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जिज्ञासा समाधान : – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा- कुछ प्रश्रों के द्वारा मैं अपनी शंकाएँ भेज रही हँू। कृपया उनका निवारण कीजिए।

(क) ‘गायत्री मन्त्र’ और ‘शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।’ दोनों मन्त्र सन्ध्या में दो-दो बार आयें हैं इनका क्या महत्त्व है?

(ख) कुछ विद्वानों का कथन है कि प्रात:काल की सन्ध्या पूर्व दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए और सायंकाल की सन्ध्या पश्चिम दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए। इसमें क्या भेद है?

(ग) दैनिक यज्ञ करने वाला व्यक्ति यदि रुग्ण हो जाये या किसी कारणवश ५-७ दिन के लिए बाहर चला जाये, यज्ञ न कर पाये और घर में दूसरा व्यक्ति यज्ञ करने वाला न हो तो वह क्या दैनिक यज्ञ का अनुष्ठान अपूर्ण हो जाता है? यज्ञकत्र्ता क्या करे?

(घ) परमाणु (सत्व, रज, तम) जड़ हैं और ईश्वर को भी परम-अणु अथवा आत्मा को भी अणु-स्वरूप वैदिक आधार से माना जाता है, जबकि ये दोनों चेतन हैं। कृपया बताइये कि सत्य क्या है?

– सुमित्रा आर्या, सोनीपत।

समाधान- (क) पञ्चमहायज्ञों के अन्तर्गत ‘संध्या’ प्रथम ब्रह्मयज्ञ है। ब्रह्मयज्ञ प्रत्येक आर्य (आत्मकल्याण इच्छुक) को अवश्य करने का निर्देश ऋषियों ने किया है। जो इस महायज्ञ को नहीं करता, उसको हीन माना गया है। महर्षि मनु कहते हैं-

न तिष्ठति तु य: पूर्वां योपास्ते यस्तु पश्चिमाम्।

स साधुभिर्बहिष्कार्य: सर्वस्माद् द्विजकर्मण:।।

भाव यह है कि जो संध्योपासना आदि नहीं करता वह सज्जनों के द्वारा बहिष्कार करने योग्य है।

महर्षि दयानन्द ने संध्योपासना का एक विशेष क्रम रखा है। उस क्रम को ठीक से समझने पर संध्या की विधि ठीक समझ में आ जाती है। आपने कहा-संध्या के मन्त्रों में ‘गायत्री मन्त्र’ व ‘शन्नो देवी’ मन्त्र दो-दो बार आये सो आधी बात ठीक है। संध्या मन्त्रों में ‘शन्नो देवी’ मन्त्र को दो बार महर्षि ने निर्दिष्ट किया है, किन्तु ‘गायत्री मन्त्र’ का विनियोग तो एक ही बार किया है।

सन्ध्या के प्रारम्भ में ‘शन्नो देवी’ मन्त्र का प्रयोजन मनुष्य-जीवन का उद्देश्य बताने का है। हम मनुष्य संसार में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए परमसुख मोक्ष को प्राप्त करें। यह भाव इस मन्त्र का है। मोक्ष हमारा लक्ष्य है, यह लक्ष्य संध्या के प्रारम्भ में स्मरण कराने के लिए ‘शन्नो देवी’ है, संध्या के मध्य में हमें हमारा लक्ष्य याद रहे कि दोबारा इस मन्त्र के द्वारा आचमन का विधान किया और संध्या के अन्त में ‘हे ईश्वर दयानिधे…………’ इस बात से लक्ष्य का स्मरण करते हुए परमेश्वर को नमस्कार करते हुए संध्या का विराम। मुख्य रूप से तो ‘शन्नो देवी’ मन्त्र का विनियोग महर्षि ने आचमन के लिए किया है। वह संध्या में दो बार करने के लिए कहा है।

(ख) संध्या करते समय दिशाओं का विधान है-पूर्व की ओर मुख करके संध्या करें। पूर्व दिशा के विषय में महर्षि ने दो बातें कहीं हैं-

