क्षत्रिय वर्ण का था।’’ (वही, खंड 13, पृ0 165)

(घ) ‘‘प्राचीन भारतीय इतिहास में मनु आदरसूचक संज्ञा थी।’’ (वही, खंड 7, पृ0 151)

(ङ) ‘‘याज्ञवल्क्य नामक विद्वान् जो मनु जितना ही महान् है, कहता है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 179)

प्रश्न उपस्थित होता है कि जब प्राचीन राजर्षि स्वायभुव मनु शूद्रों के भी आदरणीय आदिपुरुष थे तो उनके द्वारा अपने आदिपुरुष का विरोध करना क्या कृतघ्नतापूर्ण असयाचरण नहीं है? नवीन लोगों द्वारा विहित व्यवस्थाओं को प्राचीन मनुओं पर थोपकर उनकी निन्दा और अपमान करना, क्या ऐतिहासिक अज्ञानता नहीं है? कितने दुःख का विषय है कि जिस अतीत पर हम भारतीयों को गर्व करना चाहिए, अपनी अज्ञानता और भ्रान्ति के कारण हम उसकी निन्दा कर रहे हैं! यह बौद्धिक पतन की चरम स्थिति है।

मनुष्य वाचक नामों के विषय में भ्रामक स्थापना: डॉ. सुरेन्द कुमार

अंग्रेजी शासन में कुछ शासनभक्त लेखकों को जब संस्कृत भाषा को विश्व की अधिकांश भाषाओं की जननी मानने और मनु व्यक्तिवाचक शद को मानव आदि नामों का मूल मानने में जब यह आभास हुआ कि इससे तो भारतवासी हमसे प्राचीन और सय माने जायेंगे तो उन्होंने इन मान्यताओं में भ्रान्ति पैदा करके इन्हें बदल डाला। कहा गया कि संस्कृत जननी नहीं अन्य भाषाओं की बहन है, जननी तो कोई अन्य भाषा थी, जिसका नाम ‘भारोपीय भाषा’ कल्पित किया गया। इसी प्रकार कहा गया कि मानव आदि नामों का मूल मनु चिन्तनार्थक शद है, व्यक्तिवाचक नहीं।

इस नयी भ्रामक स्थापना का समाधान संस्कृत की वैज्ञानिक पद्धति से हो जाता है। संस्कृत व्याकरण की सुनिश्चित प्रक्रिया है, जो नियमों में बंधी है। संस्कृत व्याकरण के अनुसार ‘मनु’ शद से जो प्रत्यय जुड़कर ‘मानव’ आदि शद बने हैं वे व्यक्तिवाचक शद से पुत्र या वंशज अर्थ में जुड़े हैं, अतः उनका व्याकरणिक अर्थ ‘मनु के पुत्र या वंशज’ ही होगा, अन्य नहीं। जैसे-मनु से ‘अण्’ प्रत्यय होकर ‘मानव’ बना है, ‘षुग्’ आगम और ‘यत्’ प्रत्यय होकर ‘मनुष्य’ तथा ‘अञ्’ प्रत्यय और ‘षुग्’ आगम होकर ‘मानुष’, मनु के साथ ‘जन्’ धातु के योग से ‘उ’ प्रत्यय होकर ‘मनुज बना है। यहां चिन्तन अर्थ प्रासंगिक नहीं बनता।

वंशज होने की पुष्टि प्राचीन भारतीय इतिहास, विदेशी इतिहास वैदिकसाहित्य के उल्लेख भी कर रहे हैं। वंशावली भी इसी तथ्य का समर्थन करती है। अतः कुछ लेखकों द्वारा स्थापित नयी मान्यता सर्वथा गलत है।

मनु के आदिपुरुष होने में भाषाविज्ञान के तथा विदेशी प्रमाण: डॉ. सुरेन्द कुमार

वर्तमान में ‘भाषा विज्ञान’ (Linguastics)के नाम से प्रसिद्ध शास्त्र यूरोपीय विद्वानों की देन है। इस विद्या में भाषाओं के मूल, विकास और पारस्परिक सबन्धों का अध्ययन किया जाता है। इस शास्त्र के अध्ययन से मनु के प्रमुख आदिपुरुष होने के अनेक आश्चर्यजनक पोषक प्रमाण प्राप्त हुए हैं। उनका भारतीय साहित्य के निष्कर्षों से अद्भुत तालमेल है।

(क) संस्कृत, हिन्दी आदि भारतीय भाषाओं में आदमी के वाचक जितने नाम हैं, जैसे- मानव, मनुष्य, मनुज, मानुष ये सब मनु मूल शद से बने हैं, जिनका अर्थ है-‘मनु के वंशज या मनु की सन्तान।’ जैसे सभी बनिया स्वयं को महाराजा अग्रसेन का वंशज मानकर ‘अग्रवाल’ कहते हैं, उसी प्रकार मनु के वंशज ‘मनुष्य’ हैं। भाषाविज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि अधिकांश एशिया और यूरोपीय देशों की भाषाएं आर्यभाषाएं हैं और अधिकांश जातियां आर्यों की वंशज हैं। यही कारण है कि उनकी भाषाओं में प्रयुक्त मनुष्य वाचक शद ‘मनु’ से बने हुए हैं। बीस भागों वाली ‘दि ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी’ में ‘मैन’ (Man) शब्द पर इनका विवरण दिया है-

अंग्रेजी में- MAN (मैन), जर्मनी में- MANN (मन्न), MANESH (मनेश), लैटिन व ग्रीक में- MYNOS (माइनोस), स्पेनिश में – MANNA (मन्ना)

यूरोप की अन्य भाषाओं में भी मनु मूल शद पर आधारित प्रयोग प्रचलित हैं, जैसे – मेनिस्, मनुस्, मनीस्, मनेस, मैन्स् आदि। (भाग 1, पृ0 284)

सिन्धी, फारसी और ईरानी में ‘मनुस्’ के स को ह होकर (जैसे सप्ताह का हप्ता) ‘मनुह’ बना, फिर वह ‘नूह’ रह गया। इसी प्रकार आदिम (ब्रह्मा) का आदम रूप प्रचलित हो गया। बाइबल और कुरान में आदम और नूह की कथा आती है। ये वैदिक साहित्य के देव आदिम = ब्रह्मा और मनु ही हैं। वर्तमान भाषा-विज्ञान ने इस मूल वंश परपरा को प्रकाश में ला दिया है।

(ख) यही स्थिति भारतीय भाषाओं की है, चाहे वे दक्षिण की हों अथवा अन्य दिशाओं की। सभी में ‘मनु’ मूल शद से बने शद ही मनुष्य के वाचक हैं। निनलिखित तालिका से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है-

कन्नड़     –    मनुष्य,       असमिया   –    मानुह (ष को ह)

तमिल     –    मनिदन्,      उड़िया     –    मनिष, मणिष

तेलगु      –    मनिषि,       बंगला      –    मानुष

मलयालम  –    मनुष्यम्,      गुजराती    –    माणस

सिन्धी     –    मानहू ,       राजस्थानी  –    माणस

(ष को ह)     हरयाणवी   –    माणस

पंजाबी     –    मनुख ,       मराठी     –   माणूस, मनुष्य

(ष को ख)

(ग) इसका समर्थन पाश्चात्य इतिहासकार मेनिंग स्वरचित इतिहास ‘एन्सिएन्ट एण्ड मेडिवल इंडिया’ में इस प्रकार करता है-

“It has been remarked by various authors (as Kuhn and Zeitschrift IV 94 ff) that in analogy with Manu as

the father of mankind or of the Aryas, German mythology recognises Manus as the ancestor of Teutons. The english Man and the German Manu appear also to be akin to the word Manu as the German Menesh presents a close resemblance to Manush of Sanskrit.” (Vol.I,P.118)

