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विधिहीन यज्ञ और उनका फल: – स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती त्रिवेदतीर्थ

स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती त्रिवेदतीर्थ आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान् रहे हैं। आपके द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘विधिहीन यज्ञ और उनका फल’ यज्ञ सबन्धी कुरीतियों पर एक सशक्त प्रहार है। इसी पुस्तक का कुछ अंश यहाँ पाठकों के अवलोकनार्थ प्रकाशित है।           -सपादक

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज की मान्यता है कि श्री कृष्ण जी एक आप्त पुरुष थे। यज्ञ के विषय में इस आप्त पुरुष का कहना है कि-

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्,

श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।

-गीता 17/13

  1. विधिहीनं यज्ञं तामसं परिचक्षते।
  2. असृष्टान्नं यज्ञं तामसं परिचक्षते।
  3. मन्त्रहीनं यज्ञं तामसं परिचक्षते।
  4. अदक्षिणं यज्ञं तामसं परिचक्षते।
  5. श्रद्धा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।

इन पाँच प्रकार के दोषों में से किसी एक, दो, तीन, चार या पाँचों दोषों से युक्त यज्ञ तामसी कहा जाता है। तामसी कर्म अज्ञानमूलक होने से परिणाम में बुद्धिभेदजनक तथा पारस्परिक राग, द्वेष, कलह, क्लेशादि अनेक बुराइयों का कारण होता है।

प्रस्तुत लेख में हम ‘विधिहीनं यज्ञं तामसं परिचक्षते।’ इस एक विषय पर स्वसामर्थ्यानुसार कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं।

  1. श्री कृष्ण जी का कहना है कि विधिहीन यज्ञ तामसी होता है। विधि के अनुसार सबसे प्रथम स्थान यजमान का है। जो ‘यष्टुमिच्छति’ यज्ञ करना चाहता है। यज्ञ का सपूर्ण संभार तथा व्यय यजमानकर्तृक होता है। अग्नि यजमान की, अग्निशाला (यज्ञशाला) यजमान की, हविर्द्रव्य यजमान का। ऋत्विज् यजमान के। उनका मधुपर्कादि से सत्कार करना तथा उनकी उत्तम भोजन व्यवस्था यजमान कर्त्तृक। उनका शास्त्रानुसार दक्षिणा द्रव्य यजमान का। इतनी व्यवस्था के साथ अग्न्याधान से पूर्णाहुति तक का पूरा अनुष्ठान ऋत्विजों की देखरेख में यजमान करता है। यजमान इस सामर्थ्य से युक्त होना चाहिये। अपरं च पूर्णाहुति के बाद उपस्थित जनता से पूर्णाहुति के नाम से तीन-तीन आहुतियाँ डलवाना पूर्णरूपेण नादानी और अज्ञानता है। इसका विधि से कोई सबन्ध न होने से यह भी एक विधिविरुद्ध कर्म है, जिसे साहसपूर्वक बन्द कर देना चाहिए। इस आडबर से युक्त यज्ञ भी तामसी होता है। क्या आर्यसमाज संगठन के यजमान तथा ऋत्विक् कर्म कराने वाले विद्वान् इस व्यवस्था तथा यजमान सबन्धी इस विधि-विधान के अनुसार यज्ञ करते-कराते हैं। जब पकड़कर लाया हुआ यजमान तथा विधिज्ञान शून्य ऋत्विक् इन बातों को छूते तक नहीं तो केवल विधिविरुद्ध आहुति के प्रकार ‘ओम् स्वाहा’ के लिए ही मात्र आग्रह करना कौनसी बुद्धिमत्ता है। इस उपेक्षित वृत्त को देखकर यही कहा जायेगा कि ऋत्विक् कर्मकर्त्ता सभी विद्वान् इन विधिहीन यज्ञों के माध्यम से केवल दक्षिणा द्रव्य प्राप्त कर अपने आप को धन्य मानते हैं तथा यजमान अपने आप को पूर्णकाम समझता है, विधिपूर्वक अनुष्ठान की दृष्टि से नहीं।

ऐसे यजमान और ऋत्विक् सबन्धी-ब्राह्मण में महाराज जनमेजय के नाम से एक उपायान में कहा गया है कि-

‘अथ ह तं व्येव कर्षन्ते यथा ह वा इदं निषादा वा सेलगा वा पापकृतो वा वित्तवन्तं पुरुषमरण्ये गृहीत्वा कर्त (गर्त) मन्वस्य वित्तमादाय द्रवन्ति, एवमेव त ऋत्विजो यजमानं कर्त्तमन्वस्य वित्तमादाय द्रवन्ति यमनेवं विदोयाजयन्ति। अनेवं विदो अभिषेक प्रकारं (अनुष्ठान प्रकारं वा) अजानन्त ऋत्विजोयं क्षत्रियं (यजमान वा) याजयन्ति। तं क्षत्रियं (यजमानं वा) विकर्षन्त्येव विकृष्टमपकृष्टं कुर्वन्त्येव। तत्रेदं निदर्शनमुच्यते।’ – ए.ब्रा. 37/7

सायण भाष्यः निषादा नीचजातयो मनुष्याः। सेलगाश्चौराः। इडाऽन्नं तया सह वर्त्तन्त इति सेडा।

शेषााग पृष्ठ संया 39 पर…..

पृष्ठ संया 6 का शेष भाग…..

धनिकास्तान् धनापहारार्थं गच्छन्तीति सेलगाश्चौराः। पाप कृतो हिंसा कारिणः। त्रिविधाः दुष्टाः पुरुषा वित्तवन्तं बहुधनोपेतं पुरुषमरण्यमध्ये गृहीत्वा कर्त्तमन्वस्य कश्मिेश्चिदन्ध कूपादि रूपे गर्त्तेतं प्रक्षिप्य तदीयं धनमपहृत्य द्रवन्ति पलायन्ते। एवमेवानभिज्ञा ऋत्विजो यजमानं नरक रूपं कर्त्तमन्वस्य नरकहेतो दुरनुष्ठानेऽवस्थाप्य दक्षिणारूपेण तदीयं द्रव्यमपहृत्य स्वगृहेषु गच्छन्ति। अनेन निदर्शनेन ऋत्विजामनुष्ठान परिज्ञानाभावं निन्दति।

डॉ. सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी अनुवादः- इस प्रकार (अभिषेक प्रकार को या अनुष्ठान प्रकार को न जानने वाले ऋत्विज् जिस क्षत्रिय के लिए या जिस यजमान के लिए यजन करते हैं, तो वे उस क्षत्रिय वा यजमान का अपकर्ष भी करते हैं, जिस प्रकार नीच जाति के ये निषाद, चोर और (हिंसा करने वाले शिकारी आदि) पापी पुरुष बहुधन से युक्त पुरुष को अरण्य के मध्य पकड़कर (किसी अन्ध कूपादि) गड्ढे में फेंककर उसके धन का अपहरण करके पलायित हो जाते हैं, उसी प्रकार ये अनुष्ठान प्रकार से अनभिज्ञ ऋत्विज् लोग यजमान को नरकरूप (विधिहीन) अनुष्ठान में स्थापित करके दक्षिणारूपी उसके धन का अपहरण करके अपने घर चले जाते हैं।

आर्यसमाज के क्षेत्र में अनुष्ठीयमान यज्ञों में यह पहले प्रकार का विधिहीनता-रूपी दोष सर्वत्र रहता है। इस प्रकार हमारे ये यज्ञ तामसी कोटि के हो जाते हैं। हमारे ये पारायण-यज्ञ जहाँ से चलकर आर्यसमाज में आए हैं, वहाँ पूर्ण रीति से इनका विधि-विधान लिखा हुआ है। हमारे विद्वान् उसे देखना या उधर के तज्ज्ञ विद्वानों से सपर्क करना भी उचित नहीं समझते। हमारी स्थिति तो सन्त सुन्दरदास के कथनानुसार-

पढ़े के न बैठ्यो पास अक्षर बताय देतो,

बिनहु पढ़े ते कहो कैसे आवे पारसी।

इस पद्यांश जैसी है। संस्कार विधि यद्यपि हिन्दी भाषा में है, पर फिर भी इसे समझना आसान काम नहीं है। गुरुचरणों में बैठ, पढ़कर ही समझा जा सकता है। हमारा पुरोहित समुदाय ऐसा करना आवश्यक नहीं समझता तो फिर विधिपूर्वक अनुष्ठान कैसे हो सकते हैं और कैसे कर्मकाण्ड में एकरूपता आ सकती है।

ये वेद पारायण-यज्ञ (संहिता स्वाहाकार होम) जहाँ से हमने लिए हैं, वहाँ इनके अनुष्ठान के लिए विधिविधान का उल्लेख करते हुए अपने समय के ब्राह्मण, आरण्यक, श्रौत और गृह्य सूत्रों के उद्भट विद्वान् स्वर्गीय श्री पं. अण्णा शास्त्री वारे (नासिक) अपने ग्रन्थ ‘संहिता स्वाहाकार प्रयोग प्रदीप’ में लिखते हैं कि-

‘तत्र कात्यायनप्रणीतशुक्लयजुर्विधान सूत्रं, सर्वानुक्रमणिकां च अनुसृत्य संहितास्वाहाकार होमे प्रतिऋग्यजुर्मन्त्रे आदौ प्रणवः अन्ते स्वाहाकारश्च। मध्ये यथानायं मन्त्रः। प्रणवस्य स्वाहाकारस्य च पृथक् विधानात् मन्त्रेण सह सन्ध्याभावः। मन्त्र मध्ये स्वाहाकारे सति तत्रैवाहुतिः पश्चान्मन्त्र समाप्तिः। न पुनर्मन्त्रान्ते स्वाहोच्चारणमाहुतिश्च।। – पृ. 240

अर्थः संहिता स्वाहाकार होम विषय में कात्यायन प्रणीत शुक्ल यजुर्विधान सूत्र और सर्वानुक्रमणिका का अनुसरण करते हुए संहिता स्वाहाकार होम में प्रत्येक ऋग्यजुर्मन्त्र के आदि में प्रणव (ओम्) तथा अन्त में स्वाहाकार, मध्य में संहिता में पढ़े अनुसार मन्त्र। मन्त्र और स्वाहाकार के पृथक् विधान होने से इनकी मन्त्र के साथ सन्धि नहीं होती। मन्त्र के बीच में स्वाहाकार आने पर वहीं आहुति देकर पश्चात् मन्त्र समाप्त करना चाहिए। फिर से मन्त्र के अन्त में स्वाहाकार का उच्चारण कर आहुति नहीं देनी चाहिये।

प्रणव और स्वाहाकार का मन्त्र से पृथक् विधान होने से मन्त्रान्त में ओम् स्वाहा उच्चारण कर आहुति देना नहीं बनता। कात्यायन भिन्न अन्य सभी ऋषि-महर्षियों का भी ऐसा ही मत है। उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत प्रमाण का अवलोकन कीजिए-

सर्व प्रायश्चित्तानि जुहुयात्

स्वाहाकारान्तैर्मन्त्रैर्न चेत् मन्त्रे पठितः।

– आश्वलायन श्रौतसूत्र 1/11/10

आत्मनिवेदन: दिनेश शर्मा

आचार्य धर्मवीर जी नहीं रहे। यह सुनना और देखना अत्यंत हृदय विदारक रहा है। आचार्य धर्मवीर जी देशकाल के विराट मंच पर महर्षि दयानन्द के विचारों के अद्वितीय कर्मवीर थे। महर्षि दयानन्द के विचारों के विरुद्ध प्रतिरोध की उनकी क्षमता जबर्दस्त थी। वैचारिक दृष्टि से तात्विक चिन्तन का सप्रेषण सहज और सरल था, यही उनका वैशिष्ट्य था, जो उन्हें अन्य विद्वानों से अलगाड़ा कर देता है। वे जीवनपर्यन्त संघर्ष-धर्मिता के प्रतीक रहे। ‘परोपकारी’ के यशस्वी सपादक के रूप में उन्होंने वैदिक सिद्धान्त ही नहीं, अपितु समसामयिक विषयों पर अपने विचारों को खुले मन से प्रकट किया। वे सत्य के ऐसे योद्धा थे जो महर्षि दयानन्द द्वारा प्रतिपादित पथ के सशक्त प्रहरी रहे और ऐसा मानदण्ड स्थापित कर गये, जो अन्यों के लिये आधारपथ सिद्ध होगा। मानवीय व्यवहारों के प्रति वे सिद्धहस्त थे। भले ही अपने परिवार पर केन्द्रीभूत न हुये हों, परन्तु समस्त आर्यजगत् की आदर्श परोपकारिणी सभा के विभिन्न प्रकल्पों के प्रति वे सर्वात्मना समर्पित रहे।

उन्होंने ‘परोपकारी’ का सपादन करते हुए जिन मूल्यों, सिद्धान्तों का निर्भय होकर पालन किया, जिस शैली और भाषा का प्रयोग किया, जिन तथ्यों के साथ सिद्धान्तों को पुष्ट किया, वे प्रभु की कृपा से ही संभव होते हैं। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि कीर्तिशेष आचार्य धर्मवीर जी ने सपादन का जो शिखर निर्धारित किया है वहाँ तक पहुँचना यद्यपि असंभव है तथापि केवल भक्ति-भावना से मैं चलने का प्रयास भी कर लूँ तो भी मेरे लिए परमशुभ हो सकेगा। प्रभु मुझे इसकी शक्ति दे।

‘परोपकारी’ के पाठक विगत लगभग 33 वर्षों से अमूल्य विरासत से परिपूर्ण तार्किक विश्लेषण से सप्रक्त सपादकीय पढ़ने के आदी हुए हैं, उस स्तर को बनाये रखना यद्यपि मेरे लिये दुष्कर है, लेकिन पाठक हमारे मार्गदर्शक हैं, मैं आचार्य धर्मवीर जी के द्वारा निर्धारित पथ का पथिक मात्र हो सकूं, यही मेरे लिये परम सौभाग्य की बात होगी।

आज चुनौतियाँ हैं, दबाव हैं, सिद्धान्तों के प्रति मतवाद है, फिर भी हमें इन सभी से सामना करना है।

आचार्य धर्मवीर जी ने महर्षि दयानन्द के चिन्तन को सपूर्ण रूप में स्वीकार कर उनकी उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा की जीवन्तता में अद्वितीय साहस का परिचय दिया। राष्ट्र की आकांक्षा को दृष्टिगोचर रखते हुए वे अघोषित आर्यनेता के रूप में आर्यजगत् के सर्वमान्य नेतृत्वकर्ता बने। वैदिक संस्कृति और सयता के माध्यम से उन्होंने सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक मूल्यों को समृद्ध ही नहीं किया अपितु अपने व्यक्तित्व से, लेखनी से, वक्तृत्वकला से राष्ट्रीय तत्वों की अग्नि को उद्बुध किया।

आचार्य डॉ. धर्मवीर कुशल संगठनकर्त्ता थे, उन्होंने दृढ़ इच्छाशक्ति और समर्पण से जहाँ परोपकारिणी सभा को आर्थिक स्वावलंबन दिया, वहीं सृजनात्मक अभिव्यक्ति से वैदिक सिद्धान्तों के विरोधियों को भी वैदिक-दर्शन से आप्लावित किया। आचार्य धर्मवीर ने जीवनपर्यंत उत्सर्ग करने का ही कार्य किया, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने स्वयं को परिपूर्ण किया है। वैदिक पुस्तकालय में नित्य नूतन ग्रन्थों का प्रकाशन, वितरण, नवलेखन को प्रोत्साहन, वैदिक साहित्य के अध्येताओं को वैदिक साहित्य पहुँचाना जैसे पुनीत कार्य उनके कर्त्तृत्व के साक्ष्य परिणाम हैं। उन्होंने सारस्वत साधना से विभिन्न विद्वानों, संन्यासियों के व्यक्तिगत पुस्तकालयों को मँगवाकर वैदिक पुस्तकालय को समृद्ध किया है।

