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पुत्र-पुत्री में भेदभाव नहीं: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

मनुमत से अनभिज्ञ पाठकों को यह जानकर सुखद आश्चर्य होना चाहिये कि मनु ही सबसे पहले वह संविधान-निर्माता हैं जिन्होंने पुत्र-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रूप दिया है-

    ‘‘यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा’’   (मनु0 9.130)

    अर्थात्-‘‘पुत्री, पुत्र के समान होती है क्योंकि वह भी पुत्र के समान आत्मारूप है। इस प्रकार पुत्र और पुत्री में कोई भेद नहीं है। अतः उसके साथ कोई भेदभाव भी नहीं किया जाना चाहिए।’’

नारी का परिवार में महत्त्व: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

महर्षि मनु के अनुसार नारी का परिवार में महत्त्वपूर्ण स्थान है। महर्षि मनु परिवार में पत्नी को पति से भी अधिक महत्त्व देते हैं। वे पति-पत्नी को बिना किसी भेदभाव के समान रूप से एक दूसरे को संतुष्ट रखने का दायित्व सौंपते हैं। इसी स्थिति में वे परिवार का निश्चित कल्याण मानते हैं। मनु के कुछ मन्तव्य इस प्रकार हैं-

(अ)   पति-पत्नी की पारस्परिक संतुष्टि से ही कुल का कल्याण संतुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च।

      यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्॥     (3.60)

    अर्थ-‘जिस कुल में भार्या=पत्नी के व्यवहार से पति संतुष्ट रहता है और पति के व्यवहार से पत्नी सन्तुष्ट रहती है, उस परिवार का निश्चय ही कल्याण होता है।’

(आ) नारी की प्रसन्नता में परिवार की प्रसन्नता निहित है-

   स्त्रियां तु रोचमानायां सर्वं तद् रोचते कुलम्।    

   तस्यां त्वरोचमानायां सर्वमेव न रोचते॥ (3.62)

   तस्मादेताः सदा पूज्याः भूषणाच्छादनाशनैः।  

   भूतिकामैर्नरैः नित्यं सत्कारेषूत्सवेषु च॥ (3.59)

   पितृभिः भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा।  

   पूज्याः भूषयितव्याश्च बहुकल्याणभीप्सुभिः॥ (3.55)

    अर्थ-‘स्त्री के प्रसन्न रहने पर ही सारा कुल प्रसन्न रह सकता है। उसके अप्रसन्न रहने पर सारा परिवार प्रसन्नता-विहीन हो जाता है।’

‘इस कारण अपना और अपने परिवार का कल्याण चाहने वालों का कर्त्तव्य है कि वे सत्कार के अवसर पर और खुशियों के अवसर पर स्त्रियों का आभूषण, वस्त्र, खान-पान आदि के द्वारा सदा सत्कार व आदर किया करें।’

‘अपना और अपने परिवार का अधिक कल्याण चाहने वाले पिता आदि बड़ों, भाइयों, पति और देवरों का यह कर्त्तव्य है कि वे नारियों का सदा आदर करें और आभूषण, वस्त्र आदि द्वारा उनको सुशोभित रखें।’

(इ)     पत्नी के शोकग्रस्त होने से कुल नाश-

शोचन्ति जामयो यत्र विनशत्याशु तद्कुलम्।  

   न शोचन्ति तु यत्रैताः वर्धते तद्धि सर्वदा॥ (3.57)

   जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिताः।  

   तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्ततः॥ (3.58)

    अर्थ-‘पत्नियों का आदर क्यों चाहिए? क्योंकि जिन कुलों में अनादरपूर्ण व्यवहार से पत्नियां शोकग्रस्त रहती हैं, वह कुल शीघ्र नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। जहां शोकग्रस्त नहीं रहती अर्थात् प्रसन्न रहती हैं वह कुल उत्तरोत्तर उन्नति करता जाता है।’

‘अनादर के कारण शोकपीड़ित रहने वाली स्त्रियां जिन घरों को अभिशाप देती हैं अर्थात् कोसती हैं यह समझो कि वह परिवार इस प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे किसी घातक विपदा से लोग नष्ट हो जाते हैं। उस परिवार का चहुंमुखी पतन हो जाता है।’

(ई) पत्नी परिवार के सुख का आधार

       अपत्यं धर्मकार्याणि शुश्रूषारतिरुत्तमा।    

       दाराधीनस्तथा स्वर्गः पितृणामात्मनश्च ह॥       (9.28)

    अर्थ-‘सन्तानोत्पत्ति, धर्म कार्यों का अनुष्ठान, उत्तम सेवा, उत्तम रतिसुख, अपना तथा घर के बड़े-बुजुर्गों का सुख और सेवा, निश्चय ही ये सब पत्नी के अधीन हैं अर्थात् पत्नी से ही संभव हैं।

(उ) माता, बहन, पुत्री, भार्या से कलह न करें-

नारियों के समान की रक्षा करते हुए मनु ने परिवार में उनकी स्थिति को सुरक्षित एवं सयतापूर्ण बनाया है। उनके साथ मारपीट की बात तो दूर है, उनके साथ विवाद=कलह अथवा व्यर्थ की बहस भी करने का निषेध किया है-

    ‘‘माता पितृयां……भार्यया, दुहित्रा विवादं न समाचरेत्।’’       (4.180)

    अर्थ-‘माता, पिता, पत्नी पुत्री आदि के साथ कलह न करें। उन पर कोई आरोप न लगायें।’ ऐसा करने पर पुरुषों को दण्डित करने का आदेश मनु ने दिया है-

‘‘मातरं पितरं जायाम्……आक्षारयन् शतं दण्ड्यः।’’ (8.180)

    अर्थ-‘माता,पिता, पत्नी पर मिथ्या आरोप लगाने वालों को एक सौ पण का दण्ड दिया जाना चाहिए।’

(ऊ) माता, स्त्री आदि का त्याग नहीं किया जा सकता

समाज में स्वार्थी, लोभी मनुष्य भी रहते हैं। वे कभी-कभी स्वार्थ और लोभ से प्रेरित होकर माता, पिता, पत्नी आदि को छोड़ देते हैं। सेवा-संभाल न करनी पड़े, कभी इस कारण उनको अपने से पृथक् कर देते हैं। मनु का यह आदेश है कि माता आदि को किसी भी रूप में नहीं छोड़ा जा सकता। छोड़ने वाला व्यक्ति दण्डनीय होगा। उनके जीवन को सुरक्षित बनाने के लिए मनु का यह आदेश है-

माता न पिता न स्त्री न पुत्रस्त्यागमर्हति।

त्यजन्-अपतितान् एतान् राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट्॥ (8.389)

    अर्थ-बिना गभीर अपराध के माता, पिता, पत्नी, पुत्र का त्याग नहीं किया जा सकता। इनको छोड़ने वाला व्यक्ति राजा द्वारा छह सौ पण के द्वारा दण्डनीय होगा और त्यागे हुए परिजनों को पुनः साथ रखकर उनकी सेवा-संभाल करनी होगी।

नारियों को सर्वोच्च सम्मान दाता मनु: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) नारियों को सर्वोच्च सम्मान दाता मनु

वैदिक परपरा में ‘माता’ को प्रथम गुरु मानकर सम्मान दिया जाता था। मनु उसी परपरा के हैं। महर्षि मनु विश्व के वे प्रथम महापुरुष हैं जिन्होंने नारी के विषय में सर्वप्रथम ऐसा सर्वोच्च आदर्श उद्घोष दिया है, जो नारी की गरिमा, महिमा और समान को सर्वोच्चता प्रदान करता है। संसार के किसी पुरुष ने नारी को इतना गौरव और समान नहीं दिया। मनु का वियात श्लोक है-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।      

यत्रैताः तु न पूज्यन्ते सर्वाः तत्राफला क्रियाः॥   (3.56)

अर्थ-इसका सही अर्थ है- ‘जिस समाज या परिवार में नारियों का आदर-समान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्य गुण, दिव्य सन्तान, दिव्य लाभ आदि प्राप्त होते हैं और जहां इनका आदर-समान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों की सब गृह-सबन्धी क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं।’

नारियों के प्रति मनु की भावना का बोध कराने वाले, स्त्रियों के लिए प्रयुक्त समानजनक एवं सुन्दर विशेषणों से बढ़कर और कोई प्रमाण नहीं हो सकते। वे कहते हैं कि नारियां घर का भाग्योदय करने वाली, आदर के योग्य, घर की ज्योति, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, गृहसंचालिका एवं गृहस्वामिनी, घर का स्वर्ग और संसारयात्रा की आधार होती हैं-

    प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हाः   गृहदीप्तयः।

    यिःश्रियश्च गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन॥ (मनु0 9.26)

    अर्थात्- ‘सन्तान उत्पत्ति करके घर का भाग्योदय करने वाली, आदर-समान के योग्य, गृहज्योति होती हैं यिां। शोभा, लक्ष्मी और स्त्री में कोई अन्तर नहीं है, वे घर की प्रत्यक्ष शोभा हैं।’

(आ) स्त्रियों को सम्मान में प्राथमिकता

‘लेडीज फस्ट’ की सयता के प्रशंसकों को यह पढ़कर और अधिक प्रसन्नता होनी चाहिए कि महर्षि मनु ने सभी को यह निर्देश दिया है कि ‘यिों के लिए पहले रास्ता छोड़ दें। और नवविवाहिताओं, कुमारियों, रोगिणी, गर्भिणी, वृद्धा आदि यिों को पहले भोजन कराने के बाद फिर पति-पत्नी को साथ भोजन करना चाहिए।’ मनु के ये सब विधान यिों के प्रति समान और स्नेह के द्योतक हैं।’ कुछ श्लोक देखिए –

चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिणः स्त्रियाः।  

स्नातकस्य च राज्ञश्च पंथा देयो वरस्य च॥ (2.138)

सुवासिनीः कुमारीश्च रोगिणी गर्भिणी स्त्रियः।  

अतिथियोऽग्र एवैतान् भोजयेदविचारयन्॥ (3.114)

    अर्थ-‘स्त्रियों, रोगियों, भारवाहकों, नबे वर्ष से अधिक आयु वालों, गाड़ी वालों, स्नातकों, वर और राजा को पहले रास्ता देना चाहिए।’

‘नवविवाहिताओं, अल्पवय कन्याओं, रोगी और गर्भिणी स्त्रियों को, आये हुए अतिथियों से भी पहले भोजन करायें। फिर अतिथियों और भृत्यों को भोजन कराके द्विज-दपती स्वयं भोजन करें।’

समान और शिष्टाचार का परिचय ऐसे ही अवसरों पर मिलता है। मनु ने नारी के प्रति शिष्टाचार को बनाये रखा है।

डॉ अम्बेडकर द्वारा मनुप्रोक्त वर्णपरिवर्तन का समर्थन: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर  ने कई स्थलों पर प्राचीन काल में वर्णपरिवर्तन के अवसरों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। वर्णपरिवर्तन का स्पष्ट अभिप्राय है कर्मणा वर्णव्यवस्था, और कर्मणा वर्णव्यवस्था का अभिप्राय है जन्मना जातिवाद का अस्तित्व न होना। इस प्रकार वैदिक और मनु की वर्णव्यवस्था में कहीं भी आपत्ति करने की गुंजाइश नहीं रहती है। वे लिखते हैं-

(क) ‘‘इस प्रक्रिया में यह होता था कि जो लोग पिछली बार केवल शूद्र होने के योग्य बच जाते थे, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य होने के लिए चुन लिए जाते थे, जबकि पिछली बार जो लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए चुने गए होते थे, वे केवल शूद्र होने के योग्य होने के कारण रह जाते थे। इस प्रकार वर्ण के व्यक्ति बदलते रहते थे।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 170)

इस सन्दर्भ के अतिरिक्त डॉ0 अम्बेडकर र ने ऊपर तथा अन्य उन उद्धृत श्लोकों के अर्थों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है जिनमें मनु ने वर्णपरिवर्तन का विधान किया है। इसका अभिप्राय यह निकला कि वे श्लोक डॉ0 अम्बेडकर र को सिद्धान्त रूप में मान्य हैं-

(ख) ‘‘जिस प्रकार कोई शूद्र ब्राह्मणत्व को और कोई ब्राह्मण शूद्रत्व को प्राप्त होता है, उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न भी प्राप्त होता है।’’ (मनुस्मृति 10.65) (वही, खंड 13, पृ0 85)

(ग) ‘‘प्रत्येक शूद्र जो शुचिपूर्ण है, जो अपने से उत्कृष्टों का सेवक है, मृदुभाषी है, अहंकाररहित है, और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है, वह उच्चतर जाति प्राप्त करता है।’’ (मनुस्मृति 9.335)(वही, खंड 9, पृ0 117)

मनु की वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्र वर्णपरिवर्तन करके उच्च वर्ण प्राप्त कर सकते थे, मनु के इस सिद्धान्त का डॉ0 अम्बेडकर र स्पष्ट समर्थन कर रहे हैं। मनु आपत्तिरहित सिद्धान्त के प्रदाता हैं, फिर भी मनु का विरोध क्यों? अपने इस परस्परविरोध का उत्तर डॉ0 अम्बेडकर र को देना चाहिए था किन्तु उन्होंने कहीं नहीं दिया क्या अब डॉ0 साहब के अनुयायी या अन्य मनुविरोधी, शूद्र-सबन्धी परस्परविरोधों का उत्तर देने का साहस करेंगे?

 

मनु की वर्णव्यवस्था में सबको वर्णपरिवर्तन का अधिकार: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) शूद्रों को उच्चवर्ण की प्राप्ति के अवसर

मनु की कर्म पर आधारित वैदिक वर्णव्यवस्था की यही सबसे बड़ी विशेषता है कि वे प्रत्येक वर्ण को जीवन भर वर्ण-परिवर्तन का अवसर देते हैं। जन्मना जातिवाद के समान जीवन भर एक ही जाति नहीं रहती। शूद्र कभी भी उच्चवर्ण की योग्यता प्राप्त कर उच्चवर्ण में स्थान पा सकता है। देखिये, मनु का कितना स्पष्ट मत है जिसको पढ़कर तनिक भी संदेह नहीं रहता-

(क) शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।

       क्षतियात् जातमेवं तु विद्यात् वैश्यात् तथैव च॥ (10.65)

    अर्थ-‘शूद्र वर्ण का व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण के गुण, कर्म, योग्यता को अर्जित कर ब्राह्मण बन सकता है और ब्राह्मण, गुण, कर्म, योग्यता से हीन होने पर शूद्र हो जाता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में उत्पन्न सन्तानों का भी वर्णपरिवर्तन हो जाता है।’

(ख) शूद्र द्वारा उत्तम वर्ण की प्राप्ति का निर्देश तथा उत्तम वर्णों की प्राप्ति के उपायों का वर्णन मनु ने इस श्लोक में भी किया है-

       शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः     मदुवागनहंकृतः।

       ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥     (9.335)

    अर्थ-‘सदा शुद्ध-पवित्र रहने वाला, अपने से उत्तम जनों या वर्णों की संगति में रहने वाला, मृदुभाषी, अहंकाररहित, ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों के सेवा कार्य में संलग्न रहने वाला शूद्र अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त कर लेता है।’ अर्थात् वह वर्णपरिवर्तन की योग्यता अर्जित करके उत्तम वर्ण को प्राप्त करके द्विजाति वर्ण का हो जाता है।

(शूद्रों द्वारा वर्णपरिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण ‘वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन’ शीर्षक में पृ0 104-108 पर द्रष्टव्य हैं)

डॉ अम्बेडकर का मनु-समर्थक मत-डॉ. सुरेन्द्र कुमार

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥ (8.337)

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।

द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥ (8.338)

पिताऽऽचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः।

नाऽदण्डयो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति॥ (8.335)

कार्षापणंावेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।

तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा॥ (8.336)

उपर्युक्त चारों श्लोक डॉ0 अम्बेडकर र ने अपने ग्रन्थों में अनेक बार प्रमाण रूप में उद्धृत किये हैं और इनका अर्थ भी लगभग ठीक दिया है (द्रष्टव्य-डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खण्ड 7, पृ0 250)

इसका अर्थ यह हुआ कि डॉ0 साहब इनको सही मानते हैं। यथायोग्य दण्डव्यवस्था में किसी को आपत्ति भी क्या हो सकती है? डॉ0 अम्बेडकर र को आपत्ति उन श्लोकों पर है जो पक्षपातपूर्ण दण्ड- व्यवस्था का विधान करते हैं। अब प्रश्न यह है कि इन यथायोग्य दण्डविधानों के होते हुए और उनको प्रमाणरूप में उद्धृत करने पर भी, इनके विरुद्ध श्लोकों को प्रमाण मानकर मनु का विरोध क्यों किया जा रहा है? तर्कसंगत सिद्धान्तों का विरोध करने का क्या औचित्य है? क्या यह डॉ0 अम्बेडकर र का परस्परविरोध नहीं है?

    प्रश्न-मनु की न्याय और दण्डव्यवस्था से क्या आज की न्यायपद्धति और दण्डव्यवस्था अच्छी नहीं है? आज कानून की दृष्टि में सब बराबर हैं, यह कितना न्यायपूर्ण विधान है। मनु ने सबके लिए समान दण्ड क्यों नहीं रखा?

    उत्तर-महर्षि मनु की न्याय और दण्ड-व्यवस्था आज की दण्ड और न्याय-व्यवस्था से उत्तम, यथायोग्य, और मनोवैज्ञानिक है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

मनु की दण्डव्यवस्था कितनी मनोवैज्ञानिक, न्यायपूर्ण, व्यावहारिक और श्रेष्ठप्रभावी है, इसकी तुलना आज की दण्डव्यवस्था से करके देखिए, दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जायेगा। आज की दण्डव्यवस्था का सिद्धान्त है-‘कानून की दृष्टि में सब समान हैं।’ पहला परस्परविरोध यही हुआ कि पदस्तर और सामाजिक स्तर के अनुसार सुविधा एवं समान-व्यवस्था तो पृथक्-पृथक् हैं और दण्ड एक जैसा। इसे न्याय नहीं कहा जा सकता। उच्च पद और उच्च स्तर पर बैठा व्यक्ति अधिक बौद्धिक विवेक रखता है अधिक सामाजिक सुविधाओं और समान का उपभोग करता है। उसके द्वारा किये गये अपराध का दुष्प्रभाव भी उतना ही तीव्र एवं व्यापक होता है। इस आधार पर यथायोग्य दण्डव्यवस्था यह कहती है कि उसे दण्ड भी अधिक मिलना चाहिए। अधिक सुविधा और समान है तो दण्ड कम क्यों? एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी और एक प्रथम श्रेणी अधिकारी या शासक समानप्राप्ति में बराबर नहीं तो दण्डप्राप्ति में बराबर कैसे माने जा सकते हैं?

दूसरा परस्परविरोध यह है कि ‘समान दण्ड का सिद्धान्त’ क्षमता (धन, बल, पद, प्रभाव) की दृष्टि से यथायोग्य दण्ड नहीं है। इसे भी न्याय नहीं माना जा सकता। इसे यों समझिए कि खेत चर जाने पर मेमने को भी एक डण्डा लगेगा, भैंसे, हाथी और शेर को भी। इसका प्रभाव क्या होगा? बेचारा मेमना डण्डे के प्रहार से मिमियाने लगेगा, भैंसे में कुछ हलचल होगी, हाथी और शेर उलटा मारने दौडेंगे। क्या यह वास्तव में समान दण्ड हुआ? नहीं!! समान दण्ड तो वह है, जो लोकव्यवहार में प्रचलित है। मेमने को डंडे से, भैंसे को लाठी से, हाथी को अंकुश से और शेर को हण्टर से वश में किया जाता है। दूसरा उदाहरण लीजिए-एक अत्यन्त गरीब एक हजार के दण्ड को कर्ज लेकर चुका पायेगा, मध्यवर्गीय थोड़ा कष्ट अनुभव करके चुकायेगा और समृद्ध-सपन्न जूती की नोंक पर रख देगा। यह समान दण्ड नहीं है। इसी अमनोवैज्ञानिक दण्डव्यवस्था का परिणाम है कि दण्ड की पतली रस्सी में आज गरीब तो फंसे रहते हैं, किन्तु धन-पद-सत्ता-सपन्न शक्तिशाली लोग उस रस्सी को तोड़ कर निकल भागते हैं। आंकड़े इकट्ठे करके देख लीजिए, स्वतंत्रता के बाद कितने गरीबों को सजा हुई है, और कितने धन-पद-सत्ता-सपन्न लोगों को! आर्थिक अपराधों में समृद्ध लोग अर्थदण्ड भरते रहते हैं और अपराध करते रहते हैं। मनु की यथायोग्य दण्ड-व्यवस्था में ऐसा असन्तुलन और दोष नहीं है।

मनु की दण्डव्यवस्था अपराध की प्रकृति, अपराधी का पद और अपराध के प्रभाव पर निर्भर है। वे गभीर अपराध में यदि कठोर दण्ड का विधान करते हैं तो चारों वर्णों को ही करते हैं और यदि सामान्य अपराध में सामान्य दण्ड का विधान करते हैं, तो वह भी चारों वर्णों के लिए सामान्य होता है। शूद्रों के लिए जो पक्षपातपूर्ण कठोर दण्डों का विधान मिलता है वह केवल प्रक्षिप्त श्लोकों में है। वे श्लोक मनुरचित नहीं है, बाद के लोगों द्वारा मिलाये गये हैं।

मनु की दण्डव्यवस्था और शूद्र: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

पाठकवृन्द! आइये, सबसे अधिक चर्चित मनुविहित दण्डव्यवस्था पर दृष्टिपात करते हैं। यह कहना नितान्त अनुचित है कि मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दण्डों का विधान किया है और ब्राह्मणों को विशेषाधिकार एवं विशेष सुविधाएं प्रदान की हैं। मनु की दण्डव्यवस्था के मानदण्ड हैं-गुण और दोष; और आधारभूत तत्व हैं-बौद्धिक स्तर, सामाजिक स्तर या पद और उस अपराध का प्रभाव। मनु की दण्डव्यवस्था यथायोग्य दण्डव्यवस्था है, जो मनोवैज्ञानिक है। यदि मनु गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर उच्च वर्णों को अधिक समान और सामाजिक स्तर प्रदान करते हैं तो अपराध करने पर उतना ही अधिक दण्डाी देते हैं।

(अ) शूद्रों को सबसे कम दण्ड का विधान

    मनु की यथायोग्य दण्डव्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मणों को सबसे अधिक; राजा को उससे भी अधिक। मनु की यह सर्वसामान्य दण्डव्यवस्था है, जो सैद्धान्तिक रूप में सभी दण्डनीय अवसरों पर लागू होती है-

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥ (8.337)

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।

द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥ (8.338)

    अर्थात्-किसी चोरी आदि के अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीसगुणा, ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अट्ठाईसगुणा दण्ड देना चाहिए, क्योंकि उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भली-भांति समझने वाले हैं।

(आ) उच्च वर्णों को अधिक दण्ड

    मनु की व्यवस्था में जो जितना बड़ा है उसको उतना अधिक दण्ड विहित है-

पिताऽऽचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः।

नाऽदण्डयो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति॥ (8.335)

कार्षापणंावेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।

तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा॥ (8.336)

    अर्थ-‘जो भी अपने निर्धारित धर्म=कर्त्तव्य और विधान का पालन नहीं करता, वह अवश्य दण्डनीय है, चाहे वह पिता, माता, गुरु, मित्र, पत्नी, पुत्र या पुरोहित ही क्यों न हो। जिस अपराध में सामान्य जन को एक पैसा दण्ड दिया जाये वहां राजा को एक हजार गुणा दण्ड देना चाहिए।’ यहां गुरु और पुरोहित को भी अवश्य दण्ड का विधान है। अतः ब्राह्मण को दण्डरहित छोड़ने का जहां भी कथन है, वह इस मनुव्यवस्था के विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त है।

(इ) धन के लोभ में किसी को दण्ड दिये बिना न छोड़े

इसके साथ ही मनु ने राजा को आदेश दिया है कि उक्त दण्ड से किसी को छूट नहीं दी जानी चाहिए, चाहे वह आचार्य, पुरोहित और राजा के पिता-माता ही क्यों न हों। राजा दण्ड दिये बिना मित्र को भी न छोड़े और कोई समृद्ध व्यक्ति शारीरिक अपराधदण्ड के बदले में विशाल धनराशि देकर छूटना चाहे तो उसे भी न छोड़े।

न मित्रकारणाद् राजा विपुलाद् वा धनागमात्।  

समुत्सृजेत् साहसिकान् सर्वभूतभयावहान्॥ (8.347)

    अर्थ-राजा, प्रजाओं में भय उत्पन्न करने वाले अपराधियों को, अपराध के बदले दण्ड रूप में धन की प्राप्ति के लालच में या मित्र होने के कारण भी न छोड़े, अर्थात् उन्हें अवश्य दण्डित करे।

यह कहना नितान्त असत्य है कि मनु ने उच्चवर्णों को दण्ड में छूट दी है और शूद्र के लिए अधिक दण्ड विहित किया है। यहां किसी को भी दण्ड से छूट नहीं है तथा ब्राह्मणों और राजा को शूद्र से बहुत अधिक दण्ड देने का विधान है। मनु की यह दण्डनीति पूर्वा पर प्रसंग से सबद्ध है और कारण-कथनपूर्वक वर्णित है, जो न्याययुक्त और तर्कसंगत है। इससे यह प्रकट होता है कि ये मौलिक श्लोक हैं और इनके विरुद्ध ब्राह्मण को दण्डनिषेध करने वाले श्लोक प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि वे पक्षपात और अन्यायपूर्ण हैं।

मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्रों का सामाजिक सम्मान : डॉ. सुरेन्द्र कुमार

मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्रों का सामाजिक सम्मान

(अ) समान-व्यवस्था के आधार

    वैदिक या मनु की समान-व्यवस्था में गुणों का ही महत्त्व था। जन्म को बड़प्पन अथवा समान का मानदण्ड कहीं नहीं माना गया है। महर्षि मनु लिखते हैं-

(क) वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी।

       एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद् यदुत्तरम्॥    (2.136)

    अर्थ-धन, बन्धुपन, आयु, श्रेष्ठ कर्म, विद्वत्ता ये पांच समान के मानदण्ड हैं। इनमें बाद-बाद वाला मानदण्ड अधिक महत्त्वपूर्ण है। अर्थात् सर्वाधिक मान्य विद्वान् है, उसके बाद क्रमशः श्रेष्ठ कर्म करने वाला, आयु में बड़ा, बन्धु-बान्धव, धनवान् हैं। यह सामूहिक समान की मर्यादा है। यदि एक वर्ण वाले एकत्र हों तो वहां समान-व्यवस्था इस प्रकार होगी –

(ख)    विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः।

       वैश्यानां धान्यधनतः  शूद्राणामेव जन्मतः॥ (2.155)

    अर्थ-ब्राह्मणों में अधिक ज्ञान से, क्षत्रियों में अधिक बल से, वैश्यों में अधिक धन-धान्य से, शूद्रों में अधिक आयु से बड़प्पन और समान होता है।

(आ) शूद्रों को समान-व्यवस्था में छूट-

    मनु का शूद्रों के प्रति सद्भावपूर्ण एवं मानवीय दृष्टिकोण देखिए कि द्विजवर्णों में अधिक गुणों के आधार पर समान का विधान होते हुए भी उन्होंने शूद्र को विशेष छूट दी है कि यदि शूद्र नबे वर्ष से अधिक आयु का हो तो उसे पहले समान दें-

  पञ्चानां त्रिषु वर्णेषु भूयांसि गुणवन्ति च।    

  यत्र स्युः सोऽत्र मानार्हः, शूद्रोऽपि दशमीं गतः॥ (2.137)

    अर्थ-तीन द्विज-वर्णों में समान गुण वाले अनेक हों तो जिसमें श्लोक 2.136 में उक्त पांच गुणों में से अधिक गुण हों, वह पहले समाननीय है किन्तु शूद्र यदि नबे वर्ष से अधिक आयु का हो तो वह भी पहले समाननीय है।

देखिए, मनु के मन में शूद्र के प्रति कितनी उदारता एवं आदरभाव है कि वे अल्पगुणों वाला होते हुए भी शूद्र को ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों द्वारा पहले समान दिलवा रहे हैं! क्या ऐसा उदार मनु शूद्रों के प्रति कठोर और अन्यायपूर्ण विधान कर सकता है? कदापि नहीं। यह एक ही तर्क यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि वर्तमान मनुस्मृति में जो शूद्र-विरोधी कठोर श्लोक मिलते हैं, स्पष्टतः वे किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रक्षिप्त हैं। ऐसे उदार हृदय और मानवीय भाव रखने वाले महर्षि मनु का विरोध क्या उचित है?

(इ) शूद्रों का अद्भुत मानवीय समान

शूद्रों के प्रति मनु का कितना अद्भुत मानवीय भाव था इसकी जानकारी हमें मनु के निन आदेश में मिलती है। मनु कहते हैं कि अपने भृत्यों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के बाद ही द्विज दपती भोजन करें-

भुक्तवत्सु-अथ विप्रेषु स्वेषु भृत्येषु चैव हि।    

भुंजीयातां ततः पश्चात्-अवशिष्टं तु दपती॥ (3.116)

    अर्थ-द्विजों के भोजन कर लेने के बाद और अपने भृत्यों के (जो कि शूद्र होते थे) पहले भोजन कर लेने के बाद ही शेष बचे भोजन को द्विज दपती खाया करें।

क्या आज के वर्णरहित विश्व के किसीाी सयमानी समाज में मनु जैसा उच्च मानवीय दृष्टिकोण है? क्या आज के किसी समाज में मनु जैसा उदार-अद्भुत आदेश है? ऐसे अनुपम आदेशों के होते हुएाी मनु पर शूद्र विरोध का आरोप लगाना निरी कृतघ्नता नहीं तो और क्या है? मनुस्मृति में डाले गये, शूद्र विरोधी सभी श्लोकों को प्रक्षिप्त सिद्ध करने के लिए, क्या यह अकेला ही श्लोक पर्याप्त नहीं है? मनु द्वारा शूद्रों का अद्भुत समान विहित करने के बादाी मनु का विरोध क्यों?

शूद्रों के धर्माधिकार में मनुकालीन इतिहास और समाज -व्यवस्था के प्रमाण: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

जैसा कि प्रथम अध्याय में प्रमाण-सहित दर्शाया गया है कि मनु की वर्णव्यवस्था का प्रसार आदिकालीन विश्व में व्यापक स्तर पर था। मनु ने अपना प्रमुख राज्य अपने बड़े पुत्र प्रियव्रत को सौंपा था। उसने उसको अपने सात पुत्रों में सात विभाग करके बांट दिया। मनुकालीन उन सात द्वीपों अर्थात् देशों में मनु द्वारा निर्धारित समाज-व्यवस्था व्यवहार में थी। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में जो मनुकालीन इतिहास दिया है और सांस्कृतिक विवरण दिया है उसके अनुसार सभी छह देशों में चारों वर्णों को यज्ञानुष्ठान और धर्मपालन का अधिकार था तथा चारों वर्ण यज्ञ करते थे। प्रमाण सहित उसका वर्णन प्रस्तुत है। पौराणिक जन इस विवरण को ध्यान से पढ़ें क्योंकि वही शूद्रों को यज्ञ आदि का निषेध करते हैं। ये पुराणों के ही प्रमाण हैं-

(क) कुशद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चानुक्रमोदिताः॥

तत्र ते तु कुशद्वीपे……..यजन्तः क्षपयन्ति॥

(विष्णु पुराण 2.4.36, 39)

    अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कुशद्वीप में रहते हुए यजन करते हैं और इस प्रकार अपनी दुर्भावनाओं को नष्ट करते हैं।

भागवतपुराण में वर्णन है कि चारों वर्णों के लोग परस्पर कहते रहते थे – ‘‘यज्ञेन पुरुषं यज’’ (5.20.17)= उस परम पुरुष का यज्ञ से यजन करो। वहां चारों वर्णों में यज्ञ बहुप्रचलित था। चारों वर्ण यज्ञप्रेमी थे।