अर्थात्‘जैसा कि कुहन और जाइत्सक्रिट आदि विभिन्न लेखकों ने भी यह उल्लेख किया है कि मानवजाति और आर्यों के मूलपुरुष मनु हैं, इस मान्यता से जर्मन पुराकथाओं की भी मान्यता मेल खाती है कि जर्मन मनु ट्यूटोन्ज् का भी पूर्वज रहा है। अंग्रेजी का ‘मैन’ तथा जर्मन का मनु संस्कृत के ‘मनु’ के समान है, ऐसे ही जर्मन का ‘मनेश’ और संस्कृत के ‘मनुष्य’ में घनिष्ठ समानता विद्यमान है।’ अर्थात् मनु इन सब का आदिपुरुष है, यह भाषाविज्ञान और परपरा दोनों से सिद्ध होता है।

(घ) इसके साथ अपने पूर्वज मनु की एक और स्मृति विश्व की जातियां लेकर गई हैं। वह है वैवस्वत मनु के समय हुई ‘जलप्रलय’ की कथा। विश्व के प्रमुख धर्मग्रन्थों बाइबल और कुरान में यह नूह के नाम से वर्णित है जो ‘मनुस्’ (मनुहनूह) का अपभ्रंश है। इनके अतिरिक्त संसार के आधे से अधिक देशों के साहित्य में यह कथा थोड़े परिवर्तन के साथ सुरक्षित है।

(ङ) कबोडिया, मिस्र, ईरान आदि देशों के साहित्य में अभी तक उनके आर्य और मनु की सन्तान होने के उल्लेख मिलते हैं। एक प्रमाण लीजिए। बाइबल और कुरान में वर्णित नूह के दो पुत्र थे-1. हेम(=सूर्य), 2. सेम (=सोम=चन्द्र) इनमें हेम के वंशज मिस्र में रहते हैं जो स्वयं को सातवें वैवस्वत मनु की सूर्यवंशी सन्तान मानते हैं-

“The reader will not readily forget the city of the sun ‘Helispolis’ or ‘Menes’. The first Egyptian king of the sun, the ‘Menu Voivasowat’ or patriarch of the solar race, nor his statue, that of the great ‘Menoo’, whose voice was said to statue the rising sun.” (India is Greece, P. 174)       

 

अर्थात्-‘पाठक सूर्य के नगर (स्थान) ‘हेलिस्पोलिस्’ अथवा ‘मेनस्’ को सुगमता से नहीं भुला पायेगा और न ही मिस्र के प्रथम सूर्य राजा ‘मनु वैवस्वत’ को, जो कि सूर्यवंशियों का आदिपुरुष है, और जिस महान् मनु की प्रतिमा उगते हुए सूर्य के रूप में उसके नाम को प्रतिबिबित कर रही है, उसको भी नहीं भुला पायेगा।’

भाषाविज्ञान द्वारा यह स्पष्ट हुआ कि ‘मनु स्वायंभुव’ मानवों के आदिपुरुष हैं, अतः उन द्वारा रचित संविधान ‘मनुस्मृति’ भी विश्व का आदिकालीन प्रथम संविधान है।

(च) ‘‘थाई देश में राम खएंग के अतिरिक्त भी कई ऐसे शासक हुए हैँ जिनका नामोल्लेख शासकीय व्यवहार में ‘राजा’ ‘महाराजा’ शदों के साथ ‘राम’ उपाधि से किया जाता था, जैसे- महाराजा राम प्रथम, राम द्वितीय, राम तृतीय आदि। यह संया नौ तक चल गयी है। वास्तव में थाई शासकों के समान कुछ अन्य देशों के शासक भी अपने आपको रामायण के नायक राम के वंशज मानते रहेहैं।’’ (‘दैनिक ट्रियून’ चंडीगढ़ संस्करण दिनांक 14-10-1990, ‘रामकथा की सृजन भूमि रहा है थाई देश’ : डॉ. वेदज्ञ आर्य)

श्री राम सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। वे वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के सूर्यवंश में हुए। वैवस्वत मनु सातवां मनु था जो प्रथम मनु स्वायंभुव का वंशज था। इस प्रकार मनु स्वायंभुव आदिपुरुष था।

(छ) ‘‘कबुज (कंबोडिया) में संस्कृत में लिखे अनके लेख मिले हैं जिनसे मालूम होता है कि वहां के लोगों का भी विश्वास था कि वे मनु की सन्तान है।’’ (भारतीय संस्कृति के विस्तार की कहानी : भगवतशरण उपाध्याय, पृ0 42)

इस प्रकार विश्व के अधिकांश प्राचीन देशों में उनका प्राचीन इतिहास वहां के निवासियों को मनु का वंशज वर्णित करता है।

मनुस्मृति की प्राचीनता विषयक चीनी साहित्य का प्रमाण: डॉ. सुरेन्द कुमार

गत पृष्ठों (विश्व में मनुस्मृति की प्रामाणिकता) में चीनी भाषा के ग्रन्थ में मनुस्मृति-काल सबन्धी उल्लेख का विवरण प्रस्तुत किया गया है। उस पुरातात्विक प्रमाण के अनुसार मनुस्मृति 10-12 हजार वर्ष पुराना शास्त्र है। इससे एक तथ्य की पुष्टि तो होती ही है कि मनुस्मृति समाज-व्यवस्था का सबसे पुराना ग्रन्थ है। अन्य किसी देश या समाज का इतना पुराना ग्रन्थ उपलध नहीं है। यह पुरातात्विक प्रमाण भी मनु और मनुस्मृति के काल को सबसे प्राचीन सिद्ध करता है।

इससे यह भी सिद्ध होता है कि मनु एवं मनुस्मृति के काल के सबन्ध में पाश्चात्य लेखकों ने जो 185 ई0 पूर्व के काल की कल्पना की है, वह निराधार और अप्रामाणिक है; क्योंकि मनु स्वायंभुव रचित मनुस्मृति के उल्लेख उससे कई हजार वर्ष पूर्व के साहित्य में मिल रहे हैं। उन उल्लेखों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

मनु के काल के सबन्ध में जो वर्तमान लेखकों को अर्वाचीनता की भ्रान्ति हो रही है, उसका कारण मनुस्मृति में हुए प्रक्षेप हैं। बदलते समय के अनुसार लोग इसमें मिलावट करते चले गये जिससे इसका प्राचीन और मौलिक स्वरूप धूमिल हो गया। प्रक्षेपों के विषय पर अन्तिम अध्याय में विचार किया जायेगा।

वेदों में मनु का उल्लेख: डॉ. सुरेन्द कुमार

पाश्चात्य विद्वान् एवं पाश्चात्य विचारधारा के अनुगामी आधुनिक विद्वान् मनु पर विचार करते समय उसका उल्लेख एवं जीवन-परिचय वेदों में खोजते हैं। उनका कथन है कि ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर व्यक्तिवाचक मनु शद आया है। कहीं उसे पिता कहा है, कहीं प्रारभिक यज्ञकर्त्ता, तो कहीं अग्निस्थापक के रूप में उसका वर्णन है।4