आचार्य डॉ. धर्मवीर ने महर्षि दयानन्द के हस्तलेखों, उनके द्वारा अवलोकित ग्रन्थों एवं उनके पत्रों इत्यादि का डिजिटलाईजेशन करने का अभूतपूर्व कार्य किया ताकि आगामी पीढ़ी को उस अमूल्य धरोहर को संरक्षित कर सौंपा जा सके। आर्यसमाज के प्रसिद्ध चिन्तकों को निरन्तर प्रोत्साहन कर लेखन के लिए सहयोग प्रदान करने का उन्होंने जो महनीय कार्य किया है, वह स्तुत्य है।

वैदिक चिन्तन के अध्येता आचार्य धर्मवीर जी ने परोपकारी पत्रिका को पाक्षिक बनाकर उसकी संया को 15 हजार तक प्रकाशित कर, देश-विदेश में पहुँचाकर एक अभिनव कार्य संपादित किया। उनकी भाषा में सहज प्रवाह और ओज था। वैदिक विचारों के प्रति वे निर्भीक और ओजस्वी वक्ता के रूप में हमेशा याद किये जाएंगे। उनकी मान्याता थी कि असत्य के प्रतिकार में निर्भय होकर अपने विचारों को व्यक्त करने का अधिकार जन्मजात है। लेकिन संवादहीनता उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। यही कारण था कि वे अजातशत्रु कहलाते थे। परोपकारी के लेखों और संपादकीय के द्वारा आर्यजगत् में उनकी प्रासंगिकता निरन्तर प्रेरणादायी बनी रही। सहज और सरल शदों में वैदिक सिद्धान्तों के प्रति कितने ही बड़े व्यक्ति की आलोचना करने में वे कभी भयभीत नहीं हुए। उन्होंने भारत के समस्त विश्वविद्यालयों के कुलपतियों व कुलसचिवों को परोपकारी पत्रिका निःशुल्क पहुँचाने का अभिनव कार्य किया।

उन्होंने देवभाषा संस्कृत को जिया और अपने परिवार से लेकर समस्त आर्यजनों को भी आप्लावित किया। यह कहना और अधिक प्रासंगिक होगा कि अष्टाध्यायी-पद्धति के अध्ययन और अध्यापन को महाविद्यालय में ही नहीं अपितु ऋषिउद्यान में संचालित गुरुकुल में पाणिनी-परपरा का निर्वहन करने का उन्होंने अप्रतिम कार्य किया।

आचार्य धर्मवीर जी ऋषिउद्यान में विभिन्न भवनों के नवनिर्माण के प्रखर निर्माता थे, जिन्होंने देश में निरन्तर भ्रमण करते हुए धन का संग्रह कर विद्यार्थियों, साधकों, वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिए श्रेष्ठ आवास की सुविधा प्रदान की, ताकि ऋषिउद्यान में निरन्तर आध्यात्मिक जीवन का संचार होता रहे एवं चर्चा का कार्य संपादित होता रहे। वे स्पष्ट वक्ता थे। उन्हें कितनी ही बार विभिन्न महाविद्यालयों के प्राचार्य का पद, चुनाव लड़ने, पुरस्कार प्राप्त करने हेतु आग्रह किया गया, लेकिन उनके लिए ये पद ग्राह्य नहीं थे। उनके लिए महर्षि दयानन्द का अनुयायी होना ही सबसे बड़ा पद था।

आचार्य डॉ. धर्मवीर जी, आचार्य की प्रशस्त परपरा की साक्षात् प्रतिमूर्ति थे। वे अकेले ही अन्याय का प्रतिकार करने में समर्थ थे। वे उन मतवादियों के लिए कर्मठ योद्धा थे, जो भारत विरोधी मत रखते थे। उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि लोग क्या कहेंगे अपितु उन्हें यह स्वीकार्य था कि आर्ष परपरा क्या है। समकालीन प्रयात विचारकों, राजनीतिक व्यक्तियों, विद्वानों का वे व्यक्तिशः आदर करते थे, परन्तु वैदिक विचारधारा के विरुद्ध लोगों का खण्डन करने में वे कोताही नहीं बरतते थे। उन्होंने परोपकारिणी सभा के विकल्पों का संवर्धन किया और परोपकारिणी सभा की यशकीर्ति को फैलाने में विशेष योगदान किया। आलोचना और विरोधों का धैर्यपूर्वक सामना करना उनकी विशेषता थी।

वे दिखने में कठोर थे, लेकिन हृदय से अत्यन्त सरल थे। चाहे आचार्य वेदपाल सुनीथ हों या श्री नरसिंह पारीक या डॉ. देवशर्मा या सहायक कर्मचारी सुरेश शेखावत, मैंने ऐसे दृढ़निश्चयी स्थितप्रज्ञ व्यक्ति की आँखों में उन सबके लिए अश्रुकणों को बहते देखा है। आर्थिक सहयोग करना, बिना किसी को बताये, यह उनकी मानवीय श्रेष्ठता का अद्वितीय उदाहरण है।

ऐसे चिन्तक, विशेषताओं के आगार, वैदिक चिन्तन के सजग प्रहरी तथा विचारों के विरल विश्लेषक आचार्य डॉ. धर्मवीर जी की संपादकीय परपरा के कार्य का प्रारभ करते हुए मैं उन्हें जिन्होंने अनादि ब्रह्म की उपासना के साथ राष्ट्रचेता महर्षि दयानन्द के विचार और आचार से कभी विमुख नहीं हुए, को शत्-शत् नमन करता हुआ उस पथ का अनुयायी बनने का प्रयास करूं, ऐसा विश्वास दिलाता हूँ।

आपका

– दिनेश

 

The Terminology of the Vedas and European Scholars – A Book Review by Vinita Arya

Introduction

In the previous article (The Works of Pandit Gurudutt Vidyarthi – A Book Review of “The Terminology of the Vedas” – Vinita Arya see this link http://aryamantavya.in/tag/pandit-gurudutt-vidyarthi/) we saw how the late great Pandit Gurudutt Vidyarthi brilliantly yet succinctly demolished the reputation of those European scholars who claimed that they alone possess the intellectual power to correctly interpret the Sanskrit language and the Vedas.

His revelation in that tract serves as a warning to innocent readers and as a means to educate them in the three types of methods used by scholars to interpret the Vedas; namely the mythological, antiquarian and contemporary, methods (see footnote 1 at the end of this article for a summary). Pandit ji also reveals the three types of words, the yaugika, rurhi and the yoga-rurhi which should be understood when discerning the correct derivation and meaning of a Vedic word (see foot note 2). His firm preference for the last method, the contemporary method and the correct yaugika definition of Vaidik words cannot be under emphasised as in this second more detailed study of the terminology of the Vedas Pandit ji’s choice of the contemporary method and yaugik definitions are central to what he believes is the “great controversy to rage between the East and the West concerning the supremacy of the (sic) Vedic Philosophy.”

For Pandit ji the subject of the correct interpretation of Sanskrit and the Vedas is of vital importance because it involves “issues of (such) great value”, and to ignore it would be to succumb in a cowardly fashion to the increasing hegemonic global dominance of Western powers and to the frighteningly “imperfect, defective and incomplete” scholarship of their Western intellectuals. Here Pandit ji alludes to European scholars such as Professor Max Muller and Professor Monier Williams whose intellectual prowess even the German philosopher Arthur Schopenhauer thought was “no better than the higher class of school boys “.

This fervent call by Pandit ji for all scholars to employ “truthfulness and honest integrity” from the depths of their souls in the “righteous pursuit and discernment of the TRUTH” in order to ensure present and future world peace was a remarkably prescient one. His urgent words were written on the verge of the twentieth century, a century which saw not only the most bloodiest of world wars between the German and British orientalist powers, (ironically over whose version of Aryan supremacy was the most legitimate where previously they had been co-conspirators in misinterpreting the Vedas), but also the rise and hardening of caste divisions on the Indian political and social scene due mostly to the deliberate misinterpretations of the Vedas and Manusmriti by vested interests.

In the nineteenth century Pandit ji’s foresight to warn his fellow humans of this terrible “future world” to come if our unprejudiced and impartial Vedic scholars, who are “thorough adepts in science and philosophy” are supplanted by prejudiced scholars possessing only quasi-knowledge and who are prone “to superstition, motive, predetermination and the suppression of the truth”, seems to have largely gone unheeded by the world but in particular by the descendants of the once illustrious and dharmic people of Aryavarta.

The reason for the failure of his fellow- Indian brethren to heed his desperate advice can be accredited he maintains to them having received the highest English education and being “entirely ignorant of Sanskrit”. Their ignorance is such that they too hold like their European Professors and masters “that the Vedas are books that teach idol-worship or element worship” and that “they contain no philosophical, moral or scientific truths of any great consequence, unless they be the commonest truisms of the kitchen”.

Pandit ji doesn’t despair totally however quoting Schopenhauer again he says that; “In India, our religion (Bible) will now and never strike root; the primitive wisdom of the human race will never be pushed aside by the events of Galilee. On the contrary, Indian wisdom will flow back upon Europe, and produce a thorough change in our knowing and thinking”. These are fine words but what gives Pandit ji the confidence to predict not only the eventual failure of Christianity in India, but also in Europe from where it had originated?

It comes down to his knowledge of the works of Sayana, the great grammarian from which European scholars draw their knowledge when misinterpreting the Vedas. Pandit ji regards Sayana’s interpretations as being so diseased and unworthy of emulation that “whatsoever the value of the efforts of modern (European) scholars, their comparative philology, and their new interpretations … their so-called marvelous achievements cannot but be diseased.” He predicts that “sooner or later, the disease will develop its final symptoms and sap the foundation of the very vitality it seemed to produce. No branch of a tree can live or flourish when separated from the living stock. No interpretations of the Vedas will, in the end, ever succeed unless they are in accord with the living sense of the Vedas in the Nirukta and the Brahmanas”.

In this article therefore, some of the key examples which Pandit ji gives of such flawed diseased learning and how they are to be greatly contrasted with actual accurate interpretations of the Ved will be explained. It is sincerely hoped that the reader will be inspired by the incredible effort and depth of scholarship undertaken by Pandit ji to expose the many contradictions in the scholarship of European scholars and that he/she will in the future undertake the same effort and scholarship to take on and defeat modern “Sanskrit scholars” who are still rather worryingly determined to bring the reputation of the Vedas into shocking disrepute for their own selfish gain.

 

The Terminology of the Vedas and European Scholars – a detailed analysis

In this thirty one page piece Pandit ji focusses his criticisms on the works of two European scholars who collaborated very closely with each other throughout their professional lives; the German, Professor Max Muller and his British mentor and benefactor Professor Monier Monier-Williams. Why a strong intellectual bond and purpose between the two developed is truly worthy of another article itself however the main aim of these scholars appears to have been to distort and besmirch the reputation of the Vedas. The main reason behind their actions put succinctly was so that only Christianity, and its patron, the British Empire would flourish in India and not Vaidik Dharma and independent indigenous rule.

Pandit ji, a keen follower of Maharishi Dayanand’s liberating Vaidik mission to educate the masses, would have witnessed the usage of arguments concocted by Muller and Monier Williams by Christian missionaries in his native Punjab. These desperate men and women used such flawed Christian logic to counter the growing influence of Maharishi Dayanand, that for real Vaidik scholars like Pandit ji it became easy to call them out for it. Pandit ji however fearing for those who did not have his knowledge wrote this tract in order to warn his countrymen not to succumb naively to their fierce but deceptive proselytization.

In his second more detailed analysis of the major European Sanskrit scholars he commences his criticism by referring to Muller’s prejudiced denunciation of Schopenhauer for praising the Upanishads. Pandit ji quotes Muller as saying that the Upanishads have a “dark side” in contrast with the “bright rays of eternal truths in the Gospel”. Offering no evidence of this so-called dark side, Muller merely states that Indians ought not to study the empty idolatry and subjective worship of nature as devised by their wily priesthood but like Ram Mohan Roy of the Brahmo Samaj be “quick enough to perceive” that the true mission of their race was not to participate “in the political struggles of the world” or to expend “its energies in the exploits of war and the formation of empire” but “to concentrate all its powers for the fulfilment of the important mission reserved to it in the history of the East”. This mission he reveals is to become worthy after “gradual education in the fullness of time” to be “admitted to the truths of Christianity” which the religion of the Buddha “has served to prepare the way of Christ”.

Such blatant partisanship, designed to prevent the subjugated people of India from throwing off the yoke of colonialism and Christianity can be also seen in Monier Williams’ book – “Indian Wisdom”. The aim of this book Pandit ji strongly asserts “is to caricature the Vedic religion” by calling it “Brahmanism” and “to hoist up Christianity by the meritorious process of deliberate contrasts”. One such contrast concerns the differing aims of Christianity and “Brahmanism”. The Bible, Monier Williams maintains, regards man as being created in the image of God, but his nature having become corrupt through a taint, derived from the fall of Adam, the first representative man and the parent of the human race means that this taint can only be removed by “a vicarious death”.  This vicarious death must be undergone by “the second representative man – Christ – whose nature was divine and taintless, (who) voluntarily underwent a sinner‘s death, (so) that the taint of the old corrupted nature transferred to him might die also”.  Christ’s death however is not the central tenet of this religion but “that He rose again and lives eternally, (so) that He may bestow life for death and a participation in His own divine nature in place of the taint He has removed”.

Although Christianity is revealed here to be a very intricate, or rather confusing philosophy, Monier Williams still regards Christianity and not “Brahmanism” as being markedly superior to all other religions. He asserts that Christianity alone has “a personal God ever living to supply the free grace or regenerating spirit by which human nature is re-created and again made God-like”. While lowly “Brahmanism” whose various personal “Hindu gods melt away, on closer scrutiny, into a vague spiritual essence” and whose “personal manifestations of the Supreme Being ultimately merge in the Oneness of the Infinite”, is less attractive to the seeker seeking personal salvation Monier Williams maintains. So as to preempt any scepticism however towards his pompous proclamations of superiority he quickly adds after this that it is of course immaterial that European Christians themselves may have “lamentably fallen from its true standard” or that there exists in Europe “nominal adherents” who have disgraced the religion through “their inconsistencies and shortcomings”. What is however of utmost importance for the whole human race to acknowledge, is the esteemed Oxford Professor says, that it is only Christianity that has “the message of salvation intended by God to be gradually pressed upon the acceptance of all His intelligent creatures”.

Such arrogance, Pandit ji says has inevitably led these alleged scholars to become utterly blind to the truth. He laments their “entire ignorance of the laws of interpretation of Vedic terms” and that of modern philologists. Fed by Christian prejudices he views them as illiterates. An erudite person, fit to interpret the Vedas he establishes earlier on in his tract would be someone who is a complete master of the science of morals, poetry, geology and astronomy and well-versed in the philosophy of dharma, and characteristics, essential existences, yoga and Vedanta and the doctrines of logic or the science of evidence. In fact s/he would be “a master of all these and much more before he can lay claim to a rational interpretation of the Vedas”, Pandit ji in his ensuing analysis proves that he is such a master by the depth, quality and extensiveness of his research. Opening his introduction to the topic of the kind of words used in the Vedas, he refers to “the fourth section of the first chapter of Nirukta which opens with a discussion of this very subject, in which Yaska, Gargya, Shakatayana and all other Grammarians and Etymologists unanimously maintain that Vedic terms are all yaugika”. He briefly tells us before explaining the agreed rule, that there was at first a mild disagreement between the grammarians Yaska and Shakatayana with Gargya as the latter “maintains that only the rurhi terms are not yaugika”. However when that mistaken opinion has been effectively refuted by the other two it becomes accepted from then onwards that despite the fact that rurhi words emanate from yaugika roots, they are only laukika and never Vedic in nature as “all the Rishis and Munis, ancient authors and commentators without exception, regard all Vedic terms to be yaugika”.

