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मनुस्मृति में क्षेपक : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

इस पाॅचवी बात के विषय में हम कुछ थोडा सा वर्णन करते हैं। मनुस्मृति का वर्तमान रूप कम मनुस्मृति में क्षेपक से कम दो सहस्त्र वर्ष पुराना है। इसमें क्षेपक बहुत हैं। परन्तु ये क्षेपक भी नये नही हैं। याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियों में इसी मनुस्मृति के उद्धरण मिलते है। मेघातिथि आदि ने जो भाष्य किये हैं वे सब के सब इसी मनुस्मृति के है। कुछ पाठ-भेद अवश्य है। श्लोकों में भेद भी है। बहुत से ऐसे श्लोक हैं जो मेघातिथि तथा कुल्लूक आदि के भाष्यों नहीं मिलते और पीछे के भाष्यों में इनका उल्लेख है। कुछ ऐसे भी श्लोक हैं जो पीछे से निकल गये हैं। इस प्रकार हस्ताक्षेप तो इधर भी रहा है, परन्तु अधिक नहीं। और न सिद्धान्तों में कुछ बहुत भारी उलट फेर ही है। परन्तु इससे यह नही समभना चाहिए कि इस प्राचीन मनुस्मृति मे कोई भारी हस्ताक्षेप नहीं हुआ। महात्मा बुद्ध से कुछ पहले जब शुद्ध वैदिक धर्म में विकराल विकृति उत्पन्न हो गई थी और महात्मा बुद्ध के कुछ पीछे जब अवैदिक बौद्ध धर्म और वैदिक पौराणिक धर्म घमासान युद्ध हुआ, भिन्न उद्देश्य रखने वाले साम्प्रदायिक विद्वान् मनमानी कतरनी चलाते रहे। जहाॅ जो चाहा मिला दिया और जहाॅ से जो चाहा निकाल दिया। इसने वैदिक सिद्धान्तों में बडी गडबड मचा दी।

क्या मनुस्मृति मे क्षेपक हैं ? हाॅ, अवश्य हैं। कोई निष्पक्ष विद्वान् इसको मानने में संकोच नहीं कर सकता। इसके प्रमाण पुष्कल हैं। सम्भव है कि इस विषय में मतभेद हो कि कितना क्षेपक है और कितना मौलिक। सब  से पहली बात तो यह है कि परस्पर विरोध बहुत है जिसको भाष्यकारों की प्रतिभासम्पन्न आलोचना भी दूर नही कर सकी। हम यहा कुछ का उल्लेख करते हैं।

(1) सवर्णाग्रे द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि।

कामतस्त प्रवृत्तानामिमाः स्युः क्रमशो वराः।।

शूदैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते।

ते च स्वा चैव राज्ञश्च ताश्च स्वा चाग्रजन्मनः।।

यहाॅ ब्रहम्णा को शूद्र भार्या विवाहने का पूरा अधिकार है। परन्तु इससे अगले ही श्लोक में बल-पूर्वक इसका निषेध किया गया हैः-

न ब्राहम्ण क्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः।

कस्ंमिश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भाय्र्योपदिश्यते।।

इसके आगे चार श्लोक हैं जिनमें  इसी बात पर बल दिया गया है कि कोई द्विज अपने से नीच वर्ण की स्त्री से विवाह न करे । यहाॅ तक कि आपत्काल में भी इसकी आज्ञा नहीं है। कुल्लूक लिखते हैं कि

”ब्राहम्णक्षत्रिययोर्गार्हस्थ्यमिच्छतोः सर्वथा सवर्णालाभे कस्ंमिश्चिदपि वृत्तान्ते इतिहासाख्यानेऽपि शूद्रा भाय्र्यां नाभिधीयते।”

इन दो विरोधों का समन्वय हो ही नहीं सकता। हमारी धारणा तो यह है कि मनु की आज्ञा शूद्रा से विवाह की अनुकूलता में स्पष्ट है। पिछले छः श्लोक जो वर्तमान मनुस्मृति के 3।14-19 श्लोक है उस समय की मिलावट है जब जाति बन्धन कडे हो गये और शूद्रों को सर्वथ त्याज्य ठहराया जा चुका। यदि मनुस्मृति के ये मौलिक श्लोक होते तो इतना विरोध हो नही सकथा था।

(2) मनु 3।21 में आठ प्रकार के विवाह सम्बन्धों का उल्लेख है:-

ब्राहम्णो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः।                                                                                                        गान्धर्वों राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः।।

अर्थात् ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य,आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच।

इसके पश्चात 3।26 से 3।34 तक इनके लक्षण दिये हैं। फिर 3।39 से 3।42 तक यह बताया है कि पहले चार अर्थात् ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, श्रेष्ठ और “शिष्टयम्मत” है, शेष चार विवाह कुत्सित हैं। उनकी सन्तान भूक्ठी और ब्रहम्धर्म दिूष” होती है। इसलिये अनिन्दि अर्थात चार प्रकार के विवाहों की ही आज्ञा है। शेष चार आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच “निन्द्य“ है।  इसलिये “निन्द्यान् विवर्जयेत्“ इनको नही करना चाहिये।                                               हमारी समझ में मनु महाराज की यही निज सम्मति है। स्वामी दयानन्द ने इन आठ विवाहों के विषय में यह सम्मति दी हैः-                                                                                                     “इन सब विवाहो में ब्राहम्ण विवाह सर्वोत्कृष्ट, दैव और प्राजापत्य मध्यम, आर्ष, आसुर और गान्धर्व निकृष्ट, राक्षस अधम और पैशाच महाभ्रष्ट है।”( सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 4) आर्ष विवाह को मनु ने अनिन्दित और स्वामी दयानन्छ  ने निकृष्ट बताया है। शेष चार तो निन्दित है ही।

परन्तु नीचे के श्लोक सर्वथा विरूद्ध है:-

षडानुपूव्र्या विप्रस्य क्षत्रस्य चतुराऽवरान्।

विट्शूद्रयोस्तु तानेव विद्याद् धम्र्यानराक्षसान्।।                                                                                                                                                                                                (मनु0 3।23)

यहाॅ पहले छः अर्थात ब्राह्म देव, आर्ष, प्राजापत्य, असुर और गान्धर्व को ब्राहम्णों के लिये धर्मानुकूल बताया। पिछले चार अथार्त् असुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच को क्षत्रियों के लिये “धर्म” बताया। वैश्य और शूद्रों के लिये राक्षस विवाह को छोडकर असुर, गान्धर्व, और पैशाच कों धर्म ठहराया गया। यह बात न केवल 3।49 से ही सर्वथा विरूद्ध है, किन्तु आश्चर्य-जनक भी है । क्षत्रियों को पहले चार विवाहों की आज्ञा क्यो नही ? उनको शेष चार की क्यों है ? ‘पैशाच’ विवाह में क्या गुण, हैं कि क्षत्रियों के लिये यह अच्छा है और वैश्य तथा शूद्रों के लिये बुरा । कोई बुद्धिमान पुरूष पैशाच विवाह को किसी के लिये भी अच्छा नही बता सकता। फिर क्षत्रिय राजाओं पर क्या कृपा हो गई कि उनके विवाह के लिये कोई नियम ही नहीं रक्खा गया। सभी कुछ विहित बता दिया गया। क्या इसके क्षेपक होने में कोई सन्देह हो सकता है ? कही किसी राजा के उच्छ खल व्यवहार को ’धर्म’ बताने के लिये ही तो यह करतूत नही की गई ? फिर गांधर्व विवाह तो व्यभिचार से कम नहीं। परन्तु इसकी ब्राहम्णों को छोडकर सभी को आज्ञा है। राजा दुष्यन्त जब शकुन्तला पर आसक्त हो जाता है तो वह मनुस्मृति का प्रमाण देकर ही एकान्त प्रसग्ड करने के लिये उसको बाधित करना है। राजे लोग मनुस्मृति के इस हथियार को पाकर क्या कुछ नही कर सकते ?

यही नहीं । इससे अगला श्लोक तो इसके भी विरूद्ध हैः-

चतुरो ब्राहम्णस्याद्यान् प्रशस्तान् कवयोविदुः।

राक्षसं क्षत्रियस्यैकमासुरं वैश्यशूद्रयोः।।

विद्वानों का कहना है कि पहले चार विवाह ब्राहम्ण के लिये प्रशस्त है। क्षत्रिय के लिये एक राक्षस विवाह । वैश्य और शूद्र के लिये एक असुर विवाह है, यह सभी बाते कैसे ठीक हो सकती हैं। राक्षस विवाह में क्या विशेषता है कि यह एक ही क्षत्रिय के लिये प्रशस्त बताया गया । इससे अगले दो श्लोक भी देखिये:-

पंचानां तु त्रयो धम्र्या द्वावधम्र्यौ स्मृताविह।                                                                   पैशाचश्चासुरश्चैव न कर्तव्यौ कदाचन।।                                                                                       पृथक् पृथग्वा मिश्रौ वा विवाहौ पूर्वचोदितौ।                                                                                  गान्धर्वौ राक्षसश्वैव धम्र्यौ क्षत्रस्य तौ स्मृतौ।।

कभी कुछ और कभी कुछ। काई बुद्धिमान् पुरूष ऐसी बहकी बहकी बाते न कहेगा। थोडा- सा भी देने से विदित होता है कि 3।23 से लेकर 3।26 तक पाॅच श्लोक मिला दिये गये । आठ विवाहों के नाम बताकर उनका लक्षण बताना स्वाभाविक बात थी। इसके बीच में ’धर्म‘ और ‘अधर्म’ विवाहों को गिना बैठना जब कि 3।41-42 में ’अनिन्द्य‘ और ‘निन्द्य’ विवाहों को फिर बताना था न केवल अस्वाभाविक किन्तु अयुक्त है। इसी प्रकार 3।36,37,38 भी बेतुके जोडे गये हैं। और उनमें  इक्कीस इक्कसी पीढियों के तरने की मन को लुभाने वाली बातें बताई गई हैं। यह मिलावट ऐसा पैवन्द है जो दूर से चमकती है रफूगरी ऐसी भद्दी रीति से की गई है  कि समस्त कपडा भद्दा दीखने लगता है।

(3) अध्याय 9 के 59 से 63 श्लोक तक चार श्लोको, में ”नियोग” की आज्ञा है और 63 वें श्लोक में कहा गया है कि ”नियोग विधि“ को त्यागकर जो अन्यथा व्यवहार करते हैं वे पतित हो जाते हैं। परन्तु 64 से 67 तक नियोग का निषेध है। 59 से 69 तक ये ग्यारह श्लोक पढने से तुरन्त ही पता चल जाता है कि कुछ दाल में काला है। महाशय पी0 वी0 काणे कहते हैंः-

In one breath Manu seems to permit niyoga (9.59-63) and immediately afterwards he strongly reprobates it .(9.64-69).

66 वें श्लोक में वेन राजा की कथा देने से भी  यही प्रकट होता है कि पीछे से यह श्लोक जोड दिये गये।  (4) अध्याय 5।48-50 में मांस-भक्षण का सर्वथा निषेध हैः-

 

नाकृत्व प्राणिनां हिसां मांसमुत्पद्यते कक्चित्।

न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान् मांस विवर्जयेत्।।

समुत्पत्ति च मांसस्य वध वन्धौ चे देहिनाम्।।

प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्।।

यहाॅ न केवल मांस का निषेध ही है, किन्तु प्रबल युक्ति दी गई अर्थात बिना प्राणियों की हिंसा किये मांस मिलता ही नही और प्राणियो की हिसा स्वर्ग का  साधन नहीं इसलिये मांस वर्जनीय भी हैं। इस युक्ति के अनुसार न केवल साधारण मांस भक्षण का ही निषेध है, किन्तु यज्ञ में भी मांस डालना या खाना निन्दित है क्योकि यज्ञ में बलि देने से भी तो प्राणियों की हिंसा होती है। फिर आगे चलकर मांस का सर्वथा ही निषेध किया है:-

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।

संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः।।

(मनु0 5।51)

अर्थात् मांस खाने वाले को ही हिंसा का पाप नही लगता, किन्तु उसमें मारने वाला, बेचने वाला, खरीदने वाला, पकाने वाला आदि सभी सम्मिलित हैं। इन स्पष्ट श्लोकों के होते हुए भी नीचे के श्लोकों में मांस का विधान हैं:-

यज्ञाय जग्धिर्मां सस्येत्येष दैवो विधिः स्मृतः ।

अतोऽन्यथा प्रवत्स्तिु राक्षसा विधिरूच्यते।।

(मनु0 5।31 )

अथार्त यज्ञ में मांस डालना ’दैव विधि’ है और बिना यज्ञ की मांस की प्रवृति राक्षस विधि है। क्या बिना प्राणियों को हिंसा पहुचाये यज्ञ में मांस डाला जा सकता है ? यदि नही तो ’दैव विधि‘ और ‘राक्षस विधि’ में क्या भेद ? इसी प्रकार 5।32 से 42 तक ऊटपंटाग बाते बताई गई हैं। 3।40 में विचित्र युक्ति दी गई है कि

यज्ञार्थ निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः।।

अर्थात् जो पशु-पक्षी यज्ञ के लिये मारे जाते हैं उनको दूसरे जन्म में उत्कृष्ट योनि मिलती है। इसी प्रकार श्राद्ध में भी भिन्न भिन्न पशुओं के वध का उल्लेख है। (देखो अध्याय 3।268,269)

यह हैं कुछ वे स्थल जिनमें परस्पर विरोध होने के कारण मानना ही पडेगा कि इनमें से एक मौलिक है और दूसरा क्षेपकः, क्योकि दो परस्पर बातें किसी एक ग्रन्थकार का मंतव्य नहीं हो सकतीं। परन्तु क्षेपक यही तक सीमित नहीं हैं। समय का प्रभाव प्रत्येक वस्तु पर पडता हैं। जो मकान बनाया जाता हैं वह कितना ही सुछढ क्यो न हो, वायु, धाम तथा जल का उस पर कुछ न कुछ प्रभाव पडता ही है। प्रत्येक मकान की आकृति को देखकर बता सकते है कि समय ने उसमें कितना परिवर्तन किया हैं। पहले पानी दीवारों पर धब्बे डाल देता है। फिर घर का स्वामी उस पर पुताई कर देता है। फिर वर्षा आती है और कुछ भाग धुल जाता है तथा कुछ काले धब्बे और पड जाते है। फिर घर वाले चून की एक बारीक तह और लगा देते हैं। इस प्रकार प्रत्येक दीवार पर पपडियाॅ पड जाती हैं। कभी कभी दीवारों को खुरचकर नये सिरे से पुताई कर दी जाती है। परन्तु फिर भी उस को मौलिक दीवार नहीं कह सकते। यह सब आदि से अन्त तक क्षेपक ही होते हैं। इसी प्रकार पुस्तकों का हाल है। जो पुस्तकें साधारण मनोरंजन की हैं उनमें लोग बहुत कम हम्ताक्षेप करते हैं और वह भी जान-बूझकर नही उनके क्षेपक इस प्रकार के होते हैं कि कहीं तो लेखकों के प्रमाद के कारण शब्द छूट गया या कोई पंक्ति की पंक्ति रह गई या कभी कभी ऊपर की आधी पंक्ति नीचे की आधी पंक्ति के साथ मिल गई। कभी कभी शब्द के छूट जाने पर पीछे से आने वाले लोगों ने संशोधन के उद्देश्य से अपनी और से कोई ऐसा शब्द जोड दिया जो खप सके । इस प्रकार पय्र्याय आते रहते हैं। इस प्रकार ये क्षेपक तो होते हैं परन्तु किसी को हानि नहीं पहुॅचाते । परन्तु धार्मिक पुस्तकों के क्षेपक बडे भयानक होते हैं। उनका उद्देश्य ही दूसरा होता हैं, जब किसी देश में धार्मिक बिक्लव होते हैं, तो सब से पहले धर्मग्रन्थों पर आक्रमण होता है। कोई धर्मसंस्थापक आज तक सर्वथा नया धर्म स्थापित नहीं कर सका। हर एक कहता है कि मै वही बता करता हूॅ जो पूर्व से चली आई है। ऐसा कहने पर दो दल हो जाते हैं और धर्मग्रन्थ दोनों दलों के हाथ में मोम की नाक बन जाते हैं। मनुस्मृति जैसे ग्रन्थ में यह बात बहुत सुगम थी। अनुष्टुभ् छनद बहुत सीधा छनद है। स्पष्ट क्षेपकों के फिर मनुस्मृति की भाषा किल्ष्ट नहीं । दैनिक उदाहरण व्यवहार की बातें सरल से सरल भाषा में लिख दी गई है। इसमें मिला देना कौन कठिन था। उदाहरण के लिये ’नियोग‘ प्रकरण को लीजिये। जब लोगों ने किसी कारण से चाहा कि नियोग बन्द कर दिया जाय तो कुछ श्लोक बनाकर लगा दिये। और उसके लिये दो एक हेतु भी दे दिये ।हम आभी नियोग विषयक श्लोक दे चुके हैं। पहले कुछ श्लोक नियोग को विहित बताते हैं। उसके पश्चात् कहते है कि

नान्यस्मिन् विधवा नारी नियोक्तव्या द्विजातिभिः।

अन्यस्मिन् हि नियुंजाना धर्म हन्युः सनातनम्।।

(9।64)

अथार्त द्विजों में विधवा नारी अन्य के साथ नियोग न करें । इसका क्या अर्थ ? क्या विधवा को अन्य कुल में नियोग न करके अपने कुल में ही नियोग कर लेना चाहिये ? या विधवा नियोग न करे ? सधवा विशेष अवस्था में नियोग करे ? अथवा नियोग किसी अवस्था में किसी द्विज के लिये विहित नहीं ? इन तीनों में से किस निषेध का प्रतिपादन इस श्लोक द्वारा किया गया है ? आगे चलकर यह श्लोक हैः-

नोद्वाहिकेषु म्नत्रेषु नियोगः कीत्र्यते कचित्।

न विवाहविधायुक्तं विधवावेदनं पुनः।।

(9।65)

अथार्त विवाह सम्बन्धी मंत्रो में नियोग का उल्लेख नहीं और न विवाह-विधि में विधवा के पुनः-संस्कार की आज्ञा है। इस श्लोक का पहले श्लोक से क्या सम्बन्ध ? यदि कहीं भी और किसी प्रकार भी नियोग विहित नहीं तो ऊपर कहे हुए 9।59 का क्या अर्थ होगा ? यदि कहा जाय कि इस श्लोक में केवल इतना कहा गया है कि नियोग या विधवाः-संस्कार की विधि साधारण विवाह-विधि से अन्य है तो इससे अगले श्लोकों में इसको ’पशु-धर्म“ कहकर राजा वेन के समय के अत्यचारो का उल्लेख क्यों किया गया ? इससे प्रतीत होता है कि नियोग के विरूद्ध पहले एक श्लोक मिलाया गया। फिर मिलाने वाले को ज्यों ज्यों पकडे जाने का भय हुआ त्यों त्यों वह उसके उपाय-स्वरूप अगला श्लोक जोडता गया। इसी प्रकार अन्य क्षेपक भी बढ गये। पहले एक सिद्धान्त के निषेध में एक श्लोक मिलाया गया, इसको हम आक्रमण (Attack) कह सकते है। फिर उसके विरोधियों ने मौलिक सिद्धान्त की पुष्टि में आगे एक श्लोक मिला दिया। इसको प्रत्याक्रमण (Counter-attack) कहना चाहिये। इस प्रकार आक्रमण-प्रत्याक्रमणों का ताॅता बंध गया और अनेक स्थलों पर बहुत-से क्षेपक बढ गये। कहीं ऐसा भी हुआ कि विधि या निषेध की व्याख्या करने के लिये अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा में श्लोक बढाये गये, जिनका धर्मशात्र जैसे ग्रन्थ में लिखना उचित प्रतीत नही होता। ऐसे स्थल भी कई हैं। जैसे ब्रहमविवाह की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये लिख दिया कि इस प्रकार उत्पन्न हुई सन्तान से दस पीढियाॅ अगली, दस पिछली और एक वर्तमान- इक्कीस पीढियाॅ तर जाती हैं । इसमें सन्देह नही कि ब्रहमविवाह श्रेष्ठतम है, परन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि उससे इक्कीस पीढियाॅ तर जायॅ। यदि हम मनुस्मृति को आरंभ से देखें तो प्रथमे ग्रासे हि मक्षिकापातः अर्थात् पहले ही अध्याय बूहलर की साक्षी में क्षेपक का सामना पडता है। बूहलर महोदय लिखते हैंः-

The whole first chapter must be considered as a latter addition. No Dharma-Sutra begins with a description of its own origin, much less with an account of the creation. The former, which would be absurd in a Dharma-Sutra, has been added in order to give authority to a remodeled version. The letter has been dragged in, because the myths connected with Manu presented a good opportunity ‘to show the greatness of the scope of the work’ as Medhatithi says.

(Introduction ixvi)

“पहले सम्पूर्ण अध्याय को पीछे से मिलाया हुआ समझना चाहिये । कोई धर्म सूत्र अपने निकास की कहानी से आरंभ नहीं हो और न सृष्टि-उत्पति से । पहली बात जो धर्मसूत्र के लिये सर्वथा ही अनुचित है नये रूप् को प्रमाणित सिद्ध करने के लिये दी गई हैं । दूसरी बात बलात्कार इसलिये प्रविष्ट कर दी गई कि मनु के सम्बन्ध में जो गथा प्रसिद्ध है वह ग्रन्थ के मान को बढा दे जैसे किमेघातिथि का कथन हैं।“

जो बात बूहलर महोदय ने सूत्र के विषय में लिखी हैं वह वर्तमान संहिता के विषय में भी ठीक उतरती है। पहले अध्याय के 5 वें श्लोक से आगे जो सृष्टि-उत्पत्ति का वर्णन दिया है वह “मनु-प्रजापति”अर्थात् ईश्वर और मानव-धर्मशास्त्र के लेखक में झमेला उत्पन्न करने के लिये किया गया नारायण शब्द है। मनु को न केवल मानव-धर्मशास्त्र का ही पित बताया गया है, किन्तु समस्त सृष्टि का भी और जब कवि की प्रतिभा एक बार उत्तेजित हो गई तो कविता की तरंग मे उसने सभी कुछ लिख मारा। यक्ष, ऋक्ष, पिशाच, विद्युत् मेघ, इन्द्रधनुष, किन्नर, वानर, मत्स्य, कृमि, कीट, पतंग सब उत्पन्न हो गये। इसमें सन्देह नही कि कहीं कहीं पर बडी अच्छी बातें बताई गई हैं। जैसे-

आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।

ता यदस्पायनं पूर्व तेन नारायणः स्मृतः।।

(1।10)

अर्थ -’आप‘ अर्थात् जल का नाम नारा है क्योकि वे नर अर्थात् परमात्मा के पुत्र हैं (ता नराख्यस्य परमात्मनः सूनवोऽपत्यानि-इति कुल्लूकः)। यह जल जिसके अयन है इसलिये उस इश्वर का नाम नारायण है।

परन्तु पूर्वापर सम्बन्ध कुछ नहीं । नारायण शब्द पहले किसी श्लोक में तो था नहीं । फिर इसके अर्थ बताने की क्या आवश्यकता आ पडी ? इसमे ऊपर के श्लोक मे अन्डे के तेजस्वरूप हो जाने (तदण्डमभवद्धैमं) का वर्णन था। और दो श्लोक छोड कर फिर उस अन्डे के दो भागों में विभक्त हो जाने का वर्णन है। बीच में नारायण शब्द कहाॅ से कूछ पडा, समझ में नही आता । यदि कहा जाय कि श्लोक 1।12 में आये हुए भगवान् के नारायण नाम की यवव्यापक होने के हेतु व्याख्या की गई है, तो यह भी ठीक नहीं क्योकि इसके लिये तो नारायण शब्द की विशेषता सिद्ध नहीं होती।

इसी प्रकार ’शरीर ‘ शब्द  की बडी अच्छी शरीर शब्द व्युत्पत्ति की गई हैं:-

यन् मूत्र्यवयवाः सूक्ष्मास्तस्येमान्याश्रयन्ति षट्।

तस्माच्छरीरमित्याहुस्तस्य मूत्र्तिंमनीषिणः।।

अर्थात तन्मात्रा, अहंकार आदि छः को आश्रय देने के कारण शरीर का नाम शरीर पडा। शरीर शब्द साधारणतया ‘शृ’ धातु से निकाला जाता हैं जिसके अर्थ ‘हिंसा‘ के (शृ हिसायां ) हैं। परन्तु यहाॅ शरीर और आश्रय का व्युत्पत्ति-विषयक सम्बंध हैं, इसका मिलान न्यायदर्शन के इस सूत्र से होता हैंः-

चेष्टेन्द्रियार्थश्रयः शरीरम्।

इस श्लोक और इस सूत्र में अवश्य कुछ साहश्य हैं। सूत्रकार के मस्तिष्क में अवश्य ही ’शरीर’ शब्द के साथ ’आश्रय’ शब्द का सम्बन्ध रहा होगा, ऐसा जान पडता हैं । संभव हैं, ’शृ’ धातु का ’आश्रय’ अर्थ भी रहा हो। यह व्युत्पत्ति अवश्य ही अच्छी है परन्तु प्रसंग कुछ नहीं। जैसे ’नारायण’ शब्द की व्युत्पत्ति बीच में कूद पडी इसी प्रकार ’शरीर’ शब्द की भी । न प्रसंग न क्रम ।

एक और बात है। साधारणतया यह प्रतीत होता है कि सांख्य में जो सृष्टि व्युत्पत्ति का विधान है वही यहाॅ भी बताया गया है। श्री शंकररचाय्र्य जी ने मनु को प्रमाण माना है, इसलिये कुछ भाष्यकार तो अन्त में खीचतानी से उसको वेदान्त-पकर भी सिद्ध कर देते हैं। परन्तु वास्तविकता यह है कि वह सृष्टि-उत्पत्ति का वर्णन न सांख्य-मतानुसार ही है, न डा0 झ की साक्षी वेदान्त-मतानुसार। कुछ ऐसा गोल-माल है कि विचारे भाष्यकारों की भी नाक में दम कर देता है चोटी से एडी तक यत्र करने पर भी कुछ बडा भारी समन्वय नही हो पाता। यह ऐसी लम्बी कथा है जिसके वर्णन में  पोथा बन जाता है, परन्तु हम महामहोपाध्याय डाक्टर गंगानाथ झा का निम्न उद्धरण ही पर्याप्त समझते हैं। डाक्टर महोदय ने मनुस्मृति पर टिप्पणियाॅ (Manu-Smriti-Notes) दो जिल्दों में लिखी हैं जो कलकत्ता यूनीवर्सिटी की और से छपी हैं। दूसरी जिल्द में मनुस्मृति श्लोक 14 और 15 पर उन्होंने एक लम्बा नोट लिखा है। श्लोक यह है:-

उब्दबर्हात्मनश्चैव मनः सदसदात्मकम्।

मनश्चाप्यहंकारमभिमन्तारमीश्रवरम्।।

महान्तमेव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च।

विषयाणं गृहीतृणि शनैः पन्चेन्द्रियाणि च ।।

(मनु0 1।14-15 )

डा0 झा की टिप्पणी इस प्रकार हैं-

‘’ The confusion regarding the account of the process of creation in Manu is best exemplified by these two verses. The name of the various evolutes have been so promiscuously used, thet the commentators have been led to have recourse to various forced interpretation, with a view to bring tha statement herein contained into line with their own philosophical predilections. Medha ., Kullu, Govi, and Ragh take it as describing the three prin ciples  of the Sankhya-Mahat, Ahankara and Manad ; but finding that the production of Ahankara from Manas, or of Mahat (which is what they understand by the term ‘Mahantam Atmanm’) is not in conformity with the Sankhya doctrine.- they assert that the three evolutes have been mentioned here ‘in the inverted.’ Even so, how they can get over the statement that ‘Ahankar’ was produced ‘from manas’ , (Manasah’) it is not easy to  see. Similarly the ‘atman’ from which Manas is described as being produced, Medha explains as the Sankhya ‘Pradhana’ and Kulla, as the Vedantic  ‘Supreme solu.’

Buhler remarks that according to Medha, by the particle ‘cha’ ‘the subtle elements alone are to be understood.’ This dose not represent Medha-correctly. His words being-

Inorder to escape from the above difficulties Nandan has recurse to another method of interpretation- no less forced than the former. He takes ‘Manas’as standing for mahat, and ‘Mahantam Atmanam’ as the Manas.

Not satisfied with all this, Nandan remarks that the two verses uUnu dh lk{kh are not meant to provide an accurate account of the precise order of creation ; all that is meant to be shown is that all things were producedout of parts of the body of the Creator Himself.