इस चर्चा का उत्तर मनु के मन्तव्य के अनुसार दिया जाये तो अधिक प्रामाणिक होगा। मनु वेदों को ईश्वरप्रदत्त अर्थात् अपौरुषेय मानते हैं। सृष्टि के प्रारभ में ईश्वर ने अग्नि, वायु, आदित्य के माध्यम से वेदों का ज्ञान दिया। अपौरुषेय होने के कारण वेदज्ञान पूर्णतः ज्ञेय नहीं है, वह अपरिमित है।1 प्रारभ में वेदों से ही शद ग्रहण करके व्यक्तियों और वस्तुओं का नामकरण किया गया।2 मनु द्वारा वेदों को अपौरुषेय घोषित करने के उपरान्त उसी मनु का वेद में इतिहास ढूंढना मनु के विपरीत विचार है, और मनु से पूर्व वेदों का रचनाकाल होने से कालविरुद्धाी है।

वेदों में मनु शद विभिन्न अर्थों में आया है। कहीं वह ईश्वर का पर्यायवाची है,3 कहीं मनुष्य के लिये है,4 कहीं मननशील विद्वान् के लिये है।5 विचारकों को जहां इसके व्यक्तिवाचक होने का आभास होता है, वह वस्तुतः ईश्वरवाचक प्रयोग है। अधिक विस्तार में न जाते हुए, इस विषय में मनुस्मृति का ही एक प्रमाण देकर इस बात को प्रमाणित किया जाता है। ईश्वर का वर्णन करते हुए मनु स्वयं कहते हैं कि उस परमेश्वर को विभिन्न नामों से पुकारा जाता है, जिनमें एक नाम ‘मनु है-

एतमेके वदन्त्यग्निं मनुमन्ये प्रजापतिम्।

इन्द्रमेके परे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम्॥ 12। 123॥

    इस प्रकार मनु के मन्तव्य के अनुसार वेदों में ‘प्रजापति’ ‘पिता’ आदि विशेषणों से संबोधित मनु ईश्वर ही है। इस आधार पर वेद में मनु का परिचय खोजना मनु के दृष्टिकोण के विरुद्ध है।

आधुनिक मतों के अनुसार स्वायंभुव मनु का काल-डॉ. सुरेन्द कुमार

आधुनिक इतिहासकारों ने प्राचीन मतों को अमान्य करके नये सिरे से समग्र इतिहास पर विवेचन प्रारभ किया हुआ है। ये इतिहासकार अधिकतर पाश्चात्य विद्वानों की कल्पनाओं एवं कार्यपद्धति से प्रभावित हैं। यद्यपि इनके मतों में अनुसन्धान के आधार पर परिवर्तन आता रहता है, तथापि अब तक स्थिर हुए कुछ आधुनिक मतों का यहाँ उल्लेख किया जाता है।

श्री के. एल. दतरी स्वायंभुव मनु का काल 2670 ई. पू. मानते हैं।1 श्री त्र्यं. गु. काले ने पुराणों के आधार पर मनु का काल 3102 ई. पूर्व निर्धारित किया है।2 लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने ज्योतिर्विज्ञानीय तत्त्वों के आधार पर प्राचीन वैदिक साहित्य का कालनिर्णय करने का प्रयास किया है। उनके अनुसार कृत्तिका नक्षत्र में वसन्तारभ के समय ब्राहमण ग्रन्थों की रचना हुई और मृगशिरा नक्षत्र के काल में वैदिक मन्त्रसंहिताओं की रचना हुई। खगोल और ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कृत्तिका और मृगशिरा नक्षत्रों में वसन्तारभ क्रमशः आज से 4500 ई.एवं 6500 वर्षों पूर्व हुआ था। इस प्रकार इन ग्रन्थों का काल क्रमशः 2500 ई. पू. तथा 4500 ई0पू0 के लगभग निर्धारित होता है।3 इस आधार पर मनु का काल भी ब्राहमणग्रन्थों से पूर्व इसी कालावधि के निकट निर्धारित होगा।

स्वरचित ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में धर्मशास्त्र और स्मृतिग्रन्थों के प्रसिद्ध विवेचक डा.पी. वी. काणे ने शतपथ ब्राहमण और तैत्तिरीय संहिता आदि का काल ई. पू. 4000-1000 वर्ष माना है। मनु की जीवनस्थिति इनसे पूर्व की होने के कारण मनु का कालाी इनसे प्राचीन सिद्ध होगा।

संस्कृत साहित्य में मनु के आदिपुरुष होने के प्रमाण: डॉ. सुरेन्द कुमार

वैदिक तथा लौकिक संस्कृत साहित्य में मनुष्यों को ‘‘मानव्यः प्रजाः’’ कहा है। इसका अभिप्राय यह है कि सभी मनुष्य मनु के वंशज हैं अथवा मनु की प्रजाएं हैं। वैदिक संस्कृति में राजा को पिता तथा प्रजा को पुत्रवत् माना जाता था, अतः प्रजाओं को भी सन्तान कहा गया है। राजर्षि मनु भी चक्रवर्ती राजा थे अतः सभी प्रजाएं उनकी सन्तान थीं। मनु का वंश भी अतिविशेष था और महत्त्व भी सर्वोच्च था। इस कारण मनुष्यों के प्रायः सभी मूल संस्कृत नाम ‘मनु’ शद से बने हैं। इसी मान्यता को स्थापित करते हुए वैदिक ग्रन्थ काठक ब्राह्मण तथा तैत्तिरीय संहिता में कहा है-

‘‘ताःइमाः मानव्यः प्रजाः’’

(काठक0 2.30.2 तथा तैत्ति0 सं0 5.1.5.6)

    अर्थ-ये साी प्रजाएं (मनुष्य) मनु के वंशज हैं।

(ख) आचार्य यास्क निरुक्त में इसी मान्यता को स्थापित करते हैं-                 ‘‘मनोरपत्यं मनुष्यः (मानवः)’’(3.4)

    अर्थ-‘मनु की सन्तान होने के कारण सबको मनुष्य या मानव कहा जाता है।’

(ग) महाभारत में मानव वंश का प्रवर्तक मनु स्वायंभुव को माना है-

मनोर्वंशो मानवानाम्, ततोऽयं प्रथितोऽभवत्।

ब्रह्मक्षत्रादयः तस्मात्, मनोः जातास्तु मानवाः॥

(आदिपर्व 75.14)

    अर्थ-मानव वंश मनु के द्वारा प्रवर्तित है। उसी मनु से यह प्रतिष्ठित हुआ है। सभी मानव मनु की सन्तान हैं अतः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी उसी मनु के वंशज हैं।

(घ) मनु स्वायभुव ब्रह्मा का पुत्र था। महाभारत में लिखा है-

‘‘पैतामहः मनुर्देवः तस्य पुत्रः प्रजापतिः।’’

                                  (आदिपर्व 66.17)

    अर्थ-‘पितामह ब्रह्मा का पुत्र मनु था। उसको देव और प्रजापतिाी कहते हैं।’

(ङ)  ‘‘स वै स्वायभुवः पूर्वपुरुषो मनुरुच्यते।’’

(ब्रह्माण्ड पुराण 1.2.9)

    अर्थ-‘वह स्वायभुव मनु ‘आदिपुरुष’ या ‘पूर्वपुरुष’ माना जाता है।’

इस प्रकार भारतीय प्राचीन साहित्य और इतिहास के अनुसार मनु मानवों के प्रमुख आदिपुरुष हैं। आदिपुरुष होने के कारण वे मानव जाति द्वारा समादरणीय हैं। मनु के इतिहास के रूप में मानव जाति का आदि इतिहास सुरक्षित है, यह प्रसन्नता का विषय है।