यत्र स्वस्य मुखं सा प्राची दिक् तथा यस्यां सूर्य उदेति सापि प्राची दिगस्ति।

यहाँ महर्षि की दृष्टि में संध्या करते हुए जिस ओर हमारा मुख हो, वही प्राची= पूर्व दिशा है। दूसरा, जिस ओर से सूर्य निकलता है, वह प्राची=पूर्व दिशा है। यह विधान तो ऋषियों का है कि संध्या पूर्व दिशा की ओर मुख करके करें, किन्तु हमें पश्चिम दिशा का विधान पढऩे को अभी तक नहीं मिला। हाँ, कर्मकाण्ड पूर्व, उदक् अर्थात् पूर्व दिशा और उत्तर दिशा की ओर मुख करके करने का विधान अवश्य शास्त्र में मिलता है।

दिशाओं की महत्ता के विषय में मीमांसा दर्शन के अध्याय तीन के चौथे पाद के दूसरे अधिकरण में भाष्यकार शबर स्वामी ने लिखा है-

प्राचीं देवा अभजन्त दक्षिणां पितर:, प्रतीचीं मनुष्या:, उदीचीमसुरा: इति। अपरेषाम्-उदीचीं रुद्रा: इति।

पूर्व दिशा प्रकाश देने वाली है, ज्ञान की द्योतक है, इसलिए देव लोग पूर्व दिशा को चाहते हैं। ज्ञान की द्योतक होने से संध्या में पूर्व की ओर मुख क रके बैठते हैं।

(ग) यज्ञकर्म मनुष्य के लिए कत्र्तव्य कर्म हंै। पाँच महायज्ञों में यह देवयज्ञ कहलाता है। महर्षि तो यह यज्ञ प्रत्येक मनुष्य करे-इसका विधान करते हैं। सत्यार्थप्रकाश समुल्लास तीन में लिखते हैं-‘‘प्र.-प्रत्येक मनुष्य कितनी आहुति करे और एक-एक आहुति का कितना परिमाण है? उत्तर- प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुतियाँ और छ:-छ: माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिए और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है।’’

आजकल हमने बहुत से लोगों को व आर्यसमाजों में हवन होते देखा है। कहने को तो ये दैनिक अग्रिहोत्र करने वाले हैं, किन्तु क्या वे ऋषि के अनुकूल यज्ञ करते हैं? कितनी ही धनी आर्यसमाजों में हवन होते हुए देखा कि समिधाएँ ज्यादा जलाते हैं, घी की दो तीन बूँदों से एक-एक आहुति में देते हैं। उनसे छ: माशे घी की आहुति देने क ी कहते हैं तो उनकी ओर से बात आती है कि इतना खर्चा कहाँ से आयेगा। आश्चर्य तो तब होता है कि जब ये लंगर करते हैं, तब सब्जी-पूड़ी, कढ़ी-चावल, मिठाई, रायता आदि सब बनता है। इसमें खर्चा नहीं दिखता, किन्तु हवन में यदि कोई थोड़ा-सा घी अधिक जला दे तो खर्चा दिखने लगता है।

हवन में व्यक्ति की कितनी श्रद्धा है, यह उसके घी-सामग्री, हवन-पात्र, हवन करने का स्थान, मन्त्रोच्चारण क्रिया आदि से ज्ञात हो जाता है। हवन करना सिखाने वाले भी धनी व्यक्तियों को कह देते हैं कि २०-२५ रु. में हवन हो जाता है, यह सुनकर आश्चर्य ही होता है। जहाँ समिधाएँ अधिक जलें और उनमें भूसे जैसी सूखी सामग्री और दो-तीन बूँद घी डाला जाये, वहाँ लाभ अधिक है या हानि अधिक है-विचार करें। धनी व्यक्ति एक दिन यदि ५००० रु. गाडिय़ों का तेल जलाने में खर्च कर देते हैं, नित्य प्रति हजारों रु. का व्यर्थ का खर्चा कर देते हैं, वहाँ २०-२५ रु. का हवन करके कितना लाभ प्राप्त कर लेंगे-विचारणीय ही है।