(ख) शाकद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

    शाकद्वीपे तु तैर्विष्णुः यथोक्तैरिज्यते सयक्॥ 64, 70॥

(विष्णुपुराण 2.4.64,70)

    अर्थ-शाकद्वीप में चारों वर्णों के लोग सर्वव्यापक ईश्वर का यज्ञ के द्वाराालीभांति पूजन करते हैं।

भागवतपुराण में कहा है कि शाकद्वीप के चारों वर्णों के लोग ‘‘भगवन्तम्………….परमसमाधिना यजन्ते’’ (5.20.22)= परमात्मा की उत्तम समाधि द्वारा उपासना करते हैं।

(ग) प्लक्षद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

धर्माः पञ्चस्वथैतेषु वर्णाश्रमविभागजाः॥ 15॥

इज्यते तत्र भगवान् तैर्वणैरार्यकादिभिः॥ 19॥

(विष्णुपुराण 2.4.7, 15, 19)

    अर्थ-प्लक्ष द्वीप में वर्ण और आश्रमों के लिए विहित धर्मों का पालन किया जाता है। आर्यक (ब्राह्मण) आदि चारों वर्णों द्वारा यज्ञ करके भगवान् की उपासना की जाती है।

भागवतपुराणकार इससेाी आगे बढ़कर स्पष्ट कथन करता है कि ‘‘त्रय्या विद्यया भगवन्तं त्रयीमयं सूर्यमात्मानं यजन्ते’’ (5.20.4) = ‘प्लक्षद्वीप में चारों वर्ण उस सूर्य संज्ञक परमात्मा का जो स्वयं वेदरूप है, तीनों वेदों के मन्त्रों से उसका यजन करते हैं।’

यहां शूद्रों द्वारा मन्त्रोच्चारण तथा वेदों से यज्ञानुष्ठान का विधान अतिस्पष्ट है। पौराणिक इस पुराण के वचन को पढ़कर सदा के लिए याद रखें।

(घ) क्रौञ्च द्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

  ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चानुक्रमोदिताः॥ 53॥

  यागैः रुद्रस्वरूपश्च इज्यते यज्ञसन्निधौ॥ 56॥ (2.4.53, 56)

    अर्थ-क्रौञ्च द्वीप में चार वर्ण हैं। वे रुद्रस्वरूप परमात्मा का अनेक यज्ञों के अनुष्ठानपूर्वक, यज्ञ के माध्यम से यजन करते हैं।

(ङ) जबू द्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

  ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः मध्ये शूद्राश्च भागशः॥ 9॥

  पुरुषैर्यज्ञपुरुषो जबू द्वीपे सदेज्यते॥ 21॥ (2.3.9, 21)

    अर्थ-जबू द्वीप (भारत सहित एशिया) में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र साथ-साथ निवास करते हैं। उन चारों वर्णों के पुरुषों द्वारा परमात्मा का सदा यज्ञ के द्वारा यजन किया जाता है।

(च) शाल्मलिद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चैव यजन्ति ते॥ 30॥

वायुभूतं मखश्रेष्ठैः यज्विनो यज्ञसंस्थितम्॥ 31॥

(विष्णुपुराण 2.4.30, 31)

    अर्थ-शाल्मलि द्वीप में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी यज्ञशील हैं। वे चारों वर्ण यज्ञ-रूप वायु संज्ञक परमेश्वर की बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा उपासना करते हैं।

यहां अतिस्पष्ट शदों में शूद्रों द्वारा बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करना लिखा है। भागवतपुराण तो इस द्वीप की यज्ञ परपरा का अनुष्ठान स्पष्टतः वेदों द्वारा किया जाना लिखता है। पुराणकार इस वचन के द्वारा निर्विवाद रूप से शूद्रों का वेदाधिकार मानता है –

‘‘तद् वर्षपुरुषाः…भगवन्तं वेदमयं सोममात्मानं वेदेन यजन्ते।’’

(5.20.11)

    अर्थ-‘शाल्मलि द्वीप के चारों वर्णों के लोग वेदों में वर्णित, आत्मा में व्याप्त, सोमस्वरूप भगवान् की उपासना वेदमन्त्रों से यज्ञानुष्ठान सपन्न करके करते हैं।’ यहां भी शूद्रों के वेदपाठ और वेद से यज्ञानुष्ठान का स्पष्ट वर्णन है।

यह मनुस्वायभुव और उसके पौत्रों के काल का इतिहास है। उस काल में शूद्र यज्ञ भी करते थे और वेदमन्त्रों का वाचन करते थे, यह उद्घाटन भागवतपुराणकार कर रहा है। यह इतिहास-प्रमाण यह स्पष्ट करता है कि जिस मनु के शासन में शूद्र यज्ञ और वेदाध्ययन करते थे, वही मनु अपनी स्मृति में उनका निषेध नहीं कर सकता। इससे यह भी संकेत मिलता है कि वर्तमान मनुस्मृति में जहां कहीं शूद्रों के लिए वेद या यज्ञ आदि का निषेध मिलता है, उनका मनु की शासनकालीन व्यवस्था से तालमेल नहीं है, अतः वे सभी श्लोक बाद के लोगों ने रचकर मनुस्मृति में मिलाये हैं।

शूद्रों के धर्माधिकारों की अनवरत प्राचीन परंपरा : डॉ. सुरेन्द्र कुमार

पूर्व प्रदर्शित वेदोक्त मान्यता की परपरा वेदों से लेकर पुराणकाल तक निरन्तर मिलती है, जिसमें शूद्रों के लिए सुस्पष्ट रूप से धर्मानुष्ठानों का विधान और वर्णन है। मनु इसी वैदिक कालावधि के राजर्षि हैं, अतः उनके द्वारा शूद्रों के यज्ञ आदि का निषेध संभव नहीं माना जा सकता। धर्मानुष्ठान में भेदभाव का कथन पुराणों और पुराणाधारित साहित्य की देन है। फिर भी पुराणों में भेदभाव रहित प्राचीन धर्मानुष्ठान-परपरा का उल्लेख प्राचीन अंशों में कहीं-कहीं सुरक्षित है। यह इस तथ्य का संकेत है कि पुराणपूर्व काल में धर्मानुष्ठान के विषय में कोई भेदभाव नहीं था और इसका भी कि सभी पुराण शूद्रों के लिए वेद, यज्ञ आदि धार्मिक अधिकारों का निषेध नहीं मानते। यहां उस परपरा का दिग्दर्शन संक्षेप में कराया जा रहा है जिससे कोई पौराणिक भी यह आग्रह न करे कि शूद्रों के लिए धर्माधिकार के निषेध की परपरा प्राचीन और पुराणसमत है-

(क)    शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ में सोमपान के प्रसंग में शूद्र के लिए भी विधान है-

‘‘चत्वारो वै वर्णाः ब्राह्मणो राजन्यो वैश्यः शूद्रः, न ह एतेषां एकश्चन भवति यः सोमं वमति। स यद् ह एतेषां एकश्चित् स्यात् ह एव प्रायश्चित्तिः।’’ (5.5.4.9)

    अर्थ-वर्ण चार हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें कोई भी यज्ञ में सोम का त्याग नहीं करेगा। यदि एक भी कोई करेगा तो उसको प्रायश्चित्त करना पड़ेगा।

(ख) ऐतरेय ब्राह्मण में ऐतिहासिक उल्लेख आता है कि कवष ऐलूष नामक व्यक्ति एक शूद्रा का पुत्र था। वह वेदाध्ययन करके ऋषि बना। आज भी ऋग्वेद के 10.30-34 सूक्तों पर मन्त्रद्रष्टा के रूप में कवष ऐलूष का नाम मिलता है (2.29)।

(ग) वाल्मीकीय रामायण में वर्णन है कि दशरथ ने जब अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया था तो उसमें शूद्रों को भी बुलाया था। उस समय में वे यज्ञ में उपस्थित होते थे और अन्य वर्णों के साथ पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे (बालकाण्ड 13.14, 20, 21)

इसी प्रकार पांडवों के अश्वमेघ यज्ञ में भी शूद्र जन आमन्त्रित किये गये थे। वहां भी यज्ञ-भोजन की भागीदारी में कोई भेदभाव नहीं था। (महाभारत, अश्वमेध पर्व 88.23; 89.26)

(घ) महाभारतकार कहता है कि कर्मभ्रष्ट होकर निन वर्ण को ग्रहण करने वालों के लिए यज्ञ, धर्मपालन, वेदाध्ययन का निषेध नहीं है –

धर्मो यज्ञक्रिया तेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते।

इत्येते चतुरो वर्णांः येषां ब्राह्मी सरस्वती॥

(शान्तिपर्व 188.15)

    अर्थ-वर्णान्तर प्राप्त जनों के लिए यज्ञक्रिया और धर्मानुष्ठान का निषेध कदापि नहीं है। वेदवाणीाी चारों वर्ण वालों के लिए है।

(ङ) महाभारत में तो इससे भी आगे बढ़कर दस्युओं के लिए भी इन कर्मों का विधान किया है-

भूमिपानां च शुश्रूषा कर्त्तव्या सर्वदस्युभिः।

वेदधर्मक्रियाश्चैव तेषां धर्मो विधीयते।।

(शान्तिपर्व 65.18)

    अर्थ-दस्युओं को राजाओं की सेवा पक्ष में युद्ध करके करनी चाहिए। वेदाध्ययन, यज्ञ आदि धर्मानुष्ठानों का पालन करना उनका भी विहित धर्म है।

(च) महाभारत में ही एक अन्य स्थान पर यज्ञ में चारों वर्णों की भागीदारी को स्वीकार किया गया है-

       ‘‘चत्वारो वर्णाः यज्ञमिमं वहन्ति’’ (वनपर्व 134.11)

    अर्थात्-इस यज्ञ का सपादन चारों वर्ण कर रहे हैं।

(छ) भविष्यपुराण शूद्रों को मन्त्र-अध्यापन का आदेश देता है-

‘‘ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राः, तेषां मन्त्राः प्रदेयाः।’’

(उ0 पर्व 13.62)

(ज) वेदोक्त प्राचीन परपरा के आधार पर ही ऋषि दयानन्द ने शूद्रों-स्त्रियों को यज्ञ, वेद आदि के अधिकारों की घोषणा करके इनका अधिकार प्रदान किया। उन्होंने तो दस्यु को भी वेद पढ़ने का निर्देश दिया है (ऋग्वेदभाष्य, 7.79.1, भावार्थ में)।

इस प्रकार शूद्रों द्वारा धर्मानुष्ठान तथा वेदाध्ययन की परपरा आरभिक वैदिक काल से चलती आ रही है। उस काल में शूद्रों पर धार्मिक प्रतिबन्ध का विचार ही नहीं था। अतः उस कालावधि के धर्मप्रवक्ता मनु के वचनों में शूद्रों के धर्माधिकार के निषेध का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। वस्तुस्थिति यह है कि नितान्त नवीन संकीर्ण धारणा प्रक्षेप के रूप में मनु पर थोप दी गयी है।