भारतीय इतिहास-परपरा में मनु का काल एवं आदिपुरुष: डॉ. सुरेन्द कुमार

आदिसृष्टि कहते ही बहुत-से लोग चौंकते हैं, किन्तु चौंकने की कोई बात नहीं है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि सृष्टि उत्पन्न होते ही मनु उत्पन्न हो गये। इसका अभिप्राय यह है कि सृष्टि के या मानव सयता के ज्ञात इतिहास में जो आरभिक काल है, वह मनु का स्थिति काल है। मनु स्वायंभुव या मनुवंश से पूर्व का कोई इतिहास उपलध नहीं है। जो भी इतिहास मिलता है वह मनु या मनुवंश से प्रारभ होता है, अतः मनु ऐतिहासिक दृष्टि से आरभिक ऐतिहासिक महापुरुष हैं। वैदिक परपरा में यह सारा इतिहास क्रमबद्ध रूप से उपलध होता है। कुछ बिन्दुओं पर संक्षिप्त चर्चा की जाती है-

(क) उपलध वैदिक साहित्य में वेद सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। विश्व के सभी लेखक इस शोध पर एक मत हैं कि ‘‘ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ है।’’ वेदों के पश्चात् क्रमशः संहिता ग्रन्थों, ब्राह्मण ग्रन्थों, उपनिषदों, सूत्रग्रन्थों का रचनाकाल माना जाता है। लौकिक संस्कृत में मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, पुराण आदि उपलध हैं। इन सब ग्रन्थों में मनु का इतिवृत्त, वंशविवरण, उद्धरण, उल्लेख, श्लोक आदि मिलते हैं। यह इस तथ्य को पुष्ट करता है कि वेदों के बाद के इस समस्त साहित्य से पूर्व मनु स्वायभुव हुए हैं, अतः वे उपलध साहित्य और इतिहास से पूर्व के महापुरुष हैं। इस साहित्यिक विवरण को कोई नहीं झुठला सकता। कालनिर्धारण के आंकड़ों में भले मतान्तर हो किन्तु इस मन्तव्य में कोई मतान्तर नहीं है कि मनु उक्त साहित्य-रचना काल से पूर्व हो चुके हैं। भारतीय मतानुसार उपलध संहिता ग्रन्थों का संकलन-काल कम से कम 10-12 हजार वर्ष पूर्व का है। उससे पूर्व भी वैदिक साहित्य बनता-बिगड़ता रहा है। वैदिक साहित्य के प्रमाण इसी अध्याय में विषयानुसार प्रदर्शित हैं।

(ख) वैदिक साहित्य में, और चमत्कारिक रूप से विश्व के साी धार्मिक ग्रन्थों में, सृष्टि का आदितम पुरुष ब्रह्मा अथवा आदम को माना गया है। ब्रह्मा का वंश मनु का पूर्वजवंश है। संस्कृत भाषा में ब्रह्मा को ‘आदिम’ ‘आत्मभूः’ ‘स्वयभूः’ कहा है। बाइबल और कुरान में वर्णित ‘आदम’ संस्कृत के ‘आदिम’ का अपभ्रंश है और नूह, मनु (मनुस् के स को ह होकर और फिर म का लोप होकर) का अपभ्रंश है। इस प्रकार विश्व का सारा साहित्य ब्रह्मा को आदितम पुरुष मानता है।

वैदिक इतिहास के गवेषक पं0 भगवद्दत्त जी के अनुसार मानव सृष्टि के आदि में ब्रह्मा का वंश चला अर्थात् इस वंश में अनेक प्रसिद्ध ब्रह्मा हुए। वैदिक साहित्य में इनको ‘प्रजापति’ कहा गया है अर्थात् ये ‘प्रजाओं के संरक्षक’ या ‘प्रजाप्रमुख’ मानने जाते थे जिनके निर्देश पर प्रजाएं व्यवहार-निर्वाह करती थीं। ब्रह्मा (अन्तिम) का पुत्र (कहीं-कहीं पौत्र) मनु हुआ। क्योंकि ब्रह्मा का एक नाम ‘स्वयभू’ भी प्रचलित था, अतः वंश के आधार पर पहले मनु का ‘मनु स्वायंभुव’ नाम प्रसिद्ध हुआ। मनु के साथ ही ब्रह्मा नामक वंश का लोप हो गया और अतिप्रसिद्धि तथा प्रमुखता के कारण मनु का वंश प्रचलित हुआ। इस प्रकार आदितम पुरुष का वंशज-पुत्र होने के कारण मनु आदिपुरुष सिद्ध होता है (वंशावली अग्रिम पृष्ठों में प्रदर्शित है)। आगे चलकर मनु स्वायभुव के वंश में अनेक वंशधर हुए जिनमें मनु उपाधिधारी अन्य तेरह व्यक्ति प्रजापति महापुरुष के रूप में मान्य हुए। प्रजाप्रमुख राजर्षि होने के कारण उन्हें मनु की उपाधि प्राप्त हुई। इस प्रकार चौदह मनु इतिहास-प्रसिद्ध हैं।

स्वायंभुव मनु ‘प्रजापति’ अर्थात् ‘प्रजाप्रमुख’ भी थे और आदिराजा भी थे। पिता ब्रह्मा के कहने पर वे विधिवत् प्रथम राजा बने। इस प्रकार वे ब्राह्मण से क्षत्रिय बन गये। प्राचीन इतिहास के अनुसार वे सप्तद्वीपा पृथ्वी के चक्रवर्ती शासक थे तथा ब्रह्मावर्त प्रदेश (वर्तमान हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, उत्तरप्रदेश, राजस्थान का जुड़ा भाग) में ‘बर्हिष्मती’ नामक राजधानी से राज्य संचालन करते थे।

(ग) जैसा कि कहा गया है कि स्वायभुव मनु के वंश में इस मनु सहित चौदह मनु राजर्षि हुए जिनका वंशक्रम आगे दिया गया है। इनमें सातवां वैवस्वत मनु अतिवियात और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था। मनु वैवस्वत के पुत्र और एक पुत्री थी। इनके बड़े पुत्र इक्ष्वाकु से क्षत्रियों का सूर्यवंश चला और पुत्री इला से चन्द्रवंश चला। इनकी प्रसिद्धि के कारण बाद में सभी क्षत्रिय वंश इन दो वंशों में समाहित हो गये। आज तक भारत और निकटवर्ती देशों के क्षत्रियों में यही दो वंश मिलते हैं। बाइबल और कुरान में वर्णित नूह (मनु) के दो वंश भी यही हैं-1. हेम (=सूर्य) वंश, 2. सेम (=सोम अर्थात् चन्द्र) वंश। इस प्रकार क्षत्रियों का पूर्वज वैवस्वत मनु था और उसका भी पूर्वज मनु स्वायंभुव था।

(घ) स्वायंभुव मनु राजा के साथ वेदशास्त्रों के ज्ञाता और धर्म (वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक) के विशेषज्ञ तथा राजनीतिवेत्ता थे। उनसे अनेक ऋषियों ने धर्मों की शिक्षा ग्रहण की, ऐसे उल्लेख महाभारत, पुराण आदि में आते हैं। आरभिक गोत्रप्रवर्तक ब्राह्मण ऋषि उनके शिष्य रूप पुत्र थे, अतः मनुस्मृति में उन ऋषियों को मनु के पुत्र कहा है। प्राचीन काल में वंश दो प्रकार से चलते थे-एक, जन्म से; दूसरा, विद्या से। प्रतीत होता है कि मनुस्मृति के श्लोकों में वर्णित ऋषिगण मनु के विद्यावंशीय पुत्र थे। वे हैं-

मरीचिमत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।

प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदमेव च॥ (1.35)

मनु ने इन प्रजापतियों का निर्माण किया-मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वसिष्ठ, भृगु और नारद।