The unhappy consequence of European scholars’ failure to respect that all Vedic terms are yaugika has been that arena of Sanskrit learning has become flooded by “their (erroneous) interpretations of the Vedas with forged or borrowed tales of mythology, with stories and anecdotes of historic or pre-historic personages”. To prove this point Pandit ji presents Dr Muir’s quite fantastical renderings of the Rig Ved mantras as evidence of this. According to Muir, the following historical personages are mentioned in the Rig Veda; the Rishis Kanvas, in 1. 47. 2; Gotamas, in 1. 71. 16.; Gritsamadas, in 2. 39. 8; Bhrigavas, in 4. 16. 23; and Vrihaduktha, in 10. 54. 6. Pandit ji being a serious student of Maharishi Dayanand and being aware that the cardinal rule for determining the legitimacy of any rendering of any Vedic mantra, is that it should lack any reference to any historical persons, geographical places, actual rivers, mountains, gods or goddesses etc. demolishes such conceits straightaway by providing the correct definitions of these words from Nighantu. “The words Kanva and Gritsa he reveals only signify learned men in general (see Nighantu iii. 13); the word Bhrigavah only signifies men of intellect (see Nighantu, v. 5). The word Gotama signifies one who praises; and Vrihaduktha is simply one whose ukthas, or knowledge of natural properties of objects, is vrihat or complete” he states. He also then goes on in two simple lines to destroy Max Muller’s assertion that the Rig Ved contains the story of a person called Shunah-shepa. Pandit ji explains frankly that Shepa according to Nirukta means contact and as it is suffixed to shunah or shvan, which means knowledge, the term shunah-shepa can then only mean one who has come into contact with knowledge i.e., a learned person but it does not mean a specific actual person.

The simplicity of Pandit ji’s answer here points to the truthfulness of his statement that all Vedic words are yaugika. Surprisingly even Max Muller agrees with him as he is quoted as saying that “every word (in the Vedas) retains something of its radical meaning; every epithet tells; every thought, in spite of the most intricate and abrupt expressions, is, if we once disentangle it, true, correct, and complete”. He also says that “names . . . are to be found in the Vedas, as it were, in a still fluid state. They never appear as appellatives, nor yet as proper names; they are organic, not yet broken or smoothed down”. However Muller, true to his Christian calling distorts this acknowledgement of the truth by claiming that words in only certain portions of the Vedas are yaugika. That is to say that they are only so in the “primitive strains” of the Vedas’ initial chhandas period. He denies that they are yaugik in what he calls the secondary, mantra period. The Vedic “hymns in the first chhandas period, according to him “contain “no very deep wisdom in their teaching” and in it only common things are taught, which are free from the flights of fancy.

Rig Ved 7.77 epitomises he believes the spontaneous utterances of the simple (foolish) minds of the chhandas period. In this mantra (or “hymn” as Muller prefers to call it) the prayer which is “addressed to (the) Dawn … has no reference to any special sacrifice, it contains no technical expressions, (and) it can hardly be called a hymn, in our sense of the word. It is simply a poem, expressing without any effort, without any display of far-fetched thought or brilliant imagery, the feelings of a man who has watched the approach of the dawn with mingled delight and awe, and who was moved to give utterance to what he felt in measured language”. The later Mantra period in contrast he maintains is full of technicalities and elaborate ceremonies although Muller provides no proof to back up his claim.

Muller’s simplistic designations and descriptions Pandit ji believes have been made out of both ignorance and petty prejudice. In his view Muller firstly has applied the laukik Sanskrit interpretation of the word chhandas meaning “spontaneity” to incorrectly signify the content and nature of the mantras. He should have in fact heeded Yaska’s instructions which say that “there is no difference in the meaning of mantra and chhandas”. All the Vedic mantras without exception according to Yaska are called both mantra and chhandas, because through its mantras “one learns the true knowledge of all existences” and because the Vedas are by their very nature chhandas that which produces “delight or which illumines everything, i.e. reveals its true nature”. These explanations derived also from Panini and the Shatpatha Brahman’s yaugika interpretation contain no references whatsoever to the “spontaneity” described by Muller in his interpretation. Furthermore Pandit ji attributes Muller’s faulty understanding of Vedic words to his adoption of Sayana and Mahidhara’s method of looking at them in only their rurhi sense. “It is clear then”, Pandit ji says that “if Max Muller had kept in view the canon of interpretation given in Nirukta that all Vedic words are yaugika, he would not have fallen into the fallacious anachronism of assigning different periods to different parts of the Vedas”.

If European scholars of Pandit ji’s time had sincerely and consistently adopted the yaugik sense of words when interpreting the Vedas then it would have indeed been a very significant step on their part. However if they had also removed their entrenched Christian prejudice towards the Vedas altogether that Pandit ji concludes would have been an equally important step. Removing Christian prejudices from their minds would mean no longer viewing the Vedas as being books of primitive times which consist of emotional savages offering vengeful or propitious prayers addressed to the forces of nature. Or, believing that the Vedas sometimes contain hymns of poetic exaltation, simply portraying the simple phenomena of nature in the personified language of mythology. It would mean finally accepting that throughout the Vedas, Darshans and Upanishads the higher truths of philosophy and monotheism which contain a firm conviction in the uniformity of nature, exist consistently (and not intermittently as Muller would have us believe).

The biggest mental stumbling block however faced by such scholars to achieving this, Pandit ji says is the Christian Holy Book; The Bible. Blind allegiance to the Bible and all the systems that depend on it has it seems rendered these European scholars, on the whole, unfit to comprehend that disinterested, neutral literature, in the form of the Vedas, Darshanas, Upanishads can exist without it being the product of political or religious revolutions or controversies. Determined to undermine the antiquity and eternal universal authority of the Vedas and Vedic literature, ingenious strategies have been employed by such shameless scholars as the English Orientalist Frederick Pincott who asserts, with no proof that “the old Brahmans were superstitious, dogmatic believers in the revelation of the Vedas. When Buddhism spread like wild fire, they thought of shielding their religion by mighty arguments and hence produced the darshana literature”.

If only these Christian scholars were to just admit, Pandit ji says that the most certain date in Indian history that of the Mahabharata war actually took place (at Pandit ji’s time of writing) about 4,900 years ago and that the Darshanas, and their compilers Jaimini, Vyasa, Patanjali, Gautama, Kanada and Kapila therefore, existed at least 4,900 years ago, centuries before even the first word of Buddhism was uttered in India and that even the great Shankara, a great commentator on the Vyasa sutras, who waged a manly war against Buddhism or Jainism, preached nearly 2,200 years, it would be a very important step in the right direction. Although as Pandit ji himself acknowledges, to do so would put the whole Biblical account of creation completely into question. It would also totally negate the ridiculous assumption adopted to save the face of the Bible that the Brahmins only began to make their faith seriously philosophical in the Darshanas “after the great shock which the spread of Buddhism gave to the old Indian form of faith”.

Removal of Christian prejudice in its totality however could not happen Pandit ji admits without the complete discrediting and discarding of the mythological commentaries of Sayana and Mahidhara. If these commentaries were nonexistent he contends “it would have been impossible for them (European scholars), from the mere grounds of comparative mythology or Sanskrit philology, to alight on such interpretations of the Vedas”. A typical example of the kind of misleading laukik and therefore non-yaugik interpretation of the Vedas of Sayana’s from which European scholars have drawn much erroneous inspiration, Pandit ji notes is a mantra from Rigved 9.96:

brahmā devānāṃ padavīḥ kavīnāṃ ṛṣirviprāṇāṃ mahiṣomṛghāṇām

śyeno ghṛdhrāṇāṃ svadhitirvanānāṃ somaḥ pavitramatyeti rebhan

Sayana translates this mantras thus; “God himself appears as Brahma among the gods, Indra, Agni, &c: He appears as a poet among the dramatists and writers of lyrics; He appears as Vashishtha, &c. among the Brahmanas ; He appears as a buffalo among quadrupeds ; He appears as an eagle among birds ; He appears as an axe in the forest ; He appears as the soma-juice purified by mantras excelling in its power of purification the sacred waters of the Ganges”.

Pandit ji tears this defective rendition of this particular Rigveda mantra completely apart. What is supposed to explain the central conscious being that enjoys all experience; the human spirit instead ends up explaining a God in non-Vedic pantheistic terms where everything is God. It panders to the popular prejudices and feelings of the time which were so superstitious “that the waters of the Ganges were regarded as sacred; incarnations were believed in and the worship of Brahma, Vasishtha and other rishis was at its acme”. Sayana’s non-scientific urban translation Pandit ji concludes does not mirror the universal and eternal sense of the Vedas but that of his own age. “His interpretation of brahma, kavi, deva, rishi, vipra, mahisha, mriga, shyena, gridhra, vana, soma, pavitra of all these words, without one exception, is purely rurhi or laukika”.

Yaska, the great author of Nirukta, contrastingly renders a faithful and accurate translation of this mantra as he attaches the yaugik and not the laukik sense of the mantra. So in the hands of Yaska, Sayana’s description of a pantheistic God drenched in superstition becomes a consistent and intelligible account of the experiences of the Atma, the human spirit. In Nirukta, xiv. 13 he says of this Rig Ved mantra;

“The external world as revealed by the senses finds its purpose and object, and, therefore, absorption, in this central being. The indriyas or the senses are called the devas, because they have their play in the ex- ternal phenomenal world, and because it is by them that the external world is revealed to us. Hence Atma, the human spirit, is the brahma devanam, the conscious entity that presents to its consciousness all that the senses reveal. Similarly, the senses are called the kavayas, because one learns by their means. The Atma, then, is padavi kavinam or the true sentient being that understands the working of the senses. Further, the Atma is rishir vipranam, the cognizor of sensations; vipra meaning the senses as the feelings excited by them pervade the whole body. The senses are also called the mrigas, for they hunt about their proper aliment in the external world. Atma is mahisho mriganam, i.e., the greatest of all the hunters. The meaning is that it is really through the power of Atma that the senses are enabled to find out their proper objects. The Atma is called shyena, as to it belongs the power of realization; and gridhras are the indriyas, for they provide the material for such realization. The Atma, then, pervades these senses. Further, this Atma, is swadhitir vananam, or the master whom all indriyas serve. Swadhiti means Atma, for the activity of Atma is all for itself, man being an end unto himself. The senses are called vana, for they serve their master, the human spirit. It is this Atma that, being pure in its nature, enjoys all”

The universality of application of Yaska’s translation which goes beyond all boundaries of time and space is attributed to its simplicity, naturalness and truthfulness of meaning in stark contrast to Sayana’s artificial translation which is a product of its degraded times. The true message of the Vedas Pandit ji strongly maintains therefore can only shine if the words of the texts of that living Vedic religion are interpreted strictly in their yaugika Vedic sense by all scholars Indian and non-Indian alike, without the distortion of later puranas and allied commentaries as these texts are but “a rotten remnant of the old philosophical living religion of the Vedas”.

Pandit ji accepts that such a change in thinking would indeed be remarkable. Judging by his experiences with such European scholars as Muller and Pincott he doesn’t hold much hope. While Muller recognizes that mythology is actually the degeneration of truth and that the ancients of India, Greece and Rome did indeed give the same object one name after the other in a yaugika fashion, he also unfortunately renders such “polynomy” as evidence of polytheism in the Vedic religion. Pincott on the other hand while admitting that modern day Sanskrit commentators are ignorant and that the Puranas are very modern productions cannot quite bring himself to discard the firm belief that the Rig Ved “abounds in mythological matter”.

Taking firstly Muller’s accusation that the Vedas are polytheistic Pandit ji devotes a considerable amount of space in the latter part of his critique to debunking this theory. He presents at the outset the lies which pious Christian missionaries and yet more pious Christian philologists propagate by quoting one of them as saying; “Monotheism is a belief in the existence of one God only, polytheism is a belief in the plurality of gods, (so) If we must employ technical terms, the religion of the Veda is polytheism, not monotheism”. The 27th hymn of the 1st Ashtaka of the Rigveda is provided as evidence of this as according to this particular Christian Sanskrit scholar it says: “veneration to the great gods, veneration to the lesser, veneration to the young, veneration to the old we worship the gods as well as we are able: may I not omit the praise of the older Divinities;” This translation leads this pious Christian to conclude that the religion of the Vedas are pantheism and polytheism combined and that “monotheism, in the strict sense of the word, is not found in Hinduism.”

Pandit ji uncovers further evidence of such bias by highlighting Muller’s laughable translation of a very famous Vedic mantras from the Yajurved. In Yajurved 13.4 it is said Hiranyagarbha samavartatagre bhutasya jatah patireka asita. Sa dadhara prithivim dyamutemam kasmai devaya havisha vidhema. “Hiryanyagarbha” is translated by Muller as “golden germ” which Pandit ji maintains has been done deliberately so that the true meaning “God in whom the whole luminous universe resides in a potential state” can be hidden. Not only does the author not want the reader to comprehend the Vedas’ monotheism here, but also Pandit ji says sardonically so that “someday, not in the very remote future, these Christians will discover that the golden germ means conceived by the Holy Ghost”. And where Muller does make some allusion to a monotheistic God in the case of the words “jatah patireka”, which Muller translates as “the one born Lord of all this”, Pandit ji being fully aware of the devices used by Christian missionaries to fool the gullible forewarns of “one of those future happy days, (when) this mantra of the Veda will be quoted as an emblematic of a prophecy in the dark distant past, of the advent of a Christ whom the ancients knew not”.

He stridently then provides three very clear proofs of monotheism in the Vedas; firstly from Yajurved 13.4 itself Pandit ji provides a very different translation than Muller;

“God existed in the beginning of creation, the only Lord of the unborn universe. He is the Eternal Bliss whom we should praise and adore”.

From Yajurved 17.19 in which it is said;

viśvataś cakṣur uta viśvato-mukho viśvato-bāhur uta viśvatas-pāt saṃ

bāhubhyāṃ dhamati sampatatrair dyāv-ābhūmī janayan deva ekaḥ

“Being all-vision, all-power, all-motion in Himself, He sustains with His power the whole universe, Himself being One alone”.

And finally Atharvaved 13.4.16-21 which states that;

na dvitiyo na tritiyash-chaturtho napyuchyate … sa esha eka eka vrideka eva

sarve asmin deva ekavrito bhavanti

“There are neither two gods, nor three, nor four…nor ten. He is one and only one and pervades the whole universe, All other things live, move and have their being in Him”.

Despite providing such a strident proofs of monotheism in the Vedas Pandit ji was nevertheless aware of the kind of elaborate theories critics could create to explain away such evidence. “Henotheism” was one such ingenious invention devised to counter a monotheistic interpretation of the Vedas. Muller who invented “henotheism” labelled Vedic Dharma as “henotheistic” because he believed that unlike polytheistic religions which “recognize the existence of various deities or names of deities (and therefore are polytheistic), they (henotheistic religions) represent each deity as independent of all the rest, as the only deity present in the mind of the worshipper at the time of his worship and prayer”. So according to Muller the Vedas could never be hymns to one God but to always to various gods, but just not all at the same time. This is because “according to the varying aspects of nature, and the varying cravings of human heart, it is sometimes Indra, the god of the blue sky, sometimes Agni, the god of fire, sometimes Varuna, the ancient god of the firmament, who are praised as supreme without any suspicion of rivalry, or any idea of subordination.” This alternating focus, in his view is why the Vedas are henotheistic and not monotheistic. Muller ends by justifying his choice of the word “henotheism” by saying that ” “this peculiar phase of religion, this worship of single gods, forms probably everywhere (in) the first stage in the growth of polytheism, and, deserves, therefore, a separate name”. Muller’s subsequent henotheistic interpretations of “agni” and “indra” quoted by Pandit ji show Muller’s shameful attempt to establish the existence of Vedic gods or devatas where it has never existed before. He calls Agni, “the lord of fire”, who when addressed by the poet, is spoken of as the first god, not inferior even to Indra. When Agni is invoked, he says Indra is forgotten; but there is no competition between the two nor any rivalry between them and other gods. This Muller says “is a most important feature in the religion of the Veda,” and proudly proclaims that before his scholarship “it has never been taken into consideration by those who have written on the history of ancient polytheism”.

