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महाराजा रणवीर सिंह अथवा प्रताप सिंहः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

एक आर्यवीर ने चलभाष पर प्रश्न पूछा है कि पादरी जॉनसन से पं. गणपति शर्मा जी का शास्त्रार्थ महाराज रणवीरसिंह के समय में हुआ अथवा महाराजा प्रतापसिंह के काल में? हमने तड़प-झड़प में कुछ मास पूर्व इस शास्त्रार्थ का प्रामाणिक वृत्तान्त उस समय के सद्धर्म प्रचारक से उद्धृत करते हुए दिया था। प्रश्नकर्त्ता ने श्री कुन्दनलाल जी चूनियाँ वाले की पुस्तक में इसका उल्लेख पढ़कर उसे भ्रामक समझकर यह प्रश्न पूछा है। उन्हें श्री रामविचार जी बहादुरगढ़ से इसका समाधान करवाना चाहिये। वह उक्त पुस्तक के बारे में हमसे उलझ चुके हैं। परोपकारी की फाईल निकालकर सद्धर्म प्रचारक का उद्धरण देखकर यथार्थ इतिहास को जाना जा सकता है। हम इतिहास के विद्यार्थी हैं। इतिहास प्रदूषण कोई भी करे, उसे पाप मानते हैं। यदि फिर भी पाठक चाहेंगे तो दोबारा उस घटना पर प्रकाश डालने में हमें कोई ननूनच नहीं होगा।

हाँ! यह नोट कर लें कि यह कथन सर्वथा भ्रामक व इतिहास प्रदूषण है कि जम्मू कश्मीर में आर्यसमाज पर प्रतिबन्ध था। पोंगापंथी पौराणिक ब्राह्मण तो आर्यसमाज के घोर विरोधी थे, परन्तु राज्य की ओर से कोई वैधानिक प्रतिबन्ध कतई नहीं था। पं. लेखराम जी के साहित्य से तथा हमारे द्वारा प्रकाशित जम्मू शास्त्रार्थ के अवलोकन से इस मिथ्या कथन की पोल खुल जाती है। राज्य का सबसे बड़ा डॉक्टर आर्यसमाजी था। राज्य का प्रतिष्ठित न्यायाधीश जाना पहचाना आर्य-पुरुष था। प्रतिबन्ध की गप प्रचारित करने वालों ने आर्यसमाज का अवमूल्यन ही किया है।

वेदों में राष्ट्र की संकल्पना एवं राष्ट्रीय एकता का स्वरुप: संदीप कुमार उपाध्याय

  • राष्ट्र का स्वरुप एवं प्रकृति

 

 

विश्व के प्राचीनतम साहित्यों में राष्ट्र या देश के प्रति सुंदर उद्गारों की अभिव्यक्ति की झलक यत्र-तत्र स्पष्ट दिखाई पड़ती है | राष्ट्र शब्द एक सुनिर्दिष्ट अर्थ और भावना का प्रतीक है | जिस प्रकार यजुर्वेद ने राष्ट्र के कल्याण की कामना कितने सुंदर शब्दों में की है –

आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायताम्‌[1]

अर्थात् हमारे राष्ट्र में क्षत्रिय, वीर, धनुषधारी, लक्ष्यवेधी और महारथी हों | अथर्ववेद में भी राष्ट्र के धन-धान्य दुग्ध आदि से संवर्धन प्राप्ति की कामना की गई है-

अभिवर्धताम् पयसाभि राष्ट्रेण वर्धताम् [2]

राष्ट्र से संबंधित शब्दों का प्रयोग वैदिक साहित्य में अत्यधिक किया गया है | जैसे साम्राज्य, स्वराज्य, राज्य, महाराज्य आदि | इन सब में राष्ट्र शब्द ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं | राष्ट्र शब्द से आशय उस भूखंड विशेष से हैं जहां के निवासी एक संस्कृति विशेष में आबद्ध होते हैं | एक सुसमृद्ध राष्ट्र के लिए उस का स्वरुप निशित होना आवश्यक है | कोई भी देश एक राष्ट्र तभी हो सकता है जब उसमें देशेतरवासियों को भी आत्मसात करने की शक्ति हो | उनकी अपनी जनसंख्या, भू-भाग, प्रभुसत्ता, सभ्यता, संस्कृति, भाषा, साहित्य, स्वाधीनता और स्वतंत्रता तथा राष्ट्रीय एकता आदि समस्त तत्त्व हों, जिसकी समस्त प्रजा अपने राष्ट्र के प्रति आस्थावान हो | वह चाहे किसी भी धर्म, जाति तथा प्रांत का हो | प्रांतीयता और धर्म संकुचित होते हुए भी राष्ट्र की उन्नति में बाधक नहीं होते हैं क्योंकि राष्ट्रीयएकता राष्ट्र का महत्वपूर्ण आधारतत्व है, जो नागरिकों में प्रेम, सहयोग, धर्म, निष्ठा कर्तव्यपरायणता, सहिष्णुता तथा बंधुत्व आदि गुणों का विकास करता है| तथा धर्म तथा प्रांतीयता गौण हो जाती है | तब राष्ट्र ही सर्वोपरि होता हैं | इन गुणों के विकास से ही राष्ट्र स्वस्थ तथा शक्तिशाली होता है |

 

  • राष्ट्र की विषय वस्तु एवं क्षेत्र

 

राष्ट्र के संगठन हेतु किन्ही निश्चित तत्त्वों की आवश्यकता नहीं| समान जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति, भूभाग की अपेक्षा उनमें साथ साथ रहने की इच्छा तथा एकता की भावना होना अति आवश्यक है | अतः राष्ट एक कल्पना है जिस कल्पना का आधार होता है -मानवीय एकता | राष्ट्र वह भावना हैं जो एकत्व की ओर प्रेरित करती है | राष्ट्रीय के लिए जनसंख्या, भूभाग,, सरकार, प्रभुसत्ता आवश्यक नहीं, इसके लिए आवश्यक मिट्टी से प्यार|

 

जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं।  वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।[3]

  • राष्ट्र निर्माण के तत्व

 

तत्वों की अनिश्चितता होते हुए भी राष्ट्र के निर्माण हेतु अधोलिखित तत्वों  की आवश्यकता पड़ती है

  • जनसंख्या

 

             जनसंख्या राष्ट्र का मुख्य तत्त्व है | जब तक राष्ट्र में प्रयाप्त जनसंख्या नहीं होगी तब तक राष्ट्र को संगठित नहीं किया जा सकता क्योंकि राष्ट्र का प्राणतत्त्व है – राष्ट्रीय भावना, जो कि लोगों के परस्पर मिलकर एक साथ रहने से तथा विचारों के आदान-प्रदान, प्रेम, सहयोग की भावना, सभ्यता और संस्कृति आदि के द्वारा पल्लवित तथा पुष्पित होती है| यह तभी संभव है जब जनसंख्या का उद्देश्य राष्ट्रीय एकता, शांतिमय जीवन तथा जियो और जीने दो की भावना से ओत-प्रोत हो |

 

  • भौगोलिकता

 

           राष्ट्र की आध्यात्मिकता की भावना को दृडता प्रदान करने में भौगोलिकता का अपना विशेष महत्व है क्योंकि भौगोलिकता हि मनुष्य को एकत्व की शिक्षा प्रदान करती है | एक भूभाग पर बसा हुआ जनसमूह स्वाभाविक रुप से राष्ट्रीय एकता की दृढ- बंधन में बंध जाता है क्योंकि उसकी समान जाती, भाषा, धर्म , परंपरा, सभ्यता, संस्कृति, साहित्य आचार-विचार तथा भाव आदि सामान होने के कारण उन से प्रेरित होकर ही वह दूसरों के दुख में अपना दुख तथा दूसरों के सुख में अपना सुख समझता है |

 

  • भाषा

 

             प्रत्येक राष्ट्र के संगठन हेतु भाषा का होना अति आवश्यक है क्योंकि भाषा रहित राष्ट्र गूंगे व्यक्ति के समान होता है जिसकी अपनी कोई भाषा, शैली, भाव तथा विचार नहीं होते | अत: राष्ट्र को सुसंगठित करने हेतु राष्ट्र की एक राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए जो संपूर्ण राष्ट्र में बोली जाए तथा जिसके माध्यम से ही राष्ट्रीय स्तर पर समस्त कार्य की जाएं तथा राष्ट्र अपनी शासन व्यवस्था को सुचारु रुप से संचालित कर सके| भाषा ही ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम अपने भावों, विचारों तथा अनुभवों को व्यक्त कर सकते हैं तथा दूसरों के भाव विचारों तथा अनुभवों को समझ सकते हैं | भाषा के माध्यम से ही मानव जाति ने न केवल समाज के रूप में अपितु राष्ट्र रूप में गुम्फित कर लिया है | इस प्रकार राष्ट्र, संगठन तथा राष्ट्रीयता को दृढ़ता प्रदान करने में भाषा अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है |

 

  • धर्म

 

             मनुष्य स्वेच्छा से जो कुछ धारण करता है वही धर्म है और धर्म का राष्ट्र के संगठन में अपना महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि धर्म ही मनुष्य को मानवता से जोड़ता है और मानवता मनुष्यता से | जब मनुष्य के मन में ही सुखी जीवो को अधिक सुखी और दुखी जीवो को सुखी बनाने का भाव जागृत होता है, तब उसके द्वारा किये गए प्रत्येक कल्याणकारी कार्य उसका धर्म होते हैं | यही धर्म उसे राष्ट्र की भावनात्मक शक्ति राष्ट्रीयता से जोड़ता है जो राष्ट्र को सुसंगठित करता है |

 

  • शासन व्यवस्था

 

                   सुसंगठित राष्ट्र के संचालन हेतु शासन व्यवस्था की आवश्यकता होती है जिसकी अभाव में राष्ट्र में अराजकता, वैमनस्य आदि व्याप्त हो जाते हैं जिससे सब अपनी मनमानी करने लगते हैं | जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ होने लगती है | अतः समस्त मानव जाति तथा राष्ट्र उन्नति के मूल उद्देश्य की पूर्ति हेतु शासन व्यवस्था की महती आवश्यकता पड़ती है, जिससे राष्ट्र का गौरव तथा उसकी स्वतंत्रता सदैव बनी रहती है |

 

  • सभ्यता और संस्कृति

 

                 सभ्यता और संस्कृति राष्ट्र संगठन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है| किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी सभ्यता तथा संस्कृति ही होती है जिसके द्वारा ही वह अन्य राष्ट्रों के समक्ष अपनी पहचान बनाए रखता है| सभ्यता और संस्कृति ही मनुष्य को आध्यात्मिक तथा मनोवैज्ञानिक तथ्यों से सम्बद्ध करती है और राष्ट्रीयता की भावना को साकार करती है | इस प्रकार संस्कृति ही धार्मिक, आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक तथा विश्व बंधुत्व की भावना को प्रवाहित करने वाली नदी है जिस का उद्गम स्थान राष्ट्र है |

 

  • साहित्य

 

                           साहित्य भी राष्ट्र संगठन को अत्यधिक प्रभावित करता है | साहित्य के द्वारा ही व्यक्ति स्वयं को समाज में समायोजित करने योग्य बनाता है | समाज में समायोजित व्यक्ति ही अपना, अपने परिवार का, नगर का, देश तथा समाज का कल्याण कर सकता है | इस प्रकार साहित्य व्यक्ति पर समाज पर, राष्ट्र पर अपना विशेष प्रभाव डालता है जिससे राष्ट्र की आंतरिक भावनात्मक शक्ति को तथा राष्ट्रीय एकता को बल मिलता है |

 

  • राष्ट्रीय एकता एवम अखंडता के आधार तत्व

 

 

वसुधैव कुटुम्बकम् भारतीय संस्कृति का एक आदर्श है | इस आदर्श की संकल्पना वैदिक है | हमारे धर्म ग्रंथों में इसको उल्लिखित किया गया है | हमारे वैदिक ऋषियों ने समग्र मानवता को एक माना है, सब के कल्याण की कामना की है यथा-

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया

सर्वे भद्राणि पश्यन् तु मा कश्चिद् दुख भाग भवेत् |[4]

           ऋग्वेद के निम्न मंत्र में भी मानव मात्र की मता की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है

अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय।

युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुघा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यत्।।[5]

वेदो में वर्णित समता, सहृदयता और स्नेह का यह आदर्श अधिकांशत: मानव जाति के संदर्भ में प्रतिष्ठित हुआ है | यही भावना आगे चलकर उपनिषद और गीता में विस्तृत हुई है| परम एकत्व के आदर्श के अंतर्गत समस्त प्राणियों और वनस्पतियों तक के प्रति अधिक समभाव प्रकट किया गया है| राष्ट्रीय एकता एक ऐसी भावना है जिसके अनुसार राष्ट्र के समस्त निवासी एक दूसरे के प्रति सद्भावना रखते हुए राष्ट्र की उन्नति हेतु परस्पर मिलकर कार्य करते हैं | वस्तुतः यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जो राष्ट्र का एकीकरण करते हुए उसके निवासियों में पारस्परिक बंधुत्व और राष्ट्र के प्रति निजत्व का भाव जागृत करते हुए राष्ट्र को सुसंगठित और सशक्त बनाती है | इस प्रकार राष्ट्रीय एकता भाषा, धर्म, जाति, संप्रदाय, संस्कृति और सभ्यता की भिन्नता होते हुए भी उन्हें एकता के सूत्र में बांधकर राष्ट्र को सुदृढ़ बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देती है |

राष्ट्रीय एकता राष्ट्र रूपी शरीर में आत्मा के समान है जिस प्रकार आत्मा विहीन शरीर प्रयोजनहीहो जाता है उसी प्रकार राष्ट्र भी राष्ट्रीय एकता के अभाव में टूट जाता है | हमारा देश भारत एक ऐसा ही देश है जहां भाषा, धर्म, जाति, संप्रदाय, संस्कृति और सभ्यता आदि कि भिन्नता पायी जाती है| लेकिन फिर भी यह एक गौरवशाली राष्ट्र है और राष्ट्रीय एकता इसकी मौलिक विशेषता है|

भारत आज जातिवाद आतंकवाद एवं सांप्रदायिकता की आग में इस तरह धनुष रहा है कि उसके लिए रास्ते एकता के जल की बूंदे खोज पाना अत्यधिक कठिन प्रति हो रहा है आज भारत में किसी भी समय सांप्रदायिक दंगे हो जाना सामान्य बात हो गई है क्योंकि राष्ट्र धर्म से बढ़कर है इस भावना का नागरिकों में लोक सा होता जा रहा है इसी कारण वह स्वयं को हिंदू मुसलमान सिख इसाई आधी पहले समझता है और भारतीय बाद में व्यक्ति प्राचीन काल से ही व्यक्तिगत धर्म जाति और संस्कारों से बढ़कर अपने राष्ट्र को महत्व दिया जाता रहा है परंतु आज भारत में इसके विपरीत बडी हो रहा है इस प्रकार दुर्भाग्यपूर्ण दंगो के निवारण का एक मात्र साधन राष्ट्रीय एकता की रक्षा ही है जिसकी अभाव में भारत राष्ट्र ने अपने अतीत में बहुत ही भैया वह स्त्रियों का सामना किया है इतिहास साक्षी है कि भारतीयों की आपसी फूट के कारण ही बाहर से आए आक्रमण कार्यो और अंग्रेजों ने वर्षों तक भारतवासियों को परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ रखा परतंत्रता कि इन बेड़ियों को काटने के लिए भारत के समस्त नागरिकों को जाति धर्म प्रांतीय ता से ऊपर उठकर एकजुट होना पड़ा तब कहीं कड़े संघर्ष के पश्चात भारत में स्वाधीनता की सूर्य का उदय हुआ |

  • वेदों में राष्ट्रीय एकता

 

प्रत्येक राष्ट्र के लिए यह आवश्यक है कि वहां की नागरिकों में राष्ट्रभक्ति की भावना का संचार होना चाहिए | मातृभूमि को अपनी जन्मदात्री मां के सदृश मानने वाले राष्ट्रभक्त ही राष्ट्र के वास्तविक भक्त होते हैं | उनमें आपस में बंधुत्व की भावना सदा जागृत रहनी चाहिए | जो राष्ट्र का संचालन करते हैं उनका विद्वान होना आवश्यक है | सारे राष्ट्र की निष्ठाएवं विश्वास unameउनमें होनी चाहिए और उन्हें भी पितासदृश संरक्षण देकर सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए |नागरिकों में इस प्रकार की उदात्त भावना उस दिशा में ही संभव है जबकि प्रत्येक व्यक्ति में परस्पर समभाव हो और कोई किसी को ज्येष्ठ या कनिष्ठ ना समझे जैसे कि ऋग्वेद में कहा गया है-

ते अज्येष्ठा अकनिष्ठास उद्भिदो ऽमध्यमासो महसा वि वाव्र्धुः |  सुजातासो जनुषा पर्श्निमातरो दिवो मर्या आ नो अछा जिगातन ||[6]