आरभ में मनु के इन्हीं विद्यापुत्रों से ब्राह्मण वंश चले। कालान्तर में इन्हीं ब्राह्मण और क्षत्रिय वंशों में वर्णपरिवर्तन, वर्णविकास अथवा वर्ण-विकार होने से अन्य वर्ण बने। प्राचीन काल में समय-समय पर वर्णों में परस्पर परिवर्तन होता रहता था। (द्रष्टव्य अ0 3 में वर्णपरिवर्तन के उदाहरण)। इस ऐतिहासिक वंशक्रम के आधार पर मनु मानवों के या चारों वर्णों के आदिपुरुष सिद्ध होते हैं।

(ङ) मनु स्वायाुव के वंश का संक्षिप्त विवरण-

अन्य सात मनु सूर्यसावर्णि, दक्षसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, रौच्य और भौत्य भी इसी वंश-परपरा में हो चुके हैं। ये चौदह मनु इतने वियात हुए हैं कि सृष्टि-स्थिति की सपूर्ण काल-अवधि

(4,32,00,00,000) को भारतीय ज्योतिष में चौदह मन्वन्तरों में विभाजित किया है और प्रत्येक मन्वन्तर की कालावधि का नाम क्रमशः इन्हीं मनुओं के नाम पर रखा गया है। इस समय सप्तम ‘वैवस्वत मन्वन्तर’ चल रहा है। पहला स्वायंभुव मन्वन्तर था। इस वंशक्रम के आधार पर भी स्वायंभुव मनु मानवसृष्टि के आदि पुरुष सिद्ध होते हैं।

सृष्टि-उत्पत्ति के इस समय को सुनकर पाश्चात्य और आधुनिक लोग अत्यधिक आश्चर्य करते हैं और विश्वास भी नहीं करते। उन्हें यह जिज्ञासा होती है कि कालगणना का इतना हिसाब कैसे रखा गया? इसके उत्तर में उन्हें एक व्यवहार में प्रचलित प्रमाण सपूर्ण देश में उपलध हो जायेगा। भारतीयों ने वर्षों की बात तो छोड़िये पल और प्रहर तक का हिसाब रखा है। ज्योतिषीय पंचांगों में यह आज भी उपलध है। विवाह आदि धार्मिक कृत्यों में संस्कार के समय एक संकल्प की परपरा है। उसमें ‘आर्यावर्ते वैवस्वतमन्वन्तरे कलियुगे अमुक प्रहरे’ आदि बोलकर विवाह का संकल्प किया जाता है। इस प्रकार परपराबद्ध रूप से समय का हिसाब सुरक्षित है।1

उपलध भारतीय वंशावलियों में ब्रहमा को आदि वंशप्रवर्तक माना जाता है और मनु उससे दूसरी पीढ़ी में परिगणित है। इस प्रकार इस सृष्टि में जब से मानवसृष्टि का प्रारभ हुआ है; स्वायंभुव मनु उस आदिसृष्टि या आदिसमाज के व्यक्ति सिद्ध होते हैं।2

मनुस्मृति प्रवक्ता और प्रवचनकाल बाह्य साक्ष्य के आधार पर:डॉ. सुरेन्द कुमार

(1) आधुनिक समीक्षकों द्वारा वेदों के बाद सबसे प्राचीन माने गये तैत्तिरीय संहिता और ताण्ड्य ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में मनु के वचनों को औषध के समान कल्याणकारी माना है। यह कथन इस बात का संकेत है कि उस काल तक मनु की धर्मशास्त्रकार के रूप में याति और प्रामाणिकता सुस्थापित हो चुकी थी-

(क) ‘‘मनुर्वै यत्किञ्चावदत् तद् भेषजं भेषजतायै।’’

(तैत्ति0 सं0 2.2.10.2, 3.1.9.4; तां0 ब्रा0 23.16.7)

(ख) ऐतरेय ब्राह्मण में मनुवंशी राजा शर्यात मानव के राज्या-भिषेक का वर्णन है (8.11)। यह सातवें मनु वैवस्वत के पुत्र इक्ष्वाकु का वंशज है। उसी ब्राह्मण में एक श्लोक आता है जो प्रायः मनु के श्लोक का रूपान्तर है या भावानुवाद है-

मनु–     कलिः प्रसुप्तो भवति स जाग्रद् द्वापरं युगम्।

         कर्मस्वयुद्यतःत्रेता   विचरंस्तु कृतं   युगम्॥ (9.302)

तैत्तिरीय ब्राह्मण में

         कलिः शयानो भवति सञ्जिहानस्तु द्वापरः।

         उत्तिष्ठन् त्रेता भवति कृतं सपद्यते चरन्॥     (7.15)

(ग) इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण में मनु के श्लोक का यथावत् भाव वर्णित है-

मनु–     आ हैव   स   नखाग्रेयः परमं   तप्यते   तपः।

         यः स्रग्व्यपि द्विजोऽधीते स्वाध्यायः शक्तितोऽन्वहम्॥

(2.167)

    शतपथ में-‘‘अलंकृतः सुहितः सुहितः सुखे शयने शयानः स्वाध्यायमधीते आ हैव स नााग्रेयस्तप्यते। य एवं विद्वान् स्वाध्यायमधीते।’’ (11.5.7.4) इससे सिद्ध होता है कि मनुस्मृति ब्राह्मण आदि ग्रन्थों से प्राचीन है और वह मानव सृष्टि के आदिकाल की है।

    (2) इसी मान्यता को निरुक्त ने मनु का मत उदृत करते हुए एक श्लोक से पुष्ट किया है-

    अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।

    मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत्॥ 3। 4॥

    अर्थात्-‘दायभाग में पुत्र और पुत्री, दोनों का समान अधिकार होता है’, यह विसर्गादौ=मानव सृष्टि के आदि काल में स्वायभुव मनु ने कहा है। यह मत वर्तमान मनुस्मृति के 9.130, 192 श्लोकों में निर्दिष्ट है। यहां ‘‘विसर्गादौ=मानव सृष्टि के आदिकाल’’ शद विशेष ध्यान देने योग्य हैं।

(3) विभिन्न स्मृतियों में तो मनु का उल्लेख भी है और प्रशंसा भी। अनेक सूत्रग्रन्थों में भी मनु के नाम का तथा उसके मत का उल्लेख प्राप्त होता है। इनमें आश्वलायन श्रौतसूत्र [9.7.2; 10.7.1], आपस्तब श्रौतसूत्र [3.1.7; 3.10.35], वासिष्ठ धर्मसूत्र [1.17] आपस्तब धर्मसूत्र [2.14.11] बौधायन धर्मसूत्र [4.1.14, 4.2.16] गौतम धर्मसूत्र [21.7] आदि उल्लेखनीय हैं।

(4) वाल्मीकि-रामायण किष्किन्धा काण्ड 18.30, 32 में मनु के नामोल्लेख पूर्वक दो श्लोक उद्धृत पाये जाते हैं-‘श्रूयते मनुना गीतौ श्लोकौ चरित्रवत्सलौ’ [वा0रामा0किष्कि0 18.30] यहां स्पष्टतः गीतौ=‘मनु द्वारा गाये’ पद पठित हैं।

(क) वे दोनों श्लोक अग्रिम प्रसंग में है। बालि-सुग्रीव

द्वन्द्व-युद्ध में राम दूर खड़े होकर छुपकर बालि की हत्या कर देते हैं। मरणासन्न बालि राम के इस कृत्य को अधर्मानुकूल बताता है। राम उसका उत्तर देते हुए मनु के निन दो श्लोक प्रमाण रूप में प्रस्तुत करते हुए अपने कृत्य को धर्मानुकूल सिद्ध करते हैं। ये दोनों श्लोक वर्तमान मनुस्मृति में किंचित् पाठभेदपूर्वक 8.316, 318 में पाये जाते हैं-