Pandit ji rightly deduces from Muller’s pompous analysis that his sole aim in creating “henotheism” is to make Indians wrongly believe that the worship of multiple devatas was and is an essential feature of Vedic worship. By uprooting the Indian nation from its “instinctive monotheism”, Pandit ji believes, Muller hopes to make the people of India “fall down to an acquired belief in henotheism” which would further weaken its resolve to fight for self-determination and for self-realisation. He confronts Muller’s malicious disinformation strategy head on by saying that “the Vedas, the sacred books of the primitive Aryans, are the purest record of the highest form of monotheism possible to conceive. Scholars cannot long continue to misconstrue the Vedas, and ignore the laws of their interpretation”. And in proving this he quotes Yaska’s Nirukta numerous times to reject this theory. In Nirukta 1.2 it is stated that “whenever the process of an art is described, the mantra that completely describes that process is called the devata (or the index) of that process. More succinctly in Nirukta 7.1 “devata” is defined as a general term applied to those substances whose attributes are explained in a mantra. It may also denote Yaska says in Nirukta 7.4 1 a noble person: “learned men, parents, and atithis, (those guest-missionaries who have no fixed residence, but wander about from place to place benefiting the world by their religious instructions), are regarded as devatas or called by the names of devatas”. Furthermore quoting Nirukta 7.15 he says these processes, attributes, learned people all have the qualities to illuminate as Yaska says that “whatsoever or whosoever is capable of conferring some advantage upon us, capable of illuminating things, or capable of explaining them to us, and lastly, the Light of all lights, these are the fit objects to be called devatas”. And finally to dispel any notion that this illuminating quality refers to a god of illumination “agni” as professed by Muller Pandit ji cites Yajurved 23.17; which says “I present to your consideration agni which is the fruitful source of worldly enjoyments, which is capable of working as though it were a messenger, and is endowed with the property of preparing all our foods. Hear ye, and do the same”. In doing so he clearly points out that agni is only the expression of the one and only Omniscient God’s properties. It is “agni” therefore which forms the subject matter of this mantra and is its devata, and not any imaginary, mythological “god of fire”.

The devatas, or the substances, the properties which Yaska says can form the subject matter of any Vedic mantra are he explains all the things “that can form the subject of human knowledge”. He groups this infinite mass into thirty three devatas in accordance with authorities from such mantras as Yajurved 14.31 and Atharva Ved 10.22. 4-27 which state that “the Lord of all, the Ruler of the universe, the Sustainer of all, holds all things by 33 devatas”, and that “the knowers of true theology recognize the 33 devatas performing their proper organic functions, as existing in and by Him, the One and Only”. These thirty three devatas are in fact according to the Shatpatha Brahman the eight vasus, eleven rudras, twelve adityas, one indra and one prajapati. which manifest the glory of God. “The eight vasus” Pandit ji quotes directly from the Shatpatha Brahman are“1. heated cosmic bodies, 2. planets, 3. atmospheres, 4. super terrestrial spaces, 5. suns, 6. rays of ethereal space, 7. satellites, 8 stars. These are called vasus (abodes), for, the whole group of existences resides in them, viz., they are the abode of all that lives, loves, or exists. The eleven rudras are the ten pranas (nervauric forces) enlivening the human frame, and the eleventh is atma (the human spirit). These are called the rudras (from root rud to weep) because when they desert the body it becomes dead, and the relations of the dead, in consequence of this desertion, begin to weep. The twelve adityas are the twelve solar months, marking the course of time. They are called adityas as, by their cyclic motion, they produce twelve adityas are the twelve solar months, marking the course of change in all, objects, and hence the lapse of the term of existence for each object. Aditya means that which causes such a lapse. Indra is the all-pervading electricity or force. Prajapati is yajna (an active voluntary association of objects on the part of man, for the purposes of art, or association with other men for purposes of teaching or learning). It also means Pushus (the useful animals). Yajna and useful animals are called prajapati, as it is by such actions and by such animals that the world at large derives its materials of sustenance”.

The thirty three devatas enumerated above clearly pass the six tests which Pandit ji says that they must pass in order to be classified as genuine devatas. Devised by true scientists and natural philosophers these tests concern time, locality, force, human spirit, deliberate activities and vital activities. The twelve adityas, or the twelve months, satisfy the criteria of time in that its twelve solar months mark the course of time over the months and corresponding seasons which succeed each other, one after the other. The eight vasus or eight abodes fulfil the locality criteria as they enable the twelve months to exist and occur. Electricity being all pervading and therefore capable of modifying and creating effects easily passes the force test as force by its nature is the modification within matter which creates effects. Subjective knowledge possessed by the atma, the ego is the domain of the fourth test; the human spirit. Prajapati in the form of yajna and pashus (useful animals) conform to the deliberate activities part of the test, as both man and beast perform voluntary, self-conscious deliberate actions for the benefit of the world at large. Lastly, involuntary, passive modifications caused by ten of the eleven rudras known as the pranas or nervauric forces are identified as vital activities. These bodily functions are overseen by the eleventh rudra; the human spirit or the atma.

Pandit ji takes great pains to explain the correct yaugik interpretation of these devatas which form the subject matter of all mantras in the Vedas. He does this so as to disassociate them from the misleading laukik translations of European scholars such as Muller. One such mantra from Rig Veda 1.162. 1 concerns the devata – asva. This mantra is as follows:

mā no mitro varuṇo aryamāyurindra ṛbhukṣā marutaḥ parikhyan

yad vājino devajatasya sapteḥ pravakṣyāmo vidathe vīryāṇi

Muller in his ignorance translates the mantra as saying – “May Mitra, Varuna, Aryaman, Ayu, Indra, the Lord the Ribhus, and the Maruts not rebuke us, because we shall proclaim at the sacrifice the virtues of the swift horse sprung from the gods.” Here Pandit ji derides Muller’s evocation of an imaginary polytheistic pantheon of Vedic gods who are according to his translation are so unhappy at hearing the virtues of the swift horse being proclaimed at the sacrifice that they rebuke the poet of this mantra! He challenges Muller to prove the validity of his position, saying that he will not be able to as “even the most diseased conception of a savage shrinks from such a superstition as the “swift horse sprung from the gods”. Both Muller’s translations and the false “horse sacrifice” ashwamedha concept in the so called Puranas originate from what Pandit ji asserts is a total ignorance of the dialectic laws of the Vedas, “when words having a yaugika sense are taken for proper nouns, and an imaginary mythology (is) started”.

Muller he reveals has taken the words, “mitra”, “varuna,”, “aryama”, “ayu”, “indra”, “ribhus”, “maruts” to be proper nouns and ignoring their yaugika sense he has carelessly translated them to mean the “god of the day”, “god of the investing sky”, “the god of death”, “god of the wind”, “god of the watery atmosphere”, “celestial artists” and “storm gods” respectively. If the yaugika sense was respected then Muller would have known the literal translations of these words that mitra means a friend; varuna, a man of noble qualities ; aryama, a judge or an administrator of justice; ayu, a learned man ; indra, a governor ; ribhuksha, a wise man ; marutahs, those who practically observe the laws of seasons. Regarding the word “asva” it does not only mean horse as Muller maintains but it also means the group of three forces heat, electricity and magnetism or in fact anything that can be carried through a distance. For the last point, he quotes Maharishi Dayanand’s Rig Ved bhashyam to explain that “ashva vidya” means “the science of training horses and the science of heat which pervades everywhere in the shape of electricity. The Shathpath Brahman also states clearly that ashwa like an “animal of conveyance” has “distance-carrying properties”.  Moreover the word “devajata” which Muller translates as “sprung from the gods” because the popular laukika sense of the word dev means god, is actually revealed to mean both “brilliant qualities” and “learned men”. While the word “virya” has a very dynamic actual definition of “power-generating virtues” rather than the rather flat signification of “virtues” offered by Muller in his translation. All these authorities collectively support Pandit ji’s final translation of Rig Ved 162.1 which is that “we will describe the power-generating virtues of the energetic horses endowed with brilliant properties, or the virtues of the vigorous force of heat which learned or scientific men can evoke to work for purposes of appliances (not sacrifice). Let not philanthropists, noble men, judges, learned men, rulers, wise men and practical mechanics ever disregard these properties.” When compared to Muller’s ignorant and prejudiced translation which ruthlessly sidelines the actual devata of the mantra: ashva – the forces of heat, in favour of pure fantasy, Pandit ji’s sincere and simple yaugika based interpretation allows the science in the Vedas to shine through.

The proper yaugik interpretation of words in the Vedic mantras however uncovers not only their real scientific meaning but also how and by whom the devatas, the subject matter of the mantras ought to be used by in an ethical manner. In the mantra above for example Paramatma teaches us about the forces of heat and which persons are qualified to evoke and use them. “Scientific men” we learn, study these forces, do research on them and create appliances for the benefit of human advancement. Facilitating them in these noble endeavours are the philanthropists, noble men, judges, learned men, rulers, wise men and practical mechanics, who are cautioned by God never to disregard their properties as to do so would inhibit the progress of society. Similarly in Rig Ved 162.2 (yan nirṇijā rekṇasā prāvṛtasya ratiṃ ghṛbhītāṃ mukhato nayanti, supranajo memyad viśvarūpa indrāpūṣṇoḥ priyamapyeti pāthaḥ) Pandit ji notes, God clearly states that the right to govern (to “drink the potion of strength and of power to govern”) should only be given to those “who preach that only wealth earned by righteous means should be appropriated and spent, and (to) those born of wisdom, who are well-versed in questioning others elegantly, in the science of forms and in correcting the unwise.” Like the previous mantra which concerns ashva vidya, God is clear that the right to govern “should be practiced only by those who are possessed of righteous means, are wise, and have the capacity to govern and control.” These learned men and women being suitably qualified morally and intellectually are the only ones trusted to handle the devatas, the subject matter of the Vedas, as they are themselves by their very virtuous nature, devatas, illuminating and enlightening persons. When this profound wisdom is contrasted with Max Muller’s senseless translation of the same mantra, one can only feel sorry for the naive reader who only knows and therefore only trusts the latter. Muller’s translation makes no mention of “righteous wealth”, those “men born in wisdom”, “who have an idea of all forms”, who are “able enough to put questions elegantly” and have the right to “strength” and the “power to govern”. Instead we get a mythological version which makes a mockery of the original. His version reads; “when they load before the horse, which is decked with pure gold ornaments, the offering, firmly grasped, the spotted goat bleats while walking onwards; it goes the path beloved by Indra and Pushan.” Pandit ji in analysing such a ridiculous interpretation counts nine words that have been wrongly translated by Muller and says that this all due to the yaugika sense of the words being ignored and “the rurhi or the laukika sense being everywhere forced in the translation.”

Pandit ji pithily says in the closing stages of his study, in clear censure of Muller, Pincott and their kind that “it is clear from the above quotation, that religious teachers, parents and learned men, these alone, or the like, were called devatas and no others, in Yaska’s time. Had Yaska known of any such idolatry or henotheism or devata worship, which superstitious Hindus are so fond of, and which Professor Max Muller is so intent to find in the Vedas, or had any such worship prevailed in his time, even though he himself did not share in this worship, it is impossible that he should not have made any mention of it at all, especially when speaking of the common practice among men in general”. Quite clearly judging by the analysis of European scholars of the Vedas and Sanskrit, they were either totally unaware of this fact about Yaska or too blinded by Christian prejudice to truly acknowledge and preach it.

 

Conclusion

In conclusion what is made abundantly clear in Pandit ji’s analysis is that in order to understand the dual scientific and moral purpose of the Vedic mantras one must understand the devata, the subject matter of the mantra in question. In order to understand the correct significance of the devata of any Ved mantra, Pandit ji’s implores us to ignore the misleading mythological, antiquarian and rurhi word based methods of interpretation emanating from the mischievous Sayana centred ramblings of modern European “scholars” such Muller, Monier Williams and Pincott. Rather he requests that we fully understand and embrace the interpretation of those Vedic scholars, who use the more accurate contemporary yaugik words based method of interpretation of the Vedas, and who consult the works of great grammarians like Yaska so as to reveal the true eternal universal message of God.  If we follow the latter’s analysis, then Pandit ji says there can be no doubt that we will come to see that “element worship, or nature worship, is not only foreign to the Vedas and the ages of Yaska and Panini and Vedic rishis and munis, but that idolatry and its parent mythology, at least in so far as Aryavarta is concerned, are the products of recent times”. This is a crucial point which must be heeded not only by our Christian brothers and sisters, but our staunch Puranic and atheist ones who ironically even today rely on the faulty scholarship of these non-Indian nineteenth century academics (some of whom were barely literate in Sanskrit and had never set foot in India) to prove that our ancestors engaged in everything from beef eating, soma wine drinking to caste and gender discrimination. If, such a heartfelt recognition and adoption of the real Vedic truth can be achieved by all humans everywhere, then Pandit ji says all the damage caused by European scholars and all the terrible crimes against humanity which have resulted from their attempt to conceal the liberating word of God in the Vedas can be overturned. This surely is an important prerequisite to creating the best kind of society that all humans are craving for.

In signing off Pandit ji, stresses one last point to his readers; that while interpreting the devatas in the Vedic mantras in the correct manner our feelings towards “God the adorable”, the one true devata should always be full of profound devotion. One should always remember that God, the Supreme Soul as mentioned in Nirukta 7.4, is worshipped on account of his omnipotence. The devatas who are “but the pratyangas of this Supernal Soul” i.e. the partial manifestations of the glory of God … owe their birth and power to Him as through Him they exercise their beneficial influences by attracting properties, useful, and repelling properties, injurious”. “He alone” Yaska and Pandit ji conclude “is the All-in-All of all the devout.” We should therefore ultimately derive inspiration from such a humble final acknowledgement and tread the divine path signposted by Pandit ji and other true Vedic scholars or forever flounder in the obscurity created by Sayana, Muller, Monier-Williams, Pincott and others of their deluded ilk. The final choice to do so or not however is ours.

To read the complete version of ‘The Terminology of the Vedas and European Scholars’ by Pandit Gurudutt Vidyarthi please click on the link below and download the book ‘The Works of Pandit Gurudutt Vidyarthi’ and then go to page 69.

 

Footnotes:

  1. For a detailed understanding of what each method and each type of word entails the previous article should be read before embarking on this one. However to summarise them; the mythological method views the Vedas as being myths – “prayers from such an emotional character addressed to the forces of nature “which portray “the simple phenomena of nature in the personified language of mythology”. The antiquarian method in contrast involves the modern scholar using his modern day understanding of ancient concepts and phenomena to interpret “the books and the general literature of the period to which ancient literary records belong “. And lastly the one which Pandit ji considers to be the best; the contemporary method, which involves the modern scholar using commentaries closer in time to the exposition of the Vedas. Here he specifies the usage of commentaries such as Nirukta by Yaska and Mahabhashya of Patanjali to interpret the Vedas as to do so would be to follow the invaluable maxim that “the nearer we approximate to the literature of the period to which the Vedas belongs the greater would be our chances of the interpretations being more probable and more correct”.

 

  1. Pandit ji says in the Terminology of the Vedas that “a Yaugika word is one that has derivative meaning” i.e. which derives its meaning from its root. The word is “all connotation”, which means that an idea or feeling is invoked from that word, from the literal or primary meaning of its root and it is this connotation which determines its denotation. A rurhi word in contrast to a yaugika word has no connotative meaning “it is the name of a definite concrete object” and is determined by “an arbitrary principle” which means that its meaning is chosen at random, on a whim. This very clear demarcation between yaugika and rurhi words doesn’t exist with regards to a third class of words which can be interpreted. This class of words is called yoga-rurhi and here two words are synthetically combined into a compound denoting a third object by virtue of the combining of these two words. The relation or the interaction of phenomena are expressed in the resulting words that are created. Pandit ji gives the example here of the word kamala. “The word stands … in relation of the born to mud, the bearer, which leads the word kamala to be called pankaja as panka means mud and ja means to bear”.

जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा २महोदय जिज्ञासा समाधान के सन्दर्भ में अवगत हो कि मेरी जिज्ञासा कुछ अटपटी है। विषय है सूर्य संसार में ऊर्जा का स्रोत है। सूर्य के प्रचंड ताप व प्रकाश के बिना जीवन असंभव है। तथापि जानकारी करना है कि सूर्य को ऊर्जा कहाँ से प्राप्त होती है।

दूसरी बात यह कि उपनिषदों में सात लोक का वर्णन आता है। १. पृथ्वी लोक २. वायु लोक ३. अन्तरिक्ष लोक४. आदित्य लोक ५. चन्द्र लोक ६. नक्षत्र लोक ७. ब्रह्माण्ड लोक। क्या इन लोकों में भी लोगों का निवास संभव है।

– रामनारायण गुप्त, बिलासपुर

 

समाधान २– (क)परमेश्वर ने ब्रह्माण्ड की रचना की है, इस विशाल ब्रह्माण्ड में करोड़ों आकाश गंगाएँ हैं, उनमें करोड़ों-करोड़ों सूर्य हैं। सूर्य, जो ऊर्जा का स्रोत है, इसकी सतह का निर्माण हाइड्रोजन, हीलियम, लोहा, निकेल, ऑक्सीजन, सिलिकॅान, सल्फर, मैग्निशियम, कार्बन, नियोन, कैल्शियम, क्रोमियम तत्वों से हुआ है। इनमें से सूर्य के सतह पर हाइड्रोजन की मात्रा ७४ प्रतिशत तथा हीलियम २४ प्रतिशत है। इन्हीं तत्वों के कारण सूर्य में ऊर्जा है। सूर्य में हाइड्रोजन के जलने से हीलियम गैस उत्पन्न होती है, जो कि ऊर्जा का महा-भण्डार है।

सूर्य के कारण ही हम पृथिवी वासियों का जीवन चल रहा है। सुबह से शाम तक सूर्य अपनी किरणों से- जिनमें औषधीय गुणों का भंडार है, अनेक रोग उत्पादक कीटाणुओं का नाश करता है। स्वस्थ रहने के लिए जितनी शुद्ध हवा आवश्यक है, उतना ही प्रकाश भी आवश्यक है। प्रकाश में मानव शरीर के कमजोर अंगों को पुनः सशक्त और सक्रिय बनाने की अद्भुत क्षमता है। सूर्य के प्रकाश का संबन्ध केवल गर्मी देने से नहीं है, अपितु इसका मनुष्य के आहार के साथ भी घनिष्ट सम्बन्ध है। छोटे-बड़े पौधे व वनस्पतियों के पत्ते सूरज की किरणों के सान्निध्य से क्लोरोफिल नामक तत्व का निर्माण करते हैं। जिससे पौधों में हरापन होता है।

सूर्य ऊर्जा का महाभण्डार है। सूर्य के एक वर्ग सेंटीमीटर से जितनी ऊर्जा पैदा होती है, उतनी ऊर्जा १०० वाट के ६४ बल्बों को जलाने के लिए काफी है। सूर्य की जितनी ऊर्जा धरती पर पहुँचती है, उतनी ऊर्जा सम्पूर्ण मानवों द्वारा खपत की ऊर्जा से ६००० गुना ज्यादा होती है। जितनी ऊर्जा ३० दिन में धरती को सूर्य द्वारा मिलती है, उतनी ऊर्जा मानवों द्वारा पिछले ४०,००० साल से खपत ऊर्जा से कहीं अधिक है। यदि सूर्य की चमक (ऊर्जा) धरती पर एक दिन न पहुँचे तो धरती कुछ घंटों में बर्फ की तरह से जम जाएगी, सम्पूर्ण पृथिवी उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव जैसी हो जायेगी।

यह सब ऊर्जा सूर्य को कहाँ से मिलती है, यह आपकी जिज्ञासा है। सूर्य में यह ऊर्जा परमेश्वर की व्यवस्था से उत्पन्न होती है। वही परमेश्वर सूर्य की रचना करने वाला है। वह ही अपनी व्यवस्था से सूर्य में ऊर्जा उत्पन्न करने वाला है।

(ख) अन्य लोकों पर भी प्राणियों का वास सम्भव है। परमात्मा की व्यवस्था से जिस लोक की संरचना हुई है, उसी संरचना के आधार पर वहाँ वास सम्भव हो सकता है। न्यायदर्शन के सूत्र ३.१.२७ के भाष्य में वात्स्यायन मुनि लिखते हैं-

‘‘अप्तैजस्वायव्यानि लोकान्तरे शरीराणि’’

अर्थात् लोकान्तर में जल, अग्नि और वायु के शरीर होते हैं। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि लोकान्तर में केवल जल, अग्नि अथवा वायु के शरीर होते हैं, अपितु इसका अर्थ है कि जहाँ जिसकी प्रधानता होगी वहाँ वैसा शरीर होगा।

पृथिवी से अतिरिक्त करोड़ों लोक-लोकान्तर व्यर्थ नहीं होंगे। जैसे इस पृथिवी पर प्राणियों का वास है, ऐसे अन्य लोकों पर भी होगा। दिल्ली से प्रकाशित ‘नवभारत टाइम्स’ के दिनांक २४ मार्च १९९० के अंक में कुछ ऐसी बात प्रकाशित हुई-हमारी दुनिया यह नहीं मानती कि उसके अलावा और भी दुनिया है। पृथिवी का आदमी अपनी दुनिया से इतना आश्वस्त है कि वह अन्य ग्रहों या आकाशगंगाओं पर बुद्धिमान् प्राणियों की मौजूदगी की बात पर विश्वास ही नहीं कर सकता। वह सोचता है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि उस जैसे आदमी या उनसे भी अधिक बुद्धिमान् प्राणी अन्यत्र हो सकते हैं। किन्तु वैज्ञानिकों की दुनिया में आयें तो हमें विश्वास होने लगता है कि हाँ अन्यत्र भी प्राणी हो सकते हैं।

अनेक वर्षों से वैज्ञानिक मानते आये हैं कि पृथिवी के अतिरिक्त भी बुद्धिमान् प्राणी हैं। वर्तमान वैज्ञानिकों, प्राचीन ऋषियों व तर्क से तो यही लगता है कि अन्य लोकों पर प्राणियों का वास सम्भव है।

जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा १ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चारों वर्णों का निर्णय तो कर्म के आधार पर होता है। नामकरण प्रकरण संस्कार विधि में नवजात शिशु ने अभी कोई कर्म ही नहीं किया तो किस आधार पर देवशर्मा, देववर्मा, देवगुप्त और देवदास नाम रखे जाएँ, यह बात मेरी समझ में नहीं आई। कृपया मेरी इस शंका का समाधान कर दीजिए।

– राज कुकरेजा, करनाल

यही जिज्ञासा यतीन्द्र आर्य, मन्त्री बालसमन्द, हिसार की भी है।

समाधान-१.लोक में हमारी पहचान हमारे नाम से होती है। जीवात्मा शरीर धारण कर जन्म लेता है, तब उस शरीर से युक्त मनुष्य का संसार में व्यवहार करने के लिए नाम रखा जाता है। सोलह संस्कारों में पांचवा संस्कार नामकरण संस्कार है। इस संस्कार में नवजात शिशु का सार्थक नाम रखा जाता है। शिशु के कुल, वंश को देखकर उस कुल की परम्परा अनुसार वा शिशु किस वर्ण में उत्पन्न हुआ है, उसके अनुसार नाम रखा जाता है।

महर्षि दयानन्द ने वर्णों के अनुसार नामों का संकेत किया है कि ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ हो तो अमुक नाम रखें, क्षत्रिय कुल का हो तो अमुक नाम रखें आदि।

दूसरी ओर महर्षि वर्ण का निश्चय बच्चे के बड़े हो जाने पर उसके गुण, कर्म के अनुसार करने को कहते हैं। अभी वर्ण का निश्चय हुआ नहीं और बच्चे का नाम ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के नामों के अनुसार रखा जा रहा है। यहाँ विरोधाभास दिखाई दे रहा है। यही जिज्ञासा आप लोगों की है।

प्रथम यहाँ विचार करें कि महर्षि ने संस्कार विधि में जो बच्चे का नाम ब्राह्मण आदि का रखने के लिए कहा, वह उस बच्चे को ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मानकर नहीं कहा है। महर्षि ने बच्चे का नाम उसके कुल के आधार पर किया है। बच्चा अभी किस वर्ण का है यह निश्चित नहीं हुआ है, फिर भी उसका नाम उसके कुल के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वाला रखने के लिए कहा है। दूसरी बात, भले ही बच्चों का अभी वर्ण निश्चित नहीं हुआ, ऐसा हेाते हुए भी अधिक सम्भावना है कि बच्चा जिस वर्ण में पैदा हुआ है, उसी का बने, क्योंकि अनुवांशिक गुण आना स्वाभाविक है। इसलिए भी उसके कुल के अनुसार नाम रख दिया जाता है।

अथवा शास्त्र में भावी संज्ञा का विधान भी है। अर्थात् जो परिस्थिति अभी तो नहीं है, किन्तु भविष्य में होने वाली है, जैसे कुर्ता अभी है नहीं फिर भी हम कपड़ा सिलाने वाले को कपड़ा देते हुए कहते हैं कि इसका कुर्ता बना दो। व्याकरण के ग्रन्थ महाभाष्य में भाविनी संज्ञा को दर्शाया है-

‘‘एवं तर्हि भाविनीयं संज्ञा विधास्यते, तद् यथा-कश्चित्कंचित्तन्तुवायमाह- ‘अस्य सूत्रस्य शाटकं वयेति, सः पश्यति यदि शाटको न वातव्यो न शाटकः, शाटको वातव्यश्चेति विप्रतिविद्धम् भाविनी खलवयं संज्ञाऽभिप्रेता, स मन्ये वातव्यो-यस्मिन्नुते शाटक इत्येतद् भवतीति।’’

– महाभाष्य १.१.४४ आह्निक ७

यह महाभाष्य का वचन हमने भावी संज्ञा होने के प्रमाण में दिया है। लोक में भी कोई डॉक्टर की पढ़ाई कर रहा है, डॉक्टर बना नहीं, फिर भी उसको डॉक्टर कहने लग जाते हैं। ऐसे ही यहाँ पर भी समझ सकते हैं।

हमने खो दिया लेखराम के पथ पर चलने वाला: – पं. जागेश्वर प्रसाद ‘निर्मल’

दयानन्द और वेद के लिये, जीने मरने वाला।

हमने खो दिया लेखराम के पथ पर चलने वाला।।

देश-विदेश का कोना इनके लिये http://aryamantavya.in/wp-admin/post-new.phpमुहुर्मुह छाना,

वे गृहस्थ में संन्यासी थे, सबने इनको माना।

कौन है उनके जैसा तप और त्याग को करने वाला,

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

अद्भुत था अधिकार वेद, उपनिषद और दर्शन पर,

मुख खुलता तो शब्द सुमन से, झरते थे सुन्दर तर।

उनके जैसा मिला न कोई सत् पर अड़ने वाला।

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

सभी जगह श्री धर्मवीर ने पहुँचा दी परोपकारी,

आर्य जगत् की एकमात्र पत्रिका बन गई हमारी।

होता था सम्पादकीय उनका सबसे ही आला।

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

ऋषि उद्यान को तीर्थधाम में करना है परिवर्तित,

आज हम सभी को मिलकर के करना यही सुनिश्चित्।

दूर हो गया रेखाचित्र में रंग का भरने वाला।

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

वाणी, कलम, कर्म तीनों से साथ हो उनकी पूरी,

उनके किसी भवन की हो दीवार न कोई अधूरी।

उसके किसी प्रकल्प का दीपक नहीं हो बुझने वाला।

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

सदा सरलता और सादगी उनके जैसी धारें,

देश, जाति और धर्म के लिये उन समान बन वारें।

होती रहे अतिथि-सेवा बन्द न हो गोशाला।

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

 

महर्षि दयानन्दकृत यजुर्वेद भाष्य में ईश्वर-स्वरूप :-डॉ. कृष्णपाल सिंह

इषे त्वोर्जे त्वा वायवस्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्याऽइन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा वस्तेन ईशत माघशंसो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौस्यात वह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि।

-यजु. १। १

इस मन्त्र के प्रतिपाद्य विषय का निर्देश करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ‘अथोत्तमकर्मसिद्धयर्थमीश्वरः प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते’ अर्थात् उत्तम कर्म की सिद्धि के लिये ईश्वर की प्रार्थना अवश्य करनी चाहिये, इस बात का मन्त्र में उपदेश है। मन्त्र का ऋषि परमेष्ठी प्रजापति है और देवता सविता-ईश्वर है। वेद चार हैं जिनमें ऋग्वेद स्तुति प्रधान है जैसा कि ऋषियों ने कहा है कि ‘ऋग्भिःस्तुवन्ति’ अर्थात् ऋचाओें=ऋग्वेदीय मन्त्रों के साधर्म्य और वैधर्म्य के द्वारा उनकी स्तुति अर्थात् गुणानुवाद का यथार्थ कथन किया जाता है। आचार्य यास्क ने निरुक्त शास्त्र में लिखा है कि ‘यजुभिर्यजन्ति’अर्थात् यजु. मन्त्रों के द्वारा यज्ञ-कर्म का निरूपण किया गया है। यजुर्वेद में कर्म का प्राधान्य है अर्थात् क्रिया प्रधान है। यजुर्वेदीय मन्त्रों से कर्म-क्रिया का सम्पादन होता है।

अतएव क्रिया-कर्मप्रधान वेद के प्रथम मन्त्र में ही कहा गया है कि ‘प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणे’ अर्थात् श्रेष्ठ कर्मों का सम्पादन करो। महर्षि याज्ञवल्क्य ने शतपथ में कहा है कि ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’ यज्ञ अर्थात् परोपकार करना ही श्रेष्ठ कर्म है। परोपकारार्थमिदं शरीरम्। इस वेद में विभिन्न स्थानों पर श्रेष्ठ कर्म करने का उपदेश है। जैसे यजुर्वेद के ४० वें अध्याय में कहा है कि ‘कुर्वन्नेवेहकर्माणिजिजीविषेच्छतं समाः’ अर्थात् इस संसार में मनुष्य जब तक जीवित रहे, तब तक शुभकर्म करते हुए जीने की इच्छा करे। क्योंकि यह शरीर भस्म होने वाला है। अपनी शक्ति (सामर्थ्य) का स्मरण कर, अपने कार्यों का स्मरण कर, ओ३म् पद वाच्य ब्रह्म-परमात्मा का स्मरण कर। इस प्रकार सम्पूर्ण यजुर्वेद अर्थात् आद्यन्तमध्य में भी श्रेष्ठ कर्म करने की प्रेरणा देता है। प्रकृत मन्त्र में परमात्मा ने आशीर्वाद रूप में कहा है कि श्रेष्ठ कर्म करते हुए इस जगत् में खूब उन्नति प्राप्त करो। ‘आप्यायध्वम् अघ्न्याः’ अर्थात् अहिंसित कर्म करते हुए समग्र ऐश्वर्य को प्राप्त करो। ‘यजमानस्य पशून्पाहि’ कहकर मन्त्र में यजमान के पशुओं की रक्षा करने का उपदेश यह कह रहा है कि वेद में सर्वथा हिंसा का निषेध है। मनुष्य की आजीविका के साधन भी अहिंसनीय होने की प्रेरणा है। इस लिये वेद में श्रेष्ठ कर्म करने की बात कही है और हिंसादि दुष्ट कर्म का निषेध जानना चाहिये।

