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डॉ0 अम्बेडकर द्वारा शूद्रों के आर्यत्व का समर्थन-डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर र मनु की मान्यता को उद्धृत करते हुए दृढ़ता से शूद्रों को आर्य तथा सवर्ण मानते हैं। उन्होंने उन लेखकों का जोरदार खण्डन किया है जो शूद्रों को अनार्य औेर ‘बाहर से आया हुआ’ मानते हैं। यह मत उन्होंने दर्जनों स्थानों पर व्यक्त किया है। यहां कुछ प्रमुख मत उद्धृत किये जा रहे हैं-

(क) ‘‘दुर्भाग्य तो यह है कि लोगों के मन में यह धारणा घर कर गयी है कि शूद्र अनार्य थे। किन्तु इस बात में कोई संदेह नहीं है कि प्राचीन आर्य साहित्य में इस सबन्ध में रंच मात्र भी कोई आधार प्राप्त नहीं होता।’’ (डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 319)

(ख) ‘‘धर्मसूत्रों की यह बात कि शूद्र अनार्य हैं, नहीं माननी चाहिए। यह सिद्धान्त मनु तथा कौटिल्य के विपरीत है।’’ (शूद्रों की खोज, पृ0 42)

(ग) ‘‘शूद्र आर्य ही थे अर्थात् वे जीवन की आर्य पद्धति में विश्वास रखते थे। शूद्रों को आर्य स्वीकार किया गया था और कौटिल्य के अर्थशास्त्र तक में उन्हें आर्य कहा गया है। शूद्र आर्य समुदाय के अभिन्न जन्मजात और समानित सदस्य थे।’’ (डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 322)

(घ) ‘‘आर्य जातियों का अर्थ है चार वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। दूसरे शदों में मनु चार वर्णों को आर्यवाद का सार मानते हैं।’’ (वही, खंड 8 पृ0 217)

(ङ) ‘‘मनुस्मृति 10.4 श्लोक (ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः …जो इसी अध्याय के आरभ में उद्धृत है) दो कारणों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। एक तो यह कि इसमें शूद्रों को दस्यु से भिन्न बताया गया है। दूसरे, इससे पता चलता है कि शूद्र आर्य हैं।’’ (वही, खंड 8, पृ0 217 पर टिप्पणी)

(च) ‘‘शूद्र सूर्यवंशी आर्यजातियों के एक कुल या वंश थे। भारतीय आर्य-समुदाय में शूद्र का स्तर क्षत्रिय वर्ण का था।’’

(वही, खंड 13, पृ0 165)

(छ) ‘‘सवर्ण का अर्थ है चारों वर्णों में से किसी एक वर्ण का होना। अवर्ण का अर्थ है चारों वर्णों से परे होना। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सवर्ण हैं।’’ (शूद्रों की खोज, पृ0 15)

(ज) ‘‘जो चातुर्वर्ण्य के अन्तर्गत होते थे, उच्च या निन, ब्राह्मण या शूद्र, उन्हें सवर्ण कहा जाता था अर्थात् वे लोग जिन पर वर्ण की छाप होती थी।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय खंड 6, पृ0 181)

महर्षि मनु की वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्र आर्य और सवर्ण थे, शूद्र सबन्धी इन सिद्धान्तों में डॉ अम्बेडकर र ने मनु का नाम लेकर उनके मत का समर्थन किया है, फिर भी मनु का विरोध क्यों? मनुस्मृति-विरोधियों से इस प्रश्न का उत्तर अपेक्षित है।

मनु की वर्णव्यवस्था के अनुसार शूद्र आर्य और सवर्ण हैं:डॉ सुरेन्द्र कुमार

(अ) मनुस्मृति में वर्णित महर्षि मनु की वर्णव्यवस्था के अनुसार शूद्र आर्य हैं और सवर्ण हैं। मनु की व्यवस्था है कि आर्यों के समाज में चार वर्ण हैं (द्रष्टव्य 10.4 श्लोक)। उन चार वर्णों के अन्तर्गत होने से शूद्रवर्ण सवर्ण भी है और आर्यों के समाज का अंग भी है। मनु ने केवल उस व्यक्ति को अनार्य और असवर्ण माना है जो वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत नहीं है-

       ‘‘वर्णापेतम्…….आर्यरूपमिव-अनार्यम्’’     (10.57)

    अर्थ-‘जो चार वर्णों में दीक्षित न होने से चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था से बाहर है और जो अनार्य है किन्तु आर्यरूप धारण करके रहता है, वह दस्यु है।’

मनु की वर्ण-व्यवस्था में आर्य-अनार्य, सवर्ण-असवर्ण का भेद संभव ही नहीं है, क्योंकि मुयतः चार वर्णों के ही परिवारों से गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार चार वर्ण बनते हैं। चारों वर्णों के व्यक्ति आर्य भी हैं और सवर्ण भी। शूद्र को अनार्य और असवर्ण परवर्ती जातिव्यवस्था में माना गया है; अतः उसका दायित्व मनु का नहीं, जातिवादियों का है। जातिवादियों ने मनु की बहुत-सी व्यवस्थाओं को बदल डाला है, ऐसी ही शूद्र-सबन्धी व्यवस्थाएं हैं। अनभिज्ञ लेखक और पाठक उन्हें मनु की व्यवस्था कहते हैं, यथा-

(क) शिल्प, कारीगरी, कलाकारी आदि कार्य करने वाले जनों को मनु ने वैश्यवर्ण के अन्तर्गत माना है किन्तु जाति व्यवस्थापकों ने उनको शूद्र कोटि में परिगणित कर दिया (10.99, 100)।

(ख) मनु ने कृषि, पशुपालन को वैश्यों का कर्म माना है (1.90)। किन्तु सदियों से ब्राह्मण, क्षत्रिय भी यह कार्य कर रहे हैं, किन्तु उनको जाति व्यवस्थापकों ने वैश्य घोषित नहीं किया, अपितु उल्टे अन्य जातियों के किसानों को शूद्र घोषित कर दिया। इस पक्षपातपूर्णव्यवस्था को मनु की व्यवस्था नहीं माना जा सकता।

शूद्र वर्ण में शूद्र जातियों का उल्लेख नहीं: डॉ सुरेन्द्र कुमार

मनुस्मति में वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति के प्रसंग में केवल चार वर्णों के निर्माण का कथन है और उनके कर्त्तव्यों का निर्धारण है। किसी भी वर्ण में किसी जाति का उल्लेख नहीं है (1.31.87-91)। यही तर्क यह संकेत देता है कि मनु ने किसी जातिविशेष को शूद्र नहीं कहा है और न किसी जातिविशेष को ब्राह्मण कहा है। आज के शूद्र जातीय लोगों ने मनूक्त ‘शूद्र’ नाम को बलात् अपने पर थोप लिया है। मनु ने उनकी जातियों को कहीं शूद्र नहीं कहा।

परवर्ती समाज और व्यवस्थाकारों ने समय-समय पर शूद्र संज्ञा देकर कुछ वर्णों और जातियों को शूद्रवर्ग में समिलित कर दिया। कुछ लोग भ्रान्तिवश इसकी जिमेदारी मनु पर थोप रहे हैं। विकृत व्यवस्थाओं का दोषी तो है परवर्ती समाज, किन्तु उसका अपयश मनु को दिया जा रहा है। न्याय की मांग करने वाले दलित और पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधियों का यह कैसा न्याय है? जब मनु ने वर्णव्यवस्था के निर्धारण में उनकी जातियों का उल्लेख ही नहीं किया है तो वे निराधार क्यों कहते हैं कि मनु ने उनको ‘शूद्र’ कहा है?