इस उदाहरण का भावानुवाद

मनु में सृष्टि-उत्पत्ति वर्णन सम्बन्धी गडबड का सब से अच्छा उदाहरण यह दो श्लोक (1।14-15 ) हैं। भिन्न-भिन्न विकृतियों के नाम इस झमेले से प्रयुक्त हुये हैं कि भाष्यकारों को सृष्टि-उत्पत्ति  के इस वर्णन का अपने अपने धार्मिक सिद्धान्तों के साथ समन्वय करने में बहुत बडी खीचा-तानी की आवश्यकता पडी हैं। मेघातिथि, कुल्लूक, गोविन्दराज और राघवानन्द का मत है कि इसमें सांख्य के तीन तत्वों -महत्, अहंकार और मन का वर्णन हैं । परन्तु यह देखकर कि सांख्य सिद्धान्तानुसार मन से अहंकार या महत् की उत्पत्ति नही होती (महान्तं आत्मानं से वे महत् का ही अर्थ लेते हैं ), उनको कहना पडा कि तीनों विकृतियों को ’उलटे क्रम‘ से वर्णन किया गया है। इस पर भी मन से ( मनस् ) अहंकार पैदा हुआ इस अडचन का समझना सुगम नहीं हैं। इसी प्रकार ‘आत्मा’ जिससे मन की उत्पत्ति बताई जाती है मेघातिथि के मत में सांख्य का ‘प्रधान’ और  कुल्लूक के मत में वेदान्तियों का ‘ब्रह्म’ है। बूहलर का कथ हैं  कि मेघतिथि के मतानुसार च ‘से’ सूक्ष्म तत्व ही समझने चाहिये। परन्तु मेधातिथि के कथन का यह शुद्ध अनुवाद नहीं है। मेधातिथि के शब्द यह हैं:- ‘ चशब्देन विषयांश्च शब्दस्पर्श रूपरसगन्धान् पृथिव्ययदिनि च’।

इन कठिनाइयों से बचने के निमित्त नन्दन दूसरी ही रीति से व्याख्या करता है जो कुछ कम खीचा-तानी नहीं है। वह कहता है कि ’मन‘ का अर्थ है ’महत्‘ और ‘महत् आत्मान’ का मन।

इससे भी सन्तुष्ट न होकर नन्दन कहता है कि इन दो श्लोकों का यह उदेश्य नहीं है कि सृष्टि-उत्पित्त का ठीक-ठीक क्रम शुद्ध रीति से वर्णन किया जाय। इनका उद्देश्य केवल इतना है कि सब पदार्थ ब्रह्मा के शरीर के अवयवों से उत्पन्न हुए हैं। हमने यह लम्बा उद्धरण इसलिये दिया है कि पाठकगण सुष्टि-क्रम के इस मनोरंजक परन्तु अशुद्धि-पूर्ण वर्णन को समझ  सके और बूहलर के इस कथन की सत्यता को समझ सकें कि इतना भाग पीछे से मिलाया गया है। अपके दार्शनिक सिद्धान्त कुछ भी क्यो न हों, आप इस सृष्टि-उत्पत्ति वर्णन का ओर-छोर पाने में समर्थ न होगें। यदि नन्दन का यह कहना सत्य है कि इन श्लोकों का मुख्य उदे्श्य केवल ब्रह्मा के शरीर से सब पदार्थो की उत्पत्ति दिखाना है तो यहं उदे्श्य दो शब्दो या आधे श्लोक मे ही पूरा हो सकता था । इतने श्लोक बढाकर स्मृति का आकार व्यर्थ में ही क्यो बढा दिया गया। यदि पाठकगण इन श्लोकों को बार बार पढेगे और पूर्वापर प्रसंग मिलाने की चेष्टा करेंगे तो उनको अवश्य ही भूल-भुलइयों में होकर गुजरना पडेगा।

इसी अध्याय में एक और स्थल है जो है तो उत्तम परन्तु क्षेपक प्रतीत होता हैं। श्लोक 61 से मन्वन्तर लेकर 73 तक मन्वन्तरों, युगो, संध्या तथा संध्यांशों का वर्णन है जो सृष्टि-उत्पत्तिकाल पर अच्छा प्रकाश डालता है। परन्तु जिस स्थल पर यह वर्णन है वहाॅ काल की संख्या का कुछ भी प्रसंग नही है । 61 वाॅ श्लोक यह है।

स्वायंभुवस्यास्य मनोः षड्वंश्या मनवोऽपरे।

सृष्टवन्तः प्रजाः स्वा स्वा महात्मानो महौजसः।।

अर्थात् इस स्वायंभुव मनु के छः और वंशज मनु हुए जिन्होने अपनी अपनी प्रजायें उत्पन्न की। इस सिद्धान्त की सत्यता में बडा सन्देह है। मन्वन्तर का यह अर्थ नही कि प्रत्येक मनु के आरम्भ मे सृष्टि उत्पन्न हो और अन्त में प्रलय हो जाय और दूसरा मनु अपनी प्रजा फिर से उत्पन्न करे। जहाॅ सृष्टि के काल तथा ब्रह्म-दिन औार ब्रह्म-रात्रि का वर्णन है वहाँ मन्वन्तर  ब्रह्म-दिन अर्थात् सृष्टि-काल के ही भिन्न-भिन्न भाग है आगे कहा भी है:-

ब्रह्मस्य तु क्षपाहस्य यत् प्रमाणं समासतः।

एकैकशो युगानां तु क्रमशस्तन् निबोघृत।।

(मनु0 1।68)

जिस प्रकार मनु शब्द कही मनुष्य का वाचक और कही ईश्वर का वाचक है इसी प्रकार ‘मन्वन्तर‘ शब्द में ‘मनु’ काल की एक  विशेष इकाई का वचक है, न कि पुरूष-विशेष का । काल की इकाई को मनुष्य समझकर उसके वंशज नियत करना और उन वंशजों के द्वारा सृष्टि उत्पन्न कराना सर्वथा भ्रम-मूलक कल्पना है। मनु के वंशज मनुओं का अर्थ ? स्वायंभुव मन्वन्तर के मनु का स्वारोचिष मन्वन्तर वंश कैसे हो गया ? क्या यह शारीरिक वंश परम्परा थी ? क्या यह दूसरा मनु पुत्र, प्रपौत्र के सिलसिले से पहले मनु का वंशज था ? यदि था तो क्या दूसरे मन्वन्तर के आरंभ में सब मर गये, केवल एक ही मनु बचा जिसने प्रजा उत्पन्न की, और इस प्रकार अगले मन्वन्तरों में भी सब मरते गये, केवल एक मनु बचता गया ? यदि कहा जाय कि एक मन्वन्तर के अन्त में प्रलय हो जाती है और दूसरे मन्वन्तर के आदि में फिर सृष्टि उत्पन्न होती है, तो फिर ब्रह्मदिन का क्या अर्थ होगा क्योंकि प्रत्येक ब्रह्मदिन में 14 मन्वन्तर होने चाहिये। वस्तुतः बात यह है कि ’मनु’ शब्द के भिन्न भिन्न अर्थो में गडबडझाला उत्पन्न करके मनु द्वारा प्रजा उत्पन्न करने की बात गढ ली गई। श्लोक 1।62 में सात मन्वन्तरों के नाम गिनाये गये है:-

स्वारोचिषश्चोत्तमश्च तामसो रैवतस्तथा।

चाक्षुषश्च महातेजा विवस्वत्सुत एव च ।।

अर्थात स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्त और सबसे पहला स्वायंभुव जिसका वर्णन पहले आ चुका है, यहाँ प्रश्न होता है कि अगले सात मन्वन्तरों का उल्लेख क्यों नहीं किया गया। यहाॅ कहा जा सकता है कि मनुस्मृति में केवल भूतकाल का उल्लेख है भविष्य का नही । आजकल वैवस्स्वत मन्वन्तर है इसलिये आदि से लेकर आज तक के मन्वन्तर गिना दिये। परन्तु यह कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं है। यहाॅ पुराना इतिहास लिखना नहीं था किन्तु काल के विभाग देने थे। ऐसा करने के लिये अगले युगों के नाम भी आवश्यक थे। यदि कहा जाय कि इतिहात-मात्र दिया गया है तो भी ठीक नहीं । क्योकि यदि वर्तमान मन्वन्तर अर्थात वैवग्वत सर्वथा नया है और उसमें प्रजा नये सिरे से उत्पन्न की गई है तो यह मनुस्मृति वैवस्वत मनु की बनाई होनी चाहिये न कि भ्वायंभुव मनु की। ऐसा नही माना जाता । श्लोक 1।64 में काल का परिमाण बताने के लिये छोटी से छोटी इकाई अर्थात् ’निमेष‘ से आरंभ किया जाता है और अन्त को ‘युग’ तक का वर्णन आता है। इस क्रमशः वर्णन के पहले यकाग्रक मन्वन्तरों का नाम कहाॅ से कूद पडा। श्लोक 1।73 में समय का विभाग बताकर फिर आकाश वायु अग्नि आदि की उत्पत्ति का वर्णन आरंभ हो जाता है। श्लोक 1।81 से 1।86 मे समय का विभाग बताकर फिर आकाश, वायु, अग्नि, आदि की उत्पत्ति का वर्णन आरंभ हो जाता है। श्लोक 1।81 से 1।86 तक सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग की विशेषतायें बताई गई है जो सर्वथा कल्पित और भ्रममूलक है । कलियु्रग को हास-युग बताकर एक ऐसी शिक्षा का बीज बो दिया गया है जिसने भारत निवासियो को रसातल को पहुॅचा दिया । प्रत्येक भारतवासी के मस्तिष्क में यह भ्रम बैठ गया है कि कलियुग में उन्नति हो ही नही सकती, धार्मिक जीवन बन ही नही सकता । यह तो काल का प्रभाव है, इसमें उनका दोष नहीं । यह प्रवृत्ति कितनी भयानक है इस पर जितना कहा जाय थोडा है। काल के विभार्गा का धर्म से क्या सम्बन्ध ? बहुत – से लोग कहा करते है कि जैसे शिशिर ऋतु में लोग रजाई ओढते है और ग्रीष्म काल मे पंखा चलाते हैं, इसी प्रकार सतयुग मे सत्य और धर्म की प्रधानता होती है और कलियुग में उनका हृास हो जाता है। परन्तु यह लोग तनिक नहीं सोचते कि धर्म के लक्षण तो सार्वदेशिक और सार्वकालिक होते हैं। यदि काल धर्म और अधर्म के तल का भी निश्चित किया करे तो फिर मनुष्य क्या करे ? और किस प्रकार उसकी कर्म सम्बन्धी स्वतन्त्रता रह सके। अस्तु। यह तो रही सिद्धान्त की बात, परन्तु जिस क्रम-भंग का हमने ऊपर संकेत किया है उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह सब मिलावट है और कई बार की मिलावट है जिसका ठीक ठीक अनुसन्धान कठिन काम है।

मानव धर्म सूत्र और मनुस्मृति का सम्बन्ध: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यहाँ  यह प्रश्न रह जाता हैं कि क्या मनु के उपदेश आरंभ से ही इन रूप में थे ? इस विषय में भिन्न मानव-धर्म सूत्र भिन्न कल्पनायें की गई हैं। कुछ लोगों का और मनुस्मृति मत है कि पहले एक ग्रन्थ था जिसका नाम का सम्बन्ध था मानव-धर्म-सूत्र। यह सूत्र रूप में था । पीछे से इसको श्लोकों का रूप दिया गया और इस रूप् के देने वाले भृगु ऋषि है। हमने उपर महाभारत शान्तिपर्व के कुछ रूलोक उद्घृत किये हैं जिनमें मनुस्मृति को एक लाख रूलोकों का बताया गया है। इसका उल्लेख करते हुए काणो महोदय (P.V.Kane) लिखते हैं कि शान्तिपर्व अध्याय 59,श्लोक 80-85 में मनु का नाम नहीं है। उसमें धर्म, अर्थ और काम पर ब्रहम्मा द्वारा एक लाख अध्याय का ग्रन्थ बनायं जाने का उल्लेख है जिनको विशालात्य, इन्द्र बाहुदन्तक, बृहस्पति और काव्य ने 10000,5000,3000,और 1000 अध्यायों का कर दिया था। नारदस्मृति की भूमिका में लिखा हैं कि मनु ने एक धर्मशास्त्र बनाया था जिसमें एक लाख श्लोक 1080 अध्याय, तथा 24 प्रकरण थे नारद ने इसको 12000 श्लोकों का करके मारकण्डेय को सिखाया। मारकण्डेय ने इनके 8000 कर दिये। सुमति भार्गव ने फिर काट छाॅट करके इनके 4000 श्लोक कर दिये । इसके पश्चात् नारदस्मृति पहला यह श्लोक देती हैंः-

तत्रायमाद्यः श्लोकः । आसीदिदं तमोभूतं न प्राज्ञायत किंचन। ततः स्वयंभूर्भगवान् प्रादुरासीच् चतुर्मुखः।।

काणे महोदय का विचार है कि यह सव कथन माननीय नहीं हैं। नारदस्मृति आदि पुस्तकों का माना बढाने के लिये यह सब लिख दिये गये हैं। इसमें कुछ आश्चर्य नही हैं। क्योंकि एक लाख श्लोकों की स्मृति का इस प्रकार 4000 श्लोकों तक आना  और फिर उससे भी घटकर 3000 के लगभग हो जाना सन्देह उत्पन्न किये बिना नहीं रह सकता । हेमाद्रि, तथा संस्कारमयूख आदि गन्थों में भविष्य पुराणा का यह उद्धरण मिलता हैंः-

भार्गवीया नारदीया च बार्हस्पत्याडिग्रस्यपि।

स्वायंभुवस्य शास्त्रस्य चतस्त्रः संहिता मताः।।

अर्थात् मनुस्मृति की चार संहितायें प्रसिद्ध थीं। एक भृगु- संहिता, दूसरी नारद्संहिता, तीसरी बृहस्पतिसंहिता और चौथी आंगिरस-संहिता। पता नहीं कि यह कौनसी संहितायें हैं क्या यही भृगुसंहिता हमारी वर्तमान मनुस्मृति है जैसा कि प्रसिद्ध है? इसके विरूद्ध काणे महोदय ने चार सन्देहोत्पादक बातें कहीं हैंः-

(1) विश्वरूप् ने या याज्ञवल्क्य 2। 73,74,83,85 पर भाष्य करते हुए वर्तमान मनुस्मृति के 8। 68,70,71,105,106,340, श्लोक उद्धृत किये हैं, वे स्वयंभू-कृत बनाये गये है।

(2) परन्तु याज्ञवल्क्य 1। 187,252 के भाष्य में जो श्लोक भृगु के नाम से उद्घृत हैं वे  आजलक मनु में पायें नहीं जाते।

(3) अपसर्क ने जो श्लोक भृगु के नाम से उद्घृत किये हैं उनका मनुस्मृति में पता तक नहीं ।

(4) इन्हीं अपरार्क ने भृगु के नाम से यह श्लोक दिया है जिसमें मनु का नाम हैंः-

येषु पापेषु दिव्यानि प्रतिशुद्धानि यत्नतः।

करयेत्सज्जनैस्तानि नाभिशस्तं त्यजेन् मनुः।।

ठसमे पाया जाता है कि संभव है, कोई और भृगुसंहिता भी रही हो जिसमें से विश्वरूप् और अपरार्क ने अपने श्लोक लिये हों।

चहे इस मनुस्मृति को भृगुसंहिता कहा जाय या न, मनु स्मृति के प्राचिनत्व तथा गौरव में इससे कुछ भेद नहीं आता। हम माने लेते हैं कि यह भृगुसंहिता है। यद्यपि केवल मनुसंहिता कहना अधिक उपयुक्त हैं।

अब प्रश्न यह है, कि मानव-धर्म-सूत्र क्या चीज थे और कया उन्हीं का श्लोकरूप् वर्तमान मनुस्मृति है ? इसके लिये दो कल्पनाये की गई हैंः-

(1) पहले तो मान लिया गया है कि पहले ग्रन्थ सूत्र रूप् में हुए। फिर श्लोक रूप में।

(2) दूसरे मनुस्मृति जिस अनुष्ट्भ् छनद में है वह नया छन्द है।

हम तो इन दोनों युत्कियों में विशेष सार नहीं देखते । यह मान लेना कि सूत्र-युग से पहले श्लोक नहीं थे अत्यन्त कठिन है। योगेन्द्रचन्द्र घोष ने अपने Principles of Hindu Low Vol. I मे लिखा है:-

The old Dharm Shastras were composed in a form which was capable of being sung and were committed to memory……………………..in the form of Gathas, for we find such gathas mentioned in the Manu Sanhita and quoted in other Dharm Shastras.

अर्थात पुराना धर्मशात्र इस प्रकार बनाया गया था कि गाया जा सके और रटा जा सके।अर्थात् गाथा के रूप  में क्योंकि मनुसंहिता तथा अन्य धर्मशात्रों में इन गाथाओं का उल्लेख है।

हमको यह बात अधिक ठीक जॅंचती है। जिन विचारों को दर्शनकार तथा व्याकरणकारों ने सूत्रों में लिखा वह अवश्य ही सूत्र से पूर्व दूसरे रूप  में रहें होगे। सूत्र-युग वैदिक साहित्य का सबसे प्रथम युग नहीं है और न यह कहा जा सकता है कि सूत्र- युग एक निश्चित युग है जिसमें सिवाय सूत्र के कुछ नही लिखा गया या अन्य युगों में सूत्र नही लिख गये। आय्य जाति जैसी प्राचीन जाति के जीवन में अनेक परिवर्तन हो चुके हैं। साहित्य की अनेक शैलियाॅ मरती और पुनर्जीवित होती रही हैं। आधुनिक यूरोपियन विद्वान् पहले तो कुछ ऐतिहासिक कल्पनायें बना लेते हैं और उन्हीं कल्पनाओं के आधार पर वैदिक ग्रन्थों के पौर्वापय पर विचार करते हैं। इससे अनेक भ्रम उत्पन्न हों जाते है। जिन मानव-धर्मसूत्रों को मनुस्मृति का आधार माना जाता हैं । उनकी प्रति भी तो हमारे समक्ष नहीं है जिनसे मिलान करके हम किसी निश्चय पर पहुॅच सकें । वाशिष्ठ-धर्मसुत्रों में उसके कुछ उद्धरण मिलते हैं जो गद्य-पद्य दोनो में मिले जुले है। मानव-गृहय-सूत्र इस समय भी प्राप्त है। इसका एक हिन्दी अनुवाद पं0 भीमसेन शर्मा ने इटावा से निकाला था। उसमें और मनुस्मृति में तो कोई समानता है नहीं। इसलिये उससे तो कुछ सहायता मिल नहीं सकती।

रही अनुष्टुभ् छन्द की बात । यह भी एक अटकल है।  अनुष्टुभ् छन्द की  उत्पत्ति वाल्मीकि से मानी जाती है। कहा जाता है कि सब से पहले वाल्मीकि ने यह श्लोक बनाया था ।

मा निषाद प्रतिष्ठाः त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

यत् क्रौन्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।

इसलिये उनको आदि कवि कहते है, परन्तु इसके लिये कोई अकाट्य प्रमाण नहीं है। अनुष्टुप् छन्द वेदों में अनेक स्थान पर आया है और यजुर्वेद अध्याय 40 का तीसरा मंत्र तो लौकिक अनुष्ट्भ् से कुछ भी भिन्न नहीं है। मैक्समूलर की कल्पना है कि लौकिक अनूष्टुभ् छन्द में बडे ग्रन्थ लिखने की प्रथा बहुत पीछे से चली। रामायण, महाभारत, मनुस्मृति तथा अन्य कई स्मृतियाॅ इसी छन्द में लिखी गई हैं। परन्तु इससे मनुस्मृति के युग का पता लगाना अटकल ही है। मैक्समूलर की कल्पना भी कल्पना-मात्र है। वह मान लेते है कि रामायण-महाभारत

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता।

तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।

श्लोके पष्ठं गुरू ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम्।

द्विचतुः पादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः।।

तथा मनुस्मृति आदि सबएक युग के है कालिदास ने रघुवंश का आरम्भ अनुष्टुभ् से किया है। संभव है, आजकल कोई कवि अनुष्टुप् में कि मनुस्मृति रामायण, महाभारत, या रघुवंश से पीछे की चीज है। सम्भव है कि जो निषाद सम्बन्धी लोकोक्ति वाल्मीकि के विषय में प्रचलित है उसी के आधार पर मैक्समूलर ने यह कल्पना करली हो और अन्य संस्कृतज्ञों ने उसका अनुकरण किया हो।

अब हम ऐतिहासिक भक्तमेलों को विद्वान् अनुसन्धान- कर्ताओं के लिये छोडते हैं। यहाॅ हम केवल अपनी धारणा प्रकट करते है। वह यह है कि:-

(1) मनु ने उपदेश पहले किसी गाथा रूप  में थे।

(2) फिर मानव-धर्म-सूत्रों के रूप में आये।

(3) फिर वर्तमान मनुस्मृति के रूप  में परिवर्तन हो गये ।

(4) यह मनुस्मृति भी बहुत ही प्राचीन है।

(5) पीछे से इस मनुस्मृति में बहुत से क्षेपक बढा दिये गये।

भृगुसंहिता के कर्ता कौन थे : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यह भृगुसंहिता भृगु की बनाई हैं।  या अन्य किसी की, इस विषय में भी विद्वानों में विवाद हैं। मनु भृगुसंहिता के कर्ता की स्वयं बनाई तो हो ही नहीं सकती। कौन थें ? इतना तो मनुस्मृति के पहले श्लोक से ही विदित हैं –

मनुमेकाग्रमासीनमभिगम्य महर्षयः।

प्रतिपूज्य यथा न्यायमिदं वचनमबु्रवन्।।

अथार्त् जब मनु महाराज एकान्त में बैठे हुए थे तो महर्षियों ने सत्कार-पूर्वक आकर उनसे उपदेश के लिये प्रार्थना की । यदि मनु स्वयं लिखने वाले होते तो इस प्रकार आरंभ न होता।

इस पर कहा जा सकता है कि अन्य स्मृतियों का भी तो आरंभ इसी प्रकार हुआ है। जैसे,

योगेश्वराज्ञवल्क्यं सपूज्य मुनयोऽब्रवन्।

वर्णाश्रमेतरणां नो बू्रहि धर्मानशेषतः।।

हुताग्निहोत्रमासीनमत्रि वेद विदां वरम्।

सर्वशास्त्रविधिज्ञं तमृषिभिश्च नमस्कृतम्।।

नमस्कृत्य च ते सर्व इदं वचनमब्रु वन्।

हितार्थं सर्वलोकानां भगवन् कथयस्व नः।

विष्णुमेकाग्रमासीनं श्रुतिस्मृतिविशारदम्।

पप्रच्छुर्मुनयः सर्वे कलापग्रामवासिनः।।

इष्ट्ठा क्रतुशतं राजा समाप्त वर दक्षिणम्।

भगवतं गुरूं श्रेष्ठं प्र्यपृच्छद् बृहस्पतिम्।।

हमारा विचार हैं कि याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों के नाम से जो स्मतियाॅ पीछे बनाई गईं वह मनुस्मृति का अनुकरण मात्र थीं। भारतीय साहित्य में एक ऐसा युग आ चुका हैं जब लोग अपनी बनाई हुई चीजों कों पूर्व आचार्यों और ऋषियों के नाम से प्रचलित कर देते थें जिससे सर्वसाधारण में उनका मान हो  सकें। भारतवर्ष में जब बौद्ध, आदि अवैद्कि मतों का प्रचार हुआ और जब वेदों का पुनरूद्धार करने के लिये पौराणिक धर्म ने जोर पकडा तो ऐसी प्रवृति बहुत बढ गई। याज्ञवल्क्य स्मृति के बनाने वाले याज्ञवल्क्य कौन है यह कहना कठिन है। आरंभिक श्लोक से तो ऐसा प्रतीत होता हैं कि यह वही याज्ञवल्क्य है जिनका उल्लेख शतपथ ब्राहम्णादि ग्रन्थों में पाया जाता है। मनुस्मृति के अनुकरणार्थ ही उसका आरंभ उसी प्रकार के श्लोक से कर दिया गया। यही दशा अन्य स्मृतियों की है जो बडे बडे नामों से सम्बन्धित कर दी गई है। परन्तु मनुस्मृति के विषय में यह माना जा सकता है कि मनुमहाराज के उपदेशों को ही भृगु या अन्य किसी विद्वान् ने छन्दोबद्ध कर दिया हो । प्राचीन काल में उपदेष्टा मौखिक उपदेश दिया करते थे और पीछे से उनके अनुयायी सर्वसाधारण के लाभार्थ उन भावों को छन्दों का रूप दे देते थे। यूनान का प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू (Aristotle) लिखता नहीं था। उसके उपदेश उसके शिष्यों ने लेखबद्ध किये। महात्मा बुद्ध के जो उपदेश धम्मपद में मिलते है वह बुद्ध के शब्द नहीं है। न बुद्ध श्लोक बनाकर उपदेश देते थे । यह तो बौद्ध शिष्यों ने पीछे से बना दिये। यदि यह सत्य है कि भगवद्गीता श्रीकृष्ण के उपदेश है तो उसके विषय में भी यही धारणा ठीक होगी कि व्यास अथवा किसी अन्य महाभारत के लेखक ने उन उपदेशों कों श्लोक-बद्ध कर दिया।

प्रचलित मनुस्मृति का कर्ता : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

अब मनु के विषय में इतना कहकर मनुस्मृति पर आना चाहिए । प्रश्न यह है कि जो मनु इतना प्रसिद्ध है क्या प्रचलित मनुस्मृति भी उसी की बनाई है भी उसी की बनाई है यदि नही तो मनु के विषय मे इतना राग अलापने का क्या अर्थ हमारा ऐसा मत है कि वर्तमान मनुस्मृति में मनु के विचार है मनु के शब्द नही । और मानते भी सब ऐसा ही है । जिसको लोग मनुस्मृति कहते उसका नाम है भृगुसंहिता । कहते है कि भृगु और उनके शिष्यो ने इसको श्लोक बद्ध किया मनुस्मृति में भी लिखा है:-

एतद वोअयं भृगुः शास्त्रं श्रावयिष्यत्यशेषतः ।

एतद्धि मताअधिजरे सर्वषोअखिन मुनि ।।,

ततस्तथा स तनेक्तो महर्षिमनुना भृगुः।।

तानब्रवीहषीन सर्वान प्रीतात्मा श्रयतामिति

(मनु0 1।59 60)

इन श्लोको के आगे पीछे के जो श्लोक है उनका मिलान से यह निश्चय करना कठिन है कि यह संहिता भृगु की ही बनाई हुई है । परन्तु एक बात निश्चित है अर्थात मनुस्मुति आजकल जिस रूप मे मिलती है और जिसको आजकल जिस रूप मे मिलती है और जिसको  आजकल जिस रूप मे मिलती है और जिसको भृगु सहिता कहते है यह भी कोई नवीन पुस्तक नही है  ।

पातजलि ने अपने महाभाष्य मे एाणिनि के

एक: पूर्वपरया (अष्टाघ्यायी 6।1।84)

सूत्र पर भाष्य करते हुए एक श्लोक दिया है:-

ऊध्र्व प्राणा व्युत्का्रमन्तियून: स्थविर आयति।

प्रत्युत्धनाभिवादाभ्यां पुनस्नान प्रतिपधते ।।

यह श्लोक ज्यों का त्यो मनुस्मृति के दूसरे अघ्याय (2।120) में मिलता है । यघपि महाभाष्य मे मनु का नाम नही है परन्तु प्रतीत तो ऐसा ही होता है कि यह मनुस्मृति का ही उद्धरण है ।

किरातार्जुनीय 1।9 मे मानवो शब्द मनुस्मृति प्रतिपादित धर्म क लिए ही आया । बहलर महोदय ने अपनी पुस्तक Laws of Manu को भूमिका में लिखा है कि

Land grants foud in commencement of the vallabhi inscriptions of Dhruvaena I Guhasena and Dkarasena ii the oldest of them is dated Samvat 207 i.e not later than 526 A.D There it is said in tha description of Dronaasinhs the first Maharaja of Vallabhi and the Im mediate predecessor of Dharuvasena I That Like Dharmaraj (Yudhisthra )

He observed as his law the rules and ordinances taught by manu and othe (sages)

(page cxiv)

अर्थात बल्लमी लेख प्रस्तरों में जो ध्रवसेन प्रथम गहूसेन तथा द्वितीय धारसेन से सम्बन्ध रखते है और जिनमे सब से प्राचीन 207 सम्वत या 526 ई0 के पश्चात का नही है । बल्लभीवंश के प्रथम महाराज दो्रणसिंह के विषय में जो ध्रवसेन प्रथम से पूर्व राजगदी पर बैठा था लिखा है कि वह धर्मराज (युधिष्ठिर) के समान मनु आदि के उपदेशो पर चलता था (मन्वादि प्रणीत विधि विधान कर्मा )

जितनी स्मृतियाॅ आजकल मिलती है उनमे मनुस्मृति सब से प्राचीन है । विश्वरूप ने जो याज्ञवल्क्य मनुस्मृति की प्राचीनता स्मृति पर टीका लिखी है उसमे दो सौ के लगभग उन्ही श्लोको का उद्धत किया है जो इस समय मनुस्मृति में मिलते है । श्री शंकराचार्य ने अपने वेदान्त माष्य में मनु स्मृति च सूत्र की व्याख्या मे वे लिखते है:-

 

मनुव्यासप्रभृतयः शिष्टा

अर्थात मनु व्यास आदि शिष्ट पुरूषों के कथन स्मृति के अन्तर्गत आते है । कुमारिल की तंत्रवातिक तो मनु के आधार पर ही है । कुमारिल ने मनुस्मृति को न केवल सब स्मृतियो से ही किन्तु गोतम सूत्रो से भी अधिक विश्वसनीय और माननीय स्वीकार किया है । कुल्लूकभटट ने मन्वर्थमुक्तावली में मनुस्मृति के पहले अघ्याय के पहले श्लोक की व्याख्या करते हुए बृहस्पति के यह श्लोक दिये है:-

वेदार्थो पनिबद्धत्वात प्राधान्यं हि मनोः स्मृतम ।

मन्वर्थ विपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते ।।

तावच्छास्त्राणि शाभन्ते तर्कव्याकरणानि च ।

धर्मार्थमोक्षोपदेष्टा मनुर्यावत्र दृश्यते ।।

अर्थात मनुस्मृति का प्राघान्य इसलिये है कि वह वेदोक्त धर्म का प्रतिपादन करती है। जो स्मृति मनु के विपरीत है वह माननीय नही हो सकती । तर्क व्याकरणा आदि शास्त्रो की शोभा तभी तक है जब तक धर्म अर्थ और मोक्ष मे उपदेष्टा मनु पर दृष्टि नही जाती

अपरार्क ने याज्ञवल्क्य स्मृति के श्लोक 2।21 की व्याख्या करते हुए भी पहले श्लोक का उद्धरण किया है । अश्वघोष की वका्रसृची में मानवधर्म से कई श्लोक लिए गये है जो वर्तमान मनुस्मृति के ही है । कुछ ऐसे भी है जो इसमे नही मिलते ।

बाल्मीकीय रामायण किष्किन्धा काण्ड 18।30 32 में मनुस्मृति के दो निम्न श्लोको का उल्लेख है जो आठवे अध्याय मे है:-

राजभिः कृतदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः ।

निमलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकतिनो यथा ।।,

सासनाद्वा विमोचक्षाद वा स्तेनः स्नेयादविमुच्यते

अशासित्वा तु त राजा स्तेतस्याप्रोति किल्विषम।

पी0 वी0 काने ने अपनी पुस्तक History of Dharma-shastra  मे लिखा है कि मनुस्मृति का भारतवर्ष के बाहर प्रभाव भारत के बाहर भी पाया जाता है।

वे लिखते है:-

the infuence of the Manusmriti spread evan beyond the confines of india. In a Bergaigun Inscriptions Sanscrites de campaet du Cambodge (p.423) we have an inscriptions in which occur verses one of which is identical with Manu (11 136) and the other is a summary of manu (111. 77-80) The Bur

Mese are gouerned in modern times by the dhamma that; withch are based on Manu. Vide Dr. Ferchhammee’s Essay on Sources and Development of Burmese Law (1884.-goon). Dr. E. C. G. jonker (Leyden 1885) wrote a dissertation on an old Javanese law- book compared with Indian sources of low like the Manusmriti (which is still used as a lawbook in the island of Bali).

अर्थात् ब्रहम्देश और बाली द्वीप के धर्मशास्त्र मनुस्मृति से बहुत कुछ साहस्य रखते हैं। एक प्रस्तर लेख में दी श्लोक दिये हैं जिसमें से एक तो ज्या कात्यों मनुस्मृति का हैं, दूसरा मनु के  एक श्लोक का सार मात्र हैं। वे श्लोक ये हैः-

आचार्यवद् गृहस्थोपि माननीयो बहुश्रुतः ।

अभ्यागतगुणानां च पराविद्येति मानवम्ं ।।

वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पंचमी।

एतानि मान्य स्थानानि गरीयो यद् यदुत्तरम्।।

ब्रहम्देश तथा भारत के निकटस्थ टापुओं में भारत की सभ्यता प्रचलित थी अतः इनकी पुस्तकों में मनुस्मृति का साहश्य मिलना आश्यर्चयजनक नहीं हैं। परन्तु इतना अवश्य सिद्ध होता हैं कि मनुस्मृति उस समय भी थी जब इन टापुओं का भारतवर्ष से घनिष्ट सम्बन्ध था

 

The Works of Pandit Gurudutt Vidyarthi – A Book Review of “The Terminology of the Vedas” – Vinita Arya

 

Introduction

Pandit Gurudutt Vidyarthi’s works which were first collated, edited and published posthumously in 1897 by his close friend and associate Lala Jivan Das are truly an homage to a person who he calls “one of those rare geniuses of whom any civilized country may justly be proud”.

These works, the fruit of his twenty six years of toil and labour on this earth, are a testament to a life in which “his body, mind and wealth were all at the service of the Arya Dharma and his only occupation was the discovery and the elucidation of Vedic truths”.

The biographical details of his life have been recounted on numerous occasions in different arenas, (a very good summary of his life can be found on this website at http://aryamantavya.in/pandit-gurudatta-great-gem-arya-samaj/  and http://aryamantavya.in/pandit-gurudutt/ ) however what has not been surprisingly brought often to the attention of the uninitiated reading public, are the actual profound, Vedic universal truths that dealt “a death blow to … (Pandit ji’s) old cherished sceptic ideas” and which also shook the false superiority of many self-proclaimed European scholars of Sanskrit and the Vedas of his time.

As these truths are eternal and universal in their application they are as relevant today as they were in the late nineteenth century. This is because the very purpose of the Ved is to explain science, the spiritual and the material, and its proper application in all fields of human existence. This understanding of Vedic science is very necessary if we, the torchbearers of Vedic Dharma’s universal civilisation are always to be at the forefront of our current incredibly fast-moving human development.

Pandit ji being a brilliant scientist as well as a master Sanskrit scholar wished through his works to inform his readers of the right tools needed to interpret and understand these eternal truths. If used correctly by the sincere and ardent devotee of Ishvar these tools could enable him or her to obtain all forms of material, spiritual riches and the greatest prize of all mukti, liberation from birth and death.

In the first of a series of articles, starting with an analysis of his book, The Terminology of the Vedas an attempt will be made to give a summary of some of the countless pearls of wisdom that can be found in The Works of the Late Pandit Guru Datta Vidyarthi, M.A (the pdf version of the 1902 edition published can be found at the end of this piece). These summaries and analyses have been undertaken with the sincere hope of inspiring the modern day reader to delve more deeply into Pandit ji’s actual works and to find for him or herself the right tools needed for the proper interpretation of the Vedas.

Once properly understood it is hoped that the ordinary lay reader will be inspired to study the Vedas and Sanskrit for the purpose of obtaining Ishvar realisation and for obtaining the necessary ammunition needed to fight those destructive pseudo-intellectual forces which seek to misguide the human race from understanding the true universal message of the Vedas.

The Terminology of the Vedas – A Summary

Before we go on to the actual examination of these different methods word must be had about the inspiration behind Pandit ji’s methodology.

In the beginning of this work he dedicates it to the memory of “The Only Vedic Scholar of his time – Swami Dayananda Saraswati”. The use of the word “only” and “of his time” is not only a rebuff to the many puffed up European scholars of his time who claimed that Sanskrit and Vedic literature was their sole domain, but is also in clear denunciation of those indigenous scholars who Swami ji himself believed were the main cause behind the degradation of Indian society due to their deliberate misinterpretation of the Vedas for their own selfish gain.

There can be no doubt that Pandit ji is no ordinary disciple of Swami Dayanand, as he describes himself on the first page of his book (see page 56 of the pdf) as being a “sincere” and a “devoted admirer” of his. From this introduction by the author himself one can therefore expect the ensuing analysis to be like that of his mentor – deep and uncompromising when it comes to the correct interpretation of the Vedas.

Turning to the “The Terminology of the Vedas” (see page 57 of the pdf) he starts his analysis by stating generally that “the question of the origin, nature and eternity of shabda – human articulate and inspired speech has been a very important question in Sanskrit literature”. In his view while it has been the cause of much wrangling in modern times, (i.e. in the nineteenth century) for students of onomatopoeia and other such artificial theories of speech it has also been a question that has been discussed by ancient commentators such as the Nairuktikas, Vyakaranis, even “the disciple of the learned Vyasa the founder of one of the six schools of philosophy, the religious aphorist, Jaimini” in his Mimansa.

Due to the many incorrect preconceived notions hindering the proper interpretation of Vedic terminology it has become necessary he says to carefully examine, study and prune such notions of all irrelevant matter liable to produce error, while at the same time seeking “rational methods” which may throw light on the subject. He reveals that the three methods of interpreting the Vedas are firstly the mythological method, secondly the antiquarian method and lastly the contemporary method and he proceeds to examine the validity of each method in turn.

The mythological method, which is still used widely today by Western Indologists following in the footsteps of earlier Western Sanskrit scholars, views the “Vedas as myths”, “an embodiment of simple natural truths in the imaginative language of religious fiction. This approach maintains that at the time of the Vedas there was a comparatively rude and simple stage of human life and experience”.    From this primitive savage state the ideas of God and religion gradually evolved. Primitive man being unable to fathom higher truths used “analogy” to work out that motions like the “wind blowing, the fire burning, a stone falling, or a fruit dropping” is due to the “will” of a supra human being, who once intellectually personified in a form then becomes a “god” by virtue of that primitive savage feeling an overwhelming “sense of his own weakness, humility and inferiority”.

According to this mythological approach the Vedas are then “prayers from such an emotional character addressed to the forces of nature” and are “hymns simply portraying the simple phenomena of nature in the personified language of mythology”. While Pandit ji acknowledges that the human intellect is “analogous”, i.e. makes analogies as part of a natural process of thinking and that it along with the process of mythification are universal, existing everywhere throughout the world, his study of deductive psychology, comparative philology and comparative mythology leads him to the conclusion that “the growth of mythology is deductively informed from the same psychological data”, that is to say that “mythologies as well as mythic practices … arise … either as products of human imagination, working under subdued intellect and petrified reason or as an outgrowth of a distorted remnant of a purer and truer form of religion”.

In emphasising his point he refers to the work of the English Orientalist Edward Pococke – India in Greece or Truth in Mythology, in which geographical names from the Greek civilization are shown to originate from names derived from Sanskrit Indian names. From this study he deduces that “it can be informed that Greece was once colonized by Indians “and furthermore that this was also the case with the “identity of several systems of mythologies and language”. This all leads him to a general conclusion that there is a “uniformity of human nature” that can be derived from mythology.

The uniformity of human nature however is the only actual truth which Pandit ji derives from the occidental mythological method approach to interpreting the Vedas. However the rest of the method’s “specific mythological and philological facts have no independent value” in his estimation.  This is because they have “no distinct individualized influence on the terminology of the Vedas”.  The greatest inherent drawback of the mythological method he finds is that “it is the symbolization of human thought in the concrete” whereas, the Vedas being books of philosophy and not mythology are in reality expressed in the “abstract … general terms and in ultimate formula”. Unlike mythology, the Vedas has “for its object the elucidation of ultimate truths or laws” which can also be found in the six schools of Indian philosophy, the Darshans and the Upanishads which have both been “substantially drawn out and evolved or developed” from the Vedas. These books of philosophy which are so close to the Vedas, precede the Puranas, he emphasises, the Puranas being the embodiment of the mythological literature of India.   For this reason, he is at pains to add “no stretch of artificial reasoning can make them (the Vedas) coincide with the Puranic period”.  Moreover any attempt to split up the Vedas into different epochs rendering some portions mythological and others philosophical is evidence he says of the inherent insufficiency of the mythological method as “no one mythological method is capable of interpreting the whole of the Vedas” which proves that the mythological method’s “partial character ….renders it insufficient”.

Before moving on to the next method, Pandit ji neatly summarises his position on the mythological method in this way;  the mythological method  when considered independently “proves insufficient, considered in conjunction with philology it fares no better and lastly it fails in contrast with the philosophical character of the Vedas”.

Having dismissed the mythological method as being the wrong method for interpreting the Vedas, he introduces and then rapidly destroys the next method beloved of Western Sanskrit scholars, the antiquarian or the historical method. This method involves the interpretation of books and the general literature of the period to which ancient literary records belong. How successful this approach is in correctly interpreting the Vedas depends on he believes firstly the interpreter’s choice of records concerning the event or events of the period which can be relied on, and secondly and most importantly “the faithfulness of our interpretation of the records”. While Pandit ji admits that this method has its merits, he says that “its excellence … lies in the fact that it renders our interpretation of past records less liable to error” and moreover he commends it for acknowledging that “all living languages are daily undergoing changes which accumulate and appear after a sufficiently long interval to have created very different cognate languages” he concludes however that it is wrong that the supporters of this method use it to interpret the Vedas.

He gives an example from the Roman Republic to illustrate this point. He asks the reader to think of the Forum, the main centre of a Roman city. Usually located near the physical center of a Roman town, the Forum in ancient Roman times served as a public area in which commercial, religious, economic, political, legal, and social activities occurred. In this bygone era when the public press and all kinds of media known to Pandit ji and us were unheard of, “the Forum was the only place of resort of all audience, and oratory had a totally different meaning from that of modern times, the Senate signified a different institution from what it now is; Republic or democracy of the people – then existing was what would be to us something like an oligarchy, though very different from it in many essential features”. If this is the case he challenges the validity of adopting the antiquarian method in analysing the Roman Forum of more than two thousand years ago as the researcher’s current understanding of the words Democracy, Republic and the like left unguided “would be inconsistent with itself” as “the medley of two epochs would be such that a critical examination … (could only) be termed as sheer nonsense”.

His criticism of the meddling of two epochs leading to inaccurate interpretations is also seen during his explanation of the final method of interpretation; the contemporary method. Here he criticizes Western Sanskrit scholars using the antiquarian method for fruitlessly trying “to fix dates of these writings by searching in them, in most cases in vain, for any well-established consistent historical facts” for lack of them possessing “the knowledge of (the) historical evolution of Sanskrit literature”. These so called scholars he maintains fail to grasp or deliberately ignore the fact that the “Sanskrit of the Puranas is so different from the Sanskrit of the Mahabharata and that of the Darshanas, which again is different from that of the Upanishads”. In his view there is “a clear line of demarcation” that can be “easily laid down between all types of literature ….” that show very clearly that “one cannot be confounded with the other”.

He criticises without referring to them by name “very well known (but not necessarily very good) professors of Sanskrit” for not applying the contemporary method at all or to have done so, so loosely and carelessly that the modern interpretations of the Vedas by them are rendered “simply unintelligible and absurd”. He goes on to lament that these “learned” professors’ works on the Vedas which are standard study texts even today for students of Sanskrit and Hinduism have derived “their inspiration from commentaries on the Vedas by Mahidhara, Ravana and Sayana” who he underlines were “writers of a period decidedly very much later than that of the Vedas and only well coinciding with our own time”. Evidence of the unbiased nature of Pandit ji’s criticism can be seen here in that despite these commentators being Indian he bluntly calls them “as ignorant of the terminology of the Vedas as we are” and with reference to his previous example of the Forum of the Roman Republic he states that their interpretation of the Vedas according to the meanings existing in their own time “were as wrong as would be the words like democracy in our studies concerning ancient Rome”. Like a strict schoolmaster Pandit ji chides these errant professors for forgetting the “invaluable maxim – the nearer we approximate to the literature of the period to which the Vedas belongs the greater would be our chances of the interpretations being more probable and more correct”.

An example of the “worst” of such authorities, regarded ironically by Western Sanskrit scholars as being among the best, is Theodore Goldstücker. This German Sanskrit scholar who had worked in his lifetime on HH Wilson’s Sanskrit dictionary believed that “no writings of a date anterior to five or six thousand years before Christ seem to have existed” and by saying so Goldstücker was more or less in keeping with the “modern recognized chronology” inspired by the Christian church and its missionaries, a chronology which was in turn successfully imposed on Indian students by professors like Goldstücker.  Pandit ji who was well aware of the Vedic belief in cyclical eternity, (the concept which states that the universe and all existence and energy has been recurring, and will continue to recur, in a self-similar form an infinite number of times across infinite time or space) derides such a notion. He refers to Goldstücker’s belief and that of his ilk that “the whole world seems to have been circumscribed within 8,000 years” as meaning quite ridiculously that “the whole region of intellectual activity of man seems to have been focused on the 6,000 years before Christ”. Here Pandit ji mocks this assertion because it contradicts the teachings of Christian missionaries who preach that the enlightenment of the world only occurred with the advent of Christ just over two thousand years ago!

His criticism of Christianity’s meagre chronology for a universe which is in fact in this creation over a billion years old is backed up by references to “the Shatapatha and the Nirukta which are confessedly books of a much anterior date” and therefore far older than “the commentaries of Sayana, Ravana and Mahidhara”.  He categorically states contrary to the prevailing opinion of his time that “we should resort to them and the Upanishads than to the times of the Puranas, of Ravana and of Mahidhara for the interpretation of the Vedas”.

By turning one’s back on the Puranas, and no longer holding it as “the authority on interpreting the Vedas” Pandit ji maintains one can truly then understand that the “Upanishads inculcate monotheism”, the worship of One God as explained in the Vedas. Moreover because in the Upanishads or the Shatapatha there are no references to “Indra, Mitra and Varuna signifying the deities” one should view the God of the Vedas, the Darshans and the Upanishads to be only the Deity, the One and only true God.

It is a travesty he writes that despite the Nirukta laying down “explicit rules on the terminology of the Vedas” such rules to the great detriment of the correct preaching of the Vedas, have gone “quite unheeded by modern professors”. For the benefit of these pseudo-intellectual professors, Pandit ji explains in brief the rules concerning this in the Niruktakara. “In the very beginning of the book … the terms used in the Vedas are Yaugika” he says. He explains that the term yaugika refer to those words which possess derived meaning. He contrasts this then with what words from the Vedas are not – rurhis. Rurhis are those words which have conventional, arbitrary or concrete meanings.

He elaborates on this by further explaining that “a Yaugika word is one that has derivative meaning” i.e. which derives its meaning from its root. The word is “all connotation”, which means that an idea or feeling is invoked from that word, from the literal or primary meaning of its root and it is this connotation which determines its denotation. A rurhi word in contrast again to a yaugika word has no connotative meaning “it is the name of a definite concrete object” and is determined by “an arbitrary principle” which means that its meaning is chosen at random, on a whim.

Why words in the Vedas are interpreted in a yaugika way he explains is because the process of arriving at an ultimate form of the word is a very rich and complete one. “It embodies the whole history of the intellectual activity of men”. The process involves generalisation, the usage of a person’s senses of taste, touch, smell etc. in investigating the objects’ properties. Secondly the sense impressions derived from this part of the process are compared with the sense impressions “already retained in our minds and constituting our past knowledge”. From this comparative study, the similarities which we detect between the two types of sense impressions should give us a “general or generic conception”. Thirdly “to this generic conception we give an appropriate name by synthetically arriving at it from a root”, which means using affixes rather than separate words to express the syntactic relationship with the root.

The process of arriving at a rurhi word is different. There is no generalisation as is the case with the process of arriving at a yaugik word. There is no need for synthesis, no need to add affixes. Words are separate and objects and classes of objects are roughly distinguished in this process by assigning a name randomly to it. It is not a process which requires much in terms of intellectual thought as Pandit ji explains as “here we only discriminatively specify the object we are naming without coming into general contact with it”.

This very clear demarcation between yaugika and rurhi words doesn’t exist with regards to a third class of words which can be interpreted. This class of words is called yoga-rurhi and here two words are synthetically combined into a compound denoting a third object by virtue of the combining of these two words. The relation or the interaction of phenomena are expressed in the resulting words that are created. Pandit ji gives the example here of the word kamala. “The word stands … in relation of the born to mud, the bearer, which leads the word kamala to be called pankaja as panka means mud and ja means to bear”.

In order to prove that his three-fold classification of words are based on solid authorities he quotes first Rishi Patanjali who states in the first aphorism of chapter 3, section 3 of his Mahabhashya – Nama cha dhatujamah Nirukte Vyakarane Shakatasya cha tokam. Naigam rurhi bhavam hi susadhu – which he translates to mean that “etymologically speaking there are three classes of words, the yaugika, the rurhi and the yoga-rurhi”. While some grammarians like Yaska and Shakatayana believe that all words are derived from dhatus, in other words that all words are yaugikas and yoga-rurhis, there are others like Panini who believe them to be rurhis also. But what Pandit ji is keen to explain here is that despite this difference there is unity of thought among “all the Rishis and Munis, ancient authors and commentators” who without exception regard the “Vedic terms as being yaugikas and yoga-rurhis only. Rurhis are only words which are laukika” or non-Vedic.

Towards the end of his explanation of the terminology of the Vedas Pandit ji states emphatically that “the Vedic writers of older epochs do not agree with those of modern times” so he asserts “it is strange to find our modern professors of Sanskrit, well-versed philologists and professed antiquarians so forcibly asserting the value of the antiquarian method “ which unsurprisingly leads them to create such blunders as “finding mythological data in the Vedas or of having come across the facts of a ruder bronze age or golden age in that book of “barbaric hymns”.

Here Pandit ji’s use of the words “our modern professors” is quite telling as at the time of writing and the first publication of this work, the British educational system, and its theorists including the kind of Sanskrit scholars described in this piece had come to monopolise and dictate the study of Sanskrit and the Vedas in the educational mainstream of Indian society. One can sense in this last paragraph by his usage of irony when referring to the discovery by Western scholars of hitherto unknown myths, bronze and golden ages that the young Pandit Gurudutt Vidyarthi is both frustrated and deeply hurt by their misinterpretation of the Vedas, as being mere “barbaric hymns” in stark contrast to their more civilized and sophisticated Bible. His hurt can be understood especially since he himself had in his short life studied Sanskrit and the Vedas very intensely and had accomplished the rare feat of grasping the authentic rules of interpretation from the ancient commentators and from Swami Dayananda himself. He for this reason, keenly felt the despair of his recently departed mentor who in his Satyarth Prakash had lamented that he had come to learn “from a letter of a principal of some German university, that even men learned enough to interpret a Sanskrit letter are rare in Germany”. Furthermore that Swami ji had “learnt from the study of Maxmuller‘s history of Sanskrit literature and his comments on some mantras of the Veda, that Professor Maxmuller has been able to scribble out something by the help of the so-called tikas or paraphrases of the Vedas current in India”. Here Swami ji is obviously referring to Maxmuller’s reliance on the more modern commentators of Ravana, Sayana and Mahidhara who Pandit ji confirms in his book as being “not at all at one “with the commentaries of “ancient scholars of not only the Nirukta, but Nighantu, Mahabhashya and Sangraha”.

Pandit Gurudutt Vidyathi’s book The Terminology of the Vedas in conclusion was and is a necessary work to expose the huge failings of Western and non-Western modern interpreters of the Vedas over the last four centuries. Its importance also lies in the fact that Pandit ji states the actual methods of interpretation sanctioned by scholarly authority which should be used by all serious scholars of the Vedas. The Terminology of the Vedas (see below) should then be studied to grasp the gist of such methods in preparation also for Pandit Gurudutt Vidyarthi’s second more deeper work which follows this (see page 67 of the pdf) – The Terminology of the Vedas and European Scholars in which Pandit ji proves with many examples the validity of Swami Dayanand’s belief about European scholars that “in a land where lofty trees never grow, even recinus communis or the castor oil plant may be called as oak”.

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Works of Pandit Gurudutta

 

यह मनु कौन थे: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यह मनु कौन थे यह कहना कठिन है । जिस प्रकार उपनिषत कारो तथा दर्शनकारो के विषय में बहुत कम ज्ञात है उसी प्रकार मनु के विषय में हम कुछ नही जानते । कही कही तो मनु को केवल धर्म शास्त्र का रचियता बताया गया है और कही कही समस्त सृष्टि की उत्पति ही मनु से बताइ्र्र गई है । आघ्र्य जैसी प्राचीन जाति क साहित्य मे इस प्रकार की कठिनाइयो का होना स्पाभाविक है । इसी शताब्दी के भीतर दयानन्द नाम मे दो व्यक्ति हुये एक आयर्य समाज के संस्थापक और दूसरे सनातमर्ध मंडल के कायर्यकर्ता । इन दोनो के विचारो में आकाश पाताल का भेद है । परन्तु यह बहुत ही संभव है कि कुछ दिनो पश्चात एक के वचन दूसरे के समझ लिये जाॅये । इसी प्रकार प्रतीत ऐसा होता है कि कही तो मनु शब्द ईश्वर का वाचक था कही वेदिक ऋषि का कही धर्मशास्त्र के रचियता का और कही संभव है अन्य किसी का भी । इन सब को किसी प्रकार समय की प्रगति ने मिला – जुला दिया और आगे आने वाले लोगो के लिए विवेक  करना कठिन हो गया । जितने भाष्य मनुस्मृति क इस समय प्राप्य है वह सब मेधातिथि से लेकर आज तक के आधुनिक या पौराणिक युग के ही समझने चाहिए । इसीलिए इनके आधार किसी विशेष निष्चय तक पहुॅचना दुस्तर है । शतपथ ब्राह्मण (13।4।3।3) में आता है

मनुर्वेपस्वतो राजेत्याह तस्य मनुष्या विशः

अर्थात मनु वैवस्वत राजा है और मनुष्य उसकी प्रजा है इससे प्रतीत होता है कि मनु वैवस्वत कोई राजा था । या यह भी संभव है कि राजा को ही यहाॅ विशेष गुणों के कारण मनुवैवस्वत कहा है ।

मेधातिथि ने अपने भाष्य के आरंभ मे मनु के विषय में लिखा है:-

मनुर्नाम कश्चित पुरूष विशेषोअनके वेद शाखा अघ्ययन विज्ञानानुष्ठान तथा स्मृति -परंपरा के लिए प्रसिद्ध हो गया।

यह एक हानि -शून्य कथन है और इतना मानने मे किसी को भी संकोच नही हो सकता । क्योकि जिस मनु की इतनी प्रसिद्धि है वह अवश्य ही कोई विद्वान पुरूष रहा होगा और उसने वेदाचार और लोकाचार का पूर्ण ज्ञान पा्रप्त कर लिया होगा।

मनु स्मृति का वैदिक साहित्य में प्रमाण : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

मानव धर्मशास्त्र का वैदिक साहित्य में बहुत गोरव है । आयर्य जाति की सम्यता का मानव धर्मशास्त्र के मनुस्मृति का वैदिक साथ एक घनिष्ट संबंध हो गया है । हम चाहे मनु तथा मनुस्मुति के विषय में पुछे गये अनेको प्रश्नो का समाधान न कर सके तो भी यह अवश्य मानना पडता है कि मनु अवश्य ही कोई महा पुरूष था जिसके उपदेश आयर्य सभ्यता के निमार्ण तथा जीवन – स्थिति के लिए बडे भारी साधक सिद्ध हुए और उन पर विद्वानों की अब तक श्रद्धा चली आती है ।

निरूक्तकार यास्क ने दायभाग के विषय में मनु को प्रमाण माना है:-

अविशेषेण मिथुनाः पुत्रा दायादा इति तदेतद झक श्लोकभ्याम्भ्यक्त । अगादंगात्सम्भवसि हदयाधिजायते । आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम । अविशेषण पु़त्राण दाये भवति धर्मतः मिथुनानां विसर्गादो मनुः स्वायम्भुवोब्रवीत

बिना भेद के स्त्री और पुमान दोनो प्रकार के पुत्र (अर्थात लडकी और लडका दोनो ) दायाभाग के अधिकारी होते है यह बात ऋचा और श्लोक से कही गई । अंग अंग से उत्पन होता है हद्रय से उत्पन होता है इसलिए पुत्र आत्मा ही है वह सौ वर्ष तक जीवे (यह ऋचा हुई )। धर्म अर्थात कानून की दृष्टि से दोनो प्रकार के पुत्रो (अर्थात लडका और लडकी दोनो ) के दाया भाग मिलता है ऐसा सृष्टि की आदि मे स्वायभुव मनु ने कहा मनु ने कहा है (यह श्लोक हुआ )

निरूत्तकार को यहाॅ प्रमाण देना था कि दायभाग का अधि-कारी जैसा लडका है वैसा ही लडकी । उनहोने पुत्र शब्द दोनो के लिए प्रयोग किया है । इसमे उनहोने दो प्रमाण दिये है एक श्रुति का और दूसरा स्मृति का । अंग शतम श्रुति है । अवि शेषेणा बव्रवीत तक श्लोक है । और श्लोक मे स्वसयंभुवो मनु   उल्लेख है । आयर्यो के लिए श्रुति और स्मृति यही दोनो मुख्य प्रमाण। यही बात कवि कालिदास ने रधुवशमें उपमा के रूप मे दी है

श्रुतेरिवार्थ स्मृतिरन्वगच्छत अर्थात स्मृति श्रुति का अनुकरण करती है । मेधातिति ने मनु-माघ्य के आरम्भ में लिखा है:-

ऋचो यूजूषि सामानि मन्त्रा आथर्वण्श्चये ।

महषिभिस्तु तत प्रोक्त स्मातं तु मनुरब्रवीत ।।

अर्थात ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद तथा अर्थवेद का उपदेश ऋषियो ने किया था परन्तु स्मृति धर्म (का) उपदेश मनु ने किया । महाभारत शान्ति पर्व मे लिखा है कि

ऋषीनुवाच तान सर्वानदश्य: पुरूषोत्तम:

कृत शत-सहस्त्र हि श्लोकानामिदमृमतमम ।।

लोकतन्त्रस्य कत्स्नस्य यस्माद धर्म:प्रवर्तते।

 

तस्मात प्रवश्रयते धर्मान मनुः स्वायंभुव। स्वयं

 

स्वयंभुवेषु धर्मषु शास्त्रे चैशनसे कुते ।

बृहस्पतिमते चैव लोकेषु प्रतिचारिते ।।,

अर्थात निराकार परमात्मा ने उन ऋषियो को शत-सहस्त्र श्लोक का उत्तम ज्ञान दिया जिस पर कि संसार का समस्त धर्म स्थित है । स्वंय इन धर्मो का उपदिेश किया । और मनु के उस उपदेश के आधार पर ब्रहस्पति और उशनस ने अपनी अपनी स्मृतियाॅ बनाई ।,

मनु नाम की महत्ता : पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय

वैदिक साहित्ष्किो के मार्ग मे इस प्रकार की सहस्त्रो अडचने है जिनका अधिक उल्लेख यहाॅ नही करना

मनु नाम की महता  चाहिए । परन्तु इसमे भी सन्देह नही कि कोई न कोई विद्वान मनु हो गये है जिनहोने आचार (Moral Laws) और व्यवहार (Juris-prudence) के सम्बन्ध मे नियम बनाये जिनका नाम मानव धर्म शास्त्र या मनुस्मृति पड गया । मनु नाम की महता अन्य देशो के प्राचिन इतिहास से भी विदित होती है । सर विलियम जोन्स (Sir W.Jones) लिखते है:-

“We cannot but admit that Minos Mnekes or Mneuis have only Greek terminations but that the crude noun is composed of the same radical letters both in greek and Sanskrit”

अर्थात यूनानी भाषा के माइनोस आदि शब्द संस्कृत के मनु शब्द के ही विकृत रूपा है।

Leaving others to determine whether our Menus ¼or Menu in the nominative½ the son of Brahma was the same personage with minos the son of jupitar and legislator of the Cretsans ¼who also is supposed to be the same with Mneuis spoken of as the first Law giver receiving his laws from thw Egyp-tian deity Hermes and Menes the first king of the Egyptians ½ remarks :-

“ Dara Shiloha was persuaded and not without sound reason that the first Manu of the Brahmanas could be no other person than the progenitor of makind to whom jews, Christians and mussulmans unite in giving the name of adam “ ¼Quoted by B.Guru Rajah Rao in his Ancient Hindu Judicature½

बी0 गुरू राजाराउ ने अपनी पुस्तक । Ancient Hindu Judicature मे लिखा है कि यदि हम यह अनुसधान दूसरो के लिए छोड दे कि ब्रहा का पुत्र मनु वही है जिसे कोटवालों का धर्म शास्त्र रचियता माइनौस ज्यूपीटर का पुत्र कहा जाता हे (ओर जिसके विषय मे कहा जाता है कि यह वहर म्नयूयस था जिसने मिश्र देश के देवता हमीज से धर्मशास्त्र सीखा और जो मिक्ष देश के देवता हर्मीज से धर्मशास्त्र सीखा और जो मिश्र देश का पहला राजा बना) तो भी जोन्स के इस उद्धरण पर अवश्य ध्यान देना चाहिए कि दाराशिकोह का यह विचार कुछ अनुचित न था कि ब्राह्मणो का आदि मनु वही है जो मनुष्य जाति का पूर्वज समझा जाता है और जिसको यहूदि ईसाई और मुसलमान आदम के नाम से पुकारते है।

इन उद्धरणो में कहाॅ मे कहाॅ तक सचाई है इसमे भिन्न भिन्न मत हो सकते है । परन्तु क्या यह आश्चर्य की बात नही है कि प्राचीन जितने कानून बनाने वाले हुए उनके सब युगो के नाम मनु शब्द से इतना सादृश्य रखते थे । इसके हमारी समक्ष मे दो कारण हो सकते । एक तो यह कि मनु के उपदेश ही दूसरे देशो में किसी न किसी साधन द्वारा और किसी न किसी रूप में गये हो और संस्कृत नाम मनु का ही उन भाषाओ मे विकृत रूपा हो गया हो । दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि मनु का नाम कानून बनाने के लिए इतना प्रसिद्ध हो गया हो कि वह भारतवर्ष मे व्यक्तिवाचक और अन्य देशो मे जातिवाचक बन गया हो अर्थात अन्य देशीय कानून बनाने वालो ने भी अपने को इसी प्रसिद्ध नाम से सम्बोधित करने मे गोरव समक्षा हो । जैसे शेक्सपियर कहलवाना गौरव समझे । दोनो दशाओं मे मनु की प्रसिद्धि स्वीकार करनी पडती है ।

वेद में मनु शब्द : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

मनु शब्द भिन्न 2 विभकित्यो मे ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद तथा अर्थवर्वेद में कई स्थलो पर प्रयुक्त  हुआ

वेद मे मनु शब्द है  और इसलिए कई विद्वानो का ऐसा मत है  कि जिस मनु का वेदो में उल्लेख है उसी के उपदेश मनुस्मृति मे वणित है । यह मत प्राचिन वेदाचाययो के कथनो से अनुकुलता नही रखता । इसमे सन्देह नही कि मनुस्मृति के लेखको का वेदो से समंबध जोड देने मे मनुस्मृति के गौरव में आधिक्य हो जाता है । इसी गोरव को दृष्टि में रखकर कई विद्वानो ने मनुस्मृति के लेखक के विषय में वेदो के पन्ने पलटने का यत्र किया उदाहरण के लिए ऋग्वेद 1।80।16अ1।114।2 तथा 2।33। 13 मे मनु और पिता दो शब्द साथ साथ आये है। इससे लोगो ने यह अनुमान किया है कि यह वही प्रजापति मनु है जिनहोने सृष्टि को उत्पन किया तथा मनुस्मृति की नीव डाली । परन्तु यह मत उन लोगो को स्वीकार नही हो सकता जो वेदो को ईश्वर जो वेदों को ईश्वर की और मानते है और जिनको वेदो मे इतिहास मानने से इनकार है । इस कोटि मे प्राचिन उपषित्कार दर्शनकार नैहत्क वैयाकरण तथा शंकरा चायर्य आदि मध्यकालीन विद्वान भी सम्मिलित है स्वामी दया-नन्द का जो स्पष्ट मत है कि वेदो मे किसी पुरूष-विशेष का उल्लेख नही है । आजकल के यूरोपियन संस्कृतज्ञ तथा उनके अनुयायी भारतीय विद्वानसें का तो दृष्टिकोण ही ऐतिहासिक है। यह लोग पत्येक वैदिक ग्रन्थ को उसी दृष्टि से देखते है और उनको अपने मत की पुष्टी में पुष्कल सामग्री प्राप्त हो जाती है ।उनका यह मत कहाॅ तक ठीक है इस पर हम यहाॅ विचार नही कर सकते  । परन्तु इसमें भी सन्देह नही कि केवन पिता और मनु दो शब्दो को साथ साथ देखकर उनसे किसी विशेष पुरूष का अथ्र्र ले लेना युक्ति -संगत नही है जब तक कि ऐसा करने के लिए अन्य पुष्कल प्रमाण न हों । यदि निरक्तकार यास्काचार्य का मत ठीक है कि वेदो में समस्त पद यौगिक है तो मानना पडेगा कि किसी विशेष पुरूष का नाम मनु होने से पूर्व यह शब्द अपने यौगिक अर्थ में बहुत काल तक प्रचलित रह चुका होगा । यह बात आजकल की समस्त व्यक्ति वाचक संज्ञाओं से भी सिद्ध होती है । चाहे किसी व्यक्ति का नाम चुन लीजिए । पहले वह अवश्य ही यौगिक रहा होगा । और बहुत दिनो पश्चात व्यक्यिाॅ उस नाम से प्रसिद्ध हुई होगी इसलिए इसमें कुछ भी अनुचित नही है कि मनु शब्द का वेद मुत्रो में यौगिक अर्थ लिया जाये । यजुवैद 5।16 में आये हुए मनवे शबद का अर्थ उव्वट ने यजमानय और महीधर ने मनुते जानातीत मनुज्ञानवान यजमान किया है। इसी प्रकार यदि ऋग्वेद में भी मनु का अंर्थ ज्ञानवान किया जाय तो क्या अनथ होगा। फिर ऋग्वेद के जिन तीन मंत्रो  की आद्यैर हमने ऊपर संकेत किया है उनमे से पहले (1।8016) में मनु पिता और अर्थवा मनुष्पिता ) तीनो शब्द आये है जिनमे से एक विशेयष्य और अन्य विशेष्ण है । ऋग्वेद 1।114।2 मे अर्थवा का न नाम है न संबध 2।33।13 मे मनु पिता का भेषजा अर्थात ओषधियो से संबध है । इस प्रकार अर्थवा या मनु या प्रजापति शब्दो से ऐतिहासिक पुरूषो का सम्बन्ध जोडना एक ऐसी अटकल है जिस पर आधुनिक विद्वान लटठ हो रहे है । आजकल का युग अटकल युग है जिसको शिष्ट भाषा मे aAge of hypotheses कह सकते है हमारा यहाॅ केवल इतना ही कथन है कि वेदों मे आये हुए मनु और मनुस्मृति के आदि गृन्थकार से कुछ सम्बध नही है । ऋग्वेद 8।3013 में  पार्थना की गई –

मा नः पथः पित्रयान मानवादधिदूरे नैष्ट परावत

अर्थात हम (पित्रयात मानवात पथः) अपने पूर्वजों के बुद्धि-पूर्वक मार्ग से विचलित न हो । इससे भी कुछ विद्धानो ने यह अनुमान किया है कि मानवात पथः का अर्थ है मनु महाराज क बताये मार्ग से । (vide Principles of Hindu law vol I by jogendra chamdra Ghos and P.V Kane History of Dharma shastra )

ऋृग्वेद 10।63।7 मे (येभ्यो होत्रां प्रथमामायेजे मनुः) कुछ लोगो के विचार से किसी मनु-विशेष का उल्लेख है जिसने सबसे प्रथम यज्ञ किया था । परन्तु इन दोनों मंत्रो में मनु का अर्थ विचारवान या ज्ञानवान पुरूष क्यो न लिया जाए और क्यों यह मान लिया जाय कि अमुक व्यक्ति की और ही संकेत है इसके लिये अटकल के सिवाय और क्या हेतू हो सकता कोई ऐसी ऐतिहासिक घटनाये हमारे ज्ञान में नही है जिनसे बाधित होकर हम यहाॅ मनु शब्द को विशेष व्यक्ति का नाम मान ले । फिर यह तो बडी ही हास्यप्रद बात होगी कि मनु वेदो के गीत गावें और वेद मनु के । क्यो न वेद में आये हुए मनु का अर्थ ईश्वर ही लिया जाए जैसा कि मनुस्मृति के निम्न श्लोक से विदित हैः-

एतमेके वदन्त्यग्निं मनुमन्ये प्रजापतिम ।

इन्द्रमेके परे पा्रणमपरे ब्रहाशाश्वतम ।।

(अघ्याय 12।123)

अर्थात कुछ लोग ईश्वर को अग्रि नाम से पुकारते है कुछ मनु नाम से कुछ प्रजापति नाम से कुछ इन्द्र नाम से कुछ प्राण नाम से और कुछ ब्रहा शाश्वत नाम से ।

कुछ लोग कह सकते है कि ऋृग्वेद के कुछ मंत्रो का ऋषि भी तो मनु था । क्या यह वही मनु नही था जिसने मनुस्मृति के विचारो का प्रचार किया। यह अवश्य एक मीमासनीय प्रश्र है। कुछ लोग ऋषियो को मंत्रो का कर्ता मानते है और कुछ केवल द्रष्टा । यास्काचार्य का तो यही मत है ।  कि ऋषि मंत्रो के द्रष्टा मात्र थे और चादर की दृष्टि से उनका नाम वैदिक सूक्तो के आरम्भ में लिखा चला आता है । जो लोग इन ऋषियो को मत्रो के कर्ता मानते है उनके लिए कठिनाई यह अवश्य होगी कि अग्रिम वायु आदित्य और अगिरा की क्या स्थिति होगी । सायणाचार्य ने ऋृषियो को मत्रो के कर्ता मानते उनके लिये एक कठिनाई यह अवश्य होगी कि अग्रिम वायु आदित्य और अंगिरा की क्या स्थिति होगी ।सायणाचार्य ने ऋग्वेद भाष्य की उपक्रमणिका मे स्पष्ट लिखा है कि

जीवविशेषेरग्रिवाटवादित्यैवेदानामुत्पादितत्वात ।

ऋग्वेद एपाग्रेरजायत । यजुवेदो वायो। समवेद

आदियादिति श्रुतेरीश्वरस्पारन्यादि प्ररेकत्वेन निर्मातृत्व द्रष्टव्यम।।

अर्थात अग्रिम वायु आदित्य नामी जीव विशेषो से वेदों का आविर्भाव हुआ । यदि मनु किसी मंत्र का कर्ता भी होत तो भी अन्य पुष्ट प्रमाणो के अभाव में यह कहना कठिन था कि जिस मनु ने अमुक वेद – मत्र बनाया उसीने मानव धर्म शास्त्र का आरंम्भ  किया ।  इसी प्रकार तैतरीय संहिता 2।2।50।2 मे लिखा है  कि यदै कि च मनुरवदत तदृ भेषजम और ताण्डय ब्राह्मण 23।6।।17 का वचन है कि मनुवै सत किचावदत तद भेषज भेषजतरयै अर्थात मनु ने जो कुछ कहा वह औषधि है । इन वाक्यो से भी हमारे प्रष्न पर कुछ अधिक प्रकाश नही पडता । ऋग्वेद 2।33।13 मे मनु का भेषज से कुछ सम्बन्ध है परन्तु ऊपर दो वाक्यों में भेषज शब्द का वास्तविक अर्थ न लेकर आलंकारिक अर्थ लिया गया है और उन स्थलो पर यह स्पष्ट नही है कि मनु के किसी वचन और उन स्थलों पर यह स्पष्ट नही है कि मनु के किसी वचन की और संकेत है ।

डॉ अम्बेडकर के साहित्य में किस मनु का विरोध है?: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) प्राचीन मनुओं से भिन्न है डॉ. अम्बेडकर का मनु

    डॉ. अम्बेडकर के साहित्य का मनु का समर्थनात्मक एवं सकारात्मक पहलू गत पृष्ठों में दिखाया गया है किन्तु दूसरा पहलू यह भी है कि उन्होंने अपने साहित्य में अनेक स्थलों पर ‘मनु’ का नाम लेकर कटु आलोचनााी की है। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि यदि वे किसी मनु का समर्थन कर रहे हैं तो आलोचना किस ‘मनु’ की कर रहे हैं?

इसका उत्तर उन्होंने स्वयं दिया है। डॉ0 अम्बेडकर के अनुयायी और मनु-विरोधियों को उस पर गभीरता से ध्यान देना चाहिए। उन्होंने मनुस्मृति-विषयक एक नयी मान्यता स्वीकृत की है। उस मान्यता को लेकर मतभेद हो सकता है, किन्तु उन्होंने इस स्वीकृति में यह स्पष्ट कर दिया कि मैं किस व्यक्ति का विरोध कर रहा हूँ। उनकी मान्यता है कि वर्तमान में उपलध मनुस्मृति आदिकालीन मनु द्वारा रचित नहीं है, अपितु पुष्यमित्र शुङ्ग (ई0 पूर्व 185) के काल में ‘मनु सुमति भार्गव’ नाम के व्यक्ति ने इसको रचा है और उस पर अपना छद्म नाम ‘मनु’ लिख दिया है। वही सुमति भार्गव उनकी निन्दा और आलोचना का केन्द्र है। इस बात को उन्होंने दो स्थलों पर स्वयं स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं-

(क) ‘‘प्राचीन भारतीय इतिहास में ‘मनु’ आदरसूचक संज्ञा थी। इस संहिता (मनुस्मृति)को गौरव प्रदान करने के उद्देश्य से मनु को इसका रचयिता कह दिया गया। इसमें कोई शक नहीं है कि यह लोगों को धोखे में रखने के लिए किया गया। जैसी कि प्राचीन प्रथा थी, इस संहिता को भृगु के वंश नाम से जोड़ दिया गया।……..इसमें हमें इस संहिता के लेखक के परिवार के नाम की जानकारी मिलती है। लेखक का व्यक्तिगत नाम इस पुस्तक में नहीं बताया गया है, जबकि कई लोगों को इसका ज्ञान था। लगभग चौथी शतादी में नारद स्मृति के लेखक को मनुस्मृति के लेखक का नाम ज्ञात था। नारद के अनुसार ‘सुमति भार्गव’ नाम के एक व्यक्ति थे जिन्होंने मनु-संहिता की रचना की।……इस प्रकार मनु नाम ‘सुमति भार्गव’ का छद्म नाम था और वह ही इसके वास्तविक रचयिता थे’’ (अंबेडकर वाङ्मय, भाग 7, पृ. 151)।

एक अन्य पुस्तक में वे लिखते हैं-‘‘मनु के काल-निर्धारण के प्रसंग में मैंने संदर्भ देते हुए बताया था कि मनुस्मृति का लेखन ईसवी पूर्व 185, अर्थात् पुष्यमित्र की क्रान्ति के बाद सुमति भार्गव के हाथों हुआ था।’’ (वही, भाग 7, पृ. 116)

(ग) ‘‘पाणिनि ईसा से 300 वर्ष पहले हुआ। मनु ईसा के 200 वर्ष पूर्व हुआ।’’ (वही, खंड 6, पृ0 59)

(घ) ‘‘मनु एक कर्मचारी था जिसे ऐसे दर्शन की स्थापना के लिए रखा गया था जो ऐसे वर्ग के हितों का पोषण करे जिस समूह में वह पैदा हुआ था और जिसका महामानव (ब्राह्मण) होने का हक उसके गुणहीन होने के बावजूदाी न छीना जाए।’’ (वही, खंड म्, पृ0 155)

उक्त उद्धरणों की समीक्षा से ये निष्कर्ष सामने आता है कि सृष्टि का आदिकालीन मनु स्वायंभुव या मनु वैवस्वत किसी के कर्मचारी नहीं थे, वे स्वयं चक्रवर्ती राजा (राजर्षि) थे। डॉ. अम्बेडकर का यह कथन उन पर लागू नहीं होता। अतः स्पष्ट है कि यह कथन मनु नामधारी सुमति भार्गव के लिए है जो ई0 पूर्व 185 में राजा पुष्यमित्र शुङ्ग का कर्मचारी था। इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर प्राचीन मनुओं का विरोध नहीं करते अपितु वे वस्तुतः पुष्यमित्र-कालीन मनु छद्म नामधारी सुमति भार्गव का विरोध करते हैं।