परन्तु आज सम्पूर्ण संसार मांसाहार की ओर जा रहा है जो कि हिंसा का मार्ग है। वेद प्राणियों की हिंसा न करने की प्रेरणा दे रहा है। हे प्रभु! आप ही उन सब मनुष्यों के हृदय में परपीड़ा समझने का ज्ञान प्रदान कर, जिससे हिंसा कर्म संसार से समाप्त हो जाये। मन्त्र में सविता परमात्मा सकल जगत् अर्थात् दृश्यादृश्य, स्थूल-सूक्ष्म जगत् का उत्पादक, समग्र ऐश्वर्ययुक्त अपनी परमकृपा से सब प्राणियों को अन्न जलादि पदार्थों की प्राप्ति कराता है। वही सब जगत् की रक्षा करता है। उसकी रक्षा एवं कृपा के बिना किसी भी पदार्थ वा प्राणी का रक्षण कठिन है। वह सबको प्राणप्रिय है। उसकी प्राण-शक्ति के आधार पर समस्त प्राणी-जगत् तथा भौतिक जगत् के पदार्थ अपनी-अपनी सत्ता में स्थित दृष्टिगोचर हो रहे हैं। इसके अभाव में कोई वस्तु अपने स्वरूप में स्थित नहीं रह सकती। यह प्राण-शक्ति ओषधि-वनस्पतियों अन्यधात्वादि औषधियों में परिपूर्ण होने से आरोग्यवर्धक होकर प्राणियों के दुःख दूर कर उन्हें आनन्दित करती है। यह सब उस सविता परमात्मा की महती कृपा है।

महर्षि दयानन्दकृत मन्त्रार्थःहे मनुष्यो! यह (सविता) सब जगत् का उत्पादक, सकल ऐश्वर्य सम्पन्न जगदीश्वर (देवः) सब सुखों के दाता, सब विद्याओं का प्रकाशक भगवान् है (वायवस्थ) जो हमारे (वः) और तुम्हारे प्राण, अन्तःकरण और इन्द्रियाँ हैं एवं सब क्रियाओं की प्राप्ति के हेतु स्पर्शगुण वाले भौतिक प्राणादि हैं, उनको (श्रेष्ठतमाय) अत्यन्त श्रेष्ठ यज्ञ (कर्मणे) जो सबके उपकार के लिये कर्त्तव्य कर्म हैं, उससे (प्रार्पयतु) अच्छे प्रकार सयुक्त करें। हम लोग (इषे) अन्न, उत्तम इच्छा तथा विज्ञान की प्राप्ति के लिये सविता देवरूप (त्वा) तुझे विज्ञानरूप परमेश्वर को तथा (ऊर्जे) पराक्रम एवं उत्तम रस की प्राप्त्यर्थ (भागम्) सेवनीय धन और ज्ञान के पात्र (त्वा) अनन्त पराक्रम तथा आनन्द रस से भरपूर सदा आपकी शरण चाहते हैं। हे मनुष्यो! ऐसे होकर तुम (आप्यायध्वम्) उन्नति को प्राप्त करो और हम उन्नति प्राप्त कर रहे हैं। हे परमेश्वर! आप कृपा करके हमें   (इन्द्राय) परमेश्वर की प्राप्ति के लिये और (श्रेष्ठतमाय) अत्यन्त श्रेष्ठ यज्ञ (कर्मणे) कर्म करने के लिये इन (प्रगावतीः) बहुत प्रजावाली (अघ्न्याः) बढ़ने योग्य, अहिंसनीय, गौ, इन्द्रियाँ, पृथिवी आदि और जो पशु हैं, उनसे सदैव (प्रार्पयतु) संयुक्त कीजिये।

हे परमात्मन्! आपकी कृपा से हमारे मध्य में कोई (अघशंसः)पाप का प्रशंसक पापी और (स्तेनः) चोर (मा ईशत) कभी उत्पन्न न हो और आप इस (यजमानस्य) जीव के एवं परमेश्वर और सर्वोपकारक धर्म के उपासक विद्वान् के (पशून्) गौ, घोड़े, हाथी आदि लक्ष्मी वा प्रजा की (पाहि) सदा रक्षा कीजिये, क्योंकि (वः) उन गौओं और इन पशुओं को (अघशंस) पापी (स्तेनः) चोर (मा+ईशत) हनन करने में समर्थ न हो। जिससे (अस्मिन्) इस (गोपतौ) पृथिवी आदि की रक्षा के इच्छुक धार्मिक मनुष्य एवं गोस्वामी के पास (बह्वीः) बहुत सी गौवें (ध्रुवा) स्थिर सुखकारक (स्यात्) होवें।

मन्त्र का भावार्थ महर्षिकृतःमनुष्य सदा धर्मयुक्त पुरुषार्थ के आश्रय से, ऋग्वेद के अध्ययन से गुण और गुणी को जानकर सब पदार्थों के प्रयोग से पुरुषार्थ सिद्धि के लिये उत्तम क्रियाओं से संयुक्त रहें। जिससे ईश्वर की कृपा से सबके सुख और ऐश्वर्य की वृद्धि होवे, शुभ कर्मों से प्रजा की रक्षा और शिक्षा सदा करें। जिससे कोई रोगरूप विघ्न और चोर प्रबल न हो सके और प्रजा सब सुखों को प्राप्त होवे। जिसने यह विचित्र सृष्टि रची है, उस जगदीश्वर का आप सदैव धन्यवाद करें। ऐसा करने से आपकी दयालु ईश्वर कृपा करके सदा रक्षा करेगा।

ईश्वर स्वरूप दर्शनःइस मन्त्र में सविता=ईश्वर सम्पूर्ण जगत् का उत्पादक, सकल ऐश्वर्य सम्पन्न होने से सविता नाम से कहा गया है और सर्वसुख प्रदाता, सर्वदुःख विनाशक, सर्व विद्याओं का प्रकाशक होने से ‘देव’ कहा गया है।

परमेश्वर की प्रार्थना इस प्रकार करेंःमन्त्र में कहा गया है कि हे सविता देव! आप हमारे प्राण, अन्तःकरण और समग्र इन्द्रियों को सर्वोत्कृष्ट यज्ञ कर्म में लगाइये। हे जगदीश्वर! हमक लोग अन्न बल, पराक्रम, विज्ञानादि की प्राप्ति के लिये आपका ही आश्रय करते हैं, क्योंकि आप ही सब प्रकार के परम ऐश्वर्य के प्रदाता हैं। हे दयानिधे परमेश्वर! आपकी परम कृपा से हमारे गौ, हस्ति आदि पशु, इन्द्रिय तथा पृथिवीस्थ सभी पदार्थ अनमीवा अर्थात् रोग रहित होवें। आपकी महती कृपा से हमारे मध्य कोई भी चोर, पापी कभी उत्पन्न न हो। हे परमेश्वर! आप ईश्वरोपासक, धर्मात्मा, विद्वान्, परोपकारी के गौ आदि विभिन्न पशुओं लक्ष्मी तथा प्रजा की सदैव रक्षा कीजिये।

महर्षि द्वारा अन्यत्र की गई व्याख्याः ‘इषे त्वोर्जे’ इस मन्त्र को संस्कारविधि के ‘स्वस्तिवाचन’ में रखा गया है। ‘गोकरुणा निधि’ में इस मन्त्र की सम्पूर्ण व्याख्या न करके कुछ अंश की व्याख्या इस प्रकार है-यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में परमात्मा की आज्ञा है कि ‘अघ्न्या यजमानस्य पशून् पाहि’हे पुरुष! तू इन पशुओं को कभी मत मार और यजमान् अर्थात् सबके सुख देने वाले जनों के सम्बन्धी पशुओं की रक्षा कर, जिनसे तेरी भी पूरी रक्षा होवे और इसीलिये ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त आर्य लोग पशुओं की हिंसा में पाप और अधर्म समझते थे और अब भी समझते हैं। इनकी रक्षा में अन्न भी मंहगा नहीं होता, क्योंकि दूध आदि केअधिक होने से दरिद्रों को भी खान-पान में मिलने पर न्यून ही अन्न खाया जाता है और अन्न के कम खाने से मल भी कम होता है, मल के न्यून होने से दुर्गन्ध भी न्यून होता है, दुर्गन्ध के स्वल्प होने से वायु और वृष्टि-जल की शुद्धि भी विशेष होती है। उससे रोगों की न्यूनता होने से सबको सुख बढ़ता है। इससे यह ठीक है कि गो आदि पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा का नाश हो जाता है, क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं, तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कार्यों की भी कटौती होती है।

कतिपय विशिष्ट पद और उनका अर्थः-

(१) इषेः- यह मन्त्र का प्रथम ही पद है। आचार्य यास्क ने निघण्टु (२/७) में ‘इषम्’ पद को अन्न नामों में पढ़ा है। ‘इषति’ पद निघण्टु २/१४ में गत्यर्थक धातुओं में पढ़ा है और इस धातु से क्विप् सर्वापहारी प्रत्यय करने से ‘इष्’ शब्द बनता है। इस पद का अर्थ महर्षि ने ‘अन्नविज्ञानयोः प्राप्तये’अर्थात् अन्न विशान की प्राप्ति के लिये, यह किया है।

(२) ऊर्जेः- महर्षि याज्ञवल्क्य ने शतपथ ब्राह्मण ५/१/२/८ में ऊर्ग्रस वचन से ‘ऊर्क’ का अर्थ ‘रस’ किया गया है। इसलिये महर्षि दयानन्द ने ‘ऊर्जो’ का अर्थ ‘पराक्रमोत्तमरसलाभाय’अर्थात् पराक्रम एवं उत्तम रस की प्राप्ति के लिये, यहकिया है।

(३) देवः- आचार्य यास्क ने निरुक्त ७/१५ में देव शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ‘देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा’इसकी व्याख्या महर्षि ने ऋ. भा. भूमिका के वेद-विषय विचार प्रकरण में की है। दान देने से देव नाम पड़ता है और दान कहते हैं ‘किसी वस्तु के विषय में अपने स्वामित्व को छोड़ते हुए दूसरे के स्वामित्व को उत्पन्न करना।’ दीपन कहते हैं प्रकाश करने को। द्योतन कहते हैं सत्योपदेश को। इनमें से दान का दाता मुख्य ईश्वर ही है कि जिसने जगत् को सब पदार्थ दे रखे हैं। तथा विद्वान् मनुष्य भी विद्यादि पदार्थों को देने वाले होने से देव कहाते हैं। दीपन अर्थात् सब मूर्तिमान् द्रव्यों का प्रकाश करने से सूर्यादि लोकों का नाम भी देव है। द्योतन-माता, पिता, आचार्य और अतिथि भी पालन विद्या और सत्योपदेशादि के करने से देव कहाते हैं, वैसे ही सूर्यादि लोकों का भी जो प्रकाश करने वाला है, वह ईश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने योग्य इष्टदेव है, अन्य कोई नहीं। इसमें कठोपनिषद् का भी प्रमाण है कि सूर्य, चन्द्रमा, तारे, विद्युत (बिजली) और अग्नि ये सब परमेश्वर में प्रकाश नहीं कर सकते, किन्तु इन सबका प्रकाश करने वाला वही है, क्योंकि परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्यादि सब जगत् प्रकाशित हो रहा है। इसमें यह जानना चाहिये कि इईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतन्त्र प्रकाश करने वाला नहीं है, इससे एक परमेश्वर ही मुख्य देव हैं।

इसी प्रकार महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश प्रथम समुल्लास में देव शब्द के विषय में लिखा है कि ‘दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युति-स्तुति-मोद-मद-स्वप्न-कान्ति-गतिषु’ इस धातु से देव शब्द सिद्ध होता है। क्रीडा जो शुद्ध, जगत् को क्रीडा कराने विजिगीषा= धार्मिकों को जिताने की इच्छायुक्त, व्यवहार=सब चेष्टा के साधनोपसाधनों का दाता, द्युति=स्वयं प्रकाश स्वरूप, सबका प्रकाशक, स्तुति=प्रशंसा के योग्य, मोद=आप आनन्दस्वरूप और दूसरों को आनन्द देने हारा, मद-मदोन्मत्तो का ताड़ने हारा, कान्ति=कामना के योग्य और गति=ज्ञानस्वरूप है, इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘देव’ है।

अथवा ‘यो दीव्यति क्रीडति स देवः’ जो अपने स्वरूप में आनन्द से आप ही क्रीडा करे अथवा किसी के सहाय के बिना क्रीडावत् सहज स्वभाव से सब जगत् को बनाता वा सब क्रीडाओं का आधार है, ‘यो विजिगीषते स देवः’ जो सबका जीतने हारा स्वयं अजेय अर्थात् जिसको कोई भी न जीत सके, ‘यो व्यवहारयति स देवः’ जो न्याय और अन्यायरूप व्यवहारों का जनाने हारा और उपदेष्टा, ‘यश्चराचरं जगत् द्योतयति स देवः’ जो सबका प्रकाशक, ‘यःस्तूयते स देवः’ जो सब मनुष्यों की प्रशंसा के योग्य और निन्दा के योग्य आनन्द कराता, जिसको दुःख का लेश भी न हो, ‘यो मोद्यति स देवः’ जो सदा हर्षित, शोकरहित और दूसरों को हर्षित करने और दुःखों से पृथक् रखने वाला, ‘यः स्वापयति स देवः’ जो प्रलय के समय अव्यक्त में सब जीवों को सुलाता, ‘यः कामयते काम्यते वा स देवः’। जिसके सब सत्यकाम और जिसकी प्राप्ति की कामना सब शिष्ट करते हैं, तथा ‘यो गच्छति गम्यते वा स देवः’ जो सबमें व्याप्त और जानने के योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम देव है। जैसा कि अथर्ववेद १०/८/३२ में कहा गया है कि ‘देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति’ अर्थात् देव= परमेश्वर का काव्य देखो, न मरता है न जीर्ण होता है। इसी प्रकार श्वेताश्वतरोपनिषद् (६/११) में कहा गया है कि ‘एको देवः सर्वभूतेषुगूढ़ सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा’अर्थात् देव=परमात्मा (ईश्वर) एक है, सब पदार्र्थों में गुप्त रूप से विद्यमान् है, वह सर्वव्यापक और सब भूतों का अन्तरात्मा है।

अघ्न्याः आचार्य यास्क ने ‘अघ्न्या’ शब्द को निघण्टु २/११ में ‘गो’ नामों में पढ़ा है, इसलिये महर्षि ने इसका अर्थ ‘वर्धयितुमर्हा हन्तुमनर्हा गाव इन्द्रियाणि पृथिव्यादयः पशवश्च’अर्थात् बढ़ाने योग्य, अहिंसनीय गौ, इन्द्रियाँ, पृथिवी आदि और जो पशु हैं।

पशून्ः महर्षि याज्ञवल्क्य ने शतपथ ब्राह्मण १/६/३/३६ में पशु का अर्थ ‘श्रीर्हि पशः’ कहकर, पशु का अर्थ ‘श्री’ कहा है। तथा शतपथ १/४/६/१७ के अनुसार पशु का अर्थ प्रजा किया है। इन अर्थों के परिप्रेक्ष्य में महर्षि ने ‘पशून्’ पद का अर्थ ‘गौ, घोड़े, हाथी आदि लक्ष्मी वा प्रजा की सदा रक्षा कीजिये, यह किया है।

योगेश्वर कृष्ण: -डॉ. आर.के.चौहान

योगेश्वर श्रीकृष्ण सा चरित्र मानव इतिहास में ढूँढ पाना असम्भव है। शास्त्र और शस्त्र अर्थात् ज्ञान और कर्म की क्षमताओं का अद्भुत समन्वय और वह भी न्याय एवं धर्म-आधारित साम्राज्य स्थापनार्थ महाभारत के अतिरिक्त अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। महर्षि व्यास सारे महाभारत में एक मात्र श्री कृष्ण को ही ऐसे व्यक्ति के रूप में चित्रित करते हैं-जो न कभी टूटता है, न झुकता है। श्री कृष्ण न पछताते हैं, न रोते हैं और न कभी जय-पराजय की चिन्ता करते हैं, परन्तु उन्हें अपने पुरुषार्थ, कर्त्तव्य और नीतिमत्ता में इतना अधिक विश्वास है कि वे अर्जुन को गीता में यहाँ तक आश्वासन देते हैं कि मेरी योजना में और विश्वरूप की व्यापकता में भीष्म, द्रोण, दुर्योधन, कर्ण और दुःशासन आदि सब पहले से ही मरे पड़े हैं, तुझे केवल निमित्त मात्र बनना है।……युद्धिष्ठिर से लेकर धृतराष्ट्र और भीष्मपितामह तक सभी लोग टूटते हैं, परन्तु कृष्ण कभी नहीं टूटते। वे अनासक्त भाव से घटनाओं का संचालन करते हैं। पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य में जिस नरत्व की आवश्यकता है, वह श्री कृष्ण में साक्षात् अवतरित हुआ है, इसीलिए वे नरोत्तम, पुरुषोत्तम और नर से नारायण बनने की क्षमता रखते हैं।