राजभिर्धृतदण्डाश्च कृत्वा पापानि मानवाः।

निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा॥

शासनाद्वापि मोक्षाद् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते।

राजात्वशासन् पापस्य तदवाप्नोति किल्विषम्॥

(ख) इनके अतिरिक्त वाल्मीकीय रामायण अयो0 107.12 में एक और श्लोक मिलता है, जो मनु0 9.138 में प्राप्त है। चतुर्थ पाद में पाठभेद के अतिरिक्त यह ज्यों का त्यों है। वहां यह श्लोक मनु के नाम के बिना उद्धृत है-

पुनानो नरकाद् यस्मात् पितरं त्रायते सुतः।

तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः पितृन् यः पाति सर्वतः॥

भारतीय प्राचीन मान्यता के अनुसार वाल्मीकि-रामायण राम के समकालीन है और राम का काल लाखों वर्ष पूर्व माना जाता है। पाश्चात्य एवं आधुनिक भारतीय विद्वान् रामायण का रचनाकाल ई. पू. तीसरी शतादी से छठी ईस्वी पूर्व तक मानते हैं, जो कल्पित है।

इनकेअतिरिक्त, रामायण में वर्णित राज्यव्यवस्था और चातुर्वर्ण्यव्यवस्था मनुस्मृति के अनुसार मिलती है। मनुस्मृति के समान रामायण में आठ अमात्यों की नियुक्ति का उल्लेख है। (बाल0 7.2)। चातुर्वर्ण्य व्यवस्था की रक्षा का दायित्व राजा का विहित है

(सुन्दर0 35. 11)।

  1. महाभारत में, कई स्थलों पर स्वायंभुव मनु को एक धर्मशास्त्रकार के रूप में उद्धृत किया है और कुछ स्थलों पर उनके नामोल्लेख के साथ उनके मत और श्लोकों को भी उद्धृत किया है। वे सभी मत और श्लोक प्रचलित मनुस्मृति में पाये जाते है-

(क) दुष्यन्त-शकुन्तला प्रेम-प्रसंग में आठ-विवाहों का विधानकर्त्ता स्वायंभुव मनु को बताया है। जो मनु0 3.20-34 में वर्णित हैं-

‘‘अष्टावेव समासेन विवाहा……..मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत्’’

(आदि0 73.8-9)

(ख) शान्ति. 36 अध्याय में, मनु0 1। 1-4 श्लोकों की घटना का यथावत् वर्णन करते हुए बताया है कि ऋषि लोग धर्मजिज्ञासा के लिए स्वायंभुव मनु के पास पहुंचे। वहां मनु द्वारा दिये गये उत्तर में कुछ श्लोक ऐसे प्राप्त होते हैं जो वर्तमान मनुस्मृति में भी हैं, उनमें कोई-कोई तो यथावत् है, कोई किंचित् पाठान्तर से है, तो कोई यथावत् भाव वाला है।1

(ग) शान्ति0 67। 15-30 में, आदिकाल में लूटपाट, अराजकता आदि से तंग हुई प्रजा द्वारा मनु को राजा के रूप में वरण करने की घटना दी हुई है। वह मनु ब्रहमा का पुत्र है, अतः वह भी स्वायंभुव मनु की घटना है।2 मनु को राजा बनाने के बाद प्रजा द्वारा जो करनिर्धारण किया गया है, यथा-‘पशु और सुवर्ण का पचासवां भाग कर देंगे’ यह करव्यवस्था वर्तमान मनुस्मृति 7। 130 में मिलती है- ‘‘पञ्चाशद् भाग आदेयो राजा पशुहिरण्ययोः।’’

(घ) शान्ति0 335। 44, 46 में एक धर्मशास्त्रकार के रूप में स्वायभुव मनु का ही वर्णन है-‘‘तस्मात् प्रवक्ष्यते धर्मान् मनुः स्वायभुवः स्वयम्’’ (44) ‘‘स्वायभुवेषु धर्मेषु’’ (46) आदि।3

इसके अतिरिक्त महाभारत में अनेक स्थलों पर केवल मनु का नाम देकर उसके श्लोक या भाव उद्धृत किये हैं। उनमें से बहुत-से श्लोक वर्तमान मनुस्मृति में यथावत् मिलते हैं और भाव तथा उनका गठन भी यथावत् है। यथा – शान्तिपर्व 56.24 (मनु0 9.321), आदिपर्व 73.9-10 (मनु0 3.21 में) आदि। वहां मनु का नाम इस प्रकार स्मृत है- ‘‘मनुना चैव राजेन्द्र गीतौ श्लोकौ महात्मना।’’

(शान्ति0 56.33)

  1. महात्मा बुद्ध के प्रवचनों में मनुस्मृति के श्लोकों का यथावत् अनुवाद मिलता है, जो यह सिद्ध करता है कि बुद्ध के लिए मनुस्मृति समान्य थी। बुद्ध लगभग 2550 वर्ष पूर्व जीवित थे। (द्रष्टव्य है प्रमाण गत अ0 1.3 में ‘भारत में मनुस्मृति की प्रतिष्ठा और प्रामाणिकता’ शीर्षक में प्रमाण ‘च’)
  2. बौद्ध महाकवि अश्वघोष ने अपनी ‘वज्रकोपनिषद्’ रचना में अपने विचारों की पुष्टि के लिए मनु के श्लोकों को उद्धृत किया है। यह राजा कनिष्क [78 ई.] का समकालीन था।1
  3. ईस्वी पूर्व के ग्रन्थों पर दृष्टिपात करते हैं तो, यद्यपि, याज्ञवल्क्य स्मृति में विषयों का वर्गीकण नये ढंग से किया है और बहुत सारे नये विषय भी अपनाये हैं, किन्तु मनु से मिलते हुए जो भी विषय हैं उनमें ऐसा लगता है जैसे मनुस्मृति को सामने रखकर ही उनका अपने शदों में संक्षेपीकरण किया हो।2 इसका काल 102 ई. पू. माना जाता है। इस विषय में सभी विद्वान् एकमत हैं कि मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति से पर्याप्त प्राचीन रचना है।
  4. इसी प्रकार आचार्य कौटिल्य के अर्थशास्त्र को [100-300 ई.पू.] पढ़ने पर प्रतीत होता है कि अपने बहुत-से नये विषयों के प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ प्राचीन बातों के वर्णन में मनुस्मृति को आधार बनाकर वर्णन किया है।3 बहुत-से स्थलों पर मनु के मत का नामपूर्वक उल्लेख है।4 वर्तमान मनुस्मृति में 7.105 पर पाया जाने वाला निन श्लोक कौटिल्य अर्थशास्त्रप्र 10.अ. 14 में लगभग उसी रूप में पाया जाता है-

नास्य छिद्रं परो विद्यात् विद्याच्छिद्रं परस्य तु।

गूहेत्कूर्म   इवांगानि   रक्षेद्विवरमात्मनः॥

  1. भासकृत ‘प्रतिमानाटक’ [200-300 ई.पू., कुछ के मत में 400-500 ई.पू.] में रावण के मुख से उच्चारित वाक्य से यह संकेत मिलता है कि मास से पूर्व ‘मानवधर्म शास्त्र’ एक प्रसिद्धिप्राप्त शास्त्र था। वह वाक्य है-

‘‘रावणः- काश्यपगोत्रोऽस्मि सांगोपांगवेदमधीये मानवीयं

धर्मशास्त्रं, माहेश्वरं योगशास्त्रम्……….च’’ (पृ. 79)

  1. शूद्रकरचित ‘मृच्छकटिकम्’ नाटक को इतिहासकार ई. पू. तीसरी शतादी की रचना मानते हैं। इसमें मनु के किसी ग्रन्थ का श्लोक उद्धृत करते हुए ‘ब्राहमण अवध्य है’ मनु का यह मत मनु के नामोल्लेखपूर्वकदियाहै –

