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शूद्र द्वारा उच्च वर्ण की प्राप्ति का मनुप्रोक्त विधान: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वैदिक अर्थात् मनु की वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था में एक बहुत बड़ा अन्तर यह है कि व्यक्ति को आजीवन वर्णपरिवर्तन की स्वतन्त्रता होती है। वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन हो सकता है जबकि जातिव्यवस्था में जहां जन्म हो गया, जीवनपर्यन्त वही जाति रहती है। मनु की व्यवस्था वर्णव्यवस्था थी, क्योंकि उसमें व्यक्ति को आजीवन वर्ण-परिवर्तन की स्वतन्त्रता थी। इस विषय में पहले मनुस्मृति का एक महत्त्वपूर्ण श्लोक प्रमाणरूप में उद्धृत किया जाता है जो सभी सन्देहों को दूर कर देता है-

(अ)    शूद्र से ब्राह्मणादि और ब्राहमण से शूद्र आदि बनना-

शूद्रो ब्राह्मणताम्-एति, ब्राहमणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च॥ (10.65)

    अर्थात्-‘ब्राह्मण के गुण, कर्म, योग्यता को ग्रहण करके शूद्र, ब्राह्मण बन जाता है और हीन कर्मों से ब्राह्मण शूद्र बन जाता है। इसी प्रकार क्षत्रियों और वैश्यों से उत्पन्न सन्तानों में भी वर्णपरिवर्तन हो जाता है।

(आ) शूद्र द्वारा उच्च वर्ण की प्राप्ति का मनुप्रोक्त विधान-

(क) श्रेष्ठ गुणों को ग्रहण और श्रेष्ठाचरण का पालन करके शूद्र उच्च वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का अधिकारी बन जाता है-

    शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः       मृदुवागनहंकृतः।

    ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥       (9.335)

    अर्थ-तन और मन से शुद्ध-पवित्र रहने वाला, उत्कृष्टों के सान्निध्य में रहने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्तम वर्णों-वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मणों के यहां सेवाकार्य करने वाला शूद्र अपने से उत्कृष्ट=वैश्य, क्षत्रिय या ब्राह्मण वर्ण को प्राप्त कर लेता है, अर्थात् वह जिस वर्ण की योग्यता अर्जित कर लेगा उसी वर्ण को धारण करने का अधिकारी बन जायेगा। (यहां जाति शब्द का अर्थ ‘वर्ण’ है। प्रमाण के लिए इसी अध्याय में देखिए-‘मनुस्मृति में जाति शब्द वर्ण और जन्म का पर्याय’ शीर्षक पृ0 90-91 पर)

(ख) मनुस्मृति में, उपर्युक्त सिद्धान्त को नष्ट करने के लिए इससे पहले एक श्लोक प्रक्षिप्त कर दिया है जिसमें यह दिााया गया है कि वर्णपरिवर्तन सातवीं पीढ़ी में होता है। ऐसा विचार मनु की मान्यता के विरुद्ध है। पीढ़ियों का हिसाब संभव भी नहीं है।

वर्णपरिवर्तन के उदाहरण भी भारतीय प्राचीन इतिहास में मिलते हैं और इस सिद्धान्त की पुष्टि-परपरा भी। मनुस्मृति के उक्त श्लोकों के भावों को यथावत् वर्णित करने वाले श्लोक महाभारत में भी उपलध होते हैं। यहां उस प्रसंग की कुछ पंक्तियां उद्धृत की जा रही हैं जिनसे मनुस्मृति की परपरा की पुष्टि होती है-

‘‘कर्मणा दुष्कृतेनेह स्थानाद् भ्रश्यति वै द्विजः।’’

‘‘ब्राह्मण्यात् सः परिभ्रष्टः क्षत्रयोनौ प्रजायते।’’

‘‘स द्विजो वैश्यतां याति वैश्यो वा शूद्रतामियात्।’’

‘‘एभिस्तु कर्मभिर्देवि,   शुभैराचरितैस्तथा।’’

शूद्रो ब्राह्मणतां याति वैश्यः क्षत्रियतां व्रजेत्।

(महाभारत, अनुशासन पर्व अ0 143, 7, 9, 11, 26)

    अर्थात्-दुष्कर्म करने से द्विज वर्णस्थ अपने वर्णस्थान से पतित हो जाता है।……क्षत्रियों जैसे कर्म करने वाला ब्राह्मण भ्रष्ट होकर क्षत्रिय वर्ण का हो जाता है।……..वैश्य वाले कर्म करने वाला द्विज वैश्य और इसी प्रकार शूद्र वर्ण का हो जाता है। हे देवि! इन अच्छे कर्मों के करने और शुभ आचरण से शूद्र, ब्राह्मणवर्ण को प्राप्त कर लेता है और वैश्य, क्षत्रिय वर्ण को। इसी प्रकार अन्य वर्णों का भी परस्पर वर्ण-परिवर्तन हो जाता है।

(ग) महाभारत का एक अन्य श्लोक जो दो स्थानों पर आया है मनुस्मृति की कर्माधारित वर्णव्यवस्था की पुष्टि करता है तथा कर्मानुसार वर्णपरिवर्तन के सिद्धान्त को प्रस्तुत करता है-

शूद्रे तु यत् भवेत् लक्ष्म द्विजे तच्च न विद्यते।

न वै शूद्रो भवेत् शूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः॥

(वनपर्व 180.19; शान्तिपर्व 188.1)

    अर्थात्-शूद्र में जो लक्षण या कर्म होते हैं वे ब्राह्मण में नहीं होते। ब्राह्मण के कर्म और लक्षण शूद्र में नहीं होते। यदि शूद्र में शूद्र वाले लक्षण न हों तो वह शूद्र नहीं होता और ब्राह्मण में ब्राह्मण वाले लक्षण न हों तो वह ब्राह्मण नहीं होता। अभिप्राय यह है कि लक्षणों और कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति उस वर्ण का होता है जिसके लक्षण या कर्म वह ग्रहण कर लेता है।

(घ) यह परपरा सूत्र-ग्रन्थों में भी मिलती है। आपस्तब धर्मसूत्र में बहुत ही स्पष्ट शदों में उच्च-निन वर्णपरिवर्तन का विधान किया है-

धर्मचर्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।

अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ॥

(1.5.10-11)

    अर्थ-निर्धारित धर्म के आचरण से निचला वर्ण उच्च वर्ण को प्राप्त कर लेता है, उस-उस वर्ण की वैधानिक दीक्षा लेने के बाद। इसी प्रकार अधर्माचरण करने पर उच्च वर्ण निचले वर्ण में चला जाता है, आचरण के अनुसार वर्णपरिवर्तन की वैधानिक स्वीकृति या घोषणा होने के बाद।

वर्णों के नामों का अर्थ एवं व्युत्पत्ति-डॉ सुरेन्द्र कुमार

व्याकरण की भाषा में कहें तो वर्णों के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम यौगिक पद हैं और गुणवाचक हैं। इन नामों में ही इनके कर्त्तव्यों का संकेत निहित है। वैदिक संस्कृत के इन शदों की रचना और व्युत्पत्ति इस प्रकार है-