                       अर्थात राष्ट्र भक्तों में किसी प्रकार की ज्येष्ठता एवं कनिष्ठता की भावना नहीं होने चाहिए | सभी को अपने सdद्प्रयत्नो से राष्ट्र की उन्नति के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए |

सामूहिक हित की भावना से ही सबकी उन्नति संभव है और सभी की उन्नति से ही राष्ट्र की दृढ़ता बढ़ती है | उसकी एकता और अखंडता और मजबूत होती है|

इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुवः |  बर्हिः सीदन्त्वस्रिधः ||[7]

अर्थात राष्ट्रभक्तों में समानता की भावना आवश्यक बताते हुए इस तथ्य को निरूपित किया गया है कि प्रत्येक राष्ट्र की भाषा, संस्कृति एवं भूमि ही सुखप्रदाता एवं श्रेयस्कर देवता है | इनकी ही उन्नति करने से वास्तविक राष्ट्रीय उन्नति संभव हो सकती है और राष्ट्रीय उन्नति से ही सामूहिक सुख प्राप्त हो सकता है|

शत्रुओं से राष्ट्र की रक्षा सबसे अहम बात है क्योंकि शत्रु ही सदैव एक संगठित राष्ट्र के टुकड़े करने के लिए उसकी अखंडता पर प्रहार करने के लिए अवसर खोजा करते हैं | इन राष्ट्रों के शत्रुओं से प्रहरियों को सदैव सावधान रहना चाहिए क्योंकि यह राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं इसी परिप्रेक्ष्य में ऋग्वेद में उल्लिखित है

परेह्यभीहि धर्ष्णुहि न ते वज्रो नि यंसते |  इन्द्र नर्म्णं हि ते शवो हनो वर्त्रं जया अपोर्चन्न नु स्वराज्यम् |[8]

अर्थात स्वराज्य शासन की प्रतिष्ठा अविचल रखने के लिए आवश्यक है कि शत्रु का विनाश किया जाए | जिस प्रकार सूर्य को मेघ के हनन में कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता अपितु सहज रुप से ही उस का हनन हो जाता है इसी प्रकार राष्ट्रप्रेमी भक्तों की इस प्रकार सुव्यवस्था हो की शत्रुओं का बिना किसी चेष्ठा के ही नाश हो जावे | ऋग्वेद में राष्ट्रे जागृयाम वयम् के द्वारा राष्ट्र की एकता और अखंडता के प्रति सजगता का भाव मानवमात्र में सदैव विद्यमान रहने का आदेश प्राप्त होता है | प्रत्येक व्यक्ति अपने राष्ट्र के प्रति कर्तव्य बोध से परिचित होता था | राष्ट्र की रक्षा का दायित्व मात्र राजा का ही नहीं होता अपितु उसके लिए प्रजाजनों के प्रयास भी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं

मा त्वद्राष्ट्रमधिभ्रशत्[9]

अर्थात् राष्ट्रीय जनसमूह तुमसे गिरे नहीं | इस राष्ट्र के ना गिरने का अभिप्राय इसकी एकता और अखंडता से ही है |सामवेद में भी देश की एकता एवं अखंडता के आधारतत्त्वो की उपस्थिति स्पष्ट परिलक्षित है | देश के नागरिकों में विद्यमान देशप्रेम की भावना, मातृभूमि के प्रति अगाध श्रद्धा ही उन्हें प्राणोत्सर्ग के लिए उत्प्रेरित करती है | देश में विद्यमान इसी भावना को सामवेद के निम्न मंत्र में वर्णित किया गया है

आ बुन्दं वृत्रहा ददे जातः पृच्चद्वि मातरम् ।

क उग्राः के ह शृण्विरे ॥[10]

 

अर्थात् शास्त्रविद्या में चतुर योद्धा शस्त्र हाथ में लेकर मातृभूमि से पूछे कि कौनकौन देशद्रोही सुने जाते हैं | इससे स्पष्ट हो जाता है कि सच्चा राष्ट्रप्रेमी देश में देशद्रोह की भावना रखने वालों को सहन नहीं कर सकता है क्योंकि वह राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं | सच्ची मातृभूमि ही वह भावना है जो कि राष्ट्र की एकता और अखंडता की आधारशिला है| इसी भावना की उपस्थिति एक राष्ट्र को और अधिक दृढ़ता प्रदान कर सकती है |

अथर्ववेद में स्वराज्य की कल्पना की गई है वह अथर्ववेद में उल्लिखित है-

 

नाम नाम्ना जोहवीति पुरा सूर्यात्पुरोषसः । यदजः प्रथमं संबभूव स ह तत्स्वराज्यमियाय यस्मान् नान्यत्परमस्ति भूतम् [11]

 

इस मंत्र के द्वारा राष्ट्र की संचालन विधि को उत्तम ढंग से किस तरह प्रयोग किया जा सकता है, उसका वर्णन किया गया है | राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए राज्य संचालन की विधि से ही प्रजा संतुष्ट रहती है| और राष्ट्र के प्रति सद्भाव सद्विचार मनुष्य तभी रख पाता है जबकि वह अपने आप को सुरक्षित एवं शांतिपूर्ण राजनैतिक स्थितियों में पाता है | राष्ट्रभक्तों या देश के वासियों के लिए कुछ कर्तव्य निर्धारित किए जाते हैं जिसमें राष्ट्र की एकता और अखंडता का अस्तित्व सुरक्षित रहता है | दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि स्वराज्य में ही राष्ट्र की एकता एवं अखंडतका अस्तित्व सुरक्षित रहती है क्योंकि स्वशासन से ही स्वराष्ट्र का अस्तित्व बना रह सकता है | विदेशी शासन में चाहे जितनी भी उत्तम व्यवस्था क्यों ना हो स्वशासन से से किसी भी स्थिति में श्रेष्ठ नहीं हो सकता है |

अथर्ववेद में

माता भूमि पुत्रोऽहम पृथिव्या[12]

के द्वारा भूमि को माता तथा उस पर रहने वालों को उसके पुत्र कहा गया है |

मातृभूमि के आदर्श भक्तों में कुछ गुणों का होना अत्यंत आवश्यक है अथर्ववेद में कहा गया है
सत्यं बृहद ॠतं उग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति” ।[13]

अर्थात् जिस राष्ट्र में देशभक्त, सत्यनिष्ठ, प्रचंड छात्रतेज, धर्मानुष्ठान एवं कर्तव्यपालन के गुणों से युक्त प्रत्येक शुभ कार्य को दक्षता पूर्वक संपन्न करते हैं तथा यथार्थ ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना रखते हैं| मातृभूमि या राष्ट्र के पालन पोषण करने में समर्थ होते हैं | वही अपना भूत वर्तमान और भविष्य में सब तरह से पोषित करने वाली मातृभूमि की रक्षा करके उसकी उन्नति के विस्तृत स्थान एवं अवसर प्रदान करें|

  • राष्ट्रीय एकता में साधक तत्व

 

 

  • संस्कृति

 

             भारतीय संस्कृति में ऐसा गुण है कि उसने मानव में सदैव मानवता का गुण समाहित किया है | हमारे वैदिक साहित्य, काव्य, रामायण और श्रीमद्भगवद्गीता सभी ने भारतीयों के मन मस्तिष्क में नैतिक, आध्यात्मिक और सदाचार का ऐसा समावेश किया है कि उसको वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा सदैव साकार होती दृष्टिगोचर होती है |म्पूर्ण भारत में हम कहीं भी रहे वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण और गीता सभी भाषाओं में उपलब्ध है | उनके आदर्शों के अनुयाई देशभर में निवास करते हैं यह संस्कृति हमें एकता के सूत्र में बांधे रखती है |

 

 

  • संविधान में निष्ठा

 

           स्वतंत्रता के बाद हमारे संविधान का निर्माण किया गया जिसमें भारत के सभी वर्गों के लोगों का प्रतिनिधित्व था | देश ने सभी लोगों को आत्मसात कर लिया था | जो अल्पसंख्यक थे, शरणार्थी थे या विदेशी थे उनके वर्ग के अनुसार ही उन्हें प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया | सबको धर्म की स्वतंत्रता प्रदान की गई अपने लिए व्यवसाय के चुनाव की पूर्ण स्वतंत्रता दी गई | सभी धर्मों को सम्मान की दृष्टि से देखा गया | राष्ट्र में कहीं भी निवास करने की एवं संपत्ति अर्जित करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई | ऐसे संविधान की छाया में जीवन व्यतीत करने वालों में वैमनस्यता जैसी भावना आने का प्रश्न ही कहां उठता है ?

  • धर्मनिरपेक्षता

 

           हमारा राष्ट्र एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और ऐसे राष्ट्र में धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता | हम जब सभी धर्म वालों को सम्मान की दृष्टि से देखेंगे तो आपस में प्रेम और सद्भाव में वृद्धि अवश्य ही होगी | सभी धर्मों के लोग अपने पूजा स्थलों के निर्माण, पूजापद्धति अपनाने और अपने धार्मिक उत्सवों को पूर्ण करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं | एक हिंदू मुसलमान को ईद पर बधाई देता है तो मुसलमान दीपावली और होली पर प्रेम से सम्मिलित होते हैं | जहां इतने विशाल हृदय के लोग हो वहां एकता पर प्रश्न चिह्न कहां लगाया जाए ?

  • लोकतांत्रिक व्यवस्था

 

         स्वतंत्रता के बाद देश में संघात्मक लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया गया इसमें देश में व्याप्त विविधता का पूर्ण रुप से सम्मान किया गया है | सभी वर्गों को अपनी सरकार चयन का अधिकार प्रदान किया गया है | शासन में उनकी अपनी भागीदारी से उनमें देश के प्रति निष्ठा में वृद्धि होती है | अपनी बात कहने का अधिकार उन्हें संविधान से प्राप्त है |

 

  • अनेकता में एकता

 

           भारत एक विशाल देश है उसमें अनेकता होना स्वभाविक है | इसके बाद भी समग्र रुप से दृष्टिपात किया जाए तो इस अनेकता में भी एकता का सूत्र बंधा हुआ है| सदियों से यहां विभिन्न धर्म है लेकिन सब में एक दूसरे के प्रति सम्मान है | सामाजिक व्यवस्था में खानपान में प्रादेशिक रूप में विभिन्नता है, लेकिन दक्षिणवर्ती भारतीय व्यवस्थाएं उत्तर भारत में लोकप्रिय है | संपूर्ण राष्ट्र की भौगोलिक स्थितियां भिन्न भिन्न है फिर भी प्राचीन काल से ही यह राष्ट्र एकता के सूत्र में बंधा हुआ है |

  • स्वतंत्रता संग्राम

 

           भारत की आजादी के लिए जो महासंग्राम लड़ा गया था तब इस पर शहीद होने वाले वीर हिंदू, मुस्लिम, सिख, पारसी, जैन और बौद्ध सभी लोग थे| उस महायज्ञ में सब ने अपने अपने प्राणों की आहुति दी थी | अब स्वतंत्र भारत की खुली हवा में हमने सांस ली है कोई नहीं भूलता है उन बलिदानों को| भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद की बलिदान गाथा आज भी नौजवानों को एक स्वर में जय हिंद और भारत माता की जय का लगाने के लिए पर्याप्त है | यह सभी तत्व है जिससे लाखों विभिन्नताओं के बाद भी यदि देश पर संकट आता है तो पूरा राष्ट्र एक स्वर में संकट का जवाब देने के लिए तैयार रहता है | पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक सिर्फ एक भारत अखंड राष्ट्र के रूप में स्थाई राष्ट्र है |

 

 

 

 

  • राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के बाधक तत्व

 

                                भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहां विभिन्नता में एकता पाई जाती है फिर भी यह विभिन्नता कहीं-कहीं अपना संकुचित दृष्टिकोण इस तरह से अपनाने लगती है कि देश में विभिन्न दृष्टिकोण आपस में ही संघर्ष करने लगते हैं और जब यह विघटनकारी तत्व पनपने लगते हैं तो देश की राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए खतरा पैदा हो जाता है |

  • जाति

 

             हमारे देश में विभिन्न धर्मों के साथ विभिन्न जातियां निवास करती हैं | जिनमें कुछ उच्च और कुछ निम्न कहलाती हैं | सदियों से उच्च जातियों ने निम्न जातियों का शोषण किया है सिर्फ हिंदू ही नहीं अपितु मुसलमान, सिक्ख और इसाई भी अनेक जातियों में बटें हुए हैं | स्वतंत्रता के बाद संविधान द्वारा सबको समान अधिकार दिया गया है जातिगत राजनीतिक दलों के निर्माण के कारण जातीय तनाव में वृद्धि हुई है | जातिभेद संकीर्णता के द्योतक हैं और जातियों के मध्य द्वेष और वैमनस्य बढ़ाते हैं | यह स्थितियां राष्ट्र की एकता एवं अखंडता में बाधक सिद्ध होती है |

 

  • सांप्रदायिकता

 

                सांप्रदायिकता हमारे विद्वानों, धर्मगुरुओं और दार्शनिकको ने एक ही ईश्वर के अस्तित्व को  स्वीकार किया है चाहे वे ईश्वर कहें या खुदा कहें अथवा यीशु कहें किसी ने भी कभी भी दूसरे धर्म के प्रति विद्वेश रखने की बात स्वीकार नहीं की है | सांप्रदायिकता धर्म का संकुचित दृष्टि कोण हैं | संसार में विविध धर्म के मूलभूत सिद्धांतों को सभी ने  स्वीकार किया है यथा प्रेम, सेवा, परोपकार, सच्चाई, समता, नैतिकता, अहिंसा और पवित्रता आदि  सभी धर्मों में मान्य हैं | सच्चा धर्म कभी एक दूसरे से घृणा करना या वैर करना नहीं सिखाता | लेकिन धर्म की नाम पर राजनीति करने वालों ने धर्म के नाम पर दीवार घड़ी की है और यह दीवार देश की एकता में बाधक बन सकती है |

  • भाषावाद

 

    1.                  भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है यहां अनेक भाषाएं विभाषाये और बोलियां प्रचलित हैं | यद्यपि स्वतंत्र भारत में हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया है | लेकिन भाषायी संकीर्णता भी अपना सिर उठाने लगी है | भाषा के आधार पर राज्यों की मांग सिर उठाने लगी है | हिंदी के विरोध में उर्दू और अन्य प्रादेशिक भाषाएं भी विवाद का कारण बन कर मानव मानव के मध्य भे पैदा कर रही है, और यह विभेद राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए बाधक साबित हो रहे हैं |
  • क्षेत्रवाद

 

    1.                        एक संघराष्ट्र के लिए उसके प्रांत एक अभिन्न अंग होते हैं | संघ में सभी प्रांतों को बराबर अधिकार प्रदान किए गए हैं | अंग्रेजों ने हमें सिर्फ धर्म के आधार पर ही नहीं बांटा अपितु पक्षेत्रीय आधार पर भी बांट दिया | कभी प्रान्त को लेकर, कभी भाषा को लेकर, प्रांतीयता की बात होने लगती है और यह प्रांत स्वराज्य की मांग भी करते हैं | जो संघ के शासन में रहने से इनकार करते हैं इन मांगों को स्वीकार नहीं किया जा सकता है |
  • राजनैतिक क्षुद्रता

 

    1.                    राष्ट्र के लिए सर्वाधिक घातक देश में राजनैतिक क्षुद्रता का होना है | अपने स्वार्थसिद्धि के लिये ये लोगो के प्राण लेने के लिये भी तत्पर रहते है | भारत में दो चार राजनैतिक दलों को छोड़कर शेष सभी देश का अहित करने में तत्पर रहते है | अब तो राजनीती में घटियेपन्न की भी प्रतियोगिता होने लगी है की अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कोन निम्न से भी निम्नस्तर को छू सकता है | अब राजनीती में एक से बढ़कर एक निम्न स्तर के लोग आ गये है जो खाते भारत का है और गीत दुश्मन देशों के गाते है | अतः देश की प्रजा को बचाए रखने के लिए ऐसे राजनैतिक दलों से भी सावधान रहने की आवश्यकता है |
  • आर्थिक विषमता

 

    1.                    देश में व्याप्त आर्थिक विषमता थी राष्ट्रीय एकता और अखंडता के मार्ग में बाधक बन जाती है जो लोग अत्यधिक निर्धन हैं या अभावग्रस्त हैं जिन्हें दिनभर ड़ी मेहनत के बाद भी पेट भर भोजन नहीं मिलता वे अपने मालिको या बड़े-बड़े बंगलो में सुख सुविधाओं से युक्त जीवन जीने वालों के प्रति ईर्ष्या का भाव रखे तो स्वभाविक नहीं कर कहा जा सकता है | आर्थिक विषमता ने वर्गसंघर्ष के सिद्धांत को जन्म दिया है| यह आर्थिक विषमता सदैव ही राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए है |
  • आतंकवादी गतिविधिया                      सारांश रूप में कहा जा सकता है कि आज की विषम परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता एवम् अखंडता को भारतीय समाज में जीवित रखने का प्रयास ही एक ज्वलन्त समस्या है | हमारा देश इस समय ऐसी भयावह स्थिति का सामना कर रहा है जिसका समुचित एवं सार्थक समाधान यदि शीघ्र नहीं हो सका तो भारतीय समाज को विघटित होने से बचा पाना बहुत ही कठिन हो जाएगा | कुछ बाह्य एवम आंतरिक शक्तियों द्वारा अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए धार्मिक संकीर्णता के आधार पर मनुष्य को बांटने वाली राजनीति की जा रही है | मानव कल्याण की भावनाओं को त्याग कर उच्च मूल्यों से विमुख होकर आज धर्म पर आधारित राजनीति को बढ़ावा दिया जा रहा है | राष्ट्रीय एकता एवम् धर्मनिरपेक्षता के विपरीत भारतीय समाज के विभिन्न वर्ण अपनीअपनी व्यक्तिगत, धार्मिक, क्षेत्रीय एवं जातीय विचारधाराओं तथा मान्यताओं के आधार पर देश को बांटने के प्रयास कर रहे हैं | ऐसी विषम परिस्थितियों का सामना करने के लिए राष्ट्रीय एकता एवम् धर्म –निरपेक्षता की परम आवश्यकता है |

 

  1.                  देश में आतंकवादी गतिविधियों ने संपूर्ण राष्ट्र की जड़ों को हिला दिया है कभी कश्मीर में सामूहिक हत्या का तांडव होता है| कभी बिहार में गांव उजाड़ दिया जाता है कभी मुजफ्फरनगर तो कभी सहारनपुर तो कभी पश्चिम बंगाल ये सब स्थान कहीं ना कहीं आतंकवादी गतिविधियों के केंद्र बनते जा रहे हैं |इन सब का अर्थ क्या समझा जा सकता है ? हम अखंड राष्ट्र में निर्भीक जीवन व्यतीत कर रहे हैं ? हम अपने ही देश में डर-डर कर जी रहे हैं ? यह सब देश की राष्ट्रीय एकता एवम अखंडता के लिए अभिशाप है

शोध छात्र गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार उत्तराखंड, ९८९९८७५१३०, sandeep.gurukul@gmail.com

 

यजुर्वेद २८/२२

अथर्ववेद ६/७८/२

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

संस्कृत परिचायिका, पृष्ठ ५९ (मुख्यतः पद्मपुराण से )

ऋग्वेद 5।60।5

ऋग्वेद ५/५९/६

ऋग्वेद १/१३/९

ऋग्वेद १/८०/३

यजुर्वेद ७.२०

सामवेद २/२१६

अथर्ववेद १०/७/३१

अथर्ववेद १२.१.१२

अथर्ववेद १२.१.१

 

 

[1] यजुर्वेद २८/२२

[2] अथर्ववेद ६/७८/२

[3] राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

 

[4] संस्कृत परिचायिका, पृष्ठ ५९ (मुख्यतः पद्मपुराण से )

[5]  ऋग्वेद 5।60।5

[6] ऋग्वेद ५/५९/६

[7] ऋग्वेद १/१३/९

[8] ऋग्वेद १/८०/३

[9] यजुर्वेद ७.२०

[10] सामवेद २/२१६

[11] अथर्ववेद १०/७/३१

[12] अथर्ववेद १२.१.१२

[13] अथर्ववेद १२.१.१

वैदिक परंपरा एवं कुरान की प्रमुख शिक्षाएं – संदीप कुमार उपाध्याय

  • भूमिका

 

वैदिक शिक्षा का इतिहास भारतीय सभ्यता का इतिहास है | भारतीय समाज के विकास और उसमें होने वाले परिवर्तनों की रूपरेखा में शिक्षा की जगह और उसकी भूमिका को भी निरंतर विकासशील पाते हैं | सूत्र काल तथा लोकायत के बीच शिक्षा की सार्वजनिक प्रणाली के पश्चात हम बौद्धकालीन शिक्षा को निरंतर भौतिक तथा सामाजिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण होते देखते हैं| बौद्ध काल में स्त्रियों और शूद्रों को भी शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित किया गया लेकिन प्राचीन वैदिक भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया था | वह समकालीन विश्व की शिक्षा व्यवस्था से समुन्नत उत्कृष्ट थी ,लेकिन कालांतर में भारतीय शिक्षा व्यवस्था  का ह्रा हुआ विदेशियों ने यहां की शिक्षा व्यवस्था को उस अनुपात में विकसित नहीं किया जिस अनुपात में होनी चाहिए थी| अपने संक्रमण काल में भारतीय शिक्षा को कई चुनौतियां समस्याओं का सामना करना पड़ा यदि भारतीय वैदिक शिक्षा से किनारा नहीं करते तो वे चुनौतियों से भली प्रकार निपट सकते थे |[1]

  • भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था

भारत की प्राचीन शिक्षा आध्यात्मिकता पर आधारित थी |शिक्षा मुक्ति एवं आत्मबोध के साधन के रूप में थी यह व्यक्ति के लिए नहीं बल्कि धर्म के लिए थी | भारत की शैक्षिक एवं सांस्कृतिक परंपरा विश्व इतिहास में प्राचीनतम है| डॉक्टर अल्टेकर के अनुसार वैदिक युग से लेकर अब तक भारत वासियों के लिए शिक्षा का अभिप्राय यह रहा है कि शिक्षा प्रकाश का स्रोत है तथा जीवन के विभिन्न कार्यों में यह हमारा मार्ग आलोकित करती है|[2] प्राचीन काल में शिक्षा को अत्यधिक महत्व दिया गया था |भारत विश्व गुरु कहलाता था विभिन्न विद्वानों ने शिक्षा को प्रकाशस्रोत, अंतर्दृष्टि, अंतर्ज्योति, ज्ञानचक्षु और तीसरा नेत्र आदि उपमाओं से विभूषित किया है |उस युग की यह मान्यता थी कि जिस प्रकार अंधकार को दूर करने का साधन प्रकाश है उसी प्रकार व्यक्ति के सब संशयों और भ्रर्मों को दूर करने का साधन शिक्षा है| प्राचीन काल में इस बात पर बल दिया गया की शिक्षा व्यक्तियों को जीवन का यथार्थ दर्शन कराती है तथा इस योग्य बनाती है कि वह भवसागर की बाधाओं को पार करके अंत में मोक्ष को प्राप्त कर सकें जोकि मानव जीवन का चरम लक्ष्य है |प्राचीन भारत की शिक्षा का प्रारंभिक रूप हम ऋग्वेद में देखते हैं| ऋग्वेदीय शिक्षा का उद्देश्य था तत्व साक्षात्कार और स्वाधीनता | वेद काल में तो भारत पराधीन भी नहीं था लेकिन वेदों की शिक्षा में उसी समय लिख दिया गया था कि यदि संकट आए तो हमें स्वाधीन ही रहना है और हम स्वराज्य के लिए ही सदा यत्न करें|[3] ब्रह्मचर्य ,तप और योगाभ्यास से तत्व का साक्षात्कार करने वाले ऋषि, विप्र, वैघस, कवि, मुनि ,मनीषी के नामों से प्रसिद्ध थे | वेद कहते हैं कि देवता यज्ञकर्ता ,पुरुषार्थी तथा भक्तों को चाहते हैं ,आलसी से प्रेम नहीं करते |[4] साक्षात्कृत तत्वों का मंत्रों के आकार में संग्रह होता गया | वैदिक संहिताओं में जिनका स्वाध्याय, सांगोपांग अध्ययन, श्रवण मनन और निदिध्यासन वैदिक शिक्षा रही | विद्यालय,गुरुकुल, आचार्यकुल, गुरुगृह इत्यादि नामों से विदित थे | आचार्य के कुल में निवास करता हुआ, गुरुसेवा और ब्रह्मचर्य व्रत धारी विद्यार्थी षडंग वेदों का अध्ययन करता था, ज्ञान पाने के लिए, क्योंकि ज्ञान के बारे में कहा गया है कि ज्ञान यज्ञ बहुत ही श्रेष्ठ है, ज्ञान के सामने सारे बुरे कर्म समाप्त हो जाते हैं |[5] स्वामी दयानंद ने सबसे पहला गुरु माता को माना है और लिखा है कि प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता विद्यते यस्य स मातृमान् धन्य है वह माता है जो गर्भाधान से लेकर जब तक पूरी विद्या ना हो तब तक सुशीलता का उपदेश करें |[6] शिक्षक को आचार्य और गुरु कहा जाता था और विद्यार्थी को ब्रह्मचारी ,व्रतधारी ,अंतेवासी, आचार्य कुलवासी | मंत्रों के दृष्टा अर्थात साक्षात्कार करने वाले ऋषि अपनी अनुभूति और उसकी व्याख्या और प्रयोग को ब्रह्मचारी ,अंतेवासी को देते थे| गुरु के उपदेश पर चलते हुए वेदग्रहण करने वाले व्रतचारी श्रुतषि होते थे| वेद मंत्र कंठस्थ किए जाते थे | आचार्य स्वर से वेद मंत्रों का परायण करते थे और ब्रह्मचारी उनको उसी प्रकार दोहराते चले जाते थे | इसके पश्चात अर्थबोध कराया जाता था| ब्रह्मचर्य का पालन सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य था | स्त्रियों के लिए भी आवश्यक समझा जाता था | आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करने वाले विद्यार्थी को नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते थे | ऐसी विद्यार्थिनी ब्रह्मवादिनी कही जाती थी| यज्ञों का अनुष्ठान विधि से हो इसलिए होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा की आवश्यक शिक्षा दी जाती थी | वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण ,छंद, ज्योतिष और निरुक्त उनके पाठ्य होते थे| वेदज्ञान से युक्त होना ही ध्येय था|[7]  पाञ्च वर्ष के बालक की प्राथमिक शिक्षा आरंभ कर दी जाती थी | गुरुगृह में रहकर गुरुकुल की शिक्षा प्राप्त करने की योग्यता उपनयन संस्कार से प्राप्त होती थी | आठवें वर्ष में ब्राह्मण बालक के, 11 वें वर्ष में क्षत्रिय के और बारहवें वर्ष में वैश्य के उपनयन की विधि थी| अधिक से अधिक यह 16, 22 और 24 वर्षों की अवस्था में होता था | ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्यार्थी गुरुगृह में 12 वर्ष वेदाध्ययन करते थे तब वे स्नातक कहलाते थे | समावर्तन के अवसर पर गुरु दक्षिणा देने की प्रथा थी | समावर्तन के पश्चात भी स्नातक स्वाध्याय करते रहते थे | नैष्ठिक ब्रह्मचारी आजीवन अध्ययन करते थे | समावर्तन के समय ब्रह्मचारी दंड, कमंडलु, मेखला आदि को त्याग देते थे | जब यथावत् ब्रह्मचर्य आर्य अनुकूल बर्तकर वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लेता था तब वह गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने का अधिकारी हो जाता था |[8] ब्रह्मचर्य व्रत में जिन जिन वस्तुओं का निषेध था अब से उनका उपयोग हो सकता था |

  • आचार्य के कर्त्तव्य

प्राचीन भारत में किसी प्रकार की परीक्षा नहीं होती थी और न कोई उपाधि ही दी जाती थी | नित्य पाठ पढ़ाने के पूर्व ब्रह्मचारी ने पढ़ाए हुए पाठ को समझा है और उसका अभ्यास नियम से किया है या नहीं इसका पता आचार्य लगा लेते | ब्रह्मचारी अध्ययन और अनुसंधान में सदा लगे रहते थे तथा वाद विवाद और शास्त्रार्थ में सम्मिलित होकर अपनी योग्यता का प्रमाण देते थे | भारतीय शिक्षा में आचार्य का स्थान बड़ा ही गौरव का था | उनका बड़ा आदर और सम्मान होता था| आचार्य पारंगत विद्वान्, सदाचारी, क्रियावान् , निराभिमानी होते थे और विद्यार्थियों के कल्याण के लिए सदा कटिबद्ध रहते थे | अध्यापक छात्रों का चरित्र निर्माण, उनके लिए भोजन, वस्त्र का प्रबंध ,रुग्ण छात्रों की चिकित्सा, शुश्रुषा करते थे | कुल में सम्मिलित ब्रह्मचारी मात्र को आचार्य अपने परिवार का अंग मानते थे और उनसे वैसा ही व्यवहार रखते थे | आचार्य धर्मबुद्धि से निशुल्क शिक्षा देते थे|

  • ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य

विद्यार्थी गुरु का सम्मान और उनकी आज्ञा का पालन करते थे | गुरु भी शिष्य को अपनी रुचि के अनुसार ही मिल जाता था | यह सबसे बड़ी विशेषता थी |[9] आचार्य का चरण स्पर्श कर दिनचर्या के लिए प्रातः काल ही प्रस्तुत हो जाते थे | गुरु के आसन के नीचे आसन ग्रहण करा सुसंयत वेश में रहना, गुरु के लिए दातुन इत्यादि की व्यवस्था करना, उनके आसन को उठाना और बिछाना, स्नान के लिए जल ला देना, समय पर वस्त्र और भोजन के पात्र को साफ करना, ईधन संग्रह करना,पशुओं को चराना इत्यादि छात्रों के कर्तव्य माने जाते थे | विद्यार्थी ब्रह्म मुहूर्त में उठते थे और प्रातः कृत्यों से निवृत होकर स्नान, संध्या, होम आदि कर लेते थे | फिर अध्ययन में लग जाते थे |[10] इसके उपरान्त भोजन करते थे और विश्राम के पश्चात आचार्य के पाठ ग्रहण करते थे | सायंकाल समिधा एकत्र कर ब्रह्मचारी संध्या और होम का अनुष्ठान करते थे| विद्यार्थी के लिए भिक्षाटन करना अनिवार्य कृत्य था | भिक्षा से प्राप्त अन्न गुरु को समर्पित कर विद्यार्थी मनन और निदिध्यासन में लग जाते थे | स्वामी दयानंद ने लिखा है कि आचार्य अपने शिष्य और शिष्याओं को इस प्रकार उपदेश करें कि तू सदा सत्य बोल, धर्माचार कर, प्रमाद रहित होकर पढ पढा , पूर्ण ब्रह्मचर्य से समस्त विद्या को ग्रहण करें |[11]

  • अध्ययन समय

वेदों का अध्ययन श्रावण पूर्णिमा को उपाकर्म से प्रारंभ होकर पौष पूर्णिमा को उपसर्जन से समाप्त होता था | शेष महीनों में अधित पाठों की आवृत्ति पुनरावृत्ति होती रहती थी | विद्यार्थी पृथक–पृथक पाठ ग्रहण करते थे, एक साथ नहीं  | प्रतिपदा और अष्टमी को अनाध्याय होता था | गांव नगर अथवा पड़ोस में आकस्मिक विपत्ति से और श्रेष्ठ जनों के आगमन से विशेषण अनाध्याय होते थे | अनाध्याय में अधीत वेद मंत्रों की पुनरावृत्ति और विषयांतर का अध्ययन निषिध्द न थे | नियमों का उल्लंघन करने वाले विद्यार्थी को दंड देने की परिपाटी थी | पाठ्यक्रम के विस्तार के साथ वेदों और वेदांगों के अतिरिक्त साहित्य, दर्शन, ज्योतिष, व्याकरण और चिकित्सा शास्त्र इत्यादि विषयों का अध्ययन होने लगा | टोल पाठशाला, मठ और विहारों में पढ़ाई होने लगी |[12]

 

  • शिक्षा के प्रमुख केन्द्र

काशी, तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वल्लभी, ओदंतपुरी, जगद्दल, नदिया , मिथिला, प्रयाग , अयोध्या आदि शिक्षा के केंद्र थे | दक्षिण भारत के एन्ननारियम , सलौत्गी, तिरुमुक्कुदल, मल्लपुरम्, तिरुवोरियूर में प्रसिद्ध विद्यालय थे | अग्रहारो के द्वारा शिक्षा का प्रचार और प्रसार शताब्दियों होता रहा  | कादीपुर और सर्वज्ञपुर के अग्रहार विशिष्ट शिक्षाकेंद्र थे | प्राचीन शिक्षा प्रायः वैयक्तिक ही थी | कथा, अभिनय इत्यादि शिक्षा के साधन थे | अध्यापन विद्यार्थी के योग्यतानुसार होता था अर्थात विषयो को स्मरण रखने के लिए सूत्र, कारिका और सारनो से काम लिया जाता था | पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष पद्धति किसी भी विषय की गहराई तक पहुंचने के लिए बड़ी उपयोगी होती थी|

  • पाठ्यविधि

भिन्न-भिन्न अवस्था के छात्रों को कोई एक विषय पढ़ाने के लिए सम केंद्रीय विधि का विशेष रुप से उपयोग होता था | सूत्र, वृत्ति, भाष्य,वार्तिक इस विधि के अनुकूल थे | कोई एक ग्रंथ के वृहत् और लघु संस्करण इस परिपाटी के लिए उपयोगी समझे जाते थे | यह वैदिक शिक्षा का ही प्रभाव था कि अति प्राचीन काल में न राज्य था और न राजा था, न दंड था और न दंड देने वाला | स्वयं सारी प्रजा ही एक-दूसरे की रक्षा करती थी|[13] ऐसी शिक्षा दी जाती थी कि योग्य शिष्य योग्य साथी ही चुनता था, क्योंकि वेद कहते हैं कि रत्नं रत्नेन संगच्छते अर्थात रत्न रत्न के साथ जाता है | गुणों को महत्व दिया जाता था, संस्कारों को महत्व दिया जाता था | शिक्षा में कोई भेदभाव नहीं था राजा और रंक के बालक साथ साथ पढ़ते थे|[14]