आपने जो पूछा कि किसी कारण वश दैनिक अग्रिहोत्र करने वाला कभी किसी दिन या कई दिन हवन न कर पाये तो क्या करना चाहिए। इसमें यदि हो सके तो ऐसी परिस्थिति में हम किसी और से उन दिनों अपना हवन करवा सकते हैं। यदि ऐसा नहीं बन पड़े तो जितने दिन का हवन छूट गया है, उतने दिन की घी सामग्री का हवन अन्य दिनों में अतिरिक्त कर लें, इसी से हमारा पूरा कत्र्तव्य पालन होगा।

महर्षि ने भी संस्कार विधि में एक टिप्पणी देते हुए लिखा है-‘‘किसी विशेष कारण से स्त्री वा पुरुष अग्रिहोत्र के समय दोनों साथ उपस्थित न हो सकें तो एक ही स्त्री वा पुरुष दोनों की ओर का कृत्य कर लेवे, अर्थात् एक-एक मन्त्र को दो-दो बार पढ़ के दो-दो आहुतियाँ करंे।’’

(घ) संसार में जड़ चेतन-दो की सत्ता है। जड़ में संसार की समस्त वस्तुएँ और चेतन में आत्मा और परमात्मा। आत्मा परमात्मा परम सूक्ष्म है। आत्मा सूक्ष्म है और परमात्मा उससे भी सूक्ष्मतर है।

भौतिक वस्तुओं में परमाणु सबसे छोटी ईकाई मानी जाती है। वह सबसे सूक्ष्म माना जाता है। आपने परमाणु की सूक्ष्मता को लेकर आत्मा-परमात्मा के अणु स्वरूप की जो बात कही, उसका समाधान यह है कि जो अणु है, उसकी जड़ता को लेकर आत्मा-परमात्मा को नहीं कहा जा रहा, अपितु उसकी सूक्ष्मता को लेकर कहा जा रहा है। यहाँ यह नहीं कह रहे हैं कि जैसे अणु जड़ है, वैसे आत्मा-परमात्मा भी जड़ हैं, अपितु यहाँ तो आत्मा-परमात्मा की सूक्ष्मता को बताने के लिए अणु का दृष्टान्त दे रहे हैं कि जैसे अणु सूक्ष्म है, वैसे ये भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं। अस्तु

 

मेरे अंतेवासी बन्धु : डॉ. धर्मवीर: -स्वामी वेदात्मवेश

मैं और डॉ. धर्मवीर जी एक ही कुल के अन्तेवासी थे। वह महर्षि दयानन्द सरस्वती के कर्मठ, तपस्वी, प्रिय शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द की तप:स्थली गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार थी। वहाँ से डॉ. धर्मवीर जी ने एम.ए. और आयुर्वेदाचार्य किया और मैंने वेदालंकार। श्रद्धेय तप:पूत, सरल, प्राञ्जल, गुरुवर्य पं. रामप्रसाद जी वेदालंकार, आर्यनगर, ज्वालापुर हरिद्वार में उनके आवास पर मैं वेदपठन के लिये गया था। तब डॉ. धर्मवीर जी अपनी धर्मपत्नी ज्योत्स्ना जी के साथ स्नातक से पदौन्नत हो ‘नव-गृही’ (गृहस्थी) बन आचार्य जी को प्रथम बार मिलने आये थे। उस समय आर्यसमाज और गुरुकुल का स्वर्णिमकाल था। अतित के गुरु शिष्य के गौरवशाली संबन्ध का कितना सुन्दर निरुपण है यह रूपक। अन्तेवासी आचार्य चरणों में समित्पाणि होकर आया था। ‘‘सा विद्या या विमुक्तये’’ पवित्र ऋषियों की तपस्थली की तरह वेद की ऋचाओं के अनुरूप स्वामी श्रद्धानन्द जी ने गुरुकुल काँगड़ी की स्थापना की थी और वेद का यह संदेश सामने रख कर गुरुकुल भूमि का चयन किया था।