अयं हि पातकी विप्रो न वध्यो मनुरब्रवीत्।        

राष्ट्रादस्मात्तु निर्वास्यो विभवैरक्षतैः सह॥ मृच्छ. 9। 39॥

  1. विश्वरूप [790-850 ई.] ने अपने याज्ञवल्क्य स्मृति-भाष्य और यजुर्वेदभाष्य में मनुस्मृति के लगभग दो सौ श्लोक उद्धृत किये है।1
  2. इससे परवर्ती मिताक्षरा के लेखक विज्ञानेश्वर [1040-1100 ई.] ने भी अपने भाष्य में मनुस्मृति के सैंकड़ों श्लोक उदृत किये हैं।2
  3. शंकराचार्य ने अपने वेदान्तसूत्र भाष्य में मनुस्मृति के कई श्लोक अपने विचारों की पुष्टि के लिए ग्रहण किये और कुछ श्लोकों के साथ तो मनु के नाम का स्पष्ट उल्लेख है।3
  4. 500 ई. में [कुछ के मतानुसार 200-400 ई.] जैमिनिसूत्र भाष्य में शबरस्वामी द्वारा मनु के मतों का उल्लेख किया मिलता है।

मनुस्मृति प्रवक्ता और प्रवचनकाल अन्तःसाक्ष्य के आधार पर: डॉ. सुरेन्द कुमार

  1. मनुस्मृति की शैली-मनुस्मृति के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मनुस्मृति की रचनाशैली ‘प्रवचनशैली’ है, अर्थात् मनुस्मृति मूलतः प्रवचन है। बाद में मनु के शिष्यों ने उनका संकलन करके उसे एक शास्त्र या ग्रन्थ का रूप दिया है। मनुस्मृति के ‘भूमिकारूप’ प्रथम अध्याय के पहले चार श्लोकों के ‘‘मनुम्…..अभिगय महर्षयः …….वचनमब्रुवन् (1। 1),‘‘ भगवन् सर्ववर्णानां……धर्मान्नो वक्तुमर्हसि’’ (1। 2) ‘‘त्वमेको अस्य सर्वस्य…..कार्यतत्त्वार्थवित् प्रभो’’ (1। 3) ‘‘प्रत्युवाच….महर्षीन् श्रूयताम् इति’’ (1। 4) आदि वचनों से ज्ञात होता है कि अपने मूलरूप में मनुस्मृति महर्षियों की जिज्ञासा का महर्षि मनु दिया गया उत्तर है, जो प्रवचनरूप में है। ये सभी श्लोक और विशेषरूप से ‘‘सः तैः पृष्टः’’ (1। 4) पदप्रयोग यह सिद्ध करता है कि इसे बाद में अन्य व्यक्ति ने संकलित किया है। मनुस्मृति की प्रवचन शैली और 1। 1-4 श्लोकों में वर्णित घटना, जिसमें कि महर्षि लोग केवल मनु के पास धर्मजिज्ञासा लेकर आते हैं और फिर मनु ही उसका उत्तर देते हैं, तथा सपूर्ण मनुस्मृति में प्रारभ से अन्त तक मनु द्वारा 1। 4 से प्रारभ की गई कहने-सुनाने की क्रियाओं का उत्तम पुरुष के एकवचन में प्रयोग, ये बातें यह सिद्ध करती हैं कि मनुस्मृति का प्रवक्ता मनु नामक राजर्षि और महर्षि है।
  2. प्राचीन काल से अद्यावधि पर्यन्त इस ग्रन्थ का मनुस्मृति ‘या’ ‘मानवधर्मशास्त्र’ नाम प्रचलित होना भी इसे मनुप्रोक्त सिद्ध करता है।
  3. यह मनु स्वायभुव ही है। इस बात को मनुस्मृति में स्पष्ट भी किया है और विभिन्न स्थलों पर मनु के साथ स्वायभुव विशेषण का प्रयोग भी किया है। प्रचलित मनुस्मृति में बीच-बीच में लगभग तीस स्थलों पर मनु का नामोल्लेखपूर्वक वर्णन है। उनमें छह स्थलों पर स्पष्टतः ‘स्वायभुव’ विशेषण का प्रयोग कियाहै।1 ये उल्लेख भी मनुस्मृति का प्रवक्ता स्वायभुव मनु को ही सिद्ध करते हैं।
  4. निन श्लोकों में मनुस्मृति का रचयिता स्वायंभुव मनु को बतलाया गया है-

    (क)   इदं शास्त्रं तु कृत्वाऽसौ मामेव स्वयमादितः।

          विधिवद् ग्राहयामास मरीच्यादींस्त्वहं मुनीन्॥

          स्वायभुवस्यास्य मनोः षडवंश्या मनवोऽपरे॥

(1॥ 58,61॥

    (ख)   स्वायभुवो मनुर्धीमानिदं शास्त्रमकल्पयत्॥ 1। 102॥

यतोहि भृगु स्वायभुव मनु का शिष्य था। (1। 34-35,3। 194, 12। 2) अतः उसके शिष्य भृगु के वचनों में उल्लिखित मनु भी स्वायभुव मनु ही है, जिसको शास्त्र का कर्त्ता कहा है-

    (ग)   यथेदमुक्तवान् शास्त्रं पुरा पृष्टो मनुर्मया॥ 1। 119॥

    (घ)   एवं स भगवान् देवो लोकानां हिकायया।

          धर्मस्य परमं गुह्यं ममेदं सर्वमुक्तवान्॥12। 117॥

    (ङ)   ‘‘मानवस्यास्य शास्त्रस्य’’ 12। 107॥

    (च)   ‘‘एतन्मानवं शास्त्रम् भृगुप्रोक्तम्’’ 12। 126।

यद्यपि मेरे अनुसन्धानकार्य के आधार पर ये सभी श्लोक प्रक्षिप्त सिद्ध हुए हैं, अतः मौलिकवत् प्रामाणिक नहीं है; किन्तु फिर भी इन्हें ऐतिहासिक सन्दर्भ में पारपरिक जनश्रुति के समान पोषक आधार के रूप में ग्रहण किया है। इन सबमें मनु स्वायभुव को मनुस्मृति का रचयिता कहा गया है।

  1. ऐतिहासिक ग्रन्थ, ब्रह्मावर्त प्रदेश में स्थित बर्हिष्मती नगरी को स्वायभुव मनु की राजधानी मानते हैं। मनुस्मृति में ब्रह्मावर्त प्रदेश को धर्मशिक्षा, सदाचार का केन्द्र घोषित करके सर्वोच्च महत्त्व दिया गया है। [1। 136-139 (2।17-20)]। इसी क्षेत्र में मनुस्मृति का प्रवचन-प्रणयन हुआ था। इससे भी मनुस्मृति का रचयिता स्वायभुव मनु होने का संकेत मिलता है।
  2. मनु के काल का अनुमान लगाने में मनुस्मृति तथा मनुस्मृति से भिन्न भारतीय साहित्य में प्राप्त वंशावलियां भी सहायक हैं। मनुस्मृति में तीन स्थानों पर मनु के वंश की चर्चा है-(क) ब्रह्मा से विराज, विराज से मनु, मनु से मरीचि आदि दश ऋषि उत्पन्न हुए (1। 32-35)। (ख) ब्रह्मा से मनु ने धर्मशास्त्र पढ़ा, मनु से मरीचि, भृगु आदि ने। यह विद्यावंश के रूप में वर्णन है। (1। 58-60)