गुणः खलु अनुरागस्य कारणं, न बलात्कारः अर्थात केवल गुण ही प्रेम होने का कारण है बल प्रयोग नहीं |

डॉक्टर जाकिर नाइक ने भी वेदों की शिक्षा को लेकर अध्ययन किया और वेदों के संदर्भ देते हुए लिखते हैं कि जीवन भर निष्काम कर्म करते रहना चाहिए | [1]

१ इस प्रकार का निष्काम कर्म पुरुष में लिप्त नहीं होता है |[2]

२ जो ग्राम, अरण्य, रात्रि-दिन में जानकर अथवा अनजाने में बुरे कर्म करने की इच्छा है अथवा    भविष्य में करने वाले हैं उनसे परमेश्वर हमें सदा दूर रखें|[3]

३ हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर वा विद्वज्जन आप हमें दुश्चरित् से दूर हटावे और सुचरित में प्रवृत्त करें |[4]

४ हे पुरुष तू लालच मत कर, धन है ही किसका|[5]

५ एक समय में एक पति की एक ही पत्नी और एक पत्नी का एक ही पति होवे |[6]

६ हमारे दाएं हाथ में पुरुषार्थ और बाएं हाथ में विजय हो [7]

७ पिता, पुत्र ,भाई, बहन आदि परस्पर किस प्रकार व्यवहार करें |[8]

८ जुआ नहीं खेलना चाहिए |इसको निंदनीय कर्म समझे |[9]

९ सात मर्यादाएं हैं जिनका सेवन करने वाला पापी माना जाता है | इन सात पापों को नहीं करना चाहिए- अस्तेय, तलपारोहण , ब्रह्महत्या, भ्रुणहत्या ,सुरापान, दुष्कृत कर्म पुनः पुनः करना तथा पाप करके झूठ बोलना यह सात मर्यादाएं हैं |[10]

१० पशुओं के मित्र बनो और उनका पालन करो |[11]

११ चावल खाओ , यव खाओ ,उड़द खाओ, तिलखाओ अन्नों में ही तुम्हारा भाग निहित है |[12]

१२ आयु यज्ञ से पूर्ण हो, मन यज्ञ से पूर्ण हो, आत्मा यज्ञ से पूर्ण हो और यज्ञ भी यज्ञ से पूर्ण हो|[13]

१३ संसार के मनुष्यों में ना कोई छोटा है और ना कोई बड़ा है| सब एक परमात्मा की संतान हैं| पृथ्वी उनकी माता है सबको प्रत्येक के कल्याण में लगे रहना चाहिए |[14]

१४ जो सभी प्राणियों को अपनी आत्मा में देखता है उसे किसी प्रकार का मोह और शोक नहीं होता है |[15]

१५ परमेश्वर यहां वहां सर्वत्र और सब के बाहर भीतर भी है |[16]

वेदों में सारे विश्व के मनुष्यों के साथ भाइयों जैसा प्रेम करना बताया गया है न केवल मनुष्य में ही बल्कि जानवरों तक से प्यार व मोहब्बत करने का उद्देश्य वेदो में लिखा हुआ मिलता है| वेद के हजारों मंत्रों में से दो चार मंत्र जो यहां दिए जा रहे हैं उनको पढ़िए, विचारिये और न्याय कीजिए

सं गच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् |

देवा भागं यथा पूर्वे सं जानानां उपासते ||[17]

अर्थात् हे मनुष्यो तुम सब एक होकर चलो, एक होकर बोलो ,तुम ज्ञानियों के मन एक प्रकार के हो ,तुम परस्पर इस प्रकार व्यवहार करो जिस प्रकार तुम से पूर्व पुरुष अच्छे ज्ञानवान् ,विद्वान् ,   महात्मा अपने-अपने भाग को निर्वहन करते रहे हैं|

हृदयं सं मनस्यम विद्वेषं कृणोमि वः|

अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाहन्या || [18]

जाकिर नायक लिखते हैं कि वेदों की शिक्षाएं आज भी उपयोगी हैं वेद का संदर्भ देते हुए वे लिखते हैं कि निसंदेह महान और विशालता तो खालिक (स्रष्टा) की ही है | वह आदमी जिसके पास बहुत सारा खाना है अगर कोई भूखा बेबसी की हालत में इससे केवल रोटी का एक टुकड़ा मांगने आता है तो इसके खिलाफ इसका दिल सख्त हो जाता है यहां तक कि अगर कभी उसने उसकी सेवा भी की है तब भी उसे कोई आराम पहुंचाने वाला नहीं मिलता |[19]

डॉक्टर जाकिर नाइक वेदों में आस्था तो दिखाते हैं और वैदिक ज्ञान को ईश्वररीय मानते हैं, लेकिन साथ ही वे कुरान को अल्लाह की असली किताब मानते हैं और अंत में कहते हैं कि अल्लाह ने जो अंतिम किताब दी, उसी पर विश्वास करना चाहिए | इसका मतलब यह हुआ कि जाकिर वेदों का उपयोग इस्लाम के प्रचार प्रसार के लिए एवं हिंदुओं या आर्यों को बरगलाने के लिय करते हैं जबकि सच्चाई है कि हमारी वैदिक परंपरा के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के समय मानवों को वेदों का ज्ञान भंडार और तदन्तर्गत १६ विद्या और ६४ कलाएं परमपिता परमेश्वर द्वारा ही प्रदान की गई थी विविध विद्याओं के देवतुल्य प्रणेताओं द्वारा वे विद्याएं और कलाएं मानव को दी गई |[20]

 

कुरान की प्रमुख शिक्षाएं

जाकिर मानते हैं कि इस्लाम की शिक्षाएं सारी दुनिया के लिए हैं इसका प्रमाण वे देते हैं कि मुसलमानों ने स्पेन में लगभग ८०० साल तक शासन किया और वहां उन्होंने किसी को भी इस्लाम स्वीकारने के लिए मजबूर नहीं किया | बाद में ईसाई धार्मिक योद्धा स्पेन आए और उन्होंने मुसलमानों का सफाया कर दिया |[21] वे कहते हैं कि इस्लाम की शिक्षाएं सारे संसार के लिए हैं लेकिन जब अन्य विद्वान उन्हें शास्त्रार्थ के लिए ललकारते हैं तो वे किनारा कर जाते हैं महेंद्र पाल आर्य जो मौलवी से आर्य बने हैं उन्होंने भी उसे चैलेंज किया कि यदि कुरान की शिक्षाएं ही सर्वोपरि है तो सिद्ध करो | वैसे इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि दुनिया के हर मत और संप्रदाय में बहुत सी बातें तो अच्छी है ही, चलिये कुरान की अच्छी बातो पर ही चर्चा करें कि वह दुनिया को क्या शिक्षा देती है -पीठ पीछे बुराई करने को कुरान रोकती है | कुरान की आयते और हदीसे आचरण और व्यवहार को जो महत्व प्राप्त है, उसको दर्शाती है| उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं –

अल्लाह ताला कुरान में फरमाते हैं -ईमान लाने वाले! बहुत से गुनाहों से बचो, क्योंकि कतिपय गुमनाम गुनाह होते हैं और न तो हमें पढ़ो और ना तुमसे कोई किसी की पीठ पीछे निंदा करें क्या तुम में से कोई इसको पसंद करेगा कि वह अपने मरे हुए भाई का मांस खाए यह तो तुम्हें अप्रिय होगा ही और अल्लाह का डर रखो निश्चय ही अल्लाह तौबा कबूल करने वाला अत्यंत दयावान है |[22] पैगंबर मोहम्मद फरमाते हैं यदि कोई मुझसे यह प्रतिज्ञा करें कि वह अपनी जुबान पर नियंत्रण रखेगा, अपने सतीत्व की रक्षा करेगा ,दूसरों के संबंध में बुरी बात न कहेगा और किसी पर आरोप नहीं लगाएगा और पीठ पीछे निंदा नहीं करेगा, व्यभिचार और ऐसे पापों से बचेगा तो मैं उसके लिए अवश्य जन्नत का वादा करुंगा |

संदेह रहने के प्रति सावधान किया गया है पैगंबर ने फरमाया संदेह करने के प्रति सावधान रहो क्योंकि संदेश झूठी सूचना पर आधारित हो सकता है| दूसरों की टोह में ना पड़ो दूसरों की छुपी हुई कमियों का रहस्य ना खोलो |[23] अहंकार बहुत बुरी बला है | कुरान कहता है धरती में अकड़ कर न चलो न तो तुम धरती को फाड़ सकते हो और न लंबे हो कर पहाड़ों को पहुंच सकते हो |[24]            अल्लाह किसी इतराने वाले ,बड़ाई जताने वाले को पसंद नहीं करता |[25] कामनाएं अच्छी चीजों की ही हो | पैगम्बर मोहम्मद ने फरमाया मैं तुम्हारे मामले में निर्धनता से नहीं डरता हूं बल्कि इससे डरता हूं कि तुम सांसारिक वस्तुओं की कामना उसी तरह करने लगोगे जिस तरह दूसरों ने किया | और यह तुम्हें उसी तरह नष्ट कर देगी जिस तरह पहले के लोगों को नष्ट किया | ईर्ष्या द्वेष से दूर रहना कुरान की मुख्य शिक्षा है | पैगंबर मोहम्मद ने घोषणा की ईर्ष्या से दूर रहो क्योंकि जिस तरह से आग लकड़ी को जलाती है उसी प्रकार ईर्ष्या सत्कर्मों को जलाती है| किसी मुसलमान की छवि को अन्याय पूर्ण ढंग से आहत करने से बड़ा कोई और अत्याचार नहीं है| व्यंग करना बहुत बुरी बात है इस विषय में पैगंबर मोहम्मद ने फरमाया दूसरों की परेशानी पर खुशियां न मनाओ क्योंकि अल्लाह उसकी परेशानी दूर कर सकता है और जगह पर रख सकता है |[26] जमाखोरी किसी गुनाह से कम नहीं है | कुरान कहता है जो लोग इस चीज में कृपणता से काम लेते हैं जो अल्लाह ने अपनी उदार कृपा से उन्हें प्रदान की है, वे यह न समझे कि यह उनके हित में अच्छा है बल्कि यह उनके लिए बुरा है जिस चीज़ में उन्होंने कृपणता से काम लिया होगा वही आगे कयामत के दिन उनके गले का तौक बन जाएगी |[27] जो लोग सोना और चांदी एकत्र करके देखते हैं रखते हैं और उन्हें अल्लाह के मार्ग में खर्च नहीं करते उन्हें दुखद यात्रा की शुभ सूचना दे दो |[28] अवैध संपत्ति अवैध ही होती है |

मुस्लिम इतिहास में जिहाद के नाम पर अवैध संपत्ति पर कब्जा करने के बहुत से उदाहरण भरे भरे पड़े हैं लेकिन सच में यह है कि कुरान आदेश इसके विपरीत ही है | ऐसी धन संपत्ति जिसे अवैध तरीके से हासिल किया गया हो और जो कोई इसका उपयोग करें और अपनी आवश्यकताओं के लिए उसे खर्च करें वह उसे बहुत अधिक हानि पहुंचाती है जैसा कि पैगंबर मोहम्मद ने चेतावनी दी है उसकी नमाज ए अल्लाह के पास कबूल नहीं होगी | उस की दुआएं कबूल नहीं होगी अल्लाह से उसकी शिकायत को नहीं सुना जाएगा और यदि उसने अच्छे कर्म किए होंगे तो उनसे उसे कोई लाभ नहीं होगा परलोक में अल्लाह की विशेष अनुकंपा और उपचार का वह भागीदार नहीं होगा | पैगंबर मोहम्मद ने घोषणा की यदि कोई व्यक्ति कोई वस्तु दीवानी से कमाता है और फिर उसका एक अंश दान में दे देता है तो उसका दान स्वीकार नहीं किया जाएगा और यदि वह उसमें से अपनी आवश्यकता के लिए खर्च करता है तो उसमें कोई संपन्नता नहीं होगी और यदि उसमें से अपने वारिशों के लिए छोड़ जाता है तो उसकी मौत के बाद वह जहन्नुम के साधन का काम करेगा | जान लो कि अल्लाह बुराई से बुराई को नहीं मिटाएगा (अर्थात दान और जकात अवैध संपत्ति में से देने पर कभी मुक्ति नहीं मिल सकती ) एक अपवित्रता दूसरी अपवित्रता को दूर नहीं कर सकती यह उसे शुद्ध नहीं कर सकती |[29] आगे आपने फरमाया अल्लाह पवित्र है और वह केवल वही नजर कबूल करता है जो शुद्ध है | बेईमानी और धोखा देना कुरान में बुरी बात कही गई है| कुरान कहता है तबाही है घटा देने वालों के लिए, जो नापकर लोगों से लेते हैं तो पूरा पूरा लेते हैं किंतु जब उन्हें नाप कर या तोल कर देते हैं तो घटा कर देते हैं |[30] पैगंबर मोहम्मद व्यक्तिगत रुप से औचक निरीक्षण करते थे एक बार आपने एक व्यापारी को गीले अनाज के ऊपर सूखे अनाज रखे हुए पाया पैगंबर मोहम्मद ने अपना हाथ अनाज के ढेर के अंदर मिलावट की जांच के लिए डाला और पाया कि उसने ऐसा खरीदारों को धोखा देने के लिए किया है | आपने व्यापारी से कहा कि तुमने ऐसा क्यों किया व्यापारी ने कहा ऐसा बारिश के कारण हुआ है | इस पर पैगंबर ने फरमाया वह व्यक्ति हमसे नहीं जो दूसरों को धोखा देता है | शरारत और भ्रष्टाचार के विषय में कुरान कहता है -खाओ और पियो अल्लाह का दिया और धरती में बिगाड़ फैलाते मत फिरो |[31]

संतोष सफलता और संपन्नता की कुंजी है और लालच पूर्णत: है इसके विपरीत है| हम में से अधिकतर लोगों का विश्वास है कि संपत्ति हमारे संपन्नता लाएगी | यह हमें विलासिता के साधन तो अवश्य प्रदान कर सकती है परंतु सुख नहीं दे सकती | सुख हमारी प्रकृति की आंतरिक अनुभूति है भौतिक संपन्नता को पागलों की तरह भोग करके प्राप्त नहीं किया जा सकता | वास्तव में वह संतोष ही है जो हमें सुख के संसार में ले जाता है |जहां दिल स्वयं अपने आप के साथ शांति में रहता है| शरीर और आत्मा लालच के चंगुल से मुक्त हो जाता है | लालच और गुणोत्तर समानुपात में बढ़ती है | पैगंबर मोहम्मद की निम्नलिखित हदीस मनुष्य की प्राकृतिक प्रवृत्ति पर प्रकाश डालती है – यदि आदम की संतान को सोने से भरी एक घाटी भी दे दी जाए तो वह इस तरह के दो घाटियों की इच्छा करेगा क्योंकि उसके मुंह को धूल के अतिरिक्त कोई चीज नहीं भर्ती और अल्लाह उस व्यक्ति को क्षमा करता है जो उस से तोबा करता है |[32] मनुष्य सदैव धन और भौतिक संपन्नता की खोज में रहता है| अधिक से अधिक कमाने के लिए संघर्ष करता करना उसकी प्रकृति में बसा हुआ है | वह सदैव धनवान बनने, अपने जीवन स्तर को विकसित करने, अपनी जीवनशैली में और साधन जोड़ने, तीव्र गति से चलने वाली कारों का सपना देखने और प्राकृतिक वातावरण में भव्य महलों की अभिलाषा रखता है | संक्षेप में किसी व्यक्ति के अभिलाषाओं की सूची अंतहीन होती है | वह अपने सपनों को साकार करने और महत्वकांक्षाओं को पाने में कोई कसर नहीं छोड़ते | हम भौतिक साधनों की खोज में इतने वशीभूत हो जाते हैं कि हम जीवन के खेल में नैतिक मूल्यों को अक्सर भूल जाते हैं इस संसार से अपने संपूर्ण विलासितापूर्ण साधनों का प्रेम हमें परलोक की तलाश से दूर कर सकता है | हम सदैव याद रखना चाहिए कि हमारे अस्तित्व का मुख्य उद्देश्य ईश्वर की इबादत करना है | हमारा पालनहार भौतिक विलासिताओ की अंधी दौड़ से हमें सचेत करता है और वैभव की क्षणभंगुर चमक को सांसारिक लुभावनापन बताकर उसका उपहास करता है, क्योंकि यह हमें ईश्वर की इबादत करने के मुख्य उद्देश्य से दूर कर देता है | कुरान की यह आयत इसी वास्तविकता को स्पष्ट कर रही है और तुम्हारे संपत्ति और तुम्हारी संतान वह चीज नहीं जो तुमको हमारा निकटवर्ती बना दें, हां जो ईमान लाया और उसने अच्छा कर्म किया ऐसे लोगों के लिए उनके कर्म का दोगुना बदला है और वह स्वर्ग में संतोषपूर्वक रहेंगे |[33] भ्रष्टाचार हर युग में बहुत बड़ी समस्या रही है अब जबकि हम लालच के कारण तक पहुंच गए हैं | इसलिए हमें कहने दीजिए कि दुनिया का लालच ही हमें आर्थिक केक में से दूसरे का हिस्सा झपटने के लिए प्रेरित करती है | अवैध संसाधनों द्वारा दुनिया के लालच को पूरा करने की कोई कोशिश समाज को न्याय और समता से वंचित कर देती है | सामान्य भाषा में इसे घुस कहा जाता है जो हमारे समाज में प्रचलित है | पैगंबर मोहम्मद ने अपने अनुयायियों और साथियों को संपन्न करने बनने के लिए अवैध साधनों को अपनाने के विरुद्ध सचेत किया | जुआ और शराब की आदत समाज के लिए व्यापक रुप से खतरनाक है यह लोगों को उत्पादक गतिविधियों से दूर रखती है और उन्हें अवैध साधनों से धन कमाने के लिए प्रेरित करती है | अधिकतर मामलों में यह परिवारों को आर्थिक रूप से नष्ट कर देती है जिससे वह कर्जदार और बेसहारा हो जाता है| इस से बढ़कर यह समाज के नैतिक ताने-बाने को कमजोर कर देती है |