उपह्वरे च गिरीणां संगमे च नदीनाम्।

धिया विप्रो अजायत।।  यजु.।।

गुरुकुल के दीक्षान्त समारोह में यह कुलगीत सब दीक्षित स्नातकों की हृत्तन्त्रि को झंकृत करने वाला ओजस्वी संदेश देता था। प्राणों से हमको प्यारा है कुल हो सदा हमारा। विष देनेवालों के  भी बन्धन कटाने वाला। मुनियों का जन्मदाता कुल हो सदा हमारा। कट जाय सिर न झुकना यह मन्त्र जपने वाले वीरों का जन्मदाता कुल हो सदा हमारा। तन मन सभी निछावर कर वेद का संदेशा जग में पहुँचाने वाला। कुल हो सदा हमारा। स्वाधीन दीक्षितों पर सब कुछ लुटाने वाले धनियों का जन्मदाता, कुल हो सदा हमारा। हिमशैल तुल्य ऊँचा भागीरथी-सा पावन, बटुक का मार्ग दर्शक कुल हो सदा हमारा। अदित्य ब्रह्मचारी ज्योति जगा गया है अनुरूप पुत्र उसका कुल हो सदा हमारा।

ऐसे ओजस्वी आर्यसमाज के प्रहरी, कर्मठ, कुलपुत्र के रूप में डॉ. धर्मवीर जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन देश जाति, संस्कृति, समाज के लिये समर्पित किया था। प्रखर राष्ट्रवादी पंजाब केसरी ला. लाजपतराय आर्य समाज को अपनी ‘माँ’ मानते थे। उस आर्यसमाज रूपी ‘माँ’ को जिस पुत्र पर गर्व अनुभव हो ऐसे गौरवशाली सुपुत्र थे, डॉ. धर्मवीर। बचपन में कभी सुनते थे ‘‘महानाश की ज्वालायें भारत पर दौड़ी आ रही हैं, आर्यों तुमको कुछ करना है मानवता चिल्ला रही इस धरती पर कौन बढेगा हमें बता दो आर्यसमाज!! कौन बढेगा? आर्यसमाज!! कौन बढेगा? आर्यसमाज!!’’ व्यक्तिश: मैं डॉ. धर्मवीर जी के रूप में ‘परोपकारी’ पत्रिका के माध्यम से आर्यसमाज के बढते चिह्नों से निश्चिन्त था कि आर्यसमाज का एक प्रहरी अभी जिन्दा है। व्यक्तिश: मेरा डॉ. धर्मवीर जी और ज्योत्स्ना जी दोनों परिवार से जुड़ाव रहा। परोपकारी के सम्पादक श्री धर्मवीर जी के रूप में। यह आश्वासन उनकी उपस्थिति मात्र से मिलता था। बस आज वह भी स्वप्र भी भंग हो गया। डॉ. धर्मवीर जी से श्वसुर भारतेन्द्रनाथ जी से हमारा जुड़ाव था, पृष्ठभूमि थी आर्यसमाज, जो बाद में वेदभिक्षु