(ग) हिरण्यगर्भ=ब्रह्मा के पुत्र मनु हैं और मनु के मरीचि आदि। (3। 194)। यद्यपि मनुस्मृति के प्रसंगों में ये तीनों ही स्थल प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं, किन्तु पारपरिक जनश्रुति के रूप में यदि इन्हें स्वीकार करें तो स्वायभुव मनु, पुत्र के रूप में ब्रह्मा से दूसरी पीढ़ी में वर्णित है। यही तथ्य इसके स्वायंभुव (स्वयंभू=ब्रह्मा, उसका पुत्र) विशेषण से स्पष्ट होता है।

महाभारत तथा पुराणों में भी वंशावलियां प्राप्त हैं। उनमें भी मनु को ब्रह्मा का पुत्र बताया गया है अथवा शिष्य के रूप में उसका सीधा सबन्ध ब्रह्मा से वर्णित है (आदि0 1.32; शान्ति0 335.44)।

प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक मान्यताओं के अनुसार ब्रह्मा को आदि सृष्टि में माना जाता है और भारत का प्रत्येक ज्ञात जन्म-वंश तथा विद्या-वंश ब्रह्मा से ही प्रारभ होता है। इस प्रकार मनु और मनुस्मृति का काल भी आदिसृष्टि में स्थिर होता है।

  1. मनुस्मृति और उसकी भाषा – यह कहा जाता है कि मनुस्मृति की भाषा बड़ी सुबोध, सरल लौकिक भाषा है। वह पाणिनि के व्याकरण का अनुगमन करती है। अतः वर्तमान मनुस्मृति पर्याप्त अर्वाचीन है।

यह ठीक है कि मनुस्मृति की भाषा सुबोध और सरल लौकिक भाषा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इस कारण इसको अर्वाचीन भाषा कहा जाये। मनुस्मृति एक धर्मशास्त्र है, जिसका सबन्ध सर्वमान्य रूप से सभी जनों से है। इसमें लोगों के आचार-विचार से सबन्धित निर्देश हैं। अतः ऐसे ग्रन्थ की भाषा का सुबोध, सरल होना स्वाभाविक भी है, और आवश्यक भी। प्राचीन काल में साहित्यिक भाषा के रूप में वैदिक भाषा का प्रयोग था तो व्यवहार में लौकिक संस्कृत का प्रयोग था।

मनुस्मृति में कुछ पूर्वपाणिनीय प्रयोग भी मिलते हैं। इसमें पाये जाने वाले वैदिक प्रयोग और वैदिक प्रयोगशैली, इसे मूलतः पाणिनि पूर्व एवं वैदिकालीन संकलन सिद्ध करते हैं। यथा

    (क) ‘‘मेत्युक्त्वा’’ [8। 57] मे + इत्युक्त्वा’ सन्धि पाणिनीय नहीं है। इसमें इकार का पूर्वरूप छान्दस (वैदिक) है।

(ख) ‘‘हापयति’’ [3.71] का ‘छोड़ता है’ अर्थ है। यहां प्रेरणार्थक न होकर प्रकृत्यर्थ (मूल अर्थ) में ‘णिच्’ छान्दस है।

(ग) 2.169-171 श्लोकों में ‘मौञ्जीबन्धन’ और ‘‘मौञ्जिबन्धन’’ पदों के प्रयोग में विकल्प से ह्रस्व छान्दस प्रयोग है।

(घ) ‘उपनयनम्’ के अर्थ में ‘‘उपनायनम्’’ प्रयोग [2.36] पूर्व पाणिनीय है। यहां दीर्घ को, पाणिनि ने व्याकरणसमत न होते हुए भी शिष्टप्रयोग मानकर ‘‘अन्येषामापि दृश्यते’’ [अष्टा0 6.3.137] सूत्र में स्वीकार कर लिया है।

(ङ) 1.20 में ‘‘आद्याद्यस्य’’ प्रयोग है। यह ‘‘आद्यस्य-आद्यस्य’’ होना चाहिये था, किन्तु पहले ‘आद्यस्य’का सुप् लुक् छान्दस प्रयोग के कारण माना गया है (‘सुपां सुलुक्……’ अष्टा0 7.1, 39)।

    (च) वैदिक भाषा की प्रयोग शैली-‘‘आ हैव स नखाग्रेय :’’ [2.167], ‘‘पुत्रका इति होवाच’’ [2.151] ‘‘पितृणामात्मनश्च ह’’ [9.28] आदि प्रयोग वैदिक शैली के हैं।

इसकी भाषा के विषय में एक संभावना यह भी दिखायी पड़ती है कि पहले इसमें वैदिक प्रयोगों की अधिकता थी, जो धीरे-धीरे बदली जाती रही। क्योंकि यह सर्वसामान्य जनों से सबन्ध रखने वाला ग्रन्थ था, अत : इसकी भाषा में भी समयानुसार परिवर्तन होता रहा। ऐसे उदाहरण हमारे सामने विद्यमान हैं, जिनसे यह संभावना पुष्ट होती है। वाल्मीकि-रामायण के दाक्षिणात्य, वंगीय और पश्चिमोत्तरीय, ये तीन संस्करण प्रसिद्ध हैं एवं प्रचलित हैं। इनमें दाक्षिणात्य पाठ में अभी भी वैदिक प्रयोगों का बाहुल्य है, जबकि अन्य संस्करणों में अधिकांश को बदलकर लौकिक कर दिया गया है। यही स्थिति मनुस्मृति के साथ भी संभव है। ऐसा इसलिए भी संभव प्रतीत होता है कि कालक्र म की दृष्टि से मनु सब ऋषियों से प्राचीन हैं और उनकी स्मृति सर्वाधिक प्रसिद्ध रही है।

  1. मनुस्मृति में केवल वेदों [1। 21, 23; 3। 2; 11। 262-264; 12। 111-112 आदि] और वेदांगों [2। 140, 241] का ही उल्लेख मिलता है। यह उल्लेख भी एक विद्या के रूप में है न कि किसी व्यक्ति-विशेष द्वारा रचित ग्रन्थ के रूप में। इसकी पुष्टि के लिए दो तर्क दिये जा सकते हैं-(क) इन विद्याओं के साथ न तो कहीं रचयिता का संकेत है और न ग्रन्थरूप का। (ख) 12। 111 में इन विद्याओं के ज्ञाताओं का ‘हेतुक : ‘तर्की’ ‘नैरुक्तः धर्मपाठकः’ आदि विद्याविशेषणों से परिगणन किया है, न कि किसी ग्रन्थविशेष के ज्ञाता के रूप में। एक-एक विद्या पर विभिन्न आचार्यों के ग्रन्थ प्राप्त हो रहे हैं। किसी भी ग्रन्थ का उल्लेख न होना और अन्य ब्राह्मण, उपनिषद् आदि विधाओं का उल्लेख न मिलना यह सिद्ध करता है कि यह स्मृति उन सबसे पूर्व की रचना है।

मनुस्मृति का आधार केवल वेद ही हैं। मनु सीधे वेद से विज्ञात बातों को ही धर्मरूप में वर्णित करते हैं और उसी को आधार मानने का परामर्श देते हैं [1.4, 21, 23; 2.128, 129, 130, 132; 12.92-93, 94, 97, 99, 100, 106, 110-112, 113 आदि]। वेद और मनुस्मृति के बीच अन्य किसी ग्रन्थ का उल्लेख न मिलना यह इंगित करता है कि यह मूलतः उस समय की रचना है जब धर्म में केवल वेदों को ही आधारभूत महत्त्व प्राप्त था, अन्य ग्रन्थों को इस योग्य प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं थी। यह समय अत्यन्त प्राचीन ही था।