यही कारण है कि बंगला लेखक बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने ‘कृष्ण-चरित्र’ में लिखा कि-‘कृष्ण सर्वगुण सम्पन्न हैं। इनकी सब वृत्तियों का सर्वांगसुन्दर विकास हुआ है। ये सिंहासनासीन होकर भी उदासीन हैं, धनुर्धारी होकर भी धर्मवेता हैं, राजा होकर भी पण्डित हैं, शक्तिमान् होकर भी प्रेममय हैं। यह वही आदर्श है जिससे युद्धिष्ठिर ने धर्म सीखा और अर्जुन जिसका शिष्य हुआ। जिसके चरित्र के समान महामहिमामण्डित चरित्र मनुष्य भाषा में कभी वर्णित नहीं हुआ।’ उधर यशस्वी वक्ता, लेखक एवं पत्रकार क्षितीश वेदालंकार के अनुसार-‘श्री कृष्ण के समान प्रगल्भ, बुद्धिशाली, कर्त्तव्यवान्, प्रज्ञावान्, व्यवहारकुशल, ज्ञानी एवं पराक्रमी पुरुष आज तक संसार में नहीं हुआ। यह कथन अतिशयोक्ति नहीं माना जाना चाहिए। वे ध्येयवादी के साथ व्यवहारवादी भी थे और इन दोनों की सीमाओं के निपुण ज्ञाता थे। सत्यनिष्ठ के समान ही वे कुशल राजनीतिज्ञ अर्थात् राजधर्म के उपदेशक थे। वे गृहस्थ जीवन के प्रेमी होने के साथ-साथ अत्यन्त संयमी और योगविद्या पारंगत योगेश्वर भी थे।…….श्री कृष्ण भारत की संस्कृति और राष्ट्रधर्म के मूर्तिमान् प्रतीक हैं। जिस राष्ट्रधर्म की ओर हम संकेत करना चाहते हैं, उसका मूल-आधार महाभारत और उसके द्वारा प्रतिपादित श्री कृष्ण का चरित्र ही है।’ युग-प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में लिखा-‘देखो! श्री कृष्ण का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उनका गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्तपुरुषों के सदृश है। जिसमें कोई अधर्म का आचरण भी कृष्ण जी ने जन्म से मरणपर्यन्त बुरा काम कभी किया हो, ऐसा नहीं लिखा।’ महर्षि व्यास ने उन्हें धर्म का पर्याय बताया-‘यतो कृष्णस्ततो धर्मः यतो धर्मस्ततो जयः।’

उक्त उद्धरणों में वर्णित श्री कृष्ण के चरित्र की सम्पुष्टि महारभारत एवं समकालीन ग्रन्थों से होती है, जिसका संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत करना उपयुक्त होगा। मथुरा के निरंकुश राजा मामा कंस की जेल में कै द माता-पिता देवकी एवं वसुदेव का पुत्र कृष्ण यमुनापार गोकुल में यशोदा मय्या और नन्दबाबा की वात्सल्यमयी गोद में खेला और पला। भाई बलराम और गोकुल गोपाल-मण्डल के स्नेह और दुलार से मेधावी होनहार बालक कृष्ण को सब का प्यारा बना दिया। मक्खन, दूध, घी सम्पन्न गोपालक यदुवंशी समाज का मल्लयुद्ध एवं शस्त्र प्रेमी होना स्वाभाविक था। किशोर बलराम और कृष्ण युवा होने तक इन कलाओं में न केवल पारंगत हो गए वरन् उनके सतत् प्रयास से गोवंश सम्वर्धन पारस्परिक सौहार्द और समृद्धि का आधार बन गया। युवा पीढ़ी बल, शौर्य एवं पुरुषार्थ पाकर सुख-समृद्धि की राह पर अग्रसर हुई। प्रचलित गुरुकुल परम्परा के अन्तर्गत विद्याध्ययन ने कृष्ण में सौम्य, तार्किक एवं विचारशील व्यक्तित्व का विकास कर दिया।

शिक्षा समाप्ति पर युद्धकुशल यादव समाज की आपसी कलह और मगधराज जरासन्ध के संरक्षण में मथुरा में कंस की निरंकुशता की बात समझ में आई। अपनी व्यवहार-कुशलता और नीतिमत्ता से प्रथम यादव कुल का वैमनस्य मिटाया, पश्चात् भाई बलराम एवं युवा मित्र-मण्डल की सहायता से आतताई कंस का वध कर नाना उग्रसेन को मथुरा के सिंहासन पद पर आसीन किया। कंस के मरने पर अपनी दो बेटियों के विधवा हो जाने से नाराज जरासन्ध ने बार-बार आक्रमण करके यादवों के नाक में दम कर दिया। जरासन्ध की विशाल सेना का सामना करने में अक्षम यादव कुल की राजधानी मथुरा से स्थानान्तरित कर द्वारका के सुरक्षित स्थान पर स्थापित की।

अपनी फूफी कुन्ती के वीर पुत्रों पांडवों के वनवास समाप्ति पर मिले खाडंव वन को साफ करवा कर इन्द्रप्रस्थ जैसे सुनियोजित, अत्याधुनिक और सुन्दर नगर का निर्माण कराया और युद्धिष्ठिर को सिंहासनासीन किया। नीति-निपुण कृष्ण ने भारत के बड़े भाग पर राज कर रहे विशाल सेनाऔर धन-बल सम्पन्न मगधराज जरासन्ध को अर्जुन और भीम के साथ गुप्तवेश में मगध पहुँचकर द्वंद्व-युद्ध के लिए राजी किया। भीम ने जरासंध को उसके मर्म के भेद का लाभ उठाकर मार गिराया और असम्भव को सम्भव कर दिखाया। मगधराज का भार जरासन्ध के बेटे को सौंपकर उससे मित्रता सन्धि की और जरासन्ध द्वारा कै द ८६ राजाओं को मुक्त करके उनसे मित्रता सम्बन्ध बनाए।

प्रबन्ध कला में निपुण एवं दूरदर्शी श्रीकृष्ण से सलाह कर युद्धिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ रचा। लक्ष्य था प्रभावक्षेत्र बढ़ाकर सुशासन अर्थात् न्याय एवं धर्म आधारित सर्वजन प्रिय पांडवराज भारत-भू पर स्थापित करना। अर्जुन और भीम जैसे महाबली योद्धाओं के पौरुष तथा अपनी अद्भुत नीति कुशलता से भारत के अनेक राज्यों से मैत्री सन्धियाँ की तथा इन्द्रप्रस्थ साम्राज्य का प्रभावक्षेत्र एवं वर्चस्व बढ़ाया। राजसूय यज्ञ में प्रचलित अर्घ्यपरम्परा के अनुसार सभा में उपस्थित सर्वाधिक वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध तथा अनुभववृद्ध भीष्म पितामह ने अर्घ्य लेने का अधिकारी श्रीकृष्ण को उद्घोषित किया और कहा-‘हम कृष्ण के शौर्य पर मुग्ध हैं। ब्राह्मणों में ज्ञान की पूजा होती है, क्षत्रियों में वीरता की, वैश्यों में धन की और शूद्रों में आयु की। यहाँ मैं किसी राजा को नहीं देखता, जिसे कृष्ण ने अपने अतुल तेज से न जीता हो। वेद-वेदांग का ज्ञान और बल पृथ्वी के तल पर इनके समान किसी और में नहीं। इनका दान, इनका कौशल, इनकी शिक्षा और ज्ञान, इनकी शक्ति, इनकी शालीनता, इनकी नम्रता, धैर्य और सन्तोष अतुलनीय हैं। ये ऋत्विज हैं, गुरु हैं, स्नातक हैं और लोकप्रिय राजा हैं। ये सब गुण एक पुरुष में मानो मूर्त्त हो गए हैं। इसलिए इन्हें ही अर्घ्य दिया गया है।’ यह सुनकर चेदीराज शिशुपाल जो रुक्मणी के कृष्ण से विवाह को लेकर दुःखी था क्रोध में आग-बबूला हो गया और भीष्म सहित कृष्ण को बहुत कुछ भला-बुरा कह गया। संयत श्री कृष्ण ने सब कुछ सुना और सह गए। युद्धिष्ठिर ने शिशुपाल को शान्त करने का भरसक प्रयास किया, किन्तु वह न माना और श्री कृष्ण को सम्बोधित कर बोला-तू राजा नहीं दास है, वीर नहीं कायर है। दम है तो हमसे युद्ध कर। अन्ततः श्री कृष्ण ने उसकी चुनौती को स्वीकार करते हुए अपने सुदर्शन चक्र के एक ही वार से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।

यज्ञ सम्पन्न हुआ। सब लोग अपने-अपने घरों को लौट गए, किन्तु इस घटना का विपरीत प्रभाव अनेक राजाओं के हृदय पर पड़ा। दुर्योधन तो पांडवों से पहले ही ईर्ष्या करता था। हाथ लगी अनुकूल परिस्थिति का लाभ उठाने से भला कैसे चूकता? दुर्योधन ने जुआ खेलने में माहिर, शातिर दिमाग अपने मामा गांधारनरेश शकुनी के साथ मिलकर हस्तिनापुर में द्यूतक्रीड़ा कार्यक्रम आयोजित करके इसमें युद्धिष्ठिर को फँसा लिया। युधिष्ठिर न केवल राज-पाठ बल्कि अपने भाइयों समेत खुद को ही नहीं और द्रोपदी को भी जूए में हार गया। द्रोपदी का भरी सभा में अपमान किया गया, जिसकी भर्त्सना महात्मा विदुर और श्री कृष्ण के अतिरक्ति कोई अन्य करने का साहस न कर पाया। करते भी कैसे? ‘राजा परं दैवतम्’के सिद्धान्त से जो बन्धे थे। उस काल की सर्वोच्च स्थान प्राप्त इस परम्परा का दुरुपयोग होते देख श्री कृष्ण सदृश आप्तपुरुष ने जनहित में उसे तोड़ने में जरा भी संकोच नहीं किया।

पांडवों को बारह वर्ष वनवास एवं एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना पड़ा, जिसकी समाप्ति पर पांडवों को उनका राज्य दिलाने के लिए सन्धि प्रस्ताव लेकर श्री कृष्ण हस्तिनापुर आए। प्रथम आदरपूर्वक धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोणादि बड़ों से और फिर गांधारी से मिले। वनवास की शर्त पूरी होने पर पांडवों को उनका राज्य लौटाने के लिए दुर्योधन को समझाने को कहा। युद्ध में उसके अपने ही कुल का नाश होने की बात कही। सबने दुर्योधन को समझाया, किन्तु हठी दुर्योधन ने किसी की एक न सुनी। तब श्री कृष्ण सन्धि-प्रस्ताव प्रस्तुत करने के लिए राज्यसभा में उपस्थित हुए। अपने ही भाईयों के लिए उनकी न्यायसंगत बात मानकर दुर्योधन को महायुद्ध टालने की बात कही। उन्होंने कहा-युद्ध होने की स्थिति में न केवल अनगिनत योद्धा युद्ध की अग्नि में भस्म हो जाएँगे, बल्कि असंख्य परिवार भी बरबाद हो जाएँगें। अतः समझदारी से काम लेकर इस महाविनाश की विभीषिका से सबको बचाया जा सकता है, परन्तु दुर्योधन था कि टस से मस न हुआ। तब श्री कृष्ण ने महाबली पांड़वों के हाथों मरने के लिए तैयार रहने की चेतावनी दे डाली। परिणाम सम्भावित ही रहा। धार्मिक, सिद्धान्तवादी एवं सत्यनिष्ठ बड़ों के मन में दुर्योधन के हठ पर ग्लानिपूर्ण उपेक्षाभाव उपजा, तो जन-साधारण के मन में कुलद्रोही तथा अन्यायी दुर्योधन के प्रति रोषपूर्ण जनसंहार का भय। युद्ध में महाकाल बन जाने वाले अर्जुन और भीम के विचार ने कौरव दल के शीर्ष योद्धाओं का भी आत्मविश्वास हिला दिया।अतः समय, स्थान एवं परिस्थितियों को अपनी समझ और नीतिकौशल से सत्यपक्ष के अनुकूलकर लेने की कला में दक्ष श्रीकृष्ण जहाँ सन्धि करवाने के प्रयास की औपचारिकता से निवृत्त हुए, वहाँ सन्धिवार्ता की असफलता का ठीकरा अनैतिक, अन्यायी, कुलघाती एवं जनसंहारक दुर्योधन के सिर पर फोड़ने में भी सफल रहे। सबकी जुबान पर दुर्योधन की हठधर्मिता और पाँडवों के प्रति सहानुभूति की चर्चा थी तथा मन में सम्भावित भयंकर महायुद्ध की विभीषिका का डर। ऐसे में यदि कोई तनाव-मुक्त एवं स्थिर था तो स्थितप्रज्ञ योगेश्वर कृष्ण।

युद्ध घोषित हो जाने पर स्वयं को महारथी अर्जुन के रथ का सारथी बनाकर दुर्योधन की ओर से लड़ने वाली यादव सेना पर हथियार न उठाने की स्थिति उत्पन्न कर दी। भाई बलराम को युद्ध से विमुख करके तीर्थयात्रा पर चले जाने को प्रेरित किया। इस प्रकार महाभारत युद्ध में पांडव-पक्ष का संरक्षक होकर नीति, धर्म, शास्त्र एवं शस्त्रों के समन्वय का ऐसा अभेद्य चक्रव्यूह रचा कि विरोधी दल के संख्या में कहीं अधिक सैन्यबल और एक से एक शक्तिशाली योद्धाओं के होते हुए भी पांडव दल को मुकाबले की टक्कर का बनाकर खड़ा कर दिया।

जिसका कुशल सारथी श्री कृष्ण परिस्थितियों को सम्भालकर यहाँ तक लाया था, मोहग्रस्त हो वह धनुर्धारी अर्जुन युद्धभूमि में कर्त्तव्यविमुख होकर वैराग्यपूर्ण ज्ञान की बातें करने लगा। अतः अचानक एक नई और विकट स्थिति सामने आ खड़ी हुई। पर भला माधव ने कठिनाइयों से कब मुँह मोड़ा। अपनों को मारने के पाप के भय से थरथराते अर्जुन को पूछा-इन अजर-अमर आत्माओं को मार सकते हो क्या? नहीं, तुम्हारा गांडीव मात्र नश्वर शरीरों का विच्छेद कर सकता है, अमर आत्माओं का नहीं, परन्तु समस्या का यह दार्शनिक समाधान अर्जुन के मन को विषाद से न निकाल पाया। तब युद्ध में क्षत्रिय का धर्म आतताई, अधर्मी शत्रु का विनाश करके विजय पाकर अधर्म, असत्य एवं अन्याय का प्रतिकार करना बताकर पार्थ के पौरुष को जगाया। इस व्यावहारिक एवं कर्म-प्रधान समाधान ने हतोत्साहित अर्जुन के रक्त में जोश का भरपूर संचार किया, किन्तु श्री कृष्ण ने देखा कि उसके मुख पर शंका की कुछ रेखाएँ अभी भी शेष थीं। अन्ततः मानव मनोविज्ञान के मर्मज्ञ योगेश्वर कृष्ण ने अर्जुन के चित्तपटल पर जगत् का समष्टीरूप चित्रित करके कालप्रवाह से हो रही घटनाओं की अवश्यमभावीयता में भागीदार बनकर निमित्त बनने का विकल्प प्रस्तुत करते हुए कहा कि युद्धभूमि में लड़ते हुए मर जाने पर स्वर्गसुख पाओगे और जीतने पर हस्तिनापुर का राज्य। जादू का सा असर हुआ। अर्जुन ने झट-से अपना गांडीव सम्भाल लिया और युद्ध करने को तत्पर हो गया। यह चमत्कार ज्ञान, कर्म, दर्शन, मनोविज्ञान आदि विद्याओं में पारंगत केवल योगीराज श्रीकृष्ण ही कर सकते थे। अतः उक्त परिस्थितियों के आलोक में गीता में उन्होंने योग को नया अर्थ प्रदान किया यह कहते हुए-‘योगः कर्मसु कौशलम्’

उनका वेदोपनिषत् शास्त्र आधारित ज्ञान, मानव मनोविज्ञान आधारित वक्तृत्व, अमर गीता सन्देशरूप में प्रदीप्त हुआ, जो मनुष्य मात्र के लिए कालजयी मार्ग-दर्शक हो गया। महाभारत जैसे महाविनाशकारी युद्ध में उपजी विकट परिस्थितियों का न्यायसंगत, धर्मानुसार तथा यथायोग्य व्यवहार-पूर्वक समाधान किया। अन्ततः परिणाम, धर्म, न्याय और सत्य के पक्ष में रहा। अन्याय, अधर्म एवं प्रचलित रूढ़ि आधारित प्रजाविरोधी साम्राज्य समाप्त करके न्याय, धर्म और जनहितैषी साम्राज्य की समस्त भारत-भू पर स्थापना की। लाला लाजपत राय ने अपनी पुस्तक ‘योगीराज श्रीकृष्ण’ में उनके लिए लिखा-‘‘जिसने अपने जीवन-काल में धर्म का पालन किया है और धर्म ही के अनुसार धर्म और न्याय के शत्रुओं का नाश किया है।’’ संस्कृत कवि माघ ने अपने ग्रन्थ ‘शिशुपालवध’ में लिखा कि महाभारत युद्धोपरान्त अश्वमेघ के समापन पर महाराज युद्धिष्ठिर स्वीकार करते हैं-‘हे (एतदूढ़गुरुभार) कठिन, भारी भार सम्भाले (श्रीकृष्ण) आप की कृपा का यह कितना बड़ा चमत्कार है कि आज से (सारा) भारत वर्ष मेरे अधिकार में है।’ गीताकार के शब्दों में संजय ने सच कहा था-

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवानीतिर्मतिर्मम।।

प्राचीन एवं अर्वाचीन अन्वेशक लेखकों के आलेख महाभारत के नायक, महामानव श्री कृष्ण के तथ्यात्मक जीवन-चरित्र को प्रकाश में लाने का सुखद प्रयास है। अन्ध श्रद्धालु हृदयों में सदियों से जमती आ रही मैल को धो डालना प्रबुद्ध जनों का पुनीत कर्त्तव्य है ताकि शुद्ध, पवित्र एवं श्रेष्ठतम श्री कृष्ण चरित्र मानव मात्र के सम्मुख उपस्थित होकर अनुकरणीय बन जाए। सत्य, न्याय और धर्म आधारित राज्य व्यवस्था समस्त भारत भूमि पर स्थापित हो जाए। और हर कृष्ण-भक्त यज्ञमय, योगमय एवं कृष्णमय हो जाए।

शाश्वत-स्वर: – धर्मवीर

सत्यधर्माय दृष्टये

धर्म संसार का अनिवार्य संचालक तत्त्व है। कोई भी व्यक्ति संसार में मिलना कठिन है, जिसके मन में विश्वास न हो। विश्वास और आस्था ही धर्म है। हो सकता है यह विश्वास किसी का जड़ के प्रति हो, दूसरे का चेतन के प्रति, एक का साकार के प्रति तो दूसरे का निराकार के प्रति। इस विश्वास के कारण ही मनुष्य जीवित है। यह धर्म ही मनुष्य के जीवन का आधार है, इसलिये धर्म चेतन का आधार है। धर्म मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है। इसके बिना जीवन चल नहीं सकता, लेकिन सहज नहीं लगता कि धर्म क्या ऐसी मजबूरी हो सकता है, जिसके बिना जीवन का आधार समाप्त हो सके। भोजन मनुष्य के जीवन का आधार है, क्या धर्म भी भोजन की भांति अनिवार्य है? स्थूल रूप से ऐसा लगता नहीं परन्तु विचारकों की दृष्टि में इसका भी उतना ही महत्त्व है, जितना कि जीवन के आधार भोजन का। भोजन वित्त है, भोजन हिरण्य है, इसीलिये तो शोषण का हथियार है। संसार में शोषण का आधार आज अर्थ है। शोषण का साधन आज सत्ता है-शक्ति है, इसलिये बल आज शारीरिक बल का धनी शोषणकर्त्ता बन बैठता है।

इसी प्रकार आज धर्म को मार्क्सवाद से आधुनिक विचार तक शोषण का स्रोत माना जाता रहा है। यही आधार है कि धर्म मनुष्य की बड़ी मजबूरी है, अनिवार्य आवश्यकता है, तभी शोषण का साधन बन सकता है। जो वस्तु पोषण का, प्रगति का जितना बड़ा आधार होगी, शोषण के लिये वह उतनी ही सक्षम भी होगी।

अर्थ अन्न का प्रतीक है, जीवन धारण का प्रमुख व प्रथम साधन है इसलिये अर्थ को माध्यम बनाकर समाज का निर्देशन किया जा सकता है और किया जाता है। सब स्वीकार करते हैं, जीवन को सम्पूर्ण और सुखी बनाने के लिये राष्ट्र, समाज और व्यक्ति को आर्थिक दासता से मुक्त करना ही होगा। इसी प्रकार बल की दासता से, सत्ता की दासता से भी मुक्त हुये बिना नैतिक और मर्यादित आचरण के लिये मनुष्य के पास उपयुक्त वातावरण नहीं मिल पाता और यही स्थिति धर्म के साथ है। मनुष्य के शारीरिक, बौद्धिक विकास का लक्ष्य आत्मा का विकास है और इस लक्ष्य के आधार को ही धर्म कहा जाता है। प्रत्येक शरीर के लिये, बुद्धि के लिये, भावना के लिये सब आवश्यकताओं की भाँति धर्म की भी आवश्यकता है। मनुष्य मिथ्या विश्वास कर सकता है, अन्धविश्वास कर सकता है, धर्मान्ध हो सकता है परन्तु धर्मरहित नहीं हो सकता। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को धर्म का वास्तविक स्वरूप जानना चाहिये और जानना आवश्यक है।

जो धर्म नहीं जानता, वास्तविक धर्म नहीं पहचानता अथवा स्वार्थ पूर्ति को ही धर्म स्वीकार करता है तो वह धर्म के द्वारा ही अपने स्वार्थ को सहज पूरा करता है, क्योंकि ऐसा करके मनुष्य को उसकी आवश्यकता पूर्ति का आभास कराता है। जो आवश्यकता की पूर्ति करता है, वह उसका उपभोग कर सकता है, इस कारण धर्म का उपयोग संसार में सबसे अधिक किया जा रहा है। धर्म के नाम पर किसी से कुछ भी कराया जा सकता है, इस कारण धर्म अनिवार्यता है, मजबूरी है, इसलिए शोषण का आधार है। जैसे राज्य के शोषण को दूर करने के लिये राज्य को सर्वथा समाप्त नहीं किया जा सकता, जैसे अर्थ के शोषण से मुक्त होने के लिये मनुष्य भूखा और नंगा नहीं रह सकता, उसी प्रकार धर्म के शोषण से बचने के लिये मनुष्य अधार्मिक या अविश्वासी नहीं बन सकता। धर्म को त्यागा नहीं जा सकता, वह आवश्यकता है। हानि केवल तब होती है, जब विष को औषध समझ लिया जावे और अभक्ष्य को भक्ष्य। अतः वेद कहता है, जानने योग्य केवल एक वस्तु है और उसी के लिये सारा प्रयत्न करना चाहिए- वह है सत्य धर्म।

अधर्म के आवरण में धर्म छिप गया है, छिप जाता है, छिपा दिया जाता है, उसी आवरण के भेदन में सारा प्रयत्न करना है। वह आवरण आसानी से भेदन योग्य नहीं है, यह कार्य सरल होता तो वेद में ईश्वर से शक्ति की प्रार्थना करने की आवश्यकता न होती, यह आवरण बड़ा दृढ़, बड़ा रमणीय है, मोहक है, सत्य के ऊपर सबसे कठिन आवरण है, तो मोह का, मूढ़ता का है, मिथ्यापन है, इस कारण हम जो मानते हैं और जितना जानते हैं, उसी को सब समझ लेते हैं, उसी को सत्य समझ लेते हैं- उसके बिना छूटे और बिना टूटे अन्तर्निहित सत्य का साक्षात्कार सम्भव नहीं होता। हम सत्य का साक्षात् बिना किये सत्य से भय खाते हैं, यह सत्य का ही प्रभाव है। संसार का समग्र असत्य सत्य कहकर ही प्रचारित किया जा सकता है और किया जाता है। संसार का सारा अधर्म-धर्म के नाम पर ही चल सकता है। इस संसार में आज तक कोई भी ऐसा व्यक्ति, विचार या दर्शन नहीं बन सका जो असत्य को, अधर्म को, पाखण्ड को अधर्म के नाम पर चला सका हो, यही सबसे बड़ी आवश्यकता धर्म के रूप में, सत्य के रूप में हमारे सम्मुख आती है। शास्त्रकार धर्म को सत्य और सत्य को ही धर्म कहते हैं। स्वामी दयानन्द का धर्म और सत्य पर्यायवाची हैं। अतः शास्त्रकार सत्य को धर्म के विशेषण के रूप में प्रत्युक्त करता है, धर्म तो सभी हैं परन्तु सत्य धर्म सब नहीं है, इसीलिये इनमें अन्तर्विरोध है, मोह है और कलह है। सत्य सब है, समग्र है। जिसके पास सब है, उसे भय कहाँ, उसमें कलह कहाँ? जहाँ कलह है, विरोध है, वहाँ अधर्म है। यह धर्म का भय है, जो हम बुद्धि से अधर्म को स्वीकार करते हैं और वाणी से धर्म के महत्त्व को बखानते हैं। ये दोहरे मूल्य, दोहरी आचार पद्धति हमारी अधूरी सत्य निष्ठा को इंगित करती है। जो अधूरा है, वह असन्तुष्ट है, कभी इधर भागता है, कभी उधर, कभी ऐसा करता है, कभी वैसा- यह चंचलता बिना सत्य ज्ञान के, बिना सत्य धर्म के समाप्त नहीं हो सकती। हम सत्य के मूल्य को आंक नहीं पाते तभी तो महर्षि दयानन्द द्वारा राज्य, वैभव, समृद्धि का त्यागना बहुत बड़ा समझते हैं, क्योंकि हम सत्य को उससे मूल्यवान नहीं समझ पाये। हमारी दृष्टि आज भी भौतिक सम्पत्ति को मूल्यवान सिद्ध करने में लगी है। जब हम वास्तविकता से परिचित हो जायेंगे, तब सब वस्तुएँ नगण्य ही जावेंगी। तब हमारे मन में धर्म के ह्रास की चिन्ता भी नहीं होगी, तब तो केवल कर्त्तव्य पूर्ण करने में सुख और शान्ति का अनुभव हो सकेगा। जब हम धर्म की, ईमानदारी की संसार में कमी का उल्लेख करते हैं, तो वास्तविक चिन्ता यह होती है कि कहीं हम सांसारिक मूल्यों में पिछड़ तो नहीं जायेंगे? संसार के इतने लोग झूठे तो नहीं हो सकते, जो सत्य को छोड़कर भाग रहे हैं, धर्म के नाम पर अधर्म कर रहे हैं, इसलिए हम चिन्तित हैं धर्म के लिये, सत्य के लिये, न्याय के लिये। परन्तु सत्य इतना दुर्बल और शक्तिहीन होता तो दुनिया के लोगों द्वारा कभी का नष्ट कर दिया गया होता, आज सत्य का समर्थन करने का साहस किसी में नहीं होता। परन्तु वस्तविकता इससे विपरीत है। सत्य के कारण केवल दण्ड-कमण्डलधारी सारी दुनिया से लोहा लेना चाहता है। सुकरात विष का प्याला पीना चाहता है फिर उस सत्य के लिये हम क्या अधर्म करेंगे, जब उक्त सत्य को हम जीवित रखने का दम्भ कर सकते हैं? सत्य का सहारा मिल जाये, धर्म का अवलम्बन प्राप्त हो जावे तो हम निर्द्वन्द्व और निर्भय अवश्य हो सकते हैं। फिर हम सत्य के जिज्ञासुओं को पाकर प्रसन्न हो जाते हैं, आँखों को मार्ग दिखाने का प्रयत्न कर सकते हैं, मूढ़ व्यक्ति जो अधर्म को धर्म समझता है, उसकी तो उपेक्षा करने वाले चिकित्सक बन सकते हैं, तभी तो आचार्य चरक ने कहा है-

मैत्रीकारुण्यमार्तेषु शक्ये प्रीतिरुपेक्षणम्।

प्रकृतिस्थेषु भूतेषु वैद्यवृत्तिश्चतुर्विधा।।

महर्षि दयानन्द और शुद्धिः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

माननीय श्री म.व. शास्त्री जी हैदराबाद ने अपनी पठनीय, मौलिक व खोजपूर्ण पुस्तक ‘असली महात्मा’ में एक स्थान पर यह लिखा है कि महर्षि दयानन्द जी ने देहरादून में जन्मे एक मुसलमान मुहम्मद उमर को वैदिक-धर्म की दीक्षा देकर शुद्ध किया। आपने धर्म के द्वार खोलने का श्रेय ऋषि को देते हुए यह भी लिखा है कि ऋषिवर ने शुद्धि का व्यापक (या और) कार्य नहीं किया। हमने उसी पुस्तक के प्राक्कथन में यह स्पष्ट कर दिया है कि ऋषि को समय ही कहाँ मिला? ऋषि क्या-क्या करते? अनेक कार्य करते हुए देश भर में भ्रमण करना पड़ता था।

महर्षि ने अमृतसर, लुधियाना आदि नगरों में धर्मच्युत हो चुके कई व्यक्तियों को धर्मनिष्ठ बनाया। अजमेर में शुकदेव की रक्षा की। आर्यसमाज स्थापना से पूर्व प्रयाग में माधवप्रसाद को ईसाई होते हुए बचाया। उसने पण्डितों को तीन मास का नोटिस दे रखा था कि मेरी शंकाओं का निवारण करिये, नहीं तो मैं ईसाई बन जाऊँगा। काशी, प्रयाग आदि के पण्डित उसको बचाने के लिये आगे न आये। आर्य धर्म-रक्षक ऋषि दयानन्द ही उसे सन्तुष्ट करके बचा सके।

अमृतसर के मास्टर ज्ञानसिंह जी ने ऋषि की प्रेरणा से ऋषि के जीवन काल में अनेक हिन्दू, सिख-जो विधर्मी बन चुके थे-शुद्ध कर दिखाये।

सनातनधर्मी विद्वान् नेता पं. गंगाप्रसाद जी शास्त्री ने कभी लिखा था कि पादरी नीलकण्ठ शास्त्री हरिद्वार, काशी, प्रयाग आदि तीर्थों पर (कुम्भ के मेला पर भी) सहस्रों को ईसाई बनाता रहा। काशी, प्रयाग के विद्वान् पण्डित उसका सामना न कर सके। ऋषि दयानन्द ने उसकी बोलती बन्द करके धर्म-रक्षा की। यह संस्कृतज्ञ पादरी महाराष्ट्र का ब्राह्मण था। ऋषि के शिष्यों ने इसे पंजाब से भी भगा दिया। ‘सम्पूर्ण जीवन चरित्र महर्षि दयानन्द’ ग्रन्थ में हमने ये सब तथ्य व नये-नये प्रमाण दिये हैं। आर्यसमाजी भाई इन्हें पढ़कर प्रचार करके उजागरकरेंगे, तो आत्मविश्वास जगेगा।