प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार अर्नाल्ड जे. टायनबी ने एक बार टिप्पणी की थी कि इस्लाम का मानवता पर सर्वाधिक मूल्यवान और प्रभावी योगदान शराब और जुआ पर प्रतिबंध लगाना है | रीवा या ब्याज या सूदखोरी ना लेने की शिक्षा हमें कुरान में मिलती है इस्लामी अर्थव्यवस्था ऐसे सभी लेन-देन से रोकती है जिसमें ब्याज सम्मिलित हो इस्लाम में ब्याज और महाजनी ब्याज में अंतर नहीं किया गया है| इस्लाम केवल शून्य ब्याज की दर की अनुमति देता है अर्थात ब्याज बिल्कुल नहीं होना चाहिए | एक बात यहाँ विचारणीय है कि कुरान के प्रादुर्भाव काल में अरब में लोग अशिक्षित ही जान पडते है कोई वर्ग विशेष ही शिक्षित रहा होगा | मुहम्मद साहब स्वयं अशिक्षित थे इसलिये उस काल में वहां आचार्य , पाठशाला , विद्यार्थी ,पाठ्यक्रम शिक्षा केंद्र की कोई चर्चा नहीं है | वर्षो बाद मदरसों का भी निर्माण केवल कुरान की शिक्षा देने के लिए हुवा | आज भी अधिकांश मुस्लिम शिक्षकों द्वारा मदरसों में केवल कुरआन की ही शिक्षा दी जाती है |

 

[1] इस्लाम और वैदिक धर्म में समानताये , पृष्ठ ६८

[2] यजु ४० /२

[3]  यजु .४/२८

[4] यजु . ४/१

[5] अथर्ववेद . ७/३७/१

[6] अथर्ववेद . ७/३७/१

 

[7] अथर्ववेद . ७/५८/१८

[8] अथर्ववेद . ३/३०

[9]ऋग्वेद १०/१३४

[10] ऋग्वेद १०/५/६

[11] अथर्ववेद १७/४ और यजु.१/११

[12] अथर्ववेद ६/१४०/२

[13] यजु २२/३३

[14] ऋग्वेद ५/६०/१५

[15] यजुर्वेद ४०/६

[16] यजुर्वेद ४०/५

[17] ऋग्वेद १०/१९१/२

[18] अथर्ववेद ३/३०/४

[19] ऋग्वेद १०/११७/२

[20] वेदो में विज्ञान , फरहान ताज,पृष्ठ १००

[21] गलतफहमियो का निवारण , पृष्ठ २३

[22] कुरआन ,४९:१२

[23] हदीस

[24] कुरआन १७:३७

[25] कुरआन ५७:२३

[26] पैगम्बर का पैगाम , मो. अफजल ,पृष्ठ ६७

[27] कुरआन ३:१८०

[28] कुरआन ९:३४

[29] पैगम्बर का पैगाम , मो. अफजल ,पृष्ठ ६९

[30] कुरआन ८३:१-३

[31] कुरआन २:६०

[32] पैगम्बर का पैगाम , मो. अफजल ,पृष्ठ ७०

 

[33] कुरआन ३४:३७

  • वैदिक परम्परा कि प्रमुख शिक्षाए

[1] हमारी राजभाषा हिन्दी , पृष्ट ५६

[2] हमारी राजभाषा हिन्दी , पृष्ट ५९

[3] ऋग्वेद ५/६६/६ .यतेमहि स्वराज्ये |

[4] ऋग्वेद ८/२/१८ .इच्छन्ति देवाः सुन्वन्तं न स्वप्नाय |

[5] गीता ४/३३ .श्रेयान् द्रव्यमयाद्यज्ञात् ज्ञानयज्ञः परंतप |

[6] सत्यार्थप्रकाश , द्वितीय समुल्लास

[7] अथर्ववेद १/१/४. सं श्रुतेन गमेमहि |

[8] मनु ३/२ .वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वापि यथाक्रमम्| अविलुप्तब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममावसेत् ||

[9] हमारी विरासत ,पृष्ठ २८३

[10] वही

[11] सत्यार्थ प्रकाश , पृष्ठ ५१

[12] वही

[13] महाभारत शान्तिपर्व .

न राज्यं न च राजासीत् , न दण्डो न च दाण्डिकः |

स्वयमेव प्रजाः सर्वाः, रक्षन्ति स्म परस्परम् ||

[14]  हमारी विरासत , पृष्ठ २८३

अपने बड़ों का अवमूल्यन न होने दें: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

दुर्भाग्य से जब कोई आर्यसमाज पर, वेद पर, ऋषि पर जानबूझकर या अनजाने से वार करता है तो हमारे उपाधिधारी तथा कथित लेखक, वक्ता और योगनिष्ठ वक्ता-प्रवक्ता मौन धारण किये रहते हैं। ये लोग घर में ही ‘‘शास्त्रार्थ कर लो’’ की चुनौती देना जानते हैं। डॉ. जे. जार्डन्स जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी विषयक अपनी पुस्तक में बहुत कुछ अच्छा लिखा, परन्तु एक अनर्थकारी घटना अधूरी देकर विष परोस दिया। स्वामी सम्पूर्णानन्द जी को इसका पता चला तो आप चिन्तित हो गये। कौन उत्तर दे? आपने इन पंक्तियों के लेखक को इसका उत्तर देने को कहा। उन्हें कहा गया कि आप सार्वदेशिक व प्रान्तीय सभाओं को यह कार्य सौंपें। वे उत्तर न दे सकें तो फिर मैं इसका सप्रमाण उत्तर दूँगा। इस घटना की पूरी शव-परीक्षा कर दी जावेगी। किसने उत्तर देना था?

उस पुस्तक में वायसराय के नाम स्वामीजी के द्वारा लिखे गये एक पत्र का उल्लेख है। कहा गया कि अंग्रेज से मिलकर (कुछ लेकर)स्वामी जी ने हिन्दू-मुसलमानों में घृणा पैदा कर लड़ाया।

पूरा प्रसंग तो फिर कभी देंगे। स्वामीजी ने फिर इस सेवक को पुकारा। लेख भी दिया। भाषण भी देकर बताया। दस्तावेज हमारे पास थे। देश के लीडरों की भरी सभा में नेहरू जी के एक लाडले मियाँ जी ने दोष लगाया तो धीर-वीर-गम्भीर श्रद्धानन्द ने वहाँ हुँकार भरकर चुनौती दी कि मेरे उस पत्र का फोटो प्रकाशित किया जावे, ताकि देशवासी सच्चाई को जान सकें। यह चुनौती दी गई तो श्वेत दाढ़ी वाले उस मौलाना के चेहरे का रंग ही उड़ गया। बाबू पुरुषोत्तमदास टण्डन व मालवीय जी भी उस बैठक में इस शूरता की शान श्रद्धानन्द जी के निष्कलङ्क जीवन के साक्षी बने। पाठकवृन्द! आर्यसमाज ने पाखण्ड खण्डन के लिए इसे कभी मुखरित ही नहीं किया।

लम्बे समय के पश्चात् आज दम्भ की, अहंकार की चीरफाड़ कर सत्य के तथ्य का बोल बाला करके महर्षि की महिमा का सप्रमाण बखान करने का निश्चय किया है। सोचा था कि मान्य ज्वलन्त जी से इसकी विस्तृत चर्चा की जाये। फिर वही इस विषय पर लिखें। वह मिले। श्री धर्मवीर जी के शोक में हम सब डूबे थे, सो कोई और चर्चा नहीं की। दयानन्द सन्देश,वैदिक पथ आदि पत्रों में चाँदापुर शास्त्रार्थ पर लच्छेदार लेख देकर हमारे कथन को झुठलाया गया। आर्य-पत्रों के पास महाशय चिरञ्जीलाल जी ‘प्रेम’, श्री सन्तराम जी (द्वय), पं. शान्तिप्रकाश जी, डॉ. धर्मवीर जी की कोटि के सम्पादक नहीं बचे, इसलिये कुछ कहना सुनाना भैंस के आगे वीणा बजाने जैसी बात है। ज्वलन्त जी विचारशील विद्वान् हैं। उनसे निवेदन करना चाहता था।

आज सारा आर्यजगत् ध्यान से सुन ले और पढ़ ले कि जो कुछ हमने चाँदापुर शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में लिखा है व कहा है, वह सब प्रामाणिक है। हमारा लिखा एक-एक वाक्य इतिहास का कठोर सत्य है। सब पुराने दस्तावेज हम दिखा सकते हैं। वैदिक-पथ आदि में कुल्लियाते आर्य मुसाफ़ि र में से दिये गये प्रमाण को यह कहकर झुठलाया गया कि पण्डित लेखराम जी ने इसके पश्चात् ऋषि जीवन लिखा। ऋषि जीवन में यह उद्धरण नहीं दिया। इससे स्पष्ट है कि उनका मत बदल गया-यह कथन मिथ्या है। यह निर्णय थोप दिया गया। वकील बनते-बनते जज भी बन गये। आर्य जनता नोट कर ले कि शास्त्रार्थ से पूर्व चाँदापुर में कुछ मौलवी ही ऋषि से मिलकर यह निवेदन करने आये थे कि हिन्दू व मुसलमान मिलकर ईसाई पादरियों से शास्त्रार्थ करें।

भला और किसी को यह निवेदन करने की आवश्यकता ही क्या थी? ईसाई तो यह बात क्यों कहेंगे? हिन्दुओं में शास्त्रार्थ करने की हिम्मत ही कहाँ थी? उस क्षेत्र के कबीर-पंथियों को मुसलमान बनाने से बचाने के लिये तो इस मेले पर मुसलमानों से टक्कर लेने के लिये महर्षि को बुलाया गया था। यह ऋषि-जीवन के कई बड़े-बड़े लेखकों तथा राधास्वामी मत के तत्कालीन (बाद में तृतीय गुरु बने) अनुयायी श्री शिवव्रतलाल वर्मन ने सविस्तार लिखा है।

पं. लेखराम जी को झुठलाते हुए अपना निर्णय देने वाले को पता होना चाहिये कि पण्डित जी ने अपने लेखों, पुस्तकों तथा व्याख्यानों में दी गई ऋषि-जीवन विषयक सामग्री अपने द्वारा रचित ऋषि-जीवन में नहीं दी। कोई बुद्धिमान् यह नहीं मानेगा कि पण्डित जी का इस सामग्री की प्रामाणिकता में विश्वास नहीं रहा था। आश्चर्य यह है कि कोई विरोधी, कोई मुसलमान तो आज पर्यन्त ऐसा न कह सका। ऐसा अनर्गल प्रलाप करके ये पत्र धन्य-धन्य हो गये! पण्डित लेखराम जी की देन उनके बलिदान, उनके साहित्य की मौलिकता पर ये सज्जन क्या जानते हैं? उन पर किये गये प्रहार का कभी उत्तर दिया क्या?

‘मन्कूल’ शब्द को समझे क्या?ः- पण्डित जी ने अपने ग्रन्थ में इस घटना का वर्णन अपने शब्दों में नहीं किया। वहाँ स्पष्ट शीर्षक दिया गया है मन्कूल अज़ मुबाहिसा चाँदापुर। ‘मन्कूल’ अरबी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है उद्धृत करना। ये शब्द पण्डित जी के नहीं, उसी समय छपी एक पुस्तक से हैं और कॉमा में उद्धृत किये गये हैं। पण्डित जी के साहित्य पर सात बार भिन्न-भिन्न नगरों में मुसलमानों ने केस चलाये। एक बार भी इस कथन को किसी ने नहीं झुठलाया। श्री पं. भगवद्दत्त जी ने महर्षि के आरम्भिक काल के नेताओं व शिष्यों के व्यक्तित्व तथा विद्वत्ता एवं उपलब्धियों की चर्चा करते हुए पं. लेखराम जी को सर्वोपरि माना है। जिस व्यक्ति ने पं. लेखराम जी की ऊहा व तपस्या के प्रसाद ‘ऋषि जीवन की सामग्री’ के लिये प्रयुक्त ‘‘विवरणों का पुलिन्दा’’ जैसे निकृष्ट फ़त्वे को ठीक सिद्ध करने के लिये भरपूर बौद्धिक व्यायाम करने में गौरव अनुभव किया’- वह अब कुछ भी लिखता जावे, उसे खुली छूट है।

वेद एक है अथवा चार? डॉ धर्मवीर

प्रस्तुत सम्पादकीय प्रो. धर्मवीर जी का अन्तिम सम्पादकीय है, यह एक शोधपरक लेख है। इसको पढ़कर आचार्यश्री की विद्वत्ता स्पष्ट दिखाई देती है। अब वे हमारे मध्य में नहीं हैं, पर उनके दार्शनिक जीवनोपयोगी उपदेश परोपकारी के पाठकों को मिलते रहेंगे।                                                                 -सम्पादकहिन्दू समाज में एक मान्यता है कि वेद पहले एक ही था। महर्षि व्यास ने उसके चार भाग करके चार वेद बनाये। इसलिये बहुत सारे लोग महर्षि वेद व्यास को वेदों का कर्त्ता मानते हैं। वेद के एक होने और चार होने का क्या आधार है? इस पर विचार करने पर इसके अनुसार हर कल्प में व्यास के होने और वेद के विभाजन से वेद-व्याख्यान के रूप में ब्राह्मण एवं शाखा ग्रन्थों का उल्लेख होना संगत है।

वस्तुस्थिति से वेद के विषय और जिन ऋषियों पर वेद का प्रकाश हुआ है, उनका उल्लेख प्रारम्भ से ही देखने में आता है-

. महीधर अपने यजुर्वेद-भाष्य के आरम्भ में लिखता है-

तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन् मनुष्यान् विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजुः सामाथर्वाख्यांश्चतुरो वेदान् पैल वैशम्यायनजैमिनिसुमन्तुभ्यः क्रमादुपदिदेश।

अर्थात् ब्रह्मा की परम्परा से प्राप्त वेद को मनुष्यों की सुविधा के लिये व्यास ने चार भागों में बाँट कर अपने चार शिष्य पैल, वैशम्पायन, जैमिनि व सुमन्तु को उपदेश किया।

. महीधर से पूर्ववर्ती तैत्तिरीय संहिता के भाष्यकार भट्ट भास्कर ने अपने भाष्य के आरम्भ में लिखा है-

पूर्वं भगवता व्यासेन जगदुपकारार्थमेकीभूय स्थिता वेदाः व्यस्ताः शाखाश्च परिछिन्नाः।

अर्थात् पहले जो वेद एक रूप में थे, जगदुपकार के लिये व्यास ने उनका विभाग किया और शाखाओं में बाँटा।

. भट्ट भास्कर से पूर्व निरुक्त के भाष्यकार आचार्य दुर्ग ने निरुक्त १/२० की वृत्ति में लिखा है-

वेदं तावदेकं सन्तमतिमहत्त्वाद् दुरध्येयमनेकशाखा भेदेन समाम्नासिषुः। सुखग्रहणाय व्यासेन समाम्नातवन्तः।।

अर्थात् वेद एक होने से बड़ा और अध्ययन में कठिन होने के कारण सुविधा के लिये व्यास ने शाखा-भेद से उसके अनेक विभाग किये।

इस कथन का मूल विष्णु पुराण में इस प्रकार मिलता है-

जातुकर्णोऽभवन्मत्तः कृष्णद्वैयापनस्ततः।

अष्टाविंशतिरित्येते वेदव्यासाः पुरातनाः।।

एको वेदश्चतुर्धा तु यैः कृतो द्वापरादिषु।

– विष्णु पुराण ३/३/१९-२०

इसी प्रकार मत्स्य पुराण में उल्लेख मिलता है-

वेदश्चैकश्चतुर्धा तु व्यख्यते द्वापरादिषु।

– मत्स्य पुराण १४४/११

अर्थात् प्रत्येक द्वापर के अन्त में एक ही वेद चतुष्पाद चार भागों में विभक्त किया जाता है। पुराण के अनुसार अब क्यों कि अट्ठाईसवाँ कलियुग चल रहा है, तो यह वेद विभाजन २८ बार हो चुका है। इन सभी विभाग करने वालों का नाम व्यास ही होता है।

श्वेताश्वतर उपनिषद् में-

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो

वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।।

-६/१८

जो प्रथम ब्रह्मा को उत्पन्न करता है और उसके लिये वेदों को दिलवाता है।

वेदान्त दर्शन का भाष्य करते हुए शङ्कराचार्य लिखते हैं-

ईश्वराणां हिरण्यगर्भादीनां वर्तमानकल्पादौ प्रादुर्भवतां परमेश्वरानुगृहीतानां सुप्तप्रबुद्धवत् कल्पान्तर-व्यवहारानुसन्धानोपपत्तिः। तथा च श्रुतिः-यो ब्रह्माणम्।।

– वेदान्त सूत्र भाष्य १/३/३० तथा १/४/१

आचार्य शंकर वेदात्पत्ति हिरण्यगर्भ से कहते हैं, उनके मत में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा है। इस ब्रह्मा की बुद्धि में कल्प के आदि में परमेश्वर की कृपा से वेद प्रकाशित होते हैं।

वेदान्त सूत्र के शांकर भाष्य की व्याख्या करते हुए श्री गोविन्द ने इस प्रकार लिखा है-

पूर्वं कल्पादौ सृजति तस्मै ब्रह्मणे प्रहिणोति= गमयति= तस्य बुद्धौ वेदानाविर्भावयति।

– वेदा. १/३/३०

इसी सूत्र की व्याख्या पर आनन्दगिरि ने लिखा है-

वि पूर्वो दधातिः करोत्यर्थः।

पूर्वं कल्पादौ प्रहिणोति ददाति।

इन सभी स्थानों पर वेद का बहुवचन में प्रयोग किया गया। अतः चारों वेद की उत्पत्ति प्रारम्भ से ही है। व्यास द्वारा चार भागों में विभक्त किया गया, यह कथन सत्य नहीं है।

. सर्वप्रथम वेद में ही चार वेदों का उल्लेख पाया जाता है। ऋग्वेद में-

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे

छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत।।

– १०/९०

. इसी प्रकार यजुर्वेद के पुरुषाध्याय में भी सभी वेदों का उल्लेख मिलता है।

. सामवेद में वेद का उल्लेख मिलता है।

. अथर्ववेद का मन्त्र ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदात्पत्ति प्रकरण में ऋषि दयानन्द ने उद्धृत किया है।

अथर्वाङ्गिरसो मुखम्।

. ब्राह्मण ग्रन्थों में-

अग्नेर्ऋग्वेदोः वायो यजुर्वेदः सूर्यात् सामवेदः।

. उपनिषदों में चारों वेदों की चर्चा आती है। बृहदारण्यक में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद में –

तस्य निश्वसितमेतद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्ववेदः।

छान्दोग्य में सनत्कुमार और नारद के संवाद में नारद सनत्कुमार को अपनी विद्या का परिचय देते हुए कहते हैं-

ऋग्वेदं भगवोऽध्योमि,

यजुर्वेदमध्येमि सामवेदमथर्ववेदं।

तैत्तिरीय शिक्षा वल्ली में साम की चर्चा है-

साम्ना शंसन्ति यजुभिर्ययजन्ति।

मुण्डक में अथर्ववेद का विस्तार से उल्लेख मिलता है-

ब्रह्मा देवानां….।

यहाँ पर ब्रह्म विद्या को अथर्व विद्या का विषय बताया है और ऋषियों की लम्बी परम्परा का उल्लेख किया है।

. रामायण में किष्किन्धा काण्ड में राम-लक्ष्मण के साथ हनुमान् के प्रसंग में लक्ष्मण राम से हनुमान् की योग्यता का वर्णन करते हुए कहते हैं-

नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः।

नासामवेदविदुषः शक्यमेवं प्रभाषितुम्।।

नूनं व्याकरणं कत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।

बहुव्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्।।

न मुखे नेत्रयोर्वोपि ललाटे च भ्रुवोस्तथा।

अन्येष्वपि च गात्रेषु दोषः संविदितः क्वचित् अस्थिरमसिन्दिरधमविलम्बितमद्रुतम्।

उरःस्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यगे स्वरे।।

संस्कार क्रम सम्पन्नामद्रुतामविलम्बिताम्।

उच्चारयति कल्याणीं वाचं हृदयहरिणीम्।।

अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया कस्य नाराध्यते चित्तमुद्यतासेररेरपि।।

– कि.का. ३/२८-३३

अत्राभ्युदाहरन्तीमां गाथां नित्यं क्षमावहाम्।

गीताः क्षमावतां कृष्णे काश्यपेन महात्मना।।

क्षमा धर्मः क्षमा यज्ञः क्षमा वेदाः क्षमा श्रुतम्।

यस्तमेवं विजानाति स सर्वं क्षन्तुर्महति।।

– महाभारत वन पर्व २९/३८-३९

इन श्लोकों में महाराज युधिष्ठिर द्रौपदी को उपदेश दे रहे हैं, महात्मा कश्यप की गाई गाथा का उल्लेख कर बता रहे हैं, क्षमा ही वेद हैं, यहाँ वेद का बहुवचन में प्रयोग किया गया है।

ऋचो बह्वृच मुख्यैश्च प्रेर्यमाणाः पदक्रमैः।

शुश्राव मनुजव्याघ्रो विततेष्विह कर्मसु।।

अथर्ववेदप्रवराः पूर्वयाज्ञिकसंमताः।

संहितामीरयन्ति स्म पदक्रमयुतां तु ते।।

-महाभारत आदि पर्व अ. ६४/३१, ३३

जब दुष्यन्त कण्व के आश्रम में प्रवेश करते हैं, तब आश्रम के वातावरण में ऋग्वेद के विद्वान् पद और क्रम से ऋचाओं का पाठ कर रहे थे। अथर्ववेद के विद्वान् पद व क्रम युक्त संहिता का पाठ पढ़ रहे थे।

इससे पता लगता है कि दुष्यन्त के काल में अथर्ववेद संहिता का क्रम पाठ व पद पाठ पढ़ा जाता था।

महाभारत के अनेक प्रसंग हैं, जिनमें वेदों के लिये बहुवचन का प्रयोग मिलता है।

पुरा कृतयुगे राजन्नार्ष्टिषेणो द्विजोत्तमः।

वसन् गुरुकुले नित्यं नित्यमध्ययने रतः।।

तस्य राजन् गुरुकुले वसतो नित्यमेव च।

समाप्तिं नागमद्विद्या नापि वेदा विशांपते।।

– महा. शल्य पर्व अध्याय ४१/३-४

अर्थात् प्राचीन काल में कृतयुग में आर्ष्टिषेण गुरुकुल में पढ़ता था, तब वह न विद्या समाप्त कर सका, न ही वेदों को समाप्त कर सका।

वेदैश्चतुर्भिः सुप्रीताः प्राप्नुवन्ति दिवौकसः।

हव्यं कव्यं च विविधं निष्पूर्तं हुतमेव च।।

– महा. द्रोण पर्व अध्याय ५१/२२

अर्थात् राम के राज्य में चारों वेद पढ़े हुये विद्वान् लोग थे।

ब्रह्मचर्येण कृत्स्नो मे वेदः श्रुतिपथं गतः।

– महा. आदि पर्व ७६/१३

इसमें ययाति ने देवयानी से कहा है- मैंने ब्रह्मचर्य पूर्वक सम्पूर्ण वेदों को पढ़ा है।

राज्ञश्चाथर्ववेदेन सर्वकर्माणि कारयेत्।

– महा. शान्ति पर्व ७/५

भीष्म ने उशना का प्राचीन श्लोक उद्धृत कर राजा पुरोहित से अथर्ववेद द्वारा सारे कार्य करावे। यहाँ अथर्ववेद का स्पष्टतः उल्लेख है।            – धर्मवीर

चातुर्वर्ण्य का मूल सिद्धांत : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यदि कोई जाति सांसारिक व्यवहार के हेतु अपने व्यक्तियों के इस प्रकार के चार भेद कर दे तो यह कोई दोष नहीं ,किन्तु गुण है। क्योंकि बिना विभाग किये काय्र्य चल नहीं सकता। आजकल भी प्रत्येक जाति अपने व्यक्तियों का किसी प्रकार का विभाग करती है। “सब धान बाईस पसेरी“ नही हो सकते । मनुष्य स्वभाव से विषम है। यह विषमता प्रकृति और प्रवृति दोनो में पाई जाती है। मनुष्य का हित भी इसी में है। पूर्ण समानता समाज का निर्माण नहीं कर सकती । समाज के निर्माण का मूल तत्व यह है कि प्रत्येक मनुष्य अन्य मनुष्यों को अपने अस्तित्व के लिये आवश्यक समझे। इसको आप परस्परतंत्रता   ¼Interdependence½ कह सकते है। यह परम्परतंत्रता विषमता से ही उत्पन्न होती है। एक कृषक समझता है कि मै कृषक तो हूँ परन्तु सैनिक नही हूॅ। सैनिक समझता है कि मै सैनिक तो हूॅ परन्तु कृषक नही हूँ यह भाव इनको एक दूसरे का आश्रय तकने पर बाधित करता है। समाजशास्त्र के प्राचिन, मध्यकालीन तथा आर्वाचीन पंडितों ने समाज के विभाग की जितनी कल्पनायें की है उन में उत्कृष्तम ब्राहम्ण, क्षत्रिय,वैश्य, तथा शूद्र का चतुर्वण्र्य विभाग है ।

वर्ण व्यवस्था सम्बन्धी क्षेपक : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

आज कल हिन्दू जाति बहुत भी उप-जातियों में विभक्त है।  यह सब जन्म पर निर्भर है। अर्थात् ब्राहम्ण का पुत्र ब्रहम्ण होता है और कान्यकुब्ज ब्राहम्ण का कान्यकुब्ज। क्षत्रिय का लडका क्षत्रिय होता है। चैहान क्षत्रिय का चैहान । इसी प्रकार नाई का लडका नाई , कहार का कहार। वेदो मे इन उप जातियो के नाम तो है नही । हां चार  वर्णो का वर्णन आता है। अर्थात ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। हिन्दूओं में यह जनश्रुति प्रचलित है कि ब्राहम्ण ईश्वर के मुख से उत्पन्न हुए, क्षत्रिय भुजाओं से वैश्य उरू से और शूद्र पैर से। परन्तु आज तक किसी भले मानस ने यह सोचने का कष्ट नहीं उठया कि इसका अर्थ क्या हुआ ? ईश्वर का मुख क्या है और उससे ब्राहम्ण कैसे उत्पन्न हो गये ? ईश्वर का पैर क्या है और उससे शूद्र कैसे उत्पन्न हो गये ? क्या यह आलक्डारिक भाषा है या  वास्तविक ? यदि आलंकारिक है तो वास्तविक अर्थ क्या है ? यदि वास्तविक है तो अर्थ क्या हुआ ? यदि कोई कहे कि आकाश के मुख से हाथी उत्पन्न हो गया तो पूछना चाहिये कि आकाश के मुख से क्या तात्पर्य है और उससे हाथी कैसे हो सकता है ? तमाशा यह है कि सैकड़ों वर्षो से हिन्दू यह कहते चले आते है कि ब्राहम्ण ईश्वर के मुख से उत्पन्न हुए और शूद्र पैरों से । परन्तु किसी ने  यह नही पूछा कि ईश्वर का पैर क्या है और उससे स्त्री या पुरूष कैसे उत्पन्न हो सकते है । लोग कहते है कि  वेद में ऐसा लिखा है। जिस वेदमंत्र का प्रमाण दिया जाता है वह यह कहता है:-

ब्राहम्णोऽस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरूतदस्य यद् वैश्यः पद्रयां शूद्रोऽजायत।।

शब्दार्थ यह है:-

(1) “ब्राहम्णः अस्य मुख आसीत्।” ब्राहम्ण इसका मुख था। “

(2) “बाहू राजन्यः कृतः” क्षत्रिय भुजा बनाया गया ।

(3) ”ऊरू तत् अस्य यत् वैश्यः”जो वैश्य है वह उसकी जंघा थी।

इसमें यह नहीं लिखा गया कि ब्राहम्ण मुख से उत्पन्न हुआ । क्षत्रिय बाॅह से और वैश्य जंघा से । अर्थ निकालने के दो ही  उपाय है या तो शब्दों से सीधा अर्थ निकलता हो या आलंकारिक अर्थ लेने के लिये कोई विशेष कारण हों। प्रत्येक शब्द के आलंकारिक अर्थ भी नही लेने चाहिये जब तक सीधा अर्थ लेना अप्रासंगिक न हो । और ऐसे आलंकारिक अर्थ भी न लेने  चाहिये जो असम्भव या निरर्थक हो।

अब देखना चाहिये कि ”ब्राहम्ण मुख से उत्पन्न हुआ“ ऐसा अर्थ निकलने के लिये क्या हेतु है ? ’मुख‘ का अर्थ ’मुखात्‘ नही हों सकता। यह स्पष्ट है । न आसीत् अर्थ उत्पन्न हुआ हो सकता है। ‘ऊरू तत् अस्य यद् वैश्यः“ “जो वैश्य है वही ऊरू है“ वाक्य की इस शैली से भी स्पष्ट है कि ऊरू से वैश्य के उत्पन्न होने की कल्पना बुद्धि-शून्य है। फिर यह सब अर्थ कैसे ले गया ? इसमें सन्देह नही कि समस्त पौराणिक साहित्य इस  प्रकार की प्रतिपत्ति सें व्याप्त हो रहा है । परन्तु इसकों वेदो का आधार तो नही मिल सकता। मंत्र के चौथे पाद में अवश्य “पद्भ्यां शूद्रः अजायत ” “पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ“ ऐसे  शब्द  हैं।  परन्तु इस पाद की प्रत्यनुवृत्ति पहले तीनो तक ले जाना ठीक नहीं। यदि कल्पना कीजिये कि चारों पादों में ऐसा ही होता कि ब्राहम्णोऽस्य मुखादजायत। इत्यसदि तो भी प्रसंग को देखकर कुछ और अर्थ लेना पडता क्योकि मुख या बाहू से तो मनुष्य उत्पन्न हो नहीं सकते और न पैरो से ,पूर्वापर देखने से अर्थ स्पष्ट हो जाते है क्योकि जो मंत्र हमने ऊपर दिये है उससे पहला मंत्र यह है:-

यत् पुरूषं व्यदधुः कविता व्यकल्पयन्। मुखं किमस्यासीत् कि बाहू किमूरू पादा उच्यते।

( यजु0 31।10 )

शब्दार्थ इस प्रकार है:-           यत् =जब

पुरूषं=पुरूष को

व्यदधुः=बनाया

क्तिधा=किस किस प्रकार से

मुख कि अस्य असीत्=इस का मुख क्या था ?

कि बाहू=भुजायें क्या थीं ?

किं ऊरू=जंघायें क्या थी?

पादा उच्येते= दोनो पैर क्या कहे जाते हैं अर्थात् किस नाम से पुकारे जाते हैं।

यहाॅ तो शूद्र के सम्बन्ध में भी न पंचमी विभक्ति है , न उत्पन्न होनक का सूचक शब्द है। केवल चार प्रश्न है कि पुरूष की किस किस रूप से कल्पना की गई है। अर्थात् किसको मुख माना गया , किसको बाहू, किसको ऊरू, किसको पैर ? इन प्रश्रों से उपमालंकार स्पष्ट है और उसी के अनुसार अर्थ लने चाहिये। उब्बट ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है:-

1- “कति प्रकारं विकल्पितवन्तः”

2‘- “ब्राहम्णक्षत्रियवैश्यशूद्राः स्थिता इत्यर्थः”

( उब्बट- भाष्य )

महीधार कहते हैं

किं च पादौ उच्येते पादावपि किमास्तामित्यर्थः।

( महीधर – भाष्य )

इनसे स्पष्ट है कि यहाँ मुख आदि अंगो से ब्रहम्णादि के उत्पन्न होने की कथा न केवल असंगत किन्तु असंभव भी है और कोई थोडी सी बुद्धिवाला मनुष्य भी ऐसी अंड बंड कल्पना न कर सकेगा। हम महीधर के इन शब्दो से सहमत है कि

” प्रश्नोत्तर रूपेणब्राहम्णादिसृष्टि वक्तुं ब्रहम्वादिनां प्रश्रा उच्यन्ते।”

अर्थात प्रश्न-उत्तर रूप् से ब्राहम्ण आदि की सृष्टि का कथन करने के लियें ब्रहम्वादियों के प्रश्न कहे जाते है ।

इस मंत्रो का सीधा , सुसंगत तथा युक्ति-युक्त अर्थ यही है कि यह जो पुरूष-संघ या मनुष्य जाति है उसमें मुख ब्राहम्ण हैं, बाहू क्ष़ित्रय, ऊरू वैश्य पैर शूद्र। अर्था सबसे उत्कृष्ट ज्ञानवान नेता ब्राहम्ण कहे जाने के योग्य है। बाहू के तुल्य रक्षा करने वाले क्षत्रिय कहे जाने के योग्य है । ऊरू के तुल्य धन संचय करने वाले वैश्य और निम्न श्रेणी के लोग शूद्र । मनुस्मृति के निम्न श्लोक से भी यही ज्ञात होता है:-

विप्राणां ज्ञानेतों ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः।

वैश्यानां धान्यधनतः शूद्राणमेव जन्मतः।।

( 2। 155)

ब्राहम्णों में बडप्पन ज्ञान की अपेक्षा से है, क्षत्रियों में शक्ति की अपेक्षा से वैश्य में धन -धान्थ से और शूद्रों में जन्म से । अर्थात् जन्म के द्वारा बडप्पन मनुष्य की निकृष्टतम वृत्ति है। नीचे के श्लोको में ब्रहम्ण आदि के जो कत्र्तव्य बताये गये है वह भी इसी दृष्टिकोण को बताते है:-

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।

दान प्रतिग्रहं चैव ब्रहम्णानामकल्पयत्।।

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च ।

विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः।।

पशूनां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च ।

वणिक् पथं कुसीदंच वैश्यस्य कृषिमेव च।।

एवमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।

एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।।

( मनु0 1।88-91 )

यहाॅ प्रश्न हो सकता है कि इनसे पहले श्लोक में “मुख बाहूरूपज्जाना“ का  क्या अर्थ अन्य प्रसंगों से अर्थ निश्चित हो गये तो इस वाक्य का अर्थ कुछ अड़चन नहीं डाल सकता । “जनी प्रादुर्भावे” ‘जन’ धातु का अर्थ है प्रादुर्भाव जिसके ’जायते‘ ‘अजायत’ आदि रूप् है। इसलिये जब मुख बाहू आदि से उत्पन्न होना एक असंभव बात हो गई तो ऐसे वाक्यों का यही अर्थ लेना चाहिये कि मुख आदि रूप से जिनका प्रादुर्भाव हुआ। अर्थात् जो पुरूष मुख बाहू आदि रूप् से काय्र्य करते है।

मृत-पितरों का श्राद्ध, तर्पण आदि: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यह दूसरी मिलावट है। ऊपर बताया जा चुका है कि

पितृयज्ञस्तु तर्पणम्

(मनु0 3।70)

पितृयज्ञ को तर्पण कहते है। साधारण हिन्दू समझता है कि तर्पण मरे पितरों को पानी देने का नाम है । मनु के इस श्लोक से तो मृत पितरो की गंध नही पाई जाती । इसी श्लोक का भाष्य करते हुए कुल्लूक भट्ट लिखते हैं:-

‘अन्नाद्येनोदकेन वा’ इति तपणं वक्ष्यति स पितृयज्ञः। अर्थात् तर्पण में अन्न पानी देने का विधान आगे कहेगे। यही पितृयज्ञ हैं। जिसके विषय में वक्ष्यति (आगे कहेंगे ) लिखा है। वह श्लोक यह है:-

कुर्यादहरहः श्राद्धमत्राद्येनोदकेन वा ।

पयोमूलफलैर्वापि पितृभ्यः प्रीतिमावहन्।।

अर्थात पितरों को प्रीतिपूर्वक बुलाकर खना, पानी, दूध, मूल फल से प्रति दिन श्राद्ध करे इस श्लोक के होते हुए कौन कह सकता है कि यहाॅ मृत पितरो को रोज बुलाने का विधान है ? इन दोनो श्लोको और कुल्लूक की टिप्पणी को देखकर प्रतीत होता है कि जिसको तर्पण कहते है और दूसरे में श्राद्ध है । एक श्लोक में तर्पण शब्द आया है और दूसरे में श्राद्ध। बात एक ही है प्रबन्ध करना । “अन्नद्य” वैदिक ग्रन्थों का एक परिचित शब्द है जो इसी अर्थ में आता है। मरे हुए पितरों को प्रीतिपूर्वक बुलाने का कुछ भी अर्थ नहीं । वह आ ही कैसे सकते है ? वैदिक सिद्धान्तानुसार तो उनका दूसरा जन्म हो जाता है और जो पुनर्जन्म को नही मानते वह भी मृत आत्मा की कुछ न कुछ गति तो मानते ही है उनक ेमत में भी मृतकों का बुलाना असम्भव है। मृतको को खाना पानी पहुॅचाने की प्रथा कहाॅ से चली यह कहना कठिन है। साधारणतया तो यह प्रथा बहुत पुरानी मालूम होती है। दो सहस्त्र वर्ष से अवश्य पुरानी है, इसलिये समस्त तत्कालीन साहित्य में इतस्ततः इसके उदाहरण मिलते है। मर कर आत्मा की क्या गति होती है इसके विषय में प्राचीन मिश्र आदि देशो की जातियों में भिन्न मत थे। आत्मा के साथ प्रेम करते-करते हमको शरीर से भी प्रेम हो जाता है। यह शरीर का प्रेम ही है जिसके कारण लोगों ने मृतक की लाश का अपने प्रकार से आदर-सम्मान करके की प्रथा डाल ली। वैदिक सिद्धान्त तो यह था कि

भस्मान्त  शरीरम्

(यजुर्वेद 40।15 )

आर्थात् मरने पर लाश को जला देना चाहिये । मनु 2।16 से भी ऐसा ही पाया जाता है। यही सब से उत्तम रीति थी। क्योकि पांच भौतिक शरीर को बिना सडे गले अपने कारण में लय कराने की अन्य कोई विधि नही है । परन्तु जो लोग मृत्यु के तत्व को नही समझते थे वह उसी प्रकार मृतक के शव को सुरक्षित रखने का प्रयव करते थे जैसे बंदरिया अपने मरे हुए बच्चे को गले से चिपटाये फिरा करती है । शव को सुरक्षित रखने के कई प्रकार प्रचलित हो गये। मिश्र देश में लाश के भीतर मसाला लगाकर शरीर के ऊपरी भाग को सुरक्षित रखने की प्रथा थी । कुछ लोग समझते थे कि आत्मा को परलोक यात्रा के लिये खना पानी रख देने की आवश्यकता है जैसे यात्रा पर चलते समय लोग साथ भोजन बाॅध लेते हैं। इस प्रकार लोग लाश के साथ भोजन या पिण्ड रखने लगे। ’पिंड‘ शब्द का मौलिक अर्थ भोजन था जैसे कि नीचे के उदाहरणो से ज्ञात होता है:-

(1) तथेति गामुत्कवते दिलीपः सद्यः प्रतिष्टम्भविमुक्त बाहुः।

सन्यस्त शस्त्रो हरये स्वदेहमुपानयत् पिंडामवामिषस्य।।

(रघुवंश 2।51 )

(2) न शोच्यस्तत्र भवान् सफलीकृतभर्तृ पिंडः।

(मालविकाग्रिमित्र पंचमोऽक्कः )

(3) लांगूलचालनमधश्ररणाव पातं

भूमौ निपत्य वदनोदरदर्शनं च।

श्रा पिंडदस्य कुरूते गजपुंगवस्तु

धीर विलोकयति चाटु शतैश्य भुक्ते।।

(भर्तृहरि नीतिशतकम् 31 )

यब यह लोग लाश के साथ पिंड रखते थे तो यह जानने का यत्न नही करते थे कि यदि आत्मा यात्रा पर चली गइर्    तो भी वह लाश से तो निकल ही गई । लाश के साथ भोजन रखने से क्या प्रयोजन ? आत्मा मरने के पश्चात् कहीं जाय, चाहे नष्ट हो जाय चाहे अन्यत्र चली जाय। कम से कम इतना तो मानना ही पडेगा कि उसका इस शरीर के साथ सम्बन्ध टूट गया। जीवन और मृत्यु मे क्या भेद ? यह न कि जब तक जीव शरीर के साथा है जीवन है जब साथ छूट गया तो मृत्यु हो गई। इस प्रकार मृतक के शव के साथ भोजन या पिंड रखना कुछ अर्थ नही रखता। परन्तु मनुष्य मे मोह होता है। वह अज्ञानवश मृत्यु के तत्व को भूल जाता है और मृतक की लाश से ही प्रेम करने लगता है। कवरो पर फातिहा पढने की प्रथा भी इसी अज्ञान की द्योतक है । लोग कबरों पर चादर चढा कर समझते है कि आत्मा उस कबर में कही चिपटी हुई है  पिंड के यह मौलिक अर्थ पीछे से बदल गये और पिंड शब्द आटे के उन पिंडो का अर्थ देने लगा जो आजकल मृतक के नाम पर दिये जाते है ।

जब एक बार कोई प्रथा चल पडती है तो उसके लिये युक्तियाॅ भी गढ ली जाती हैं, चाहे वह प्रथा कितनी ही भ्रमात्मक क्यों न हो। भिन्न भिन्न देशों के इतिहास मे इस प्रकार की युक्तियाॅ मिलती हैं। जिन देशो में पुनर्जन्म मानने की प्रथा जाती रही वहाॅ के लोगों का विचार था कि आत्मा शरीर से निकलकर विक्षिप्त अवस्था में इधर उधर फिरती रहती है। उसकी शांति के लिये कुछ कृत्य करना होता है। भारतवर्ष के हिन्दुओं ने भी एक युक्ति गढ ली कि भौतिक शरीर के त्यागने पर जो लिंग शरीर रह जाता है उसकी पुष्टि पिंडदान द्वारा की जाती है। मौनियर विलियम्स ¼Monier Williams½  ने हिन्दुओं के श्राद्ध के विषय मे लिखा हैं।

‘’It is performed for the benefit of a deceased person after he has regained an intermediate body and become a pitri or beatified father’’ . (Brahmanism p. 285)

अथार्त मृतक के आत्मा के ’पितृ‘ हो जाने पर उसके लिंग शरीर के लाभार्थ श्राद्ध किया जाता हैं। परन्तु लोग यह सोचने का कष्ट नहीं उठते कि श्राद्ध करके या पिण्डदान करके लिग्ड शरीर को किस प्रकार लाभ पहुॅचाया जा सकता है । साधारणतय तीन पीढियों तक श्राद्ध किया है । इससे भी प्रतीत होता है कि जीवित पिता, पितामह, प्रपितामह, आदि के श्राद्ध तर्पण का ही बिगडकर यह रूप हो गया है। लिंग शरीर को इन तीन पीढियों तक ही क्यों लाभ पहुॅचता है और लिंग शरीर इतने दिनो पुनर्जन्म के लिये क्यो ठहरा रहता है, यह एक ऐसी समस्या है जो मृतक श्राद्ध के ढकोसले को आगे बढने नही देती।

कुछ लोगों ने पुत्र शब्द की व्युत्पत्ति को मृतक श्राद्ध के पक्ष में लिया है। पुत्र कहते है पुत् नाम नरक से जो बचावे उसको । लोग कहते है कि पुत्र जब श्राद्ध करेगा तो पिता नरक से बच सकेगा। यदि किसी का पुत्र श्राद्ध नहीं करता तो उसका नरक से त्राण भी नहीं होने का । परन्तु ऐसी धारणा करने वाले कर्म के सिद्धान्त को नही समझते । मौनियर ने इस विषय में एक चुभता हुआ नोट दिया है:-

It is wholly inconsitant with the true theory of Hinduism that the Shraddha should deliver a man from the consequence of his own deeds. Manu says ‘‘ Iniquity once practiced, like a seed, fails not to yield its fruit to him that wrought it.’ ( iv 173 ) but Hinduism bristles with such inconsis tencies.

( Brahmanism,page 28 )

अर्थात् यह बात हिन्दू धर्म के सिद्धान्त के सर्वथा विरूद्ध है कि श्राद्ध के द्वारा मनुष्य अपने निज कर्मो के फल से बच सके  क्योकि मनु 4।173 मे लिखा है कि एक बार किया पाप बीज के समान फल लाने से नही रूक सकता। परन्तु हिन्दू धर्म इस प्रकार के परस्पर-विराधों से भरा पडा है। ” वस्तुतः बात भी ठीक है । जब मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार ही दूसरी योनि पाता है तो उसके पुनर्जन्म को उसकी सन्तान के कर्मो के आधीन कर देना कहाॅ का न्याय है ?

शायद पाठक कहें कि फिर पुत्र को नरक से बचाने वाला क्यों कहा ? क्या निरूक्त में यास्क ने पुत्र की यह व्युत्पत्ति नहीं की ? हमारा उत्तर यह है कि व्युत्पत्ति तो ठीक है। केवल समझ का फेर है। प्रथम तो यह धारणा भ्रम-मूलक है कि पुत्र केवल लडके को ही कहते है लडकी को नहीं ।

यास्क के निरूक्त में यह श्लोक मिलता है:-

अविशेषण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।

मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायम्भवोऽब्रवीत्।।

अर्थात् धर्म के अनुसार लडका और लडकी दोनो को बिना विशेषता के दायभाग मिलता है। ऐसा स्वायम्भव मनु ने कहा था।    दूसरे, सन्तान को नरक का त्राता कहने का तात्पर्य यह है कि सन्तानोत्पत्ति करके और उसका यथोचित पालन करके मनुष्य ’पितृ-ऋण‘ से छूट जाता है। बिना ऋण चुकाये मोक्ष का भागी होना कठिन है। सन्तान को धर्मात्मा और सुशिक्षित छोड जाना एक प्रकार से मृतक के आत्मा के लिये भी लाभदायक है। क्योकि पिता मरकर जब जन्म लेगा तो उसी प्रकार के घरों में जैसे उसने छोडा है। यदि सन्तान अधर्मी और विद्याहीन है तो आने वाले समाज की अवस्था भी बुरी होगी। और जो आत्मा मरकर जन्म लेगी उसको इसी बुरे समाज के नरक रूपी गढे मे पडना जिससे उसका अगला विकास बन्द हो जायगा। इस प्रकार कहा जा सकता है कि संतान मनुष्य को नरक से बचाती है, परन्तु पिंड देकर नहीं किन्तु सामाजिक वातावरण को शुद्ध करके। यदि इस दृष्टि से देखा जाता तो मौनियर विलियम्स को हिन्दू धर्म में इतना विरोध दिखाई न पडता। परन्तु जब हिन्दुओं ने स्वयं ही आपने सिद्धान्तों को बिगाड  रखा हो तो विदेशियो का क्या दोष ?

भारतवर्ष में यह प्रथा कब से चली इसमें सन्देह है। भारतवर्षो पहले भी पुनर्जन्म को मानते थे और अब भी मानते है। बौद्ध और जैन मतों ने वेदो को मानना त्याग दिया था, परन्तु पुनर्जन्म पर वह भी उसी भाॅति विश्वास रखते थे। दूसरे देशों के अति प्राचीन इतिहास तो पुनर्जन्म का पता देते है परन्तु पीछे के लोगों ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को त्याग दिया और वे मृत-आत्माओं की भाति -भाति से पूजा करने लगे। इसका प्रमाण पूर्वी तथा पश्चिमी देशो के इतिहास से मिलता है। बौद्धमत का जब चीन, जापान, ब्रह्मा आदि देशों मे प्रचार हुआ तो बौद्ध लोग भी मृत-आत्मा के उपासक बन गये । बौद्धो का सिद्धान्त आत्मा के विषय मे वहीं नहीं है। जो वोदों का है। बौद्धों का आत्म-विज्ञान वाद भारतवर्ष के अन्ंय मतों के आत्मा-विषयक भिन्न-भिन्न वादो से भेद रखता है। वे आत्मा को एक स्थायी पदार्थ नही मानते। इनका निर्वाण भी वैदिक अपवर्ग से भिन्न है। श्री शंकराचार्य ने वेदान्त भाष्य में इसका कई स्थानो पर उल्लेख किया है। महात्मा बुद्ध की मृत्यु के प्श्चात् उनके उपासक उनको पूजने लगे थे । पूजा का यही अर्थ है कि वह मृत आत्मा को पूजते थे। यद्यपि महात्मा बुद्ध की जातक में मृतक श्राद्ध का उल्लेख मिलता है और चार्वाक आदि की पुस्तको में मृतक-श्रद्ध का खंडन आता है तथापि बौद्धों ने मृत आत्मा की पूजा के प्रचार मे कमी के बजाय बढती ही की। इसका चिह यह है कि भारतवर्ष के भिन्न भिन्न तीर्थ स्थानों में जो भिन्न कारण से वर्तमान प्रसिद्धिद को प्राप्त हुए है गाया का तीर्थ-स्थान केवल मृतक-श्राद्ध और तर्पण के लिये प्रसिद्ध है। गय के तीर्थ होने का पता बुद्ध-भगवान से पहले नही मिलता।

मनुस्मृति मे तो ‘गया’ का नाम है ही नही । याज्ञवल्क्य में श्राद्ध, तर्पण के सम्बन्ध में गया का नाम आया हैं:-

यद् ददाति गयास्थश्च सर्वमानन्त्यमश्नुते।

तथा वर्षात्रयोदश्यां मद्यासु च विशेषतः।।

( याज्ञवल्क्य 1।261 )

याज्ञवल्क्यस्मृति स्पष्टतया ही बुद्ध भागवान के बहुत पीछे की है। हमरी धारणा है कि गया को इस कीर्ति के दाता बुद्ध भगवान ही थे । जब बैद्धों तथा पौराणिकों में विग्रह आरंम्भ हुआ और बौद्धों को पराजय तथा पौराणिकों कों वियज प्राप्त हुई तो बौद्धों का मन्दिर इनके हाथ लग गया और अभी तक उसी भाॅति चला आता है। पौराणिक धर्म की नई विशेषताओं का निरीक्षण करने से भली भाॅति ज्ञात होता है कि प्राचिन वैदिक धर्म के विकृत रूप में यदि बौद्ध और जैन मत की पोट दे दी जाय तो परिणाम पौराणिक मत होगा। पौराणिक मत के गन्थों और बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में इस बाह्म रूप में बहुत बडा साहश्य है । देवी देवता, अवतार , तीर्थकर, मृतियाॅ, मन्दिर, पूज्य पुरूषों के जन्म तथा आयु से सम्बद्ध गाथायें सब मिलते जुलते है। इसी युग मे वैदिक ग्रन्थों मे मिलावट भी बहुत हुई है। हमारी धारणा है कि श्राद्ध और तर्पण का मृतको के लिये विधान इसी मिलावट का फल स्वरूप है। कुछ लोग कह दिया करत है कि यदि मिलावट होती तो उनके प्रमाण इस बहुतायत से न मिलते। वे दो बातों पर विचार नहीं करते। प्रथम तो बौद्ध मत की आॅधी का वेग बहुत जोर का था। उसने भारतीय जीवन के भी विभागों में अपना हस्ताक्षेप किया था। दूसरे यह कि इस युग को दो सहस्त्र वर्ष के लागभग हो गये । इतने समय में जातियाॅ कही की कहीं पहुँच जाती है। यदि पिछले पचास वर्ष के केवल हिन्दी के साहित्य का समालोचनात्मक अध्ययन किया जाय तो पचास वर्ष पहले के और अब के सिद्धान्तों में बहुत बडा भेद मिलगा। यूरोपियन जातियों के साहित्य में सौ वर्ष पहले विकासवाद का चिन्ह भी न था । डार्विन के पश्चात् विकासवाद ने सभ्य देशों के साहित्य के सभी विभागों पर इतना बलपूर्वक आक्रमण किया कि अब काव्य, विज्ञान, इतिहास, दर्शन सभी पर विकासवाद  का ठप्पा है । इसलिये यह कोई आश्चय-जनक बात नहीं है यदि पितृ-यज्ञ को जीवित पितरों के स्थान पर मृत-पितरों के लिये मान लिया गया मनु0 अध्याय 3।83 श्लोक इस प्रकार हैः-

एकमप्याशयेद् विप्रं पित्रर्थे पान्चयज्ञिके।

न चैवात्राशयेत् कंचिद् वैश्रवदेवं प्रतिद्विजम्।।

”पंच यज्ञ सम्बन्धी पितृ-यज्ञ में एक ब्राहम्ण को भी भोजन कराना पर्याप्त है। परन्तु वैश्रदेव के सम्बन्ध में किसी ब्राहम्ण को भोजन न करावे।

यह श्लोक और आगे के कई श्लोक मृतक-श्राद्ध के गौरव के हेतु ही जोडे गये है और इस अध्याय के अंन्त में तो मृतक श्राद्ध की वह विधियाॅ दी गई है जो आजकल के पौराणिकों को भी चक्कर में डलती है और उनको कहना पडता है कि मनुस्मृति कलियुग के लिये है ही नहीं।

मृमक-श्राद्ध का प्रभाव  दायभाग पर भी पडा़ है। हम ऊपर कह चुके है कि पिंड का अर्थ भोजन है। पिंड का दूसरा अर्थ है उस भोजन से बना हुआ शरीर। पिंड का हिन्दी पय्र्याय लोथडा़ प्रसिद्ध ही है। जैसे मृत-पिंड़ अर्थात् मिट्टी का लोथडा़। पिंड के इसी अर्थ से सम्बद्ध ’सपिंड’ है जिसका अर्थ है एक ही शरीर से सम्बन्ध रखने वाला । अर्थात् एक ही माता-पिता की सन्तान या एक ही परिवार का । याज्ञवल्क्य स्मृति आचाराव्याय विवाह प्रकरण में यह श्लोक है:-

अविलुप्तब्रहम्चर्यो लक्षण्यां स्त्रियमुद्वहेत्।

अनन्यपूर्विकां कान्तामसपिंडां यवीयसीम्।

( याज्ञ0 1।52 )

’असपिंडां समान एकः पिंडो देहो यस्याः सा सपिंडा न संपिंडा असपिंडा ताम्। सपिंडता च एकशरीरावयवान्येन भवति। तथा हि पुत्रस्य पितृशरीरावयवान्वयेन पित्रासह । एवं पितामहाहदभिरपि पितृद्वारेण तच्छरीरावयवान्वयात्। एवं मातृशरीरावयवान्वयेनम मात्रा। तथा मातामहादिभिरपि मातृद्वारेण। तथा मातृष्वसृमातुलादिभिरप्येकशरीरावयवान्वयात्। तथा पितृस्वस्त्रादिभिरपि। तथा पत्यासह पत्न्या परस्परमेकशरीरारब्धैः सहैक शरीराम्भकत्वकन। एवं यन्त्र यन्त्र सपिंडशब्दस्तत्र तत्र साक्षात् परम्परया वा एक शरीरावय वान्वयो वेदितव्यः ।‘

बतलाना यह था कि ऐसी युवती कन्या से विवाह करे जो ’असपिंडा‘ हो यहाँ विज्ञानेश्वर कहते हैं कि ’असपिंड‘ वह है जो सपिड न हो । पिंड कहते हैं देह को । जिसकी एक देह हो वह सपिंड है। शरीर के अवयवो के अन्वय से सपिंडता होती है। पुत्र के शरीर में पिता के शरीर के अवयव होते है इसलिए पिता और पुत्र सपिंड है। इसी प्रकार से पितामह के शरीर के अवयव पिता के द्वारा पुत्र के शरीर में आते है। इसलिये पितामह भी पौत्र का सपिंड है। इसी प्रकार माता के शरीर के अवयव भी पुत्र के शरीर में आते है। इसलिये माता और पुत्र सपिंड हुए। इसी प्रकार नाना के शरीर के अवयव भी माता के द्वारा पुत्र मे आते है इसलिये नाना भी दौहित्र का सपिंड हुआ। इसी प्रकार मौसी और मामा के साथ भी सपिंडता होती है। इसी प्रकार चाचा और फूफी के साथ भी इसी प्रकार पति और पत्नी की सपिंडता आरम्भ हो जाती है । इसी प्रकार भौजाइयों के साथ भी । इस प्रकार जहाॅ जहाॅ सपिंड शब्द है वहाॅ वहाॅ सीधा या परम्परा से शरीर के अवयवों का अन्वय समझना चाहिये।

विज्ञानेश्रवर ने यहाॅ बडी उत्तम रीति से ’सपिंड‘ शब्द का अर्थ समझा दिया। जो लोग यह समझते है कि ‘सपिंड’ शब्द मृतक-श्राद्ध के पिंडो से सम्बन्ध रखता है वे भारी भूल करते है और पिंड के मौलिक अर्थों को त्यागकर उसके गौण और कल्पित अर्थ ले लेते है।  दायभाग का भी मुख्य प्रयोजन यही था। अर्थात् पिता के शरीर के अधिकांश अवयव पुत्र के शरीर में विद्ययमान है। पितामह की सम्पत्ति के कई पौत्र अधिकारी है, क्योकि पितामह से शरीर के अवयव बॅंटकर  पौत्रो तक पहुँचते है। पुत्र के शरीर में अधिक अवयव पिता के शरीर के होते है और पितामह के शरीर के कम । परिवार और कुटुम्ब के पुरूषो का अधिकार इसी अपेक्षा से कम होता जाता है। संभव है कि जब मृतक-श्राद्ध की परिपाटा चल पडी तो श्राद्ध करने का कर्तव्य भी उनका अधिकार ठहरा जो सपिंड थे। अर्थात् जिनके शरीर में अपने पूर्वजो के शरीर के अधिक अवयव थे । पीछे से सपिंड शब्द का अर्थ उलट गया । सपिंड इसलिये नहीं है कि पिंड देता है, किन्तु इस लिये है कि पिंड अर्थात् देह के  अवयवों का साझी है । यह भी कुछ कम आश्र्चय-जनक बात नहीं है कि वेदों में ’सपिड‘ शब्द कही नही आया। एक स्थान पर अर्थात् ऋग्वेद, 1।62।19 या यजुर्वेद 25।42 में ’पिण्डानां’ शब्द आया है।  और इसी वेद-मंत्र में उसका पय्र्याय ’गात्रारंभान्‘ पड़ा हैं। और इससे सिद्ध होता है कि पिण्ड का अर्थ शरीर है। और मृतक-श्राद्ध और दायभाग में कुछ भी सम्बन्ध नही है। पितृ शब्द का अर्थ बहुत से लोग मृत पितरों का हो लेने लगे हैं और वेद के कई मंत्रो में आये हुए ‘पितरो’ का अर्थ ऐसा ही मान बैठे है । यहाॅ सायणाचार्य के  ऋग्वेद-भाष्य से एक उदाहरण ही पय्र्याप्त होगा। ऋग्वेद मण्डल 1, सूत्र 106 का 3 रा मंत्र यह है:-

अवन्तु नः पितरः सुप्रवाचना उतदेवी देवपुत्रे ऋतावृधाः।

( ऋ0 1।106।3 )

इस प्रकार श्री सायणार्चाय लिखते है:-

नोऽस्मान् पितरोऽग्निष्वात्तादयोऽवन्तु। रक्षन्तु। कीघ्शाः। सुप्रवाचनाः सुग्वेन प्रवक्तुं स्तोतुं शक्याः।

अर्थात् अग्निष्वात्ता आदि पितर हमारी रक्षा करे । कैसे ? जो भीली भाॅति बातचीत करने में समर्थ है। यहाॅ अग्निष्वात्ता शब्द इसलिये दिया है कि ऋग्वेद के एक और मंत्र की ओर संकेत है जहाॅ इस शब्द का प्रयोग हुआ है।

दायभाग सम्बन्धी श्लोकों के विषय में हम आगे भी कहगें। जहाॅ केवल श्राद्ध-सम्बन्धी संकेत कर दिया गया है।

मांस भक्षण और मनुस्मृति : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

( 1 ) मासं भक्षण सम्बधी- ऊपर बताया जा चुका है कि मनुस्मृति का मौलिक सिद्धान्त मासं भक्षण सम्बन्धी अहिसा है। वेद मे अहिसा पर विशेष बल क्षेपक दिया गया है। यजुर्वेद कहता है:-

मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।

अर्थात प्रत्येक प्राणी को मित्र की दृष्टि से देखना चाहिये। न केवल वैदिक किन्तु सभी धर्मो का आधार अहिंसा होनी चाहिये। यदि मनुष्य दूसरों  को कष्ट पहुॅचान में संकोच न करे तो सदाचार के किसी भाव का पालन नहीं कर सकता । मनुस्मृति ने इस बात को बहुत स्पष्ट रीति से वर्णन किया है, इसलिये जहाॅ कहीं पशु-वध का विधान है वह सब मिलावट है । कुछ लोग समझते है कि यज्ञों में पशु-वध विहित है। परन्तु मनुस्मृति के मौलिक सिद्धान्त इस बात की पुष्टि नही करते। देखिये:-

पन्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषयुपस्करः।                                                                                   कएडनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन्।।                                                                                                                                                                   (3।68)

यहाॅ गृहस्य के पाॅच ऐसे पातकों का उल्लेख किया जो प्रत्येक गृहस्थी को बिना जाने बूझे करने पडते है। जैसे, चूल्हा, चक्की, झाडू, ओखली, और घडौची। इनके  प्रयोग से छोटे छोटे कीडे दबकर मर जाते है । गृहस्थियों को यह हिंसा बिना इच्छा के ही करनी पडती है। वे नहीं चाहते कि किसी को पीडा दें, परन्तु पहुॅच जाती है। जिस धर्म में अनजाने चीटियों के मर जाने से भी मनुष्य दोषी ठहरता हो उसमे जान-बूझकर किसी को मार डलना कितना बडा पाप न होगा। इसी सूना दोष मिटाने के लिये एक प्रकार के दैनिक प्रायश्चित के रूप में महायज्ञों का विधान है:-

तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थ महर्षिभिः।

पन्च क्लप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम्।।

ये पाॅच महायज्ञ यह है:-

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्।

होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथि पूजनम्।।

ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, बलिवैश्वयज्ञ और नरयज्ञ। लोग यह समझते है कि यज्ञ और पशु वध का विशेष सम्बन्ध है। यज्ञ का अर्थ ही बहुत लोग मारना समझते हैं, और यही ’बलि‘ शब्द  का अर्थ समझा जाता है। दुर्भाग्य का विषय है कि यह दोनों शब्द अपनी उत्कृष्टता से गिरकर इस अधोगति को पहुॅच गये है। ‘यज्ञ’ यज धातु से निकलता है जिसका अर्थ है देव-पूजा, संगतिकरण तथा दान । इससे और मारने से क्या सम्बन्ध ? कुछ लोग यहाॅ तक समझते है कि नरयज्ञ वह यज्ञ है जिसमें मनुष्य को मारकर उसमें मासं की आहुति दी जाती है। इन भले आदमियो से पूछो कि क्या इसी प्रकार ब्रह्मयज्ञ में ब्रह्म को मारा जाता होगा। और पितृयज्ञ में माता-पिता को अर्थ अनर्थ करनेवालो के लिये क्या कहा जाय। नरयज्ञ का पय्र्याय अतिथियज्ञ है। मनुस्मृति कहती है कि नरयज्ञ का अर्थ है अतिथिपूजन। फिर भी लोग यज्ञ को हिंसापरक समझने लगे तो इसमें विचारे शब्द का क्या दोष ? इसी प्रकार बलि का अर्थ है ‘भूत-यज्ञ’ अर्थात  चीटी कौवे आदि को भोजन पहुॅचाना। इसलिये पितृयज्ञ में पशु-हिंसा करने का विधान स्पष्टतया पीछे की मिलावट है। जिस समय महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार किया उस समय यज्ञों में पशुओं को मारकर चढाना एक साधारण बात थी। इसी अत्याचार से दुखी होकर महात्मा बुद्ध ने वैदिक यज्ञों का निषेध किया था क्योकि वस्तुतः वह यज्ञ वैदिक नही रह गये थे। वाम-मार्ग अर्थात उलटे मार्ग का प्रचार था। प्रतीत होता है कि उसी समय या उसके पश्चात् मनुस्मृति में यह मिलावट हुई।

मनुस्मृति और वेद : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

पाठकगण पश्र कर सकते है कि हमारे पास मिलावट जाॅचने की कौन सी तराजू है। इसलिये इस विषय मनुस्मृति और वेद में संक्षेप से कुछ लिख देना असंगत न होगा। मनुस्मृति कोई असम्बद्ध स्वतंत्र पुस्तक नहीं है। यह वैदिक साहित्य का एक ग्रन्थ है। वैदिक धर्म का प्रतिपादन ही इसका काय्र्य है । वेद ही इसका मूलाधार है यह बात कल्पित नहीं है, किन्तु मनुस्मृति से ही सिद्ध है। नीचे के श्लोक इसकी साक्षी है:-

(1)   वेदोऽखिलो धर्ममूलम्।                                                            ( 2।6 )

(2)   वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च पियमात्मनः।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्।।                     (2।12 )

(3)   प्रमाणं परमं श्रुतिः                                                      (2।13 )

(4)   वेदास्त्यागश्च…………………………………………             (2।97 )

(5)   वेदमेव सदाभ्यस्येत् तपस्तप्स्यन् द्विजोत्तमः।

वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते।।                         (2।166)

(6)   वेद यज्ञैरहीनानां प्रशस्तानां स्वकर्मसु।

ब्रह्मचार्याहरेद् भैक्षं गृहेभ्यः प्रयतोऽन्वहम्।।                         (2।183)

(7) वेदानधीत्य वेदौवा वेदं वापि यथाक्रमम्।।                              (3।2 )

(8) वेदाभ्यासोऽन्वहंशत्तया महायज्ञक्रिया क्षमा।

नशयन्त्याशु  पापानि महापातकजान्यपि।।                          (11।245 )

(9) आर्ष धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राऽविरोधिना।

यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्म वेद नेतरः।।                                   (12।106 )

कई सहस्त्र वर्षो से वैदिक धर्म में विक्ल्व उत्पन्न हो गये और सब से अधिक चोट वैदिक ग्रन्थो पर आई। प्रचीन वैदिक धर्म के सिद्धान्त एक ऐसी कसौटी है जिनके द्वारा वैदिक ग्रन्थों की मिलावट अधिकांश में कसी जा सकती है।