    (क) ब्राह्मण-‘ब्रह्मन्’ पूर्वक ‘अण्’ प्रत्यय के योग से ‘ब्राह्मण’ पद बनता है। ब्रह्म के वेद, ईश्वर, ज्ञान आदि अर्थ हैं।        ब्रह्मणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन सह वर्तमानः ब्राह्मणः=ब्रह्म अर्थात् वेदपाठी, परमेश्वर के उपासक और ज्ञानी गुण वाले वर्ण या व्यक्ति को ‘ब्राह्मण’ कहा जाता है। जिसमें ये गुण नहीं, वह ब्राह्मण नहीं है।

    (ख) क्षत्रिय-‘क्षत’ पूर्वक ‘त्रै’ धातु से ‘उ’ प्रत्यय होकर ‘क्षत्र’ पद बनता है। क्षत्र ही क्षत्रिय कहलाता है। ‘क्षदति रक्षति जनान् सः क्षत्रः’ = जो प्रजा की सुरक्षा, संरक्षा करता है, उस गुणवाले को ‘क्षत्रिय’ या ‘क्षत्रियवर्ण’ कहते हैं। आज उसे राजा, राजनेता, सेनाधिकारी या सैनिक कहते हैं।

    राजन्य-यह क्षत्रिय का पर्याय है। ‘राजन्’ पूर्वक ‘यत्’ प्रत्यय से यह सिद्ध होता है। प्रजाओं की रक्षा करने वाले ‘राजन्य’ कहलाते हैं। ये प्रजाओं की रक्षा के लिए सदा उद्यत रहते हैं।

    (ग) वैश्य-‘विश’ से ‘यत्’ और ‘अण्’ प्रत्यय होकर ‘वैश्य’ पद की रचना होती है। ‘विशति पण्यविद्यासु सः वैश्यः’ = जो वाणिज्य विद्याओं में प्रविष्ट रहता है, संलग्न रहता है, उस गुण वाले को वैश्यवर्ण या वैश्य कहते हैं। आज उसे व्यापारी कहते हैं। जिसमें ये गुण नहीं वह वैश्य नहीं कहला सकता।

    (घ) शूद्र-‘शु अव्यय पूर्वक ‘द्रु गतौ’ धातु से’ ‘ड’ प्रत्यय के योग से ‘शूद्र’ बनता है ‘शु द्रवति इति’= जो स्वामी की आज्ञा से इधर-उधर आता-जाता है अर्थात् जो सेवा या श्रम का कार्य करता है। अथवा, ‘शुच्-शोके’ धातु से औणादिक ‘रक्’ प्रत्यय और च को द होकर शूद्र शब्द बनता है [उणादि0 2.19]। ‘शोच्यां स्थितिमापन्नः’ = जो अपनी निन जीवन स्थिति से चिन्तायुक्त रहता है कि मैं निन वर्ण का क्यों रहा, उच्च वर्ण का क्यों नहीं हुआ! इस कारण चतुर्थ वर्ण का नाम ‘शूद्र’ है। यह ‘एक-जाति’ अर्थात् एक जन्म वाला (दूसरे ‘विद्या जन्म’ से रहित) होने से अनपढ़ या विधिपूर्वक अशिक्षित होता है। आज उसे सेवक, चाकर, परिचारक, अर्दली, श्रमिक, सर्वेंट, पीयन आदि कहते हैं। विधिवत् शिक्षित और उपर्युक्त तीन वर्णों का कार्य करने वाले शूद्र नहीं कहे जा सकते

    (ङ) डॉ0 अबेडकर का मत-डॉ0 अबेडकर ने मनुस्मृति के श्लोक ‘‘वैश्यशूद्रौ प्रयत्नेन स्वानि कर्माणि कारयेत्’’ (8.418) का अर्थ करते हुए शूद्र का ‘मजदूर’ अर्थ स्वीकार किया है-

‘‘राजा आदेश दे कि व्यापारी तथा मजदूर अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन करें।’’ (अबेडकर वाङ्मय, खंड 6, पृ. 61)

डॉ0 अबेडकर का यह सही अर्थ है। ऐसी मान्यता स्वीकार कर लेने पर ‘शूद्र’ शब्द को घृणास्पद मानने का कोई औचित्य नहीं।

महर्षि मनु द्वारा निर्धारित वर्णों के अनिवार्य कर्तव्य-डॉ सुरेन्द्र कुमार

वेदवर्णित इन मन्त्रों को आधार बनाकर पहले ब्रह्मा ने और फिर मनु ने चार वर्णों (समुदायों) के कर्तव्य -कर्म निर्धारित किये। इसका भाव यह है कि जो व्यक्ति जिस वर्ण का चयन करेगा उसको विहित कर्मों का पालन करना होगा। निर्धारित कर्मों का पालन न करने वाला व्यक्ति उस वर्ण का नहीं माना जायेगा। इसी प्रकार किसी वर्ण-विशेष के कुल में जन्म लेने मात्र से भी कोई व्यक्ति उस वर्ण का नहीं माना जा सकता। जैसे कोई अध्यापन बिना अध्यापक, चिकित्सा बिना डॉक्टर, सेना बिना सैनिक, व्यापार बिना व्यापारी, श्रमकार्य बिना श्रमिक नहीं कहला सकता, उसी प्रकार निर्धारित कर्मों के किये बिना कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नहीं माना जा सकता।

(क)    ब्राह्मण वर्ण का चयन करने वाले स्त्रियों और पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म-

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजन तथा।      

दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥     (1.88)

    अर्थ-ब्राह्मण वर्ण में दीक्षा लेने के इच्छुक स्त्री-पुरुषों के लिए ये कर्तव्य और आजीविका के कर्म निर्धारित किये हैं-‘विधिवत् पढ़ना और पढ़ाना, यज्ञ करना और कराना तथा दान प्राप्त करना और सुपात्रों को दान देना।’ इन कर्मों के बिना कोई ब्राह्मण-ब्राह्मणी नहीं हो सकता।

(ख)    क्षत्रिय वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्रियों-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म-

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।      

विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः॥     (1.89)

    अर्थ-विधिवत् पढ़ना, यज्ञ करना, प्रजाओं का पालन-पोषण और रक्षा करना, सुपात्रों को दान देना, धन-ऐश्वर्य में लिप्त न होकर जितेन्द्रिय रहना, ये संक्षेप में क्षत्रिय वर्ण को धारण करने वाले स्त्री-पुरुषों के कर्तव्य हैं। विस्तार से इनके कर्तव्य मनुस्मृति के अध्याय 7, 8, 9 में बतलाये हैं। वहां देखे जा सकते हैं।

महर्षि दयानन्द ने क्षत्रिय के कर्त्तव्यों के अन्तर्गत ‘इज्या’ शब्द के अर्थ ‘यज्ञ करना और कराना’ दोनों किये हैं (समु0 4)। यह वर्णव्यवस्था के अनुसार सही है। यज्ञानुष्ठान क्षत्रिय और वैश्य भी करा सकते हैं क्योंकि वे प्रशिक्षित और वेदवित् होते हैं, किन्तु वे इसको नियमित आजीविका नहीं बना सकते, क्योंकि वह केवल ब्राह्मण के लिए ही निर्धारित है। इसी प्रकार एक मतानुसार क्षत्रिय और वैश्य अपने तथा अपने से निन वर्ण का उपनयन संस्कार भी करा सकते हैं-

    ‘‘ब्राह्मणस्त्रयाणां वर्णानामुपनयनं कर्त्तुमर्हति, राजन्यो द्वयस्य, वैश्यस्य, शूद्रमपि कुल-गुण-सपन्नं मन्त्रवर्जमुपनीतमध्यापये-दित्येके।’’ (सुश्रुत संहिता, सूत्रस्थान, अ0 2)

अर्थात्-‘ब्राह्मण अपने सहित तीन वर्णों का, क्षत्रिय अपने सहित निन दो का, वैश्य अपने सहित निन एक वर्ण का उपनयन करा सकता है।’ यह संस्कार यज्ञपूर्वक ही होता है।

(ग) वैश्य वर्णेच्छुक स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्तव्य –

पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।    

वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च॥   (1.90)

    अर्थ-पशुओं का पालन-पोषण एवं संवर्धन करना, सुपात्रों को दान देना, यज्ञ करना, विधिवत् अध्ययन करना, व्यापार करना, याज से धन कमाना, खेती करना, ये वैश्य वर्ण को ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म हैं।

(घ) शूद्र वर्णधारक स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म-

एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।      

एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया॥ (1.91)

    अर्थ-परमात्मा ने वेदों में शूद्र वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए एक ही कर्म निर्धारित किया है, वह यह है कि ‘इन्हीं चारों वर्णों के व्यक्तियों के यहां सेवा या श्रम का कार्य करके जीविका करना।’ क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति शूद्र होता है अतः वह सेवा या श्रम का कार्य ही कर सकता है, अतः उसके लिए यही एक निर्धारित कर्म है।

मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था की वेदमूलकता: डॉ सुरेन्द्र कुमार

महर्षि मनु स्वयं स्वीकार करते हैं कि मनुस्मृति में वर्णित गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित वर्णव्यवस्था वेदमूलक है। इसका वर्णन तीन वेदों (ऋग्0 10.90.11-12; यजु0 31.10-11; अथर्व0 19.6.5-6) में पाया जाता है। मनु वेदों को धर्म में परमप्रणाम मानते हैं, अतः उन्होंने वर्णव्यवस्था को वेदों से ग्रहण करके, उसे धर्ममूलक व्यवस्था मानकर अपने शासन में क्रियान्वित किया तथा अपने धर्मशास्त्र के द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित किया।

पाठक इस तथ्य की ओर गभीरतापूर्वक ध्यान दें कि वेदों तथा मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति के प्रसंग में वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है, वर्णस्थ व्यक्तियों की उत्पत्ति का नहीं। वहां यह बतलाया गया है कि किस अंग की समानता के आधार पर किस वर्ण की कल्पना की गई अर्थात् किस वर्ण का कैसे नामकरण किया गया। उत्पत्ति सबन्धी मन्त्रों और श्लोकों की व्याया में अनेक व्यायाकार भ्रमित होकर ब्राह्मण, शूद्र आदि व्यक्तियों की उत्पत्ति वर्णित करते हैं, जो वर्णव्यवस्था के मूल सिद्धान्त के ही विरुद्ध है। वेदमन्त्रों का सही अर्थ इस प्रकार है-

प्रश्न    यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।

         मुखं किमस्य, कौ बाहू, का ऊरू पादौ उच्येते ॥

उत्तर        ब्राह्मणो-अस्य मुाम् आसीद् बाहू राजन्यःकृतः।

         ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्यां शूद्रो अजायत ॥

(ऋग्0 10.90.11-12)

    प्रश्न-प्रश्न है कि (यत् पुरुषं वि-अदधुः) जिसको ‘पुरुष’ कहते हैं, उसकी अथवा समाजरूपी पुरुष की किस प्रतीक के रूप में कल्पना की गयी? वह (कतिधा अकल्पयन्) वह कल्पना कितने प्रकार से की गयी? (अस्य मुां किम्) इस समाज या पुरुष का मुख क्या है? (कौ बाहू) भुजाएं क्या हैं? (का ऊरू, पादौ उच्येते) जंघाएं अर्थात् मध्यमार्ग और पैर क्या कहे जाते हैं?

    उत्तर-इस पुरुष का, अथवा समाजरूपी पुरुष का (ब्राह्मणः मुखम् आसीत्) ब्राह्मण नामक वर्ण मुख = मुखमण्डल हुआ अर्थात् मुखमण्डल के गुणों के आधार पर प्रथम वर्र्ण का ‘ब्राह्मण वर्ण’ नाम रखा गया (बाहू राजन्यः कृतः) भुजा ‘क्षत्रिय वर्ण’ को बनाया गया अर्थात् भुजाओं के गुणों के अनुसार ‘राजन्य=क्षत्रिय वर्ण’ नाम रखा गया (यद् वैश्यः तद् अस्य ऊरू) जो ‘वैश्य वर्ण’ है, वह इसका मध्यभाग या जंघा रूप कहा गया अर्थात् पेट आदि मध्यभाग के गुणों के अनुसार ‘वैश्य वर्ण’ नाम रखा गया (शूद्रः पद्याम् अजायत) ‘शूद्रवर्ण’ पैरों की तुलना से निर्मित हुआ अर्थात् पैरों के गुणों के अनुसार ‘शूद्रवर्ण’ का नाम रखा गया।

    प्रश्न -आपने वर्णव्यवस्था का विधान करने वाले वेदमन्त्रों का अर्थ वर्ण की उत्पत्तिपरक किया है जबकि अन्य व्यायाकार वर्णस्थ व्यक्तियों की उत्पत्तिपरक अर्थ करते हैं। इनमें से किस व्याया को ठीक मानें? मनुस्मृति में किस प्रकार उत्पत्ति बतायी है?

    उत्तर     -यहां प्रस्तुत व्याया ही ठीक तथा शास्त्रानुकूल है। सबसे पहले इसमें वेदों के व्यायाग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण देता हूं। वहां एक आयापिका में वर्णों की उत्पत्ति बतलाते हुए पहले वर्णों की उत्पत्ति ही कही है-

‘‘ब्रह्म वा इदमासीदेकमेव…….तत् असृजत् क्षत्रम्…… स विशमसृजत् सः शौद्रं वर्णमसृजत्।’’ (14.4.2.23-25)

यहां उत्पत्ति-प्रक्रिया में स्पष्टतः वर्णों की उत्पत्ति पहले कही है। तर्क के आधार पर भी उक्त व्याया सही है। इसमें पहला तर्क यह है कि जब पहले वर्ण उत्पन्न होंगे तभी तो व्यक्ति उनमें प्रवेश करेगा। जैसे, पहले आश्रमों, संस्कारों का अविष्कार हुआ। फिर उनमें व्यक्तियों का प्रवेश हुआ। जैसे पहले कक्षा का नाम (मैट्रिक, बी.ए., एम. ए., आचार्य) रखा जाता है। बाद में उसमें प्रवेश होता है। यहां दूसरा तर्क यह है कि उत्पत्ति एक बार ही हुआ करती है। जबकि वर्र्णपरिर्वतन होकर लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र बार-बार बनते रहते हैं। कभी स्वेच्छा से तो कभी दण्डस्वरूप वर्णपतन होता है। यदि ब्राह्मण को मुख से उत्पन्न हुआ कहा जाता है तो वह जब शूद्र घोषित होगा तो दोबारा उसकी उत्पत्ति पैरों से कैसे होगी? वह तो पहले ही उत्पन्न हो चुका है। तीसरा तर्क यह है कि एक वर्ण में करोड़ों लोग हैं, इतनी बड़ी संया में वे कैसे उत्पन्न होंगे? और रोज-रोज कैसे होते रहेंगे? अतः इसे आलंकारिक लाक्षणिक शैली का वर्णन मानना चाहिए। इस प्रकार यहां प्रस्तुत ‘वर्णों की उत्पत्ति’ वाला अर्थ ही तर्कसंगत है।