वास्तविकता यह है कि मनु के समय जातियां थीं ही नहीं। मनु स्वायंभुव का काल मानवों की सृष्टि का लगभग आदिकाल है। तब केवल कर्म पर आधारित ‘वर्ण’ थे, जाति को कोई जानता ही नहीं था। यदि जातियां होतीं तो मनु यह अवश्य लिखते कि अमुक जातियां शूद्र हैं। किन्तु मनु ने किसी जाति का नाम लेकर नहीं कहा कि यह शूद्रवर्ण की है। दशम अध्याय में अप्रासंगिक रूप से कुछ जातियों की गणना स्पष्टतः बाद की मिलावट है।

डॉ0 अम्बेडकर र ने स्वयं स्वीकार किया है कि भारत में जातियों का उद्भव बौद्धकाल से कुछ पूर्व हुआ था और जन्मना जाति व्यवस्था में कठोरता व व्यापकता पुष्पमित्र शुङ्ग (लगभग 185 ईस्वी पूर्व) के काल में आयी थी। मूल मनुस्मृति की रचना आदिकाल में हो चुकी थी अतः उसमें जातियों का उल्लेख या गणना संभव ही नहीं थी। इस कारण मनुस्मृति जातिवादी शास्त्र नहीं है। जातिवादी शास्त्र न होने से उसमें शूद्रों के प्रति असमान और भेदभाव भी नहीं है।

शूद्रों के सभी विवादों का समाधान : वैदिक वर्णव्यवस्था में: डॉ सुरेन्द्र कुमार

जन्म पर आधारित जाति-पांति व्यवस्था सारे विवादों की जड़ है। उसने समाज में विघटन पैदा करके समाज और राष्ट्र की असीम हानि की है। उसी ने वर्णव्यवस्था को विकृत किया, उसी ने वर्णों में ऊंच-नीच, सवर्ण-असवर्ण, छूत-अछूत आदि का व्यववहार उत्पन्न किया। वैदिक काल में कर्मणा वर्णव्यवस्था में इस प्रकार का भेदभाव नहीं था, मनुष्य-मनुष्य में अमानवीय अन्तर नहीं था। वैदिक साहित्य में हमें जो उल्लेख मिलते हैं उनमें स्पष्ट शदों में सभी मनुष्यों को एक ब्रह्म की सन्तान माना गया है और एक ‘ब्रह्म वर्ण’ से ही अन्य तीन वर्णों की उत्पत्ति मानी है। इस स्थिति में ऊंच-नीच, छूत-अछूत आदि का अवसर ही नहीं था। स्पष्ट है कि भेदभाव का व्यवहार न केवल वर्णव्यवस्था की मूल भावना के विरुद्ध है अपितु भारतीय संस्कृति के भी विरुद्ध है। भेदभाव की संस्कृति एक विकृति है जो वैदिक संस्कृति से मेल नहीं खाती। देखिए, शास्त्र क्या कहते हैं-

(क) शतपथ ब्राह्मण और बृहदारण्यक उपनिषद् की एक आयापिका में यह स्पष्ट किया है कि सभी वर्ण ब्राह्मणवर्ण से ही निष्पन्न हैं-

‘‘ब्रह्म वा इदमासीदेकमेव, तदेकं सन् न व्यभवत्। तत् श्रेयोरूपमत्यसृजत् क्षत्रम्,…..सः नैव व्यभवत्, स विशमसृजत्, ……सः नैव व्यभवत्, सः शौद्रं वर्णमसृजत्।’’ (शतपथ 14.4.2.23-25; बृह0 उप0 1.4. 11-13)

    अर्थात्-‘ब्राह्मण वर्ण ही आरभ में अकेला था। अकेला होने के कारण उससे समाज की चहुंमुखी समृद्धि नहीं हुई। आवश्यकता पड़ने पर ब्राह्मण वर्ण में से तेजस्वी वर्ण क्षत्रियवर्ण का निर्माण किया गया। उससे भी समाज की चहुंमुखी समृद्धि नहीं हुई। आवश्यक जानकर उस ब्राह्मणवर्ण में से वैश्यवर्ण का निर्माण किया। उससे भी समाज की पूर्ण समृद्धि नहीं हुई। तब उस ब्राह्मणवर्ण में से शूद्रवर्ण का निर्माण किया। इन चार वर्णों से समाज में पूर्ण समृद्धि हुई।’

तीनों वर्ण एक ही ब्राह्मण-वर्ण के विकसित रूप हैं, अतः वैदिक वर्णव्यवस्था में कभी किसी वर्ण के साथ जन्म के आधार पर भेदभाव नहीं हुआ। यही वैदिक व्यवस्था मनु की वर्णव्यवस्था है।

(ख) इन्हीं भावों को व्यक्त करने वाला एक अन्य श्लोक है जो वाल्मीकि-रामायण में भी आता है और पाठ भेद से महाभारत में भी। रामायण में कहा है-

एकवर्णाः समभाषा एकरूपाश्च सर्वशः।

तासां नास्ति विशेषो हि दर्शने लक्षणेऽपि वा॥

(उत्तरकाण्ड 30.19.20)

    अर्थात्-आदि समय में सभी लोग एक ब्राह्मण-वर्णधारी ही थे, एक समान भाषा बोलने वाले थे, सभी व्यवहारों में एक सदृश थे। उनके वेश और लक्षणों में किसी प्रकार की भिन्नताएं नहीं थीं।

(ग) महाभारत में भी इसकी पुष्टि करते हुए कहा है-

न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्।

ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्॥

(शान्तिपर्व 188.11)

    अर्थात्-सारा मनुष्य-जगत् एक ब्रह्म की सन्तान है। वर्णों के भेद से इनमें कोई भेद नहीं है। बस, इतना ही अन्तर है कि आदिसृष्टि में ब्रह्मा द्वारा वर्णव्यवस्था निर्मित करने के बाद लोग कर्मों के आधार पर भिन्न-भिन्न वर्ण के नाम से पुकारे जाने लगे।

यह है असली वैदिक वर्णव्यवस्था! इसमें न व्यक्ति में भेदभाव है, न वर्णों में। ब्रह्मा द्वारा निर्धारित यही वर्णव्यवस्था आरभ में प्रचलित थी। ब्रह्मा के पुत्र मनु ने भी इसी को अपने शासन में प्रचलित किया था। मौलिक मनुस्मृति में यही भावना निहित थी। अब प्राप्त मौलिक श्लोकों में भी यही समानता की भावना है। परवर्ती लोगों ने स्वार्थवश प्रक्षेप करके उस भावना को कहीं-कहीं क्षत-विक्षत कर दिया। उस क्षत-विक्षत व्यवस्था को मनुकालीन व्यवस्था नहीं कहना चाहिए। मनु की व्यवस्था तो उपर्युक्त ही है। वही शूद्रों के वर्तमान विवादों को निपटाने की एकमात्र औषध है। उसका संदेश है-सभी एक ईश्वर की सन्तान हैं, सभी एक वर्ण का विकास हैं, सभी महत्त्वपूर्ण हैं, एक पिता की सन्तानों में कोई भेदभाव नहीं है।

