डॉ अम्बेडकर बुद्ध (550 ईसा पूर्व) के लगभग जन्मना जातिव्यवस्था का उदव मानते हैं। यद्यपि तब तक व्यवहार में लचीलापन था किन्तु असमानता का भाव आ चुका था। जातिवादी कठोरता का समय वे पुष्यमित्र शुङ्ग (185 ई0पू0) नामक ब्राह्मण राजा के काल को मानते हैं।
मनु की वर्णव्यवस्था महाभारत काल तक प्रचलित थी, इसके प्रमाण और उदाहरण महाभारत और गीता तक में मिलते हैं। डॉ0 अम्बेडकर ने शान्तनु क्षत्रिय और मत्स्यगंधा शूद्र-स्त्री के विवाह का उदाहरण देकर इस तथ्य को स्वीकार किया है (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 7, पृ0 175, 195)। उससेाी आगे बौद्ध काल तक भी अन्तर-जातीय विवाह और अन्तर-जातीय भोजन का प्रचलित होना उन्होंने स्वीकार किया है कि ‘‘जातिगत असमानता तब तक उभर गयी थी’’ (वही, पृ0 75)। डॉ0 अम्बेडकर यह भी मानते हैं कि ‘‘तब व्यवहार में लचीलापन था। आज की तरह कठोरता नहीं थी’’ (वही, पृ0 75)। उनके मत ध्यानपूर्वक पठनीय हैं-
(क) ‘‘बौद्धधर्म-समय में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था एक उदार व्यवस्था थी और उसमें गुंजाइश थी………किसी भी वर्ण का पुरुष विधिपूर्वक दूसरे वर्ण की स्त्री से विवाह कर सकता था। इस दृष्टिकोण की पुष्टि में अनेक दृष्टान्त उपलध हैं’’ (वही, खंड 7, पृ0 175)।
(ख) ‘‘इन दो नियमों ने जातिप्रथा को जन्म दिया। अन्तर-विवाह और सहभोज का निषेध दो स्तंभ हैं, जिन पर जातिप्रथा टिकी हुई है’’ (वही, खंड 7, पृ0 178)।
(ग) ‘‘वास्तव में जातिप्रथा का जन्म भारत की विभिन्न प्रजातियों के रक्त और संस्कृति के आपस में मिलने के बहुत बाद में हुआ’’(वही, खंड 1, पृ0 67)
(घ) ‘‘बुद्ध ने जातिप्रथा की निंदा की। जातिप्रथा उस समय (550 ई0पू0) वर्तमान रूप में विद्यमान नहीं थी। अन्तर्जातीय भोजन और अन्तर्जातीय विवाह पर निषेध नहीं था। तब व्यवहार में लचीलापन था। आज की तरह कठोरता नहीं थी। किन्तु असमानता का सिद्धान्त, जो कि जातिप्रथा का आधार है, उस समय सुस्थापित हो गया था और इसी सिद्धान्त के विरुद्ध बुद्ध ने एक निश्चयात्मक और कठोर संघर्ष छेड़ा।’’ (वही, खंड 7, पृ0 75)
(ङ) ‘‘जिज्ञासु सहज ही यह पूछेगा कि (185 ई0 पूर्व पुष्यमित्र की क्रान्ति के बाद) ब्राह्मणवाद ने विजयी होने के बाद क्या किया?……….’’ (3) इसने वर्ण को जाति में बदल दिया।………(6) इसने वर्ण-असमानता की प्रणाली को थोप दिया और इसने सामाजिक व्यवस्था को कानूनी और कट्टर बना दिया, जो पहले पारंपरिक और परिवर्तनशील थी।’’ (वही खंड 7, पृ0 157)
(च) ‘‘ब्राह्मणवाद अपनी विजय के बाद मुय रूप से जिस कार्य में जुट गया, वह था वर्ण को जाति में बदलने का कार्य, जो बड़ा ही विशाल और स्वार्थपूर्ण था।’’ (वही खंड 7, पृ0 168)
(छ) डॉ0 अम्बेडकर का स्पष्ट मानना है कि ‘‘तर्क में यह सिद्धान्त है कि ब्राह्मणों ने जाति-संरचना की।’’ (वही, खंड 1, पृ. 29)
(ज) ‘‘उपनयन के मामले में ब्राह्मणवाद ने जो मुय परिवर्तन किया, वह था उपनयन कराने का अधिकार गुरु से लेकर पिता को देना। इसका परिणाम यह हुआ कि चूंकि पिता को अपने पुत्र का उपनयन करने का अधिकार था, इसलिए वह अपने बालक को अपना वर्ण देने लगा और इस प्रकार उसे वंशानुगत बना दिया। इस प्रकार वर्ण निर्धारित करने का अधिकार गुरु से छीनकर उसे पिता को सौंपकर ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया।’’
(वही, खंड 7, पृ0 172)
इससे यह निष्कर्ष निकला कि बौद्धकाल तकाी जाति-व्यवस्था नहीं पनप पायी थी। तब तक प्राचीन वर्णव्यवस्था का ही समाज पर अधिक प्रभाव था। इससे एक निष्कर्ष स्पष्ट रूप से सामने आता है कि हजारों पीढ़ी पूर्व जो आदिपुरुष मनु हुए हैं, उनके समय में जाति-पांति व्यवस्था का नामो-निशानाी नहीं था। उस समय विशुद्ध गुण-कर्म पर आधारित वैदिक वर्ण-व्यवस्था थी, जिसकी डॉ. अम्बेडकर ने गत उद्धरणों में प्रशंसा की है। अतः मनु पर जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूत-अछूत आदि का आरोप किंचित् मात्र भी नहीं बनता। फिर भी मनु का विरोध क्यों?