इस प्रसंग में बहुत-से लोग गलत अर्थ करके और फिर दूसरे उसे पढ़कर भ्रान्ति का शिकार हो जाते है और यह समझते हैं कि पुरुष से सीधे व्यक्तियों की उत्पत्ति बतलायी हैं, अतः वर्णव्यवस्था में सभी लोगों का वर्ण जन्म से ही निर्धारित होता है। यहा्रान्ति अपव्याया से उत्पन्न होती है। महर्षि मनु ने गत वेदमन्त्रों को सही अर्थ में समझा था, अतः उन्होंने भी पहले वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन किया है-

लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुख-बाहूरूपादतः।      

ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्॥  (1.31)

    अर्थ- ‘समाज की विशेष उन्नति-समृद्धि के लिए परमात्मा ने मुख, बाहु, जंघा और पैरों के कार्यों की तुलना से क्रमशः ब्राह्मणवर्ण, क्षत्रियवर्ण, वैश्यवर्ण और शूद्रवर्ण को निर्मित किया। वर्णों का निर्माण करके फिर उनके कर्मों का निर्धारण इस प्रकार किया-

सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः      

मुखबाहूरुपज्जानां पृथक् कर्माण्यकल्पयत्॥     (1.87)

    अर्थ- ‘इस सपूर्ण संसार की सुरक्षा एवं पालन-पोषण के लिए उस महातेजस्वी परमात्मा ने मुख, बाहु, ऊरु और पैरों की तुलना से निर्मित क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों के पृथक्-पृथक् कर्म निर्धारित किये। उसके बाद 1.89-92 में एक-एक वर्ण के कर्मों का वर्णन है। उन कर्मों को अपनाने के बाद ही व्यक्ति फिर उस-उस वर्ण का नाम धारण करता है। क्योंकि बिना वर्णनाम निर्धारित हुए और बिना कर्मों को धारण किये कोई ब्राह्मण नहीं कहला सकता। इसी प्रकार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी नहीं कहला सकते। इस प्रकार वर्णस्थ व्यक्ति बनने का क्रम तो वणर्ोत्पत्ति और कर्म निर्धारण के पश्चात् तीसरे क्रम पर आता है। अतः पहले वर्णोत्पत्ति का होना ही अभीष्ट एवं बुद्धिसंगत है।

एक ही पुरुष से चार वर्णों की उत्पत्ति होने से वर्णों में ऊंच-नीच का भाव भी नहीं हो सकता है। यह केवल योग्यता का क्रम वर्णित है। पैरों के गुणों की समानता से शूद्रवर्ण की उत्पत्ति में भी नीचता या हीनता का भाव नहीं है। वैदिक साहित्य में पूषा देव, पृथ्वी, मन्त्रों की उत्पत्ति पैरों से कही गयी है। क्या इन देवों और मन्त्रों को हम नीच मान लेंगे? इसी प्रकार शूद्र वर्ण में भी नीचता का भाव नहीं समझना चाहिए। (विस्तृत विवेचन अ0 चार में पढ़िए।)

मनुस्मृति में ‘जाति’ शब्द ‘वर्ण’ और ‘जन्म’ का पर्याय: डॉ सुरेन्द्र कुमार

पाठकों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि मनुस्मृति में अनेक श्लोकों में वर्ण के बजाय ‘जाति’ शब्द का प्रयोग है। क्या मनु ‘जाति’ को स्वीकार करते हैं?

(अ) इसका उत्तर पूर्वोक्त ही है कि जाति का ‘जन्मना’ ‘जाति’ अर्थ नहीं है, क्योंकि वर्णव्यवस्था में जन्मना जाति स्वीकार्य नहीं थी और न मनु के समय जातियों का उद्भव ही हुआ था। उस समय ‘जाति’ शब्द भी वर्ण या समुदाय के पर्याय के रूप में ही प्रयुक्त होता था, जैसे-

(क) ‘‘आचार्यस्त्वस्य यां जातिम्……उत्पादयति सावित्र्या।’’

(2.148)

अर्थ-आचार्य बालक-बालिका के जिस वर्ण का गायत्रीपूर्वक निर्धारण करता है।

(ख)    ‘‘जातिहीनांश्च नाक्षिपेत्’’ (4.141)

अर्थ-अपने से निन वर्ण वालों पर कभी कटाक्ष न करे।

(ग) ‘‘मुखबाहूरूपज्जानां या लोके जातयो बहिः।’’  (10.45)

अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्ण-व्यवस्था से जो समुदाय बाहर हैं, वे सब दस्यु हैं।

(घ) ‘‘जातिं वितथेन ब्रुवन् दाप्यः’’ (8.273)

अर्थ-अपना वर्ण झूठ बतलाने वाला दण्डनीय है।

(आ) इसके अतिरिक्त मनुस्मृति में जाति शब्द का प्रयोग ‘जन्म’ के पर्याय रूप में हुआ है ‘जन्मना जाति’ के अर्थ में नहीं। कुछ उदाहरण हैं-

(क) ‘‘एकजातिः’’ = एक जन्म वाला अर्थात् शूद्र वर्ण, जिसका विद्याजन्म रूपी दूसरा जन्म नहीं हुआ (10.4)।

(ख) ‘‘द्विजातिः’’ = जिसके शारीरिक तथा विद्याजन्म, ये दो जन्म हुए हैं, वे वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हैं (10.4)।

(ग) ‘‘जात्यन्धबधिरौ’’ = जन्म से अन्धे और बहरे (9.201)।

(घ) ‘‘जातिं स्मरति पौर्विकीम्’’ = योगी पूर्व जन्म को स्मरण कर लेता है (4.148)

मनुस्मृति के मौलिक प्रसंगों में पठित जाति शब्द का जाति-पांति व्यवस्था से कोई सबन्ध नहीं है।

डॉ अबेडकर के मतानुसार वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के मूलभूत अन्तर: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ. अबेडकर वर्णव्यवस्था एवं जातिव्यवस्था को परस्पर विरोधी मानते हैं और वर्णव्यवस्था के मूलतत्त्वों की प्रशंसा करते हैं। उन्हीं के शदों में उनके मत उद्धृत हैं-

(क) ‘‘जाति का आधारभूत सिद्धान्त वर्ण के आधारभूत सिद्धान्त से मूलरूप से भिन्न है, न केवल मूल रूप से भिन्न है, बल्कि मूल रूप से परस्पर-विरोधी है। पहला सिद्धान्त (वर्ण) गुण पर आधारित है’’ (अबेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ. 81)

(ख) वर्ण और जाति दोनों का एक विशेष महत्त्व है जिसके कारण दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं। वर्ण तो पद या व्यवसाय किसी भी दृष्टि से वंशानुगत नहीं है। दूसरी ओर, जाति में एक ऐसी व्यवस्था निहित है जिसमें पद और व्यवसाय, दोनों ही वंशानुगत हैं, और इसे पुत्र अपने पिता से ग्रहण करता है। जब मैं कहता हूं कि ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया, तब मेरा आशय यह है कि इसने पद और व्यवसाय को वंशानुगत बना दिया।’’ (वही खंड 7, पृ0 169)

(ग) ‘‘वर्ण निर्धारित करने का अधिकार गुरु से छीनकर उसे पिता को सौंपकर ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया।’’ (वही, खंड 7, पृ0 172)

(घ) ‘‘वर्ण और जाति, दो अलग-अलग धारणाएं है। वर्ण इस सिद्धान्त पर टिका हुआ है कि प्रत्येक को उसकी योग्यता के अनुसार, जबकि जाति का सिद्धान्त है कि प्रत्येक को उसके जन्म के अनुसार। दोनों में इतना ही अन्तर है जितना पनीर और खड़िया में।’’ (वही, खंड 1, पृ0 119)

(ङ) ‘‘वर्ण के अधीन कोई ब्राह्मण मूढ़ नहीं हो सकता। ब्राह्मण के मूढ़ होने की संभावना तभी हो सकती है, जब वर्ण जाति बन जाता है, अर्थात् जब कोई जन्म के आधार पर ब्राह्मण हो जाता है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 173)

(च) ‘‘जाति और वर्ण में क्या अन्तर है, जो महात्मा (गांधी) ने समझा है? जो परिभाषा महात्मा ने दी है उसमें मैं कोई अन्तर नहीं पाता हूं। जो परिभाषा महात्मा ने दी है उसके अनुसार तो वर्ण ही जाति का दूसरा नाम है, इसका सीधा कारण यह है कि दोनों का सार एक है अर्थात् पैतृक पेशा अपनाना। प्रगति तो दूर, महात्मा ने अवनति की है। वर्ण की वैदिक धारणा की व्याया करके उन्होंने जो उत्कृष्ट था उसे वास्तव में उपहासप्रद बना दिया है।…..(वह वैदिक वर्णव्यवस्था) केवल योग्यता को मान्यता देती है। वर्ण के बारे में महात्मा के विचार न केवल वैदिक वर्ण को मूर्खतापूर्ण बनाते हैं, बल्कि घृणास्पद भी बनाते हैं। वर्ण और जाति, दो अलग-अलग धारणाएं हैं। अगर महात्मा विश्वास करते हैं, जो वह अवश्य करते हैं कि प्रत्येक को अपना पैतृक पेशा अपनाना चाहिए, तो निश्चित रूप से जातपांत की वकालत कर रहे हैं तथा इसको वर्णव्यवस्था बताकर न केवल परिभाषिक झूठ बोल रहे हैं, बल्कि बदतर और हैरान करने वाली भ्रांति फैला रहे हैं। मेरा मानना है कि सारी भ्रान्ति इस कारण से है कि महात्मा की धारणा निश्चित और स्पष्ट नहीं है कि वर्ण क्या है और जाति क्या है।’’ (वही, खंड 1, पृ0 119)

उपर्युक्त बहुत-से उद्धरणों में हमने देखा कि डॉ0 अबेडकर जाति और वर्ण को बिल्कुल भिन्न मानते हैं और वर्ण को श्रेष्ठ तथा आपत्तिरहित भी मानते हैं। मनु की व्यवस्था भी वर्णव्यवस्था है, जाति व्यवस्था नहीं। फिर भी मनु का विरोध क्यों?

वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के मूलभूत अन्तर: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी व्यवस्थाएं हैं। इतनी विरोधी हैं कि एक की उपस्थिति में दूसरी व्यवस्था का अस्तित्व नहीं रहता। इनके विभाजक मूलभूत अन्तर इस प्रकार हैं-

  1. वर्णव्यवस्था में बालक-बालिका या व्यक्ति किसी भी कुल में उत्पन्न होने के पश्चात् अपनी रुचियों, गुण, कर्म, योग्यता के अनुसार किसी भी इच्छित वर्ण को ग्रहण कर सकता है, जबकि जातिव्यवस्था में जाति का माता-पिता से निर्धारण होने के कारण व्यक्ति किसी अन्य इच्छित जाति को ग्रहण नहीं कर सकता।
  2. वर्णव्यवस्था में वर्णों के निर्धारक तत्त्व गुण, कर्म, योग्यता होते हैं, जबकि जातिव्यवस्था में केवल जन्म ही जाति का निर्धारक तत्त्व होता है। वर्णव्यवस्था में जन्म का कोई महत्त्व नहीं होता, जबकि जातिव्यवस्था में जन्म का सर्वोच्च महत्त्व होता है।
  3. वर्णव्यवस्था में पद और व्यवसाय वंशानुगत होने अनिवार्य नहीं हैं, जबकि जातिव्यवस्था में ये अनिवार्य होते हैं।
  4. वर्णव्यवस्था में व्यक्ति की बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक क्षमताओं के विकास का स्वतन्त्र व खुला अवसर रहता है, जबकि जातिव्यवस्था में वह अवरुद्ध रहता है।
  5. वर्णव्यवस्था में असमानता के आधार पर ऊंच-नीच, स्पृश्य-अस्पृश्य आदि का भेदभाव नहीं होता, जबकि जातिव्यवस्था में इनका अस्तित्व उग्र या शिथिल रूप में अवश्य बना रहता है।
  6. वर्णव्यवस्था में जीवनभर वर्णपरिवर्तन की स्वतन्त्रता बनी रहती है, जबकि जातिव्यवस्था में जहां एक बार जन्म हो गया, जीवनपर्यन्त अनिवार्य रूप से उसी जाति में रहना पड़ता है।
  7. वर्णव्यवस्था में व्यक्ति निर्धारित कर्मों के न करने पर या उनके त्यागने पर वर्ण से अनिवार्यतः पतित हो जाता है, जबकि जातिव्यवस्था में अच्छा-बुरा कुछ भी करने पर उसी जाति का बना रहता है। जैसे-वर्णव्यवस्था में अनपढ़, मूढ़, चोर या डाकू को कभी ब्राह्मण वर्णस्थ नहीं माना जा सकता, जबकि जातिव्यवस्था में अनपढ, मूढ़, चोर या डाकू भी ब्राह्मण ही रहता है और वह उस पतित स्थिति में भी उच्च जातीयता का अभिमान रखता है।
  8. वर्णव्यवस्था में सवर्ण विवाह की प्राथमिकता होते हुए भी समान गुण-कर्म-योग्यता की कन्या से अन्य वर्ण में भी विवाह किया जा सकता है। मनु का कथन है-‘‘स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि’’ (2.238, 240)= ‘श्रेष्ठ स्त्री निनकुल से भी ग्रहण की जा सकती है।’ इस प्रकार वर्णव्यवस्था में अन्तर-वर्ण विवाह (अन्तर-जातीय विवाह) और सहभोज स्वीकार्य होते हैं। जातिव्यवस्था में ये दोनों ही स्वीकार्य नहीं होते।
  9. वर्णव्यवस्था स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक तथा स्वैच्छिक है, जबकि जातिव्यवस्था अस्वाभाविक, अमनोवैज्ञानिक और बलात् आरोपित है।
  10. वर्णव्यवस्था का व्यावहारिक क्षेत्र उदार एवं विस्तृत है, जबकि जातिव्यवस्था का संकीर्ण एवं सीमित।
  11. वर्णव्यवस्था समाज और राष्ट्र में सामुदायिक भावना एवं समरसता उत्पन्न कर दृढ़ता प्रदान करती है, जबकि जातिव्यवस्था विघटन पर विघटन पैदा करती है। जातिव्यवस्था का विघटन असीम है।
  12. वर्णव्यवस्था में शरीर, बुद्धि, मन का सामञ्जस्य बना रहता है, जबकि जातिव्यवस्था में इनका सामञ्जस्य होना सदा संभव नहीं होता।

शारीरिक रंग का वर्णों से सबन्ध : एक भ्रान्ति: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णों की संरचना-प्रक्रिया तथा वर्णव्यवस्था के इतिहास को न जानने-समझने वाले कुछ कथित लेखकों ने जाने या अनजाने में एक भ्रान्ति फैला दी है कि वर्णों का निर्धारण शरीर के वर्ण के आधार पर किया गया था, अथवा होता था। यह भ्रान्ति जिन संदर्भों के आधार पर उत्पन्न हुई है उनको गभीरता से न तो समझा गया है और न उस पर चिन्तन किया गया है। यदि किसी संस्कृत के ग्रन्थ में भी यह बात कही गयी है तो वह भी मिथ्या चिन्तन का परिणाम है।

वस्तुतः, जहां कहीं वर्णों के संदर्भ में शारीरिक वर्णों (रंगों) की चर्चा है वह केवल प्रतीकात्मक है। यह प्रतीकात्मकता पुराकाल में भी रही है और आज भी है। जैसे, तिरंगे ध्वज में तीनों रंग एक-एक विशेषता के प्रतीक हैं। केसरिया त्याग का, सफेद शान्ति का, हरा समृद्धि का प्रतीक है। काला धन, सफेद धन, लाल झंडा, पीत पत्रकारिता, सड़कों पर लगी तीन रंगों की बत्तियां, गाड़ियों पर लगी लाल-पीली हरी बत्तियां आदि सभी प्रतीक हैं किसी भाव या गुण की। आज भी जब यह कहा जाता है कि ‘यह आदमी काले दिल का है’ या ‘बड़ा काला है’ तो उसका अभिप्राय शरीर के रंग से नहीं होता अपितु उसकी प्रकृति की विशेषता को व्यक्त करता है। इसी प्रकार चारों वर्णों की मूल प्रकृति को कभी-कभी रंगों की प्रतीकात्मकता के द्वारा व्यक्त किया जाता रहा है। वहां वर्णानुसार शरीर के रंग से अभिप्राय नहीं है।

वर्णों के साथ शरीर के रंगों का सबन्ध इतिहास-परपरा से भी गलत सिद्ध होता है। विष्णु, लक्ष्मण गौरवर्ण थे, फिर भी क्षत्रिय थे। शिव, राम, कृष्ण, काले रंग के थे, किन्तु क्षत्रिय थे। महर्षि वेदव्यास गहरे काले रंग के थे, किन्तु ब्राह्मण थे। ऐसे अनेक उदाहरण पाये जाते हैं। अतः यह बात सर्वथा गलत है कि रंग के आधार कभी वर्ण-निश्चय किया जाता था। यह संभव भी नहीं है। मनु ने सपूर्ण मनुस्मृति में रंग-आधारित वर्णव्यवस्था के निर्माण की कहीं चर्चा भी नहीं की है। उन्होंने केवल गुण-कर्म-योग्यता को वर्णनिर्धारण का आधार माना है।

महाभारत में जो श्लोक वर्णों के रंग का वर्णन कर रहा है, वह प्रतीकात्मक है। वहां यह कहा गया है कि पहले एक वर्ण ब्राह्मण वर्ण ही था। सभी ब्राह्मण थे। उनमें से रक्तवर्ण क्षत्रिय बने, पीत वैश्य बने, कृष्णवर्ण शूद्र बने। ‘वर्णों (रंगों) के आधार पर वर्ण बने,’ इसका सही अभिप्राय यह स्पष्ट हो रहा है कि स्वभावगत विशेषताओं के आधार पर उनमें से अन्य वर्ण बने। यदि उन श्लोकों का प्रतीकार्थ नहीं मानेंगे तो पहले-पिछले श्लोकों में विरोध उपस्थित होगा। पहले श्लोक में सभी ब्राह्मण-वर्णस्थों को ‘उजले’ रंग का कहा है। जब सभी उजले-गोरे रंग के थे तो उनमें से लाल, पीले, काले कहां से उत्पन्न हो गये? इस विरोध का समाधान प्रतीकार्थ द्वारा ही संभव है। वह श्लोक यह है-

ब्राह्मणानां सितो वर्णः क्षत्रियाणां च लोहितः।

वैश्यानां पीतको वर्णः शूद्राणामसितं तथा॥

(महाभारत, शान्तिपर्व 188.5 तथा आगे)

    अर्थ-‘ब्राह्मणों का उजला (गोरा) रंग है। क्षत्रियों का लाल रंग है। वैश्यों का पीला रंग है। शूद्रों का असित=काला या मैला रंग है।’ यहां सफेद या उजला रंग ज्ञान का, लाल रंग वीरता का, पीला समृद्धि का, और काला अज्ञान का प्रतीक है। आज भी इन विशेषताओं के प्रतीक यही रंग हैं। चारों वर्णों की यह प्रतीकात्मकता ही आधारभूत विशेषता है।

इसकी पुष्टि में एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण उपलध है। शाल्मलि द्वीप नामक देश में तो चारों वर्णों के नाम ही रंगों की प्रतीकात्मकता के आधार पर प्रचलित थे-

शाल्मले ये तु वर्णाश्च वसन्ति ते महामुने॥

कपिलाश्चारुणाः पीताः कृष्णाश्चैव पृथक्-पृथक्।

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चैव यजन्ति ते॥

(विष्णुपुराण 2.4.12, 13)

    अर्थ-यहां ब्राह्मणों का सफेद के स्थान पर भूरा रंग बताया है। कहा है-‘शाल्मलि द्वीप में ब्राह्मणों का कपिल, क्षत्रियों का अरुण, वैश्यों का पीत और शूद्रों का कृष्ण नाम प्रचलित है। वे चारों वर्ण यज्ञानुष्ठान करते हैं।’

भागवतपुराण के निम्नलिखित श्लोक में तो कृष्ण रंग को शूद्र के पर्याय-रूप में ही प्रयुक्त किया है। जो यह सिद्ध करता है कि यह लाक्षणिक नाम है-

‘‘ब्रह्माननं क्षत्रभुजो महात्मा विडूरूरङ्घिश्रितः कृष्णवर्णः’’

(2.1.37)

    अर्थात्-‘उस महान् पुरुष के मुख में ब्राह्मण वर्ण, भुजाओं में क्षत्रिय वर्ण, जंघाओं में वैश्य और चरणों में कृष्णवर्ण अर्थात् शूद्र वर्ण का निवास है।’ यहां स्पष्ट हो रहा है कि वर्णों की मुय प्रकृति के आधार पर यह रंग-आधारित नामकरण प्रचलित हुआ। आज भी व्यक्तियों के कपिल, अरुण, कृष्ण नाम प्रायः मिलते हैं, वस्तुतः वे भूरे, लाल, काले नहीं होते। वहां लाक्षणिक प्रतीकार्थ ही अभिप्रेत हुआ करता है। अतः पाठकों को रंग-आधारित वर्णव्यवस्था की भ्रान्ति में नहीं पड़ना चाहिए। ऐसी भ्रान्ति से ग्रस्त लेखक, बुद्धिमानों में साहित्यज्ञान से रहित और विचारशून्य माने जाते हैं।