शूद्र की पैरों से उत्पत्ति-विषयक आपत्ति का समाधान: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णव्यवस्था के आलोचक और मनु-विरोधी लोग यह आपत्ति करते हैं कि शूद्रों की उत्पत्ति पैरों से क्यों कही गयी? क्योंकि यह बहुत ही अपमानजनक है, और घृणास्पद है।

इस आपत्ति को करने वाले लोग भावुकतावश अपनी अज्ञानता का ही परिचय दे रहे हैं। ऐसा करके वे चार भूलें कर रहे हैं-

  1. वर्णव्यवस्था में शरीरांगों से जो आलंकारिक उत्पत्ति बतलायी गयी है, वह व्यक्तियों की नहीं अपितु वर्णों की है। वर्ण एक बार निर्मित हुआ है, अतः उसकी उत्पत्ति कहना तर्कसंगत है। व्यक्ति तो रोज उत्पन्न होते हैं और करोड़ों की संया में हैं, वे कैसे पैदा होंगे? अतः वह शूद्रवर्ण की प्रतीकात्मक उत्पत्ति है, शूद्र व्यक्ति की नहीं।
  2. वर्तमान में शूद्र कहे जाने वाले लोग स्वयं को आदिकाल से और जन्म से शूद्र मानकर यह आक्रोश प्रकट कर रहे हैं। मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्र तो वह व्यक्ति होता है जो विधिवत् शिक्षित नहीं होता। जो शूद्र रह गया वह पुनः योग्यता अर्जित करके ब्राह्मण आदि बन सकता है। अतः यह उत्पत्ति किसी व्यक्ति या जातिविशेष से संबद्ध नहीं है। दलित लोग भ्रान्तिवश इस नाम को स्वयं पर थोप कर व्यर्थ दुःखी होते हैं। मनु ने उनको कहीं शूद्र नहीं कहा।
  3. आज की भाषा और व्यवहार में भी पैर निन्दित नहीं है। हम चरणस्पर्श करके स्वयं को धन्य मानते हैं। किसी के चरणों में शरण पाकर हम स्वयं को कृतकृत्य समझते हैं। किसी की हम चरणवन्दना करते हैं। किसी के चरणों में सिर नवाते हैं। किसी के चरण दबाते हैं, धोते हैं, चरणामृत लेते हैं। भारतीय परपरा में चरण कभी घृणित नहीं रहा। आज के वातावरण की कुछ रूढ़ियों के आधार पर हमने कुछ धारणाएं बना ली हैं और उनको प्राचीनता पर असंगत रूप से थोप रहे हैं। एक ही शरीर के अंगों में यह भेद कैसे हो सकता है? एक ओर हम स्वयं यह तर्क देते हैं कि एक पुरुष से उत्पन्न चार वर्णों में भेदभाव नहीं हो सकता, तो दूसरी ओर अपनी आपत्ति को सही सिद्ध करने के लिए हम स्वयं मुख, पैर आदि में भेदभाव कर रहे हैं। यदि इस दृष्टि से आरोप लगाते हैं, तो वैश्यों की उत्पत्ति जंघाओं से कही है, क्या जंघाएं उत्तम अंग हैं? फिर तो इस पर वे लोग भी आपत्ति करेंगे। वस्तुतः ऐसा दृष्टिकोण वैदिक वर्णव्यवस्था में कभी नहीं रहा। यह आधुनिक वातावरण की सोच का प्रभाव है।
  4. वैदिक वर्णव्यवस्था में वर्णों की उत्पत्ति कर्मों-व्यवसायों की तुलना के आधार पर है। ऊंच-नीच की भावना उसमें नहीं है। इसकी पुष्टि करने वाले प्रमाण वैदिक साहित्य में मिलते हैं। आपत्तिकर्त्ताओं ने उन संदर्भों का अध्ययन तटस्थ भाव से नहीं किया है। इस कारण उनकी सोच संकीर्ण बनी हुई है।

अब मैं पाठकों के समक्ष उन प्रमाणों को प्रस्तुत करता हूं जो मेरी उपर्युक्त स्थापना को सही सिद्ध करेंगे-

(क) अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थ तैत्तिरीय संहिता में वर्णों के साथ अन्य पदार्थों की भी आलंकारिक उत्पत्ति वर्णित की है। वहां पैरों से निनलिखित पदार्थों की उत्पत्ति एक साथ बतायी है-

    ‘‘एकविंश स्तोम, अनुष्टुप् छन्द, वैराज साम, शूद्र, पशुओं में अश्व।’’(7.1.1.4)

अब देखिए, वैदिक ऋषियों ने शूद्र के साथ ऋग्वेद और सामवेद आदि धर्मग्रन्थों के मन्त्रों की उत्पत्ति भी पैरों से दर्शायी है, क्या यह हीनताबोधक सकती है? अश्व क्या हीन पशु है? क्योंकि वह तेज धावक है, अतः पैरों से तेज चलने की विशेषता के कारण उसकी उत्पत्ति पैर से कही है। इधर-उधर आना-जाना, सेवा-टहल का कार्य पैरों पर आधारित होने के कारण शूद्र की तुलना भी चलने वाले अंग ‘पैर’ से दर्शायी है। इसमें कहीं भी हीनता या घृणा की भावना नहीं है। ध्यान दीजिये, शूद्र यहां वेदमन्त्रों के समकक्ष है।

(ख) प्राचीन ग्रन्थों में इस बात का स्वयं स्पष्टीकरण दिया है कि शूद्र की उत्पत्ति पैरों से क्यों बतलायी जा रही है। तैत्तिरीय संहिता के गत उद्धरण में अश्व और शूद्र की उत्पत्ति पैरों से कही है। क्यों? संहिताकार स्वयं उसका उत्तर देता है-

    ‘‘तस्मात् पादौ उपजीवतः। पत्तो हि असृज्येताम्।’’ (7.1.1.4)

क्योंकि दोनों की जीविका पैरों पर निर्भर है। इस कारण इनकी उत्पत्ति पैरों से कही गयी है। मेरे विचार से इससे अच्छा स्पष्टीकरण अन्य नहीं हो सकता। इसमें व्यवसाय-साय के अतिरिक्त कोई अन्य भावना नहीं है। फिर भी अगर कोई इस विषय पर कुतर्क करता है तो उसका दुराग्रह मात्र ही कहा जायेगा।

(ग) अब पैरों से देवताओं की उत्पत्ति भी देखिए। ऋग्वेद के एक मन्त्र में आलंकारिक उत्पत्ति का विवरण देते हुए कहा है-

         ‘‘पद्यां भूमिः दिशः श्रोत्रात्’’       (10.90.14)

    अर्थ-पैरों से भूमि और कानों से दिशाएं उत्पन्न हुई।’ यहां गुणों की समानता से आलंकारिक वर्णन है। क्या, इसमें कहीं हीनता दिखायी पड़ती है? एक और उदाहरण लीजिए-

    ‘‘सः शौद्रं वर्णमसृजत्, पूषणमियं वै पूषा इयं हीदं

    सर्वं पुष्यति यदिदं किञ्च।’’  (शतपथ ब्रा0 14.4.2.25)

    अर्थात्-उस ब्रह्म-पुरुष ने शूद्रसबन्धी वर्ण को उत्पन्न किया। देवों में पूषा देव को शूद्र के रूप में उत्पन्न किया, क्योंकि वह सबको पालन-पोषण करके पुष्ट करता है।

क्या यहां कहीं हीनभावना या अपमानजनक भावना दिखाई पड़ती है? शूद्र यहां एक वैदिक देव के समकक्ष है। क्योंकि यह उत्पत्ति गुणाधारित तुलना से है, अतः उस देव को ‘शूद्रवर्ण’ बताया है। गुणों में समानता यह है कि पृथ्वी का पोषक रूप=पूषा देव सब पदार्थों को पुष्ट करता है और शूद्र भी अपने श्रम-सेवा से सबको पुष्ट करता है, अतः गुण-कर्म-साय से दोनों शूद्र वर्णस्थ हैं।

(ङ) वर्णों की उत्पत्ति केवल मुख, पैर आदि से ही नहीं बतलायी गयी है, अपितु अन्य आलंकारिक विधियों से भी है, जिसका भाव यह है कि शास्त्रकारों को जहां भी कहीं कोई गुणसाय दिखाई पड़ा, उसी दृष्टि से उसका वर्णन कर दिया। अतः पाठकों को एक उत्पत्ति-प्रकार पर ही आग्रहबद्ध नहीं होना चाहिए। द्रष्टव्य हैं उत्पत्ति के कुछ अन्य प्रकार। तैत्तिरीय ब्राह्मण में तीन वेदों से तीन वर्णों की उत्पत्ति दर्शायी है-

सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्, ऋग्यो जातं वैश्यवर्णमाहुः।

यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुः योनिम्, सामवेदोब्राह्मणानां प्रसूतिः॥

(3.12.9.2)

    अर्थात्-सब मनुष्य ब्रह्म की ही सन्तान हैं। ऋग्वेद से वैश्यवर्ण की उत्पत्ति हुई। यजुर्वेद से क्षत्रिय वर्ण की उत्पत्ति हुई। सामवेद से ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई है।

एक अन्य उत्पत्ति का आलंकारिक वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। वहां ‘भूः’ से ब्राह्मणवर्ण की, ‘भुवः’ से क्षत्रियवर्ण की और ‘स्वः’ से वैश्यवर्ण की उत्पत्ति कही है। (2.1.4.11)

इन प्रमाणों को दर्शाने का अभिप्राय यही है कि केवल एक उत्पत्ति प्रकार को लेकर कोई आग्रह नहीं बनाना चाहिए। ये केवल आलंकारिक वर्णन हैं। उसी संदर्भ में उनको देखना चाहिए।

शूद्र के अर्थ-विषयक गलत धारणाएं: डॉ सुरेन्द्र कुमार

महर्षि मनु और मनुस्मृति के सबन्ध में आज सर्वाधिक ज्वलन्त विवाद शूद्रों को लेकर है। पाश्चात्य और उनके अनुयायी लेखकों तथा डॉ. अम्बेडकर र ने आज के दलितों के मन में यह भ्रम पैदा कर दिया है कि मनु ने अपनी स्मृति में उनको घृणित नाम ‘शूद्र’ दिया है और उनके लिए पक्षपातपूर्ण एवं अमानवीय विधान किये हैं। गत शतादियों में शूद्रों के साथ हुए भेदभाव एवं पक्षपातपूर्ण व्यवहारों के लिए उन्होंने मनुस्मृति को भी जिमेदार ठहराया है। इस अध्याय में मनुस्मृति के आन्तरिक प्रमाणों द्वारा इस तथ्य का विश्लेषण किया जायेगा कि उपर्युक्त आरोपों में कितनी सच्चाई है, क्योंकि अन्तःसाक्ष्य सबसे प्रभावी और उपयुक्त प्रमाण होता है।

सर्वप्रथम ‘शूद्र’ नाम को लेकर जो गलत धारणाएं बनी हुई हैं, उन पर विचार किया जाता है।

(क) जैसे आज की सरकारी सेवाव्यवस्था में चार वर्ण निर्धारित किये हुए हैं-1. प्रथम श्रेणी अधिकारी, 2. द्वितीय श्रेणी अधिकारी, 3. तृतीय श्रेणी कर्मचारी, 4. चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी। इनमें समान, सुविधा, वेतन, कार्यक्षेत्र निर्धारण पृथक्-पृथक् है। इन वर्गों के नामों से सबोधित करने में किसी को आपत्ति भी नहीं होती। इसी प्रकार वैदिक काल में समाज व्यवस्था में चार वर्ग थे जिन्हें ‘वर्ण’ कहा जाता था। किसी भी कुल में जन्म लेने के बाद कोई भी बालक या व्यक्ति अभीष्ट वर्ण के गुण, कर्म, योग्यता को ग्रहण कर उस वर्ण को धारण कर सकता था। उनमें ऊंच-नीच, छूत-अछूत आदि का भेदभाव नहीं था। समान, सुविधा, वेतन (आय), कार्यक्षेत्र का निर्धारण पृथक्-पृथक् था। आज के समान तब भी किसी को वर्णनाम से पुकारने पर आपत्ति नहीं थी, न बुरा माना जाता था। आज हम चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को पीयन, क्लास फोर, सेवादार, अर्दली, श्रमिक, मजदूर, चपरासी, श्रमिक, आदेशवाहक, सफाई कर्मचारी, वाटरमैन, सेवक, चाकर आदि विभिन्न नामों से पुकारते हैं और लिखते हैं, किन्तु कोई बुरा नहीं मानता। इसी प्रकार जन्मना जातिवाद के पनपने से पूर्व ‘शूद्र’ नाम से कोई बुरा नहीं मानता था और न ही यह हीनता या घृणा के अर्थ में प्रयुक्त होता था। वैदिक व्यवस्था में ‘शूद्र’ एक सामान्य और गुणाधारित संज्ञा थी। जन्मना जातिवाद के आरभ होने के बाद, जातिगत आधार पर जो ऊंच-नीच का व्यवहार शुरू हुआ, उसके कारण ‘शूद्र’ नाम के अर्थ का अपकर्ष होकर वह हीनार्थ में रूढ़ हो गया। आज भी हीनार्थ में प्रयुक्त होता है। इसी कारण हमें यह भ्रान्ति होती है कि मनु की प्राचीन वर्णव्यवस्था में भी यह हीनार्थ में प्रयुक्त होता था, जबकि ऐसा नहीं था। इस तथ्य का निर्णय ‘शूद्र’ शद की व्याकरणिक रचना से हो जाता है। उस पर एक बार पुनः विस्तृत विचार किया जाता है। व्याकरणिक रचना के अनुसार शूद्र शद के अधोलिखित अर्थ होंगे-

  1. ‘शु’ अव्ययपूर्वक ‘द्रु-गतौ’ धातु से ‘डः’ प्रत्यय के योग से शूद्र पद बनता है। इसकी व्युत्पत्ति होगी-‘शु द्रवतीति शूद्रः’ = जो स्वामी के कहे अनुसार इधर-उधर आने-जाने का कार्य करता है अर्थात् जो सेवा और श्रम का कार्य करता है। संस्कृत साहित्य में ‘शूद्र’ के पर्याय रूप में ‘प्रेष्यः’=इधर-उधर काम के लिए भेजा जाने वाला, (मनु0 2.32, 7.125 आदि), ‘परिचारकः’=सेवा-टहल करने वाला (मनु0 7.217), ‘भृत्यः’=नौकर-चाकर आदि प्रयोग मिलते हैं। आज भी हम ऐसे लोगों को सेवक, सेवादार, आदेशवाहक, अर्दली, श्रमिक, मजदूर आदि कहते हैं, जिनका उपर्युक्त अर्थ ही है। इस धात्वर्थ में कोई हीनता का भाव नहीं है, केवल व्यवसायबोधक सामान्य शद है।
  2. ‘शुच्-शोके’ धातु से भी ‘रक्’ प्रत्यय के योग से ‘शूद्र’ शद बनता है। इसकी व्युत्पत्ति होती है-‘शोच्यां स्थितिमापन्नः, शोचतीति वा’=जो निनस्तर की जीवनस्थिति में है और उससे चिन्तायुक्त रहता है। आज भी अल्पशिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति को श्रमकार्य की नौकरी मिलती है। वह अपने जीवननिर्वाह की स्थिति को सोचकर प्रायः चिन्तित रहता है। उसे इस बात का पश्चात्ताप होता रहता है कि उच्चशिक्षित होता तो मुझे भी अच्छी नौकरी मिलती। इसी प्रकार प्राचीन वर्णव्यवस्था में जो अल्पशिक्षित या अशिक्षित रहता था उसे भी श्रमकार्य मिलता था। उसी श्रेणी को शूद्रवर्ण कहते थे। उसे भी अपने जीवन स्तर पर चिन्ता उत्पन्न होती थी। इसी भाव को अभिव्यक्त करने वाला ‘शूद्र’ शद है। इस धात्वर्थ में भी हीन अर्थ नहीं है। यह केवल मनोभाव का बोधक है।
  3. महर्षि मनु ने श्लोक 10.4 में शूद्रवर्ण के लिए अन्य एक शद का प्रयोग किया है जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और सटीक है, वह है- ‘एकजातिः’। यह शूद्रवर्ण की सारी पृष्ठभूमि और यथार्थ को स्पष्ट कर देता है। ‘एकजाति वर्ण’ या व्यक्ति वह कहाता है जिसका केवल एक ही जन्म माता-पिता से हुआ है, दूसरा विद्याजन्म नहीं हुआ। अर्थात् जो विधिवत् शिक्षा ग्रहण नहीं करता और अशिक्षित या अल्पशिक्षित रह जाता है। इस कारण उस वर्ण या व्यक्ति को ‘शूद्र’ कहा जाता है। शेष तीन वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ‘द्विजाति’ और ‘द्विज’ कहे जाते हैं; क्योंकि वे विधिवत् शिक्षा ग्रहण करते हुए अभीष्ट वर्ण का प्रशिक्षण प्राप्त करके उस वर्ण को धारण करते हैं। वह उनका दूसरा जन्म ‘‘ब्रह्मजन्म’’= ‘विद्याध्ययन जन्म’ कहाता है। पहला जन्म उनका माता-पिता से हुआ, दूसरा विद्याध्ययन से, अतः वे ‘द्विज’ और ‘द्विजाति’ कहे गये। इस नाम में भी किसी प्रकार की हीनता का भाव नहीं है। मनु का श्लोक है-

       ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः त्रयो वर्णाः द्विजातयः।

       चतुर्थः एकजातिस्तु शूद्रः नास्ति तु पंचमः॥ (10.4)

    अर्थात्-‘वर्णव्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीन वर्ण ‘द्विज’ या ‘द्विजाति’ कहलाते हैं; क्योंकि माता-पिता से जन्म के अतिरिक्त विद्याध्ययन रूप दूसरा जन्म होने से इन वर्णों के दो जन्म होते हैं। चौथा वर्ण ‘एकजाति’ है; क्योंकि उसका केवल माता-पिता से एक ही जन्म होता है, वह विद्याध्ययन रूप दूसरा जन्म नहीं प्राप्त करता। उसी को शूद्र कहते हैं। वर्णव्यवस्था में पांचवां कोई वर्ण नहीं है।’

इसी आधार पर संस्कृत में पक्षियों और दांतों को द्विज कहते हैं, क्योंकि उनके दो जन्म होते हैं। वैदिक संस्कृति में दूसरे जन्म का विशेष महत्त्व है, क्योंकि वही राष्ट्र को कुशल, प्रशिक्षित नागरिक प्रदान करता है, वही आजीविका प्रदान करता है, वही मनुष्य को मनुष्य बनाता है, वही सभी उन्नतियों का मूल कारण है, वही देवत्व और ऋषित्व की ओर ले जाता है। मनु ने कहा है-

       ब्रह्मजन्म ही विप्रस्य प्रेत्य चेह च शाश्वतम्।     (2.146)

    अर्थात्-‘शरीरजन्म की अपेक्षा ब्रह्मजन्म=विद्याध्ययन रूप जन्म ही द्विजातियों का इस जन्म और परजन्म में शाश्वत रूप से कल्याणकारी है।’ ब्रह्म-जन्म को न प्राप्त करने वाला अशिक्षा और अज्ञान से ग्रस्त व्यक्ति जीवन में उन्नति नहीं कर सकता, अतः वह प्रशंसनीय नहीं है। इसी कारण वर्णव्यवस्था में शूद्र को चौथे स्थान पर रखा है और आज भी अशिक्षित व्यक्ति चौथे स्थान पर (चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी) है। इस नाम में भी कोई हीनता का भाव नहीं है। यह केवल शूद्र वर्ण के निर्माण की प्रक्रिया की जानकारी दे रहा है।

(ख) वर्तमान बालिद्वीप (इंडोनेशिया) में पहले चातुर्वर्ण्य व्यवस्था रही है और अब भी कहीं-कहीं व्यवहार है। मनु की व्यवस्था के अनुसार, वहां उच्च तीन वर्णों को ‘द्विजाति’ तथा चतुर्थ वर्ण को ‘एकजाति’ कहा जाता है। वहां के समाज में शूद्र से कोई ऊंच-नीच या छूत-अछूत का व्यवहार नहीं होता। अतः त्रुटि मनु की व्यवस्था में नहीं है। यह त्रुटि भारतीय समाज में जन्मना जातिवाद के उद्भव के कारण आयी है। इसका दोष मनु पर नहीं डाला जा सकता (प्रमाण संया 8, पृ0 16 पर प्रथम अध्याय में द्रष्टव्य है)।

(ग) बाद तक वर्णनिर्धारण का यही नियम पाया जाता है। मनुस्मृति के प्रक्षिप्तसिद्ध एक श्लोक में कहा है-

       शूद्रेण हि समस्तावद् यावत् वेदे न जायते।       (2.172)

    अर्थात्-‘जब तक कोई वेदाध्ययन नहीं करता तब तक वह शूद्र के समान है, चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो।’

(घ) पुराणकाल तकाी यही नियम था –

‘‘जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते।’’

(स्कन्दपुराण, नागरखण्ड 239.31)

    अर्थात्-प्रत्येक बालक, चाहे किसी भी कुल में उत्पन्न हुआ हो, जन्म से शूद्र ही होता है। उपनयन संस्कार में दीक्षित होकर विद्याध्ययन करने के बाद ही द्विज बनता है।

(ङ) अशिक्षित होना ही शूद्र की पहचान है। मनु का एक अन्य श्लोक इसकी पुष्टि करता है-

यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्।

नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः॥ (2.126)

    अर्थ-‘जो द्विज अभिवादन करने वाले को उत्तर में विधिपूर्वक अभिवादन नहीं करता अथवा अभिवादन-विधि के अनुसार अभिवादन करना नहीं जानता, उसको अभिवादन न करें क्योंकि वह वैसा ही है जैसा शूद्र होता है।’ इस श्लोक से दो तथ्य प्रकट होते हैं-एक, शूद्र शिक्षित और शिक्षितों की विधियों को जानने वाले नहीं होते अर्थात् अशिक्षित होते हैं। दो, इन कारणों से कोई भी द्विज ‘शूद्र’ घोषित हो सकता है अर्थात् उसका उच्चवर्ण से निनवर्ण में पतन हो सकता है, यदि उसका आचार-व्यवहार शिक्षित वर्णों जैसा नहीं है।

(च) मनु की पूर्वोक्त व्युत्पत्तियों की पुष्टि शास्त्रीय परपरा से भी होती है। उनमें भी हीनता का भाव नहीं है। ब्राह्मण ग्रन्थों में शूद्र की उत्पत्ति ‘असत्’ से वर्णित की है। यह बौद्धिक गुणाधारित उत्पत्ति है-

    ‘‘असतो वा एषः सभूतः यच्छूद्रः’’ (तैत्ति0 ब्रा0 3.2.3.9)

    अर्थात्-‘‘यह जो शूद्र है, यह असत्=अशिक्षा (अज्ञान) से उत्पन्न हुआ है।’’ विधिवत् शिक्षा प्राप्त करके ज्ञानी व प्रशिक्षित नहीं बना, इस कारण शूद्र रह गया।

(छ) महाभारत में वर्णों की उत्पत्ति बतलाते हुए शूद्र को ‘परिचारक’ = ‘सेवा-टहल करने वाला’ संज्ञा दी है। उससे जहां शूद्र के कर्म का स्पष्टीकरण हो रहा है, वहीं यह भी जानकारी मिल रही है कि शूद्र का अर्थ परिचारक है, कोई हीनार्थ नहीं। श्लोक है-

मुखजाः ब्राह्मणाः तात, बाहुजाः क्षत्रियाः स्मृताः।

ऊरुजाः धनिनो राजन्, पादजाः परिचारकाः॥

(शान्तिपर्व 296.6)

    अर्थ- मुखमण्डल की तुलना से ब्राह्मण, बाहुओं की तुलना से क्षत्रिय, जंघाओं की तुलना से धनी=वैश्य, और पैरों की तुलना से परिचारक=सेवक (शूद्र) निर्मित हुए।

    (ज) डॉ0 अम्बेडकर र का मत-डॉ0 अम्बेडकर र ने मनुस्मृति के श्लोक ‘‘वैश्यशूद्रौ प्रयत्नेन स्वानि कर्माणि कारयेत्’’ (8.418) के अर्थ में शूद्र का अर्थ ‘मजदूर’ माना है- ‘‘राजा आदेश दे कि व्यापारी तथा मजदूर अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन करें।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 6, पृ0 61)। यह अर्थ भी हीन नहीं है।

मनु के और शास्त्रों के प्रमाणों से यह स्पष्ट हो गया है कि जब शूद्र शद का प्रयोग हुआ तब वह कर्माधरित या गुणवाचक यौगिक था। उसका कोई हीनार्थ नहीं था। मनु ने भी शूद्र शद का प्रयोग गुणवाचक किया है, हीनार्थ या घृणार्थ में नहीं। शूद्र नाम तब हीनार्थ में रूढ़ हुआ जब यहां जन्म के आधार पर जाति-व्यवस्था का प्रचलन हुआ। हीनार्थवाचक शूद्र शद के प्रयोग का दोष वैदिककालीन मनु को नहीं दिया जा सकता। यदि हम परवर्ती समाज का दोष आदिकालीन मनु पर थोपते हैं तो यह मनु के साथ अन्याय ही कहा जायेगा। अपने साथ अन्याय होने पर आक्रोश में आने वाले लोग यदि स्वयं भी किसी के साथ अन्याय करेंगे तो उनका वह आचरण किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जायेगा। वे लोग यह बतायें कि जिस दोष के पात्र मनु नहीं है, उन पर वह दोष उन थोपने का अन्याय वे क्यों कर रहे है? क्या, उनकी यह भाषाविषयक अज्ञानता और इतिहास विषयक अनभिज्ञता है अथवा केवल विरोध का दुराग्रह?

 

मनु की वर्णव्यवस्था की विशेषताएं: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वैदिक वर्णव्यवस्था एक मनोवैज्ञानिक एवं समाज-हितकारी व्यवस्था थी। जैसा कि महर्षि मनु ने (1.31, 87-91 में) स्वयं कहा है, वह निश्चय ही समाज को सुरक्षित और व्यवस्थित करके उसकी प्रगति और उन्नति करने वाली व्यवस्था है। उसकी विशेषताएं थीं –

  1. मनोवैज्ञानिक आधार-वर्णव्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों, रुचियों, योग्यताओं का और तदनुसार प्रशिक्षण का ध्यान रखा गया है। प्रत्येक मनुष्य में ये भिन्नताएं स्वाभाविक हैं। प्रत्येक को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के आधार पर कार्यचयन का अवसर प्रदान किया गया है। इसमें महाविद्वान् से लेकर अनपढ़ तक, सबको कार्य का अवसर प्राप्त है। एक के कार्य में दूसरे के हस्तक्षेप की अनुमति नहीं है।
  2. कार्यसिद्धान्त का समान महत्त्व-मनुस्मृति की व्यवस्था ऐसे कार्यसिद्धान्त पर आधारित है जिसमें चारों वर्णों के कार्यों का समान और अनिवार्य महत्त्व है। जैसे शरीर के लिए मुख, बाहु, उदर, पैर सबका समान महत्त्व है और किसी एक के बिना शरीर अपंग हो जाता है, उसी प्रकार समाजरूपी पुरुष के लिए चारों वर्णों का महत्त्व है। किसी एक के बिना वह अपंग है। अतः चारों वर्ण अपने कार्यों से समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। सबका कार्य अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण है।
  3. शक्ति का विकेन्द्रीकरण एवं संतुलन-मनुस्मृति में शक्तियों का विकेन्द्रीकरण करके, साी वर्णों में शक्तियों को बांटकर समाज में शक्ति-संतुलन स्थापित किया गया है। सभी वर्णों की शक्तियां और अधिकार सुनिश्चित हैं। वर्णव्यवस्था में किसी एक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह के पास असीमित शक्ति का संग्रह नहीं हो सकता। विविध शक्तियों का एक स्थान पर संग्रह होना ही समाज में असन्तुलन, अन्याय, अत्याचार, अभाव को पैदा करता है। अतः वर्णव्यवस्था ने ज्ञान, बल, धन और श्रम को पृथक्-पृथक् किया है। भारत में जब तक वर्णव्यवस्था रही कभी समाज में शक्ति का असन्तुलन नहीं हुआ। सबके लिए काम था। सबकी मूल आवश्यकताएं पूर्ण होती थीं।

आज ही कथित श्रेष्ठ व्यवस्था का उदाहरण लीजिए। व्यवसाय- स्वतन्त्रता के नाम पर आज कोई भी एक व्यक्ति या व्यक्तिसमूह ज्ञान, धन, बल और श्रम का अपरिमित संग्रह कर सकता है। एक ही व्यक्ति अनेक व्यवसायों पर नियन्त्रण कर लेता है। उसका दुष्परिणाम यह होता है कि तुलना में उतने ही व्यक्ति या परिवार व्यवसाय से वंचित हो जाते हैं। अनेक प्रकार की शक्तियां एकत्र करके वह व्यक्ति व्यवसाय तक सीमित नहीं रहता, अपितु साथ ही शासन, प्रशासन और समाज को अपने हितों के लिए नियन्त्रित करना आरभ कर देता है। वह मनमानियां भी करता है। एक स्थान पर अनेक व्यवसायों की शक्ति का संग्रह होने के परिणामस्वरूप गरीब, अधिक गरीब और शक्तिहीन हो रहे हैं। शक्तिसपन्न लोग अधिक शक्तिसपन्न हो रहे हैं। समाज में दो ही वर्ग बनते जा रहे हैं-पूंजीपति और गरीब। लोकतन्त्र होते हुएाी शक्ति-सपन्नों का राज्य है। वे प्रायः निरंकुश हैं, कानून की पकड़ से बाहर हैं। वर्णव्यवस्था वाले समाज में ज्ञान में ब्राह्मणों का वर्चस्व था, बल में क्षत्रियों का, धन में वैश्यों का, श्रम में शूद्रों का। ब्राह्मणों पर क्षत्रियों का अंकुश था और क्षत्रियों पर ब्राह्मणों का। वैश्य-शूद्रों पर भी राज्य का अंकुश था और राज्य पर वैश्यों का। एक वर्ण के व्यवसाय में दूसरा वर्ण हस्तक्षेप नहीं कर सकता था, अतः रोजगार के अधिक अवसर थे।

  1. विशेषज्ञ बनाने की पद्धति-वर्णव्यवस्था की पद्धति से शिक्षित-दीक्षित होकर जो व्यक्ति निकलते हैं वे अपने-अपने कर्मों में कुशल प्रशिक्षित अर्थात् विशेषज्ञ नागरिक होते हैं। ऐसे विशेषज्ञों से कोई भी समाज सदा उन्नति ही करेगा। प्रत्येक क्षेत्र के कार्यों में निरन्तर प्रगति होती रहेगी।
  2. विशेषता का हस्तान्तरण-मनुस्मृति में विहित व्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता से है। किन्तु इसमें यह भी स्वतन्त्रता है कि कोई बालक अपने माता-पिता के व्यवसाय को अपना सकता है। इस प्रकार विशेषज्ञता पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती जाती है। इससे विशेषज्ञता और विकासदर दोनों बढ़ती हैं। इसी विशेषता के कारण प्राचीनाारत में प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति हुई।
  3. कठोरता और लचीलेपन का समन्वय-वर्णव्यवस्था पद्धति में सभी के अधिकार, कर्तव्य और व्यवसाय निर्धारित हैं। जब तक व्यक्ति किसी वर्ण में रहता है, उसे कठोरता से उसके नियमों का पालन करना पड़ता है। उसके भंग करने पर राजदण्ड की व्यवस्था है।

किन्तु यदि कोई व्यक्ति वर्णपरिवर्तन करना चाहता है तो उसे इसकी छूट है। वह जिस वर्ण में जाना चाहता है उसकी आवश्यक योग्यता प्राप्त करके उस वर्ण को ग्रहण कर सकता है।

  1. वर्णव्यवस्था के मूल तत्त्व विश्व की सभी व्यवस्थाओं के अपरिहार्य तत्त्व-क्या हम वर्णव्यवस्था के मूल तत्त्वों की उपेक्षा कर सकते हैं? कदापि नहीं। जैसा कि बार-बार कहा गया है कि मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था के आधारभूत तत्त्व हैं-गुण, कर्म, योग्यता। मनु व्यक्ति अथवा वर्ण को महत्त्व और आदर-समान नहीं देते अपितु वर्णस्थ गुणों को देते हैं। जहां इनका आधिक्य है, उस व्यक्ति और वर्ण का महत्त्व और आदर-समान अधिक है, न्यून होने पर न्यून है। आज तक संसार की कोई भी सय व्यवस्था इन तत्त्वों को न नकार पायी है और न नकारेगी। इनको नकारने का अर्थ है-अन्याय, असन्तोष, आक्रोश, अव्यवस्था और अराजकता। मुहावरों की भाषा में इसी स्थिति को कहते हैं ‘घोड़े-गधे को एक समझना’ या ‘साी को एक लाठी से हांकना।’ उसका परिणाम यह होता है कि कोई भी समाज या राष्ट्र न विकास कर सकता है, न उन्नति; न समृद्ध हो सकता है, न सपन्न; न सुखी हो सकता है, न संतुष्ट; न शान्त रह सकता है, न अनुशासित; न व्यवस्थित रह सकता है, न अखण्डित। उक्त गुणों से रहित व्यवस्था अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकती। वर्तमान में निश्चित सर्वसमानता का दावा करने वाली सायवादी व्यवस्थााी इन तत्त्वों से स्वयं को पृथक् नहीं रख सकी है। उसमें भी गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार पद और सामाजिक स्तर हैं। उन्हीें के अनुरूप वेतन, सुविधा और समान में अन्तर हैं। वर्णव्यवस्था के मूल तत्वों को विश्व की कोई व्यवस्था नकार नहीं सकती।

वर्णव्यवस्था की वर्तमान में प्रासंगिकता: डॉ सुरेन्द्र कुमार

इस युग में वर्णव्यवस्था की प्रासंगिकता पर बार-बार चर्चा उठती है। साथ ही यह प्रश्नाी उत्पन्न होता है कि क्या वर्तमान में वर्णव्यवस्था लागू हो सकती है? इसका उत्तर यह है कि यदि कोई शासनतन्त्र इसमें रुचि ले तो हो सकती है। जैसे मुस्लिम देशों में शरीयत प्रणाली का शासन आज भी लागू कर दिया जाता है। वर्णव्यवस्था प्रणाली तो बहुत ही मनोवैज्ञानिक और समाज-हितकारी व्यवस्था है। इससे समाज की निश्चय ही योजनाबद्ध रूप से उन्नति होती रही है और हो सकती है। प्राचीन काल में भारत जो विद्या, धन और बल में विश्व में सर्वोपरि था, वह इसी वैदिक वर्णव्यवस्था के अर्न्तगत रहकर था। महर्षि मनु के समय यह देश ‘विश्वगुरु’ था और अन्य देशों के जन यहां शिक्षा प्राप्त करने आते थे-

एतद्देशप्रसूतस्य     सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥ (2.20)

    अर्थ-समस्त पृथिवी के मनुष्य आयें और इस भारतभू पर उत्पन्न विद्वान् एवं सदाचारी ब्राह्मणों के समीप रहकर अपने-अपने योग्य कर्त्तव्यों-व्यवसायों की शिक्षा प्राप्त करें।

उस समय यह देश न केवल विद्या में ‘विश्वगुरु’ था अपितु धन-ऐश्वर्य में ‘स्वर्णभूमि’ और ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। बल-पराक्रम में अजेय था। कभी इसकी ओर आंख उठाकर देखने की किसी की हिमत नहीं हुई। यह व्यवस्था आदिपुरुष ब्रह्मा से लेकर महाभारत काल के बाद तक रही। इसी व्यवस्था में रहकर ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि जैसे विद्याविशेषज्ञ ऋषि हुए। स्वायभुव मनु, वैवस्वत मनु, जनक, अश्वपति जैसे राजर्षि; मय, त्वष्टा और विश्वकर्मा जैसे वास्तुकार; नल, नील जैसे सेतुविशेषज्ञ; वाल्मीकि, व्यास, कालिदास जैसे महाकवि; चरक, सुश्रुत, धन्वंतरि, वाग्भट्ट जैसे आयुर्वेदज्ञ; राम, कृष्ण जैसे पुरुषोत्तम; अर्जुन, कर्ण जैसे धनुर्धारी; वीर हनुमान जैसे शस्त्र और शास्त्रनिपुण, ऋषि भारद्वाज जैसे विमानविद्या विशेषज्ञ; आर्यभट्ट जैसे खगोलविद्, षड्दर्शनकारों जैसे अद्भुत चिन्तक उत्पन्न हुए थे।

देश का सर्वतोमुखी पतन तो तब हुआ जब यहाँ जन्मना जातिवाद का बोलबाला हो गया और अधिकांश समाज अज्ञानी हो गया और जातियों में विभाजित हो गया। इस जातिवाद को कर्मणा व्यवस्था की भावना ही मिटा सकती है। मैं तो इस बात को बल देकर कहना चाहूंगा कि जातिवादी व्यवस्था न तो वैदिक व्यवस्था है और न आर्यों की व्यवस्था। स्वयं को आर्य या वैदिक कहने वाले व्यक्तियों को या तो जन्मना जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूआछूत को छोड़ देना चाहिये अथवा स्वयं को आर्य या वैदिक कहना छोड़ देना चाहिये। जब से ये भावनाएं रही हैं देश-जाति की हानि ही हुई है, और जब तक रहेंगी और अधिक हानि होती रहेगी। इनको छोड़ने पर ही वास्तविक एकता और विकास हो सकेगा।

जन्मना जातिवाद : वर्णव्यवस्था का विकृत रूप डॉ अम्बेडकर का मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर ने निनलिखित उल्लेखों में जातिव्यवस्था को वर्णव्यवस्था का विकृत या भ्रष्ट रूप माना है, जो बिल्कुल सही मूल्यांकन है। जो यह कहा जाता है कि जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था से विकसित हुई है, यह सरासर गलत है क्योंकि दोनों परस्परविरोधी व्यवस्थाएं हैं। डॉ0 अम्बेडकर विकास की धारणा को बकवास मानते हुए लिखते हैं-

(क) ‘‘कहा जाता है कि जाति, वर्ण-व्यवस्था का विस्तार है। बाद में मैं बताऊंगा कि यह बकवास है। जाति वर्ण का विकृत स्वरूप है। यह विपरीत दिशा में प्रसार है। जात-पात ने वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरह विकृत कर दिया है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 181)

(ख) ‘‘जातिप्रथा, चातुर्वर्ण्य का, जो कि हिन्दू आदर्श है, एक भ्रष्ट रूप है।’’ (वही, खंड 1, पृ0 263)

(ग) ‘‘अगर मूल वर्णपद्धति का यह विकृतीकरण केवल सामाजिक व्यवहार तक सीमित रहता, तब तक तो सहन हो सकता था। लेकिन ब्राह्मण धर्म इतना कर चुकने के बाद भी संतुष्ट नहीं रहा। उसने इस चातुर्वर्ण्य पद्धति के परिवर्तित तथा विकृत रूप को कानून बना देना चाहा।’’ (वही, खंड 7, पृ0 216)

(आ) मनु जातिनिर्माता नहीं : डॉ0 अम्बेडकर का मत-

    कभी-कभी मनुष्य के हृदय से सत्य स्वयं निकल पड़ता है। डॉ0 अम्बेडकर के हृदय से भी ये निष्पक्ष शब्द एक समय निकल ही पड़े-

    (क) ‘‘एक बात मैं आप लोगों को बताना चाहता हूं कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया और न वह ऐसा कर सकता था। जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी।’’

(डॉ0 अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ0 29)

    (ख) कदाचित् मनु जाति के निर्माण के लिए जिमेदार न हो, परन्तु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश दिया है। वर्णव्यवस्था जाति की जननी है और इस अर्थ में मनु जातिव्यवस्था का जनक नाी हो, परन्तु उसके पूर्वज होने का उस पर निश्चित ही आरोप लगाया जा सकता है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 43)

कोई कितनााी आग्रह करे, किन्तु यह निश्चित है कि डॉ0 अम्बेडकर ने उक्त वाक्य लिाकर किसी एक मनु को ही नहीं, अपितु सभी मनुओं को जाति-व्यवस्था के निर्माता के आरोप से सदा-सदा के लिए मुक्त कर दिया है। इसके बाद जातिवाद के नाम पर मनु का विरोध करने का कोई औचित्य ही नहीं बनता।

जन्मना जातिवाद : वर्णव्यवस्था का विकृत रूप: डॉ सुरेन्द्र कुमार

यह निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि जन्मना जातिव्यवस्था वर्णव्यवस्था से विकसित व्यवस्था नहीं है अपितु उसकी विकृत व्यवस्था है। इसको मनु स्वायभुव के साथ कदापि नहीं जोड़ा जा सकता। यह बताया जा चुका है कि वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्परविरोधी व्यवस्थाएं हैं। एक की उपस्थिति में दूसरी नहीं टिक सकती। इनके अन्तर्निहित अर्थभेद को समझकर इनके मौलिक अन्तर को आसानी से समझा जा सकता है। वर्णव्यवस्था में वर्ण प्रमुख है और जातिव्यवस्था में जाति अर्थात् ‘जन्म’ प्रमुख है। जिन्होंने इनका समानार्थ में प्र्रयोग किया है उन्होंने स्वयं को और पाठकों को भ्रान्त कर दिया। ‘वर्ण’ शब्द ‘वृञ्-वरणे’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है-‘जिसको स्वेच्छा से वरण किया जाये वह समुदाय’। निरुक्त में आचार्य यास्क ने ‘वर्ण’ शब्द के अर्थ को इस प्रकार स्पष्ट किया है-

‘‘वर्णःवृणोतेः’’(2.14)=स्वेच्छा से वरण करने से ‘वर्ण’ कहलाता है।

वैदिक वर्णव्यवस्था में समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चार समुदायों में व्यवस्थित किया गया था। जब तक गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर व्यक्ति इन समुदायों का वरण करते रहे, तब तक वह वर्णव्यवस्था कहलायी। जब अकर्मण्यता और स्वार्थवश जन्म से ब्राह्मण, शूद्र आदि माने जान लगे तो वह व्यवस्था विकृत होकर जातिव्यवस्था बन गयी। इस प्रकार जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था का विकास नहीं, अपितु विकार है। विकृत व्यवस्था का दोष मनु को नहीं दिया जा सकता। मनु न तो काल की दृष्टि से, न व्यवस्था की दृष्टि से जाति-व्यवस्था के निर्माता माने जा सकते हैं। जाति का निर्माता तो मनु से बहुत परवर्ती अर्थात् महाभारत काल के बाद का समाज है। वही मनुस्मृति में जातिवादी प्रक्षेप करने का उत्तरदायी है।