(ङ) ‘‘बौद्ध धर्म के पतन के कारणों से सबन्धित तथ्यों को उस ब्राह्मण साहित्य से छान-बीन कर एकत्र किया जाना चाहिए, जो पुष्यमित्र की राजनीतिक विजय के बाद लिखा गया था। इस साहित्य को छह भागों में बांटा जा सकता है-(1) मनुस्मृति, (2) गीता, (3) शंकराचार्य का वेदान्त, (4) महाभारत, (5) रामायण और (6) पुराण।’’ (वही, खंड 7, ब्राह्मण साहित्य, पृ0 115)

डॉ0 अम्बेडकर यदि उपलध मनुस्मृति को ईसा पूर्व 185 की रचना मानते हैं और उसे ‘मनु’ छद्म नामधारी सुमति भार्गव रचित मानते है तो प्राचीन मनुओं ने कौन सा धर्मशास्त्र रचा? यह प्रश्न शेष रहता है। उसका उत्तराी उन्होंने स्वयं दिया है। उनका कहना है-

(च) ‘‘वर्तमान मनुस्मृति से पूर्व दो अन्य ग्रन्थ विद्यमान थे। इनमें से एक ‘मानव अर्थशास्त्र’ अथवा ‘मानवराजशास्त्र’ अथवा ‘मानव राजधर्मशास्त्र’ के नाम से एक पुस्तक बतायी जाती थी। एक अन्य पुस्तक ‘मानव गृह्यसूत्र’ के नाम से जानी जाती थी।’’ (वही, भाग 7, पृ. 152)

इस प्रकार स्पष्ट हुआ कि डॉ. अम्बेडकर ने अपने आदिपुरुषों और आदि विधिप्रणेताओं प्राचीन-मनुओं और उन द्वारा रचित साहित्य की आलोचना नहीं की है उन्होंने 185 ईस्वी पूर्व पुष्यमित्र शुङ्ग के काल में ‘मनु’ छद्म नामधारी सुमति भार्गव और उनके द्वारा रचित जाति-पांति विधायक स्मृति की आलोचना की है।

(आ) शोध निष्कर्ष

    पाश्चात्य लेखकों की समीक्षा से प्रभावित होकर डॉ. अम्बेडकर ने मनुस्मृति का काल 185 ई0पृ0 माना और इसका आद्य रचयिता ‘सुमति भार्गव मनु’ को माना। प्राचीन वैदिक ग्रन्थों की परपरा का ज्ञान तथा उनका गभीर अध्ययन न होने के कारण डॉ0 अम्बेडकर इस विषय का तथ्यात्मक चिन्तन नहीं कर सके । उनसे यह भूल हुई है। गत पुष्ट प्रमाणों के आधार पर वास्तविकता यह है कि मनुस्मृति मूलतः स्वायभुव मनु की रचना है। यह आदिकालीन है। जैसा कि एक स्थान पर डॉ0 अम्बेडकर ने स्वयं लिखा है-

    ‘‘इससे प्रकट होता है केवल मनु ने विधान बनाया। जो स्वायभुव मनु था।’’(अंबेडकर वाङ्मय, खंड 8, पृ0 283)

इस मनु तथा इसके धर्मशास्त्र का उल्लेख प्राचीनतम संहिताग्रन्थों, ब्राह्मणग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, गीता, बौद्धसाहित्य, जैनसाहित्य, पुराणों और प्राचीन शिलालेखों में आता है जो ईसापूर्व की कृतियां हैं। अतः मनुस्मृति को मूलतः और पूर्णतः सुमति भार्गव की आद्य रचना मानना एक ऐतिहासिक भूल है तथा साहित्यिक परपरा के विपरीत है। वंश-परपरा और काल-परपरा की कसौटी पर भी यह स्थापना गलत सिद्ध होती है।

डॉ0 अम्बेडकर ने जिस सुमति भार्गव का उल्लेख किया है,उन्होंने लिखा है कि उसकी चर्चा नारद-स्मृति में आती है। यह अनुमान विश्वास किये जाने योग्य है कि बौद्ध धर्म के हृास के बाद, ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुङ्ग (185 ई0) के द्वारा अपने राजा की हत्या करके स्वयं को राजा घोषित करने के उपरान्त, उसके द्वारा जब ब्राह्मणवाद की पुनः स्थापना हुई, तब सुमति भार्गव ने मनुस्मृति में पर्याप्त परिवर्तन-परिवर्धन किये हों और उसका एक नया संस्करण तैयार किया हो जिसमें वर्णव्यवस्था पर जन्मना जातिवाद की स्थापना करने की कोशिश की गयी है। यही कारण है कि मनुस्मृति में दोनों सिद्धान्तों का विधान करने वाले परस्पर-विरोधी श्लोक साथ-साथ पाये जाते हैं।

डॉ0 अम्बेडकर यदि इस पक्ष का विशेष विचार कर लेते कि मनुस्मृति में एक ओर गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित व्यवस्था वाले, शूद्र और नारियों के पक्षधर, न्यायपूर्ण श्लोक हैं, जिनका कि स्वयं उन्होंनेाी समर्थन किया है तथा दूसरी ओर जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूत-अछूत वर्णक एवं पक्षपातपूर्ण श्लोक हैं; किसी विद्वान् की रचना में यह दोष संभव नहीं है, फिर मनुस्मृति में क्यों हैं? तब उन्हें स्वतः उत्तर मिल जाता कि इसमें बाद के लोगों ने प्रक्षेप किये हैं। डॉ0 अम्बेडकर ने वेदों में पुरुष-सूक्त को प्रक्षिप्त माना, रामायण, महाभारत, गीता, पुराणों में प्रक्षेप होना स्वीकार किया, किन्तु मनुस्मृति में प्रक्षेपों का होना नहीं माना। यह न केवल आश्चर्यपूर्ण है, अपितु रहस्यमय भी है!! उन्होंने ऐसा क्यों नहीं स्वीकार किया, यह विचारणीय है ! उन्होंने इस विसंगति का उत्तर भी नहीं दिया कि मनुस्मृति में प्रकरणविरोधी और परस्परविरोधी श्लोक क्यों हैं? यदि वे इस बात का उत्तर देने को उद्यत होते तो उन्हें प्रक्षेपों की सच्चाई को स्वीकार करना ही पड़ता। फिर उन्हें मनु का ‘विरोध के लिए विरोध’ करने का विचार त्यागना पड़ता। यदि ऐसा होता तो क्या ही अच्छा होता!

(इ) संदेश-सार

अस्तु, इस विषय को और अधिक लंबा न करके डॉ0 अम्बेडकर की पूर्वोक्त मान्यताओं पर आते हैं जिनसे हमें ये संदेश मिलते हैं-

  1. डॉ0 अम्बेडकर का नाम लेकर बात-बात पर मनु एवं मनुस्मृति का विरोध करने और मनुवाद का नारा देने वाले उनके अनुयायियों का कर्त्तव्य बनता है कि उनकी इस विषयक स्पष्ट मान्यता आने के बाद अब उसे ईमानदारी से स्वीकार करें और आचरण में लायें। उन्हें स्पष्ट करना चाहिए कि वे आदिपुरुष मनु का नहीं, अपितु छद्म नामधारी सुमति भार्गव का विरोध कर रहे हैं।

अब उन्हें ‘मनु’ और ‘मनुवाद’ शदों का प्रयोग छोड़कर ‘सुमति भार्गव’ और ‘सुमति भार्गववाद’ शदों का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि ‘मनु’ प्रयोग से भ्रान्ति फैलती है और निर्दोष आदि-पुरुषों का देश-विदेश में अपमान होता है। ऐसा करना अपने आदिपुरुषों के साथ अन्याय है। इस बात को यदि हम इस प्रकार समझें तो बात आसानी से समझ में आ जायेगी। जैसे, आज कोई व्यक्ति ‘अम्बेडकर ’ छद्म नाम रखकर जाति-पांति, ऊंच-नीच आदि कुप्रथाओं का समर्थक ग्रन्थ लिख दे, तो उसे संविधान प्रस्तोता अम्बेडकर का ग्रन्थ कहना और उस विचारधारा को ‘अम्बेडकर वाद’ कहना अनुचित होगा, उसी प्रकार जाति-पांति विषयक श्लोकों को ‘मनुरचित’ कहना या ‘मनुवाद’ कहना अनुचित है। क्योंकि आदिकालीन मनुओं के समय जाति-पांति नहीं थी, और जाति-पांति जब चली तब उन मनुओं का अस्तित्व नहीं था।

  1. उन्हें यह स्पष्ट बताना चाहिए कि हम उस ‘मनु’ छद्मनामधारी सुमति भार्गव रचित स्मृति के उन अंशों का विरोध कर रहे हैं जिसमें जातिवाद का वर्णन है और जो 185 ईसवी पूर्व लिखे गये थे। डॉ0 अम्बेडकर ने इसी सुमति भार्गव का विरोध किया है। साथ ही यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि उन द्वारा प्रयुक्त ‘मनु’ नाम इसी व्यक्ति का छद्म नाम है।
  2. डॉ0 अम्बेडकर ने शूद्रों के भी ‘‘आदरणीय’’ ‘‘आदिपुरुष’’ मनु या मनुओं का कहीं भी विरोध कर उन्हें अपमानित नहीं किया, अपितु तत्कालीन व्यवस्था की प्रशंसा ही की है। डॉ0 अम्बेडकर का लक्ष्य यह नहीं था। डॉ0 अम्बेडकर के अनुयायियों को भी अपने ‘आदिपुरुष’ मनुओं का विरोध त्याग देना चाहिए।
  3. डॉ0 अम्बेडकर ने जिस छद्म नामधारी ‘मनु’ का विरोध किया है उस पर आरोप है कि उसने शूद्रों के लिए अत्याचार और अन्यायपूर्ण तथा अमानवीय व्यवस्थाएं निर्मित कीं, जिनके कारण शूद्र पिछड़ते चले गये और दलित हो गये। कोई कितनी भी निन्दा करे किन्तु जब भी दो विचारधाराओं में टकराव होता है तब विजेता विजित पर बदले की भावना से या आक्रोश में अमानवीय व्यवहार करता है और विपक्षी का भरसक दमन करता है। गत कुछ सहस्रादियों में ऐसा यदि ब्राह्मणों ने शूद्रों के साथ किया तो शूद्रों ने ब्राह्मणों के भी साथ किया। डॉ0 अम्बेडकर ने माना है कि‘‘इसके पश्चात् मौर्य हुए जिन्होंने ईसा पूर्व 322 से ईसा पूर्व 183 शतादी तक शासन किया, वे भी शूद्र थे।’’ ‘‘इस प्रकार लगभग 140 वर्षों तक मौर्य साम्राज्य रहा, ब्राह्मण दलित और दलितवर्गों की तरह रहे। बेचारे ब्राह्मणों के पास बौद्ध साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं था। यही विशेष कारण था, जिससे पुष्यमित्र ने मौर्यसम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया। (वही, भाग 7, ‘शूद्र और प्रतिक्रान्ति’, पृ0 323, ब्राह्मणवाद की विजय, पृ0 149)

(5) जोकुछ हुआ, वह वैचारिक वर्गसंघर्ष का परिणाम था। अपने-अपने समय में दोनों ने एक-दूसरे को ‘दलित’ बनाने में कोई कसर नहीं रखी। लेकिन दोनों को आज उस अतीत को भुलाकर लोकतान्त्रिक ढंग से रहना होगा। आज भारत में लोकतन्त्र-प्रणाली है और शासन-प्रशासन एक नये संविधान के अनुसार चलता है। इस प्रणाली में सभी समुदायों और महापुरुषों के लिए समान स्थान है। बात-बात पर किसी समुदाय या महापुरुष का विरोध करना और असहनशीलता का प्रदर्शन करना, कदापि उचित नहीं माना जा सकता। इससे एक नये वर्गसंघर्ष की आशंका बढ़ती जायेगी जो समरसता, सुधारीकरण की प्रक्रिया और लोकतन्त्र-प्रणाली के लिए अशुभ सिद्ध होगी।

  1. जो लोग अपने को ‘शूद्र’ समझते हैं और आी तक किसी कारण से स्वयं को ‘शूद्रकोटि’ में मानकर मानवीय स्वाभाविक अधिकारों से वंचित रखा हुआ है, मनु को धर्मगुरु मानने वाला और मनु के सिद्धान्तों तथा व्यवस्थाओं पर चलने वाला महर्षि दयानन्द द्वारा प्रवर्तित ‘आर्यसमाज’ योग्यतानुसार किसी भी वर्ण में दीक्षित होने का उनका आह्वान करता है और उन्हें व्यावहारिक अवसर देता है। जब आज का संविधान नहीं बना था, उससे बहुत पहले महर्षि दयानन्द ने मनुस्मृति के आदेशों के परिप्रेक्ष्य में छूत-अछूत, ऊंच-नीच, जाति-पांति, नारी-शूद्रों को न पढ़ाना, बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, बहु-विवाह, सतीप्रथा, शोषण आदि को समाजिक बुराइयां घोषित करके उनके विरुद्ध संघर्ष का आह्वान किया था। नारियों के लिए गुरुकुल और विद्यालय खोले। अपनी शिक्षा संस्थाओं में कथित शूद्रों को प्रवेश दिया। परिणामस्वरूप वहां से शिक्षित सैकड़ों दलित युवक-युवतियां संस्कृत एवं वेद-शास्त्रों के विद्वान् स्नातक बन चुके हैं।

दलित जाति के लोग क्यों भूलते हैं कि उनकी अस्पृश्यता को मिटाने के लिए मनु के अनुगामी ऋषि दयानन्द के शिष्य कितने ही आर्यसमाजी स्वयं ‘अस्पृश्य’ बन गये थे, किन्तु उन्होंने अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्ष को नहीं छोड़ा। आज आर्यसमाज का वह संघर्ष स्वतन्त्रभारत का आन्दोलन बन चुका है। आज भी आर्यसमाज का प्रमुख लक्ष्य जातिभेद-उन्मूलन और सबको शिक्षा का समान अधिकार दिलाना है। दलित जन आर्यसमाज की शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश लेकर भेदभाव रहित परिवेश में वेदादिशास्त्रों का अध्ययन कर सकते हैं। आर्यसमाज सिद्धान्त और मानवीय, दोनों आधारों पर दलित एवं पिछड़े वर्गों का स्वाभाविक हितैषी है। जो दलित या अन्य लेखक दलितोत्थान में आर्यसमाज के योगदान से अनभिज्ञ रहकर आर्यसमाज पर भी संदेहात्मक प्रतिक्रिया करते हैं, यह उनकी अकृतज्ञता ही कही जायेगी।

बुद्धिमानी इसी में है कि दोनों को मिलकर अमानवीय व्यवस्थाओं, सामाजिक कुप्रथाओं, रूढ़- परपराओं तथा कुरीतियों के विरुद्ध प्रयत्न जारी रखने चाहियें। बहुत-सी कुप्रथाएं नष्ट-ा्रष्ट हो चुकी हैं, शेष भी हो जायेंगी। परस्पर आरोप-प्रत्यारोप में उलझने तथा प्रतिशोधात्मक मानसिकता अपनाने के बजाय, आइए, उस रूढ़-विचारधारा के विरुद्ध मिलकर संघर्ष करें। जिस विचारधारा ने संस्कृति और मानवता को कलंकित किया है, समाज को विघटित किया है, राष्ट्र को खण्डित किया है और जिसने असंय लोगों के जीवन को असमानता के नरक में धकेल कर नारकीय जीवन जीने को विवश किया है। आइए, उस नरक को स्वर्ग में बदलने का संकल्प लें।