वर्णों में जातियों की गणना नहीं-डॉ सुरेन्द्र कुमार

मनु की कर्मणा वर्णव्यवस्था का साधक एक बहुत बड़ा प्रमाण यह है कि मनु ने केवल चार वर्णों का उल्लेख किया है और वर्णों के अन्तर्गत किन्हीं जातियों का परिगणन नहीं किया है। इससे दो तथ्य स्पष्ट होते हैं- एक, मनु के समय जन्मना कोई जाति नहीं थी। दो, जन्म का वर्णव्यवस्था में कोई महत्त्व नहीं था और न उसके आधार पर वर्ण की प्राप्ति होती थी। यदि मनु के समय जातियां होतीं और जन्म के आधार पर वर्ण का निर्धारण होता तो वे उन जातियों का परिगणन अवश्य करते और बतलाते कि अमुक जातियां ब्राह्मण हैं, अमुक क्षत्रिय हैं, अमुक वैश्य हैं और अमुक शूद्र हैं। मनु ने प्रथम अध्याय (1.31, 87-92) में जब वर्णों की उत्पत्ति बतलायी है, तब केवल चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण का उल्लेख किया है। वहां किसी भी जाति की उत्पत्ति का वर्णन या उल्लेख न होना यह सिद्ध करता है कि मनुस्मृति की व्यवस्था से जन्मना जातियों का कोई सबन्ध नहीं था। दशम अध्याय में कुछ जातियों का अप्रासंगिक वर्णन है जो स्पष्टतः बाद में मिलाया गया प्रक्षिप्त प्रसंग है। यदि वह मनुकृत मौलिक होता तो वह प्रथम अध्याय के वर्णोत्पत्ति प्रसंग (1.31, 87-91) में ही वर्णित मिलता।

    निष्कर्ष-मनु का समय अति प्राचीन है। यद्यपि उन्होंने मनुस्मृति में जो आदर्श जीवनमूल्य, मर्यादाएं और धर्म का स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह सार्वभौम एवं सार्वकालिक है, किन्तु जो देश-काल-परिस्थितियों पर आधारित व्यवस्थाएं हैं, वे तदनुसार परिवर्तनीय हैं। मनु ने अपने समय जिस सामाजिक व्यवस्था को ग्रहण किया वह उस समय की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था थी। यही कारण है वह व्यवस्था अत्यन्त व्यापक प्रभाव वाली रही और हजारों वर्षों तक वह विश्व के अधिकांश भाग में प्रचलित रहती रही है। इस कालचक्र में कुछ व्यवस्थाएं अपने मूल स्वरूप को खोकर विकृत हो गयीं। आज राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियां बदलीं, हम राजतन्त्र से प्रजातन्त्र में आ गये। समयानुसार अनेक सामाजिक व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन हुआ। किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि प्राचीनता हमारे लिए पूर्णतः अग्राह्य और अपमान की वस्तु बन गयी। यदि हमारी यही सोच उभरती है तो प्राचीन गौरव से जुड़ी प्रत्येक वस्तु जैसे-महापुरुष, वीर पुरुष, कवि, लेखक, नगर, तीर्थ, भवन, साहित्य, इतिहास सभी कुछ निन्दा की चपेट में आ जायेगा। अपने अतीत से कट जाने वाले समुदाय गौरव के साथ आगे नहीं बढ़ सकते। अतीत की उपेक्षा का अर्थ है भविष्य की उपेक्षा। ‘इतिहास’ नामक विषय के अध्ययन का जिन कारणों से महत्त्व है, वही महत्त्व वर्णव्यवस्था के अध्ययन का है। हमें केवल विरोध के लिए ही अतीत का मूल्यांकन नहीं करना चाहिए, अपितु किसी भी व्यवस्था, वस्तु, व्यक्ति का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जाना चाहिए। वही सही मूल्यांकन माना जा सकता है और वह मूल्यांकन यह है कि मनु की वर्णव्यवस्था कर्म पर आधारित थी जन्म पर नहीं। अतः मनु पर जातिवादी होने का आरोप नितान्त निराधार एवं मिथ्या है।

मनु की वर्णव्यवस्था में जन्म की उपेक्षा: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णव्यवस्था सामाजिक और प्रशासनिक दोनों व्यवस्थाओं का मिला-जुला रूप थी, जो मृत्युपर्यन्त व्यवहृत होती थी, किन्तु यह निर्विवाद रूप से सुनिश्चित है कि वह जन्म के आधार पर निर्णीत नहीं होती थी। ‘जन्म’ उसका निर्णायक तत्त्व नहीं था। वर्णव्यवस्था में ‘जन्म’ गौण अथवा उपेक्षित तत्त्व था। उसकी जातिव्यवस्था से कुछ भी समानता नहीं थी। अतः उसकी जातिव्यवस्था से तुलना करना न्यायसंगत नहीं है। जो लोग ऐसा करते हैं उन्हें वर्णव्यवस्था के वास्तविक या यथार्थ स्वरूप का सही ज्ञान नहीं है या वे सही स्थिति को स्वीकार करना नहीं चाहते।

सपूर्ण मनुस्मृति में महर्षि मनु ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि ब्राह्मण आदि जन्म से होते हैं अथवा ब्राह्मण आदि का पुत्र ब्राह्मण आदि ही हो सकता है। मनु ने निर्धारित कर्मों को करने वाले को ही उस-उस वर्ण का माना है। ब्राह्मण किस प्रकार बनता है? इसका स्पष्ट निर्देश मनु ने निनलिखित श्लोक में दिया है-

       स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।

       महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥     (2.28)

अर्थ-‘विद्याओं के पढ़ने से; ब्रह्मचर्य, सत्यभाषण आदि व्रतों के पालन से, विहित अवसरों पर अग्निहोत्र करने से, वेदों के पढ़ने से, पक्षेष्टि आदि अनुष्ठान करने से, धर्मानुसार सुसन्तानोत्पत्ति से, पांच महायज्ञों के प्रतिदिन करने से, अग्निष्टोम आदि यज्ञ-विशेष करने से मनुष्य का शरीर ब्राह्मण का बनता है।’ इसका अभिप्राय यह है कि इसके बिना मनुष्य ब्राह्मण नहीं बनता।

इसी प्रकार सप्तम अध्याय में राजा के पुत्र को कहीं राजा नहीं कहा है, अपितु उपनयनकृत क्षत्रियवर्णस्थ को राजा होना कहा है (7.2)। ऐसे ही वैश्य भी कृतसंस्कार व्यक्ति होता है, उसके बिना नहीं [9.326 (10.1)]। यदि मनु को वंशानुगत रूप से या जन्म से वर्ण अभीष्ट होते तो वे ऐसा वर्णन नहीं करते, यही कह देते कि ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण होता है, क्षत्रिय का क्षत्रिय, वैश्य का वैश्य और शूद्र का शूद्र होता है। निष्कर्ष यह है कि मनु को जन्म से वर्ण अभिप्रेत नहीं थे।

    मनु, जन्माधारित महत्ताभाव को कितना उपेक्षणीय समझते थे, इसका ज्ञान उस श्लोक से होता है जहां भोजनार्थ अपने जन्म के कुल-गोत्र का कथन करने वाले को उन्होंने ‘वान्ताशी = वमन करके खाने वाला’ जैसे निन्दित विशेषण से अभिहित किया है-

(क) न भोजनार्थं स्वे विप्रः कुलगोत्रे निवेदयेत्।

       भोजनार्थं हि ते शंसन् वान्ताशी उच्यते बुधै॥ (3.109)

    अर्थ – कोई द्विज भोजन प्राप्त करने के लिए अपने कुल और गोत्र का परिचय न दे। भोजन या भिक्षा के लिए कुल और गोत्र का कथन करने वाला ‘‘वान्ताशी’’ अर्थात् ‘वमन किये हुए को खाने वाला’ माना जाता है।

(ख)    वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी।

       एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम्॥   (2.136)

    अर्थ :-वित्त = धनी होना, बन्धु-बान्धव होना, आयु में अधिकता, श्रेष्ठ कर्म, विद्वत्ता, ये पांच समान के मानदण्ड हैं। इनमें बाद-बाद वाला अधिक-समान का पात्र है। अर्थात् सर्वाधिक समाननीय विद्वान् होता है, फिर क्रमशः श्रेष्ठ कर्म करने वाला, आयु में अधिक, बन्धु और धनवान् होते हैं। वैसे यह एक ही प्रमाण पर्याप्त है जो वर्णव्यवस्था में जन्म के महत्त्व को पूर्णतः नकार देता है। यदि जन्म का महत्त्व होता तो यह कहा जाता कि जन्मना ब्राह्मण प्रथम समाननीय है। किन्तु ऐसा नहीं है।

मनु की वर्णव्यवस्था में कर्म का ही महत्त्व है, जन्म का नहीं; इसको सिद्ध करने वाला उनका महत्त्वपूर्ण विधान यह भी है कि कोई बालक यदि निर्धारित आयु सीमा तक उपनयन संस्कार नहीं कराता है और किसी वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त नहीं करता है तो वह आर्यों के वर्णों से बहिष्कृत हो जाता है। जैसे आज की व्यवस्था में निर्धारित आयु तक विद्यालयों में या अन्य शिक्षा संस्थानों में प्रवेश न लेने पर उन्हें प्रवेश नहीं मिलता। तब वह वैधानिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाता। यदि मनु जन्म से वर्ण मानते तो इस प्रतिबन्धात्मक विधान का उल्लेख ही नहीं करते। जो जिस वर्ण में पैदा हो गया, आजीवन वही रहता। न तो उसका वर्णनिर्धारण होता, न वर्ण से पतन होता, न परिवर्तन होता। इससे सिद्ध है कि मनु की वर्णव्यवस्था में जन्म का आधार मुय नहीं है। देखिए श्लोकोक्त विधान-

आषोडशात् ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते।

आद्वाविंशात् क्षत्रबन्धोराचतुर्विंशतेर्विशः॥ (2.38)

अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः।

सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः॥ (2.39)

नैतैरपूतैर्विधिवदापद्यपि   हि   कर्हिचित्।

ब्राह्मान् यौनांश्च सबन्धानाचरेद् ब्राह्मणः सह॥ (2.40)

    अर्थ-‘सोलह वर्ष का होने के बाद ब्राह्मण बनने के इच्छुक बालक का, बाईस वर्ष के बाद क्षत्रिय बनने के इच्छुक का, चौबीस वर्ष के बाद वैश्य बनने के इच्छुक का, उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं रहता। उसके बाद ये सावित्री व्रत (उपनयन) से पतित होकर आर्यवर्णों से बहिष्कृत हो जाते हैं। व्रत का पालन न करने वाले इन पतितों से फिर कोई द्विज अध्ययन-अध्यापन तथा विवाह सबन्धी वैधानिक व्यवहार न करे।’

यहां इस बिन्दु पर ध्यान दीजिए कि मनु ने ‘व्रात्य’ लोगों से वैधानिक सबन्धों का निषेध किया है, सामान्य व्यवहारों का नहीं। इसे हम आज के संदर्भ में यों समझ सकते हैं कि जैसे वैधानिक शिक्षा से वंचित व्यक्ति कहीं औपचारिक प्रवेश नहीं ले सकता किन्तु स्वयं अध्ययन आदि कर सकता है। उसी प्रकार व्रत से पतितों को स्वयं अध्ययन, धर्माचरण आदि का निषेध नहीं था। दूसरी विशेष बात यह है कि उस स्थिति में भी मनु ने उनका सदा-सदा के लिए वर्णग्रहण का मार्ग अवरुद्ध नहीं किया है। यदि वे लोग फिर भी वर्णग्रहण करना चाहें तो उनके लिए यह अवसर था कि वे प्रायश्चित्त के रूप में तीन कृच्छ व्रत करके पुनः उपनयन करा सकते थे (मनु0 11.191-992-, 212-214)। प्रायश्चित्त इसलिए है कि उन्होंने सामाजिक व्यवस्था को भंग किया है, शिक्षा के पवित्र उद्देश्य की उपेक्षा की है, समाज में अज्ञान को बढ़ाने का पाप किया है; अतः उनको पहले इस दोष के लिए खेद अनुभव करने हेतु तथााविष्य में विधानों की दृढ़पालना हेतु प्रायश्चित्त करना चाहिए। यह आत्मा-मन को प्रभावित करने वाली धार्मिक विधि थी। आजकल इस प्रकार के मामलों में कानूनी शपथपत्र लिया जाता है। आजकल यह कानूनी प्रक्रिया है, पहले सामाजिक-धार्मिक प्रक्रिया थी। सामाजिक-धार्मिक प्रक्रिया में अधिक दृढ़ता और ईमानदारी रहती है, कानूनी केवल कागज का टुकड़ा बनकर रह जाता है।

(ई) मनु को जातिव्यवस्थापक मानने से मनुस्मृति-रचना व्यर्थ

यदि मनु को जन्मना जातिव्यवस्था का प्रतिपादक मान लेते हैं तो इसमें मनुस्मृति की रचना का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जायेगा। क्योंकि, मनुस्मृति में पृथक्-पृथक् वर्णों के लिए पृथक्-पृथक् कर्मों का विधान किया गया है। यदि कोई व्यक्ति जन्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कहलाने लगेगा तो वह विहित कर्म करे या न करे, वह उसी वर्ण में रहेगा। जैसा कि आजकल जन्मना जाति-व्यवस्था में है। कोई कुछ भी अच्छा-बुरा कर्म करे, वह वही कहलाता है, जो जन्म से है। उसके लिए कर्मों का विधान निरर्थक है। मनु ने जो पृथक्-पृथक् कर्मों का निर्धारण किया है, वही यह सिद्ध करता है कि वे कर्म के अनुसार वर्णव्यवस्था को मानते हैं, जन्म से नहीं।

जैसे आज भी पढ़ाना कार्य अध्यापक का है, जो पढ़ायेगा वह ‘अध्यापक’ कहलायेगा, सब कोई नहीं। इसी प्रकार चिकित्सा करने वाला ‘डॉक्टर’, वकालत करने वाला ‘वकील’ कहलाता है, अन्य नहीं। इसी तरह मनुस्मृति में निर्धारित कर्म करने वाला ही उस वर्ण का कहलायेगा। निर्धारित कर्म न करने वाला व्यक्ति केवल जन्म के आधार पर ब्राह्मण आदि नहीं कहा जायेगा।