बने। वे दयानन्द के दीवाने थे। तब पं. राकेशरानी का ‘जनज्ञान’ के माध्यम से हमें पत्र मिला- कौन करेगा स्वीकार, मेरे राखी के ये तार। तो हमने भी हम करेंगे स्वीकार, आपके राखी के ये तार। के उत्तर के रूप में ‘जनज्ञान’ में एक लेख भी दिया था। तब मैं श्रीमद् दयानन्द ब्राह्म महाविद्यालय (उपदेशक महाविद्यालय) हिसार, हरियाणा में पढ़ता था। बाद में गुरुकुल काँगड़ी आया। ज्योत्स्ना जी के साथ जब डॉ. धर्मवीर जी के वाग्दान का निश्चय हुआ था तब मैं दोनों ओर से था। दिल्ली में डॉ. योगानन्द शास्त्री के यहाँ वह आयोजन था। तब यज्ञ में आर्यजगत् के  प्रथित यश आर्य संन्यासी डॉ. सत्यप्रकाश जी भी उपस्थित थे। डॉ. धर्मवीर जी के  अनुज भाई प्रकाश जी तब गुरुकुल काँगड़ी में हमारे साथ पढ़ते थे। महाराष्ट्र के गुंजोटी से जुड़े होने से प्राध्यापक जिज्ञासु जी के माध्यम से मेरी और श्री भारतेन्द्रनाथ जी (वेदभिक्षु) से उनके करौल बाग स्थित ‘जनज्ञान’ कार्यालय में मेरा प्रथम परिचय हुआ था। चूंकि शोलापुर दयानन्द कॉलेज में प्राध्यापक जिज्ञासु जी मेरे बड़े भाई श्री शिवराज आर्य ‘‘बेधडक़’’ एवम् मुझसे वे पूर्व परिचित थे। जन्म स्थली गुंजोटी से उनका विशेष लगाव रहा है। जिसे वे प्यार से आज भी अपने पंजाबी लहजे में गंजोटी (महाराष्ट्र) ही कहते हैं। जिसे आर्यजगत् के  विद्वान् आचार्य विश्वबन्धु जी जो गुँज उठी वह गुंजोटी अपने व्याख्यानों में उसका निर्वचन करते थे। आज आर्यसमाज में सक्रिय स्व. पं. दिगम्बरराव गुरुजी, श्री रमेश गुरुजी, श्री काशीनाथ गुरुजी, पं. प्रियदत्त शास्त्री जी, पं. रायाजी शास्त्री जी, श्री प्रताप सिंह चौहान इसी गुंजोटी की देन हैं। जो भूमि हैदराबाद के सत्याग्रह के समय हुये प्रथम बलिदानी हुतात्मा वेदप्रकाश के बलिदान से पावन हुई है जिसकी मिट्टी की महकती खुशबू ने आचार्य डॉ. धर्मवीर जी को अभी हाल ही में वहाँ बुलाया था और वाग्मी धर्मवीर जी ने वहाँ की जनता को अमृतमय् वेदोपदेश से खुब संतृप्त भी किया था।

गुरुकुल काँगड़ी ने आर्य जगत् में पत्रकारिता के बड़े-बड़े मानदंड स्थापित किये हैं। १९७५ के बाद दैनिक हिन्दुस्तान से अलग होकर पं. क्षितिज वेदालंकार ने ‘आर्यजगत्’ को जिस ऊँचाई पर पहुँचा दिया था अथवा उससे पूर्व ‘आर्योदय’ एवं ‘जनज्ञान’ के माध्यम से भारतेन्द्रनाथ जी ने जो यश आर्यजगत् में अर्जित किया था। बाद में वही यश डॉ. धर्मवीर जी ने ‘परोपकारी’ पत्रिका के माध्यम से अर्जित किया और एक मानदंड स्थापित किया। वर्तमान में आर्यजगत् में सम्पादन कौशल में डॉ. धर्मवीर जी कवि कुलगुरु कालिदास की तरह ‘कनिष्ठिकाधिष्ठित धर्मवीर:’ ऐसा कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी। डॉ. धर्मवीर जी के लेखन में निर्भिकता, प्रज्ञा की विलक्षण अद्भुतता, प्रवाह, अन्वेक्षा, लाघव, सरलता, दृढ़ता, समन्वय एवं प्रासंगिकता का सुन्दर, सन्तुलित समायोजन मिलता है। डॉ. धर्मवीर जी वर्तमान के  ‘आर्यसमाज की आशा की किरण’ थे। बस आज दु:ख के साथ यह बताने में हमें यद्किंचित भी संकोच नहीं है कि सम्पूर्ण आर्यसमाज का नेतृत्व आर्यसमाज की गाड़ी को पटरी से उतारने में मशगूल है। जिस वाटिका का माली दयानन्द था उसको उजाडऩे में लोग लगे हैं। असली, नकली, फसली आर्यसमाजियों के बीच नकली, फसली लोगों का बोलबाला अधिक है, जबकि असली ‘विजनवास’ को भोगने के लिये अभिशप्त हैं। यह आर्य समाज ही नहीं देश और विश्व के लिये बड़ी पीड़ा एवं यन्त्रणा का विषय है। इस तरह की जटिल राजनीति की दुर्भिसन्धि के मध्य डॉ. धर्मवीर जी की अन्त:पीड़ा उनके सम्पादकीय के माध्यम से पुन:-पुन: उजागर होती थी। जो सच्चे आर्यसमाजियों क ो उत्साह और निरन्तर प्रेरणा देती रहती थी। डॉ. धर्मवीर जी के शंकराचार्य, विवेकानन्द का हिन्दुत्व और हाल ही में स्वतन्त्रता दिवस पर मोदी जी द्वारा दयानन्द का उल्लेख न होना -भय या अज्ञान, अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी और अन्यान्य भारतीय भाषाओं को बढावा देने वाली एक उनकी समसामयिक सम्यक सुलझी हुई सोच, उनके द्वारा लिखित सम्पादकीय में दूरदृष्टि को ही रेखांकित करती है। मैं अभी हाल ही में माता राकेश रानी जी को मिलने दिल्ली गया था। तब ज्योत्स्ना जी से उनकी बहन सुमेधा जी के साथ परिवार की चर्चा चल रही थी। सुमेधा जी के अन्यत्र जाने पर ज्योत्स्ना जी और हमारे मध्य चर्चा का एक ही विषय था। वे थे डॉ. धर्मवीर जी। मैं काफी अन्तराल के बाद ज्योत्स्ना जी को मिला था। डॉ. धर्मवीर जी का विषय आते ही अपने पिता की तरह सरल, स्पष्टवादी ज्योत्स्ना जी भावुक हो गई थी। डॉ. धर्मवीर जी नहीं बनते यदि ज्योत्स्ना जी का उन्हें पूरा-पूरा सहयोग साथ नहीं मिलता। ज्योत्स्ना जी कहती हंै वे गृहस्थी संन्यासी थे। ऐसा ही रूप उनके पिता का भी था। पं. भारतेन्द्रनाथ जी और डॉ. धर्मवीर जी से आर्यजगत् को बड़ी आशायें थीं। माता राकेशरानी जी ने पं. भारतेन्द्रनाथ जी के न होने पर जो भोगा, वो डॉ. धर्मवीर जी के न होने पर ज्योत्स्ना जी को सहना पड़ रहा है, किन्तु उनके होठों पर उफ तक नहीं है। आर्यसमाज को ऐसी गौरवशाली बेटियों पर, विरांगनाओं पर सती साध्वी माता बहनों और देश धर्म पर आत्मोत्सर्ग करने वाली देवियों एवं सन्नारियों पर गर्व है। इनका आत्मोत्सर्ग ही इस देश को आर्यसमाज को संजीवनी देगा। जीवन एवं चैतन्य देगा इसमें संदेह नहीं। मैंने तब ज्योत्स्ना जी को कहा था। ज्योत्स्ना जी व डॉ. धर्मवीर जी नोबल पुरस्कार प्राप्त ‘श्री कैलाश सत्यार्थी’ से भी किसी भी रूप में कम हस्ती नहीं हैं। भारतेन्द्रनाथ जी और माता राकेशरानी जी को उनके इन दो मानसपुुत्रों पर निश्चित रूप से गर्व होगा। ये दोनों मानसपुत्र उनकी दो आँखें रही हैं। डॉ. धर्मवीर जी ज्ञान के समुद्र थे। आर्यसमाज को ऐसे कर्मठ ओजस्वी युवाओं की आवश्यकता है।

आर्यसमाज का अतीत उज्जवल रहा है। आर्यसमाज ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के बाद पं. गुरुदत्त, श्यामजी कृष्ण वर्मा, स्वामी श्रद्धानन्द, ला. लाजपतराय, पं. लेखराम, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द, स्वामी वेदानन्द, स्वामी आत्मानन्द, नारायण स्वामी, आचार्य अभयदेव, स्वामी ब्रह्ममुनि, स्वामी ओमानन्द सरस्वती जैसे लोगों के मध्य आर्यसमाज का ही नहीं देश का भी उज्जवल काल देखा। एंड्रू डेविड जेक्सन को एक आग दिखाई देती थी जो आदित्य ब्रह्मचारी दयानन्द के अन्तस् में उद्बुद्ध हुई थी। उस अग्रि को स्वामी श्रद्धानन्द के परम शिष्य डॉ. धर्मवीर जी ने निरन्तर जलाये रखा।

श्रद्धया अग्रि: समिध्यते श्रद्धयाहूयते हवि:।

श्रद्धां भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि।।

संसार की कोई भी अग्रि श्रद्धा के बिना प्रदिप्त नहीं होती और कोई भी बलिदान श्रद्धा के बिना किया नहीं जा सकता। डॉ. धर्मवीर जी को यह मन्त्र प्रिय था। वे मरे नहीं राष्ट्र, समाज, संस्कृति और मानवता के लिये अपनी आत्मा की ही नहीं सर्वस्व की आहुति दी है। यह आत्म-बलिदान आर्यजगत् को निरन्तर प्रेरणा देता रहेगा और इस अग्रि स्फुलिंग से हजारों ‘धर्मवीर’ और पैदा होंगे। इसमें संदेह नहीं। धर्म पर ‘धर्मवीर बलिदान’ हुये हैं इसमें अत्युक्ति नहीं। धर्मवीर जी का न होना आर्यजगत् को निश्चय ही खलेगा, किन्तु उनकी यश: काया को कोई नहीं मार सकता। अपने कार्य एवं परोपकारी पत्रिका के सम्पादकीय के माध्यम से डॉ. धर्मवीर हमेशा अमर रहेंगे।

उत्पद्यन्ते म्रियन्ते च बहव: क्षुद्र जन्तव:।

अनेन सदृश्यो लोके न भूतो न भविष्यति।

ऐसे लोकोत्तर युग-मानव को विश्व लम्बे समय तक भुलाये नहीं भूल सकता। संसार में कोई भी प्राणी मृत्यु के चंगुल से बच नहीं सकता। महाकाल ने प्रत्येक जीव को अपने पाँव तले दबोच रखा है जिस दिन उसकी इच्छा होती है उस दिन उस पाँव को दबाकर प्राणी को मृत्यु कुचल डालती है। समाप्त कर देती है, विशेषत: शरीर धारी मानव में आत्म-शक्ति का प्रकाश करने के लिये ही आत्मा शरीर को धारण करती है। अत: शरीर पाकर इस जगत् में संसार में आई सब महान् आत्मायें इस संसार में कुछ न कुछ जगत् हितकारी वस्तु का सृजन करके जगत् में उच्च से उच्च ऐश्वर्य को बढ़ा्रकर चली जाती है। अत: डॉ. धर्मवीर जी जैसे वेदवीणा के मधुरगान करने वाले हमें यही संदेश देंगे-‘‘हे अमर पुत्रों उठो! जागो! मरणधर्मा जीवन के सुखसुविधाओं के पिछलग्गु बनना छोड़ो। बेकार में मुरझायी, गिरी हुई तबीयत वाला जीवन क्यों ढोते हो? शुद्ध, पूत समर्पित और आत्म बलिदानी उन्नत जीवन जीकर मृत्यु के पैर को परे हटाकर, अपने अमरत्व की घोषणा कर दो।’’

‘कीर्तिर्यस्य स जीवति।’ का संदेश देते हुये डॉ. धर्मवीर जी हमें मानो कह रहे हैं ‘मरना एक कला एक चाँस है।’ निरन्तर यात्रा करने वाले ‘यायावर’ धर्मवीर जी अब एक लम्बी यात्रा के लिये निकल गये हैं। हमें उपनिषदों का यह संदेश देते हुये चरैवेति! चरैवेति! धर्म के लिये, सत्य के लिये, न्याय के लिये, परोपकार के लिये, करुणा के लिये, मानव मात्र के कल्याण के लिये निरन्तर अनथक चलते रहे। ऋषिवर देव दयानन्द के इस सन्देश को कदापि न भूलें कि ‘‘संसार का उपकार करना आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य है।’’ इस लक्ष्य को पूरा करके ही हम डॉ. धर्मवीर जी को सच्ची श्रद्धाञ्जलि दे सकते हैं। आज राष्ट्र्र, समाज, राजनीति, धर्म, संस्कृति संक्रमण के दौर से गुजर रहे है। चरित्र की अपेक्षा धन का नशा समुचे विश्व को अक्रान्त कर रहा है। ऐसे समय में मनु महाराज का यह सन्देश भारत ही नहीं समूचे विश्व को प्रेरणा देगा।

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मना।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा।

काल इन्द्र समय-समय पर भारी-भारी आहुतियाँ माँगता है और इसी से यह संसार निरन्तर उन्नत हो रहा है। वह महाकाल समय-समय पर बड़े-बड़े बलिदान चाहता है, आत्मबलिदान की हवि चाहता है। ‘उत्तिष्ठत अव पश्यत’।। ‘ऋग्वेद १०.१७९.१’ इस ऋग्वेद की ऋचा के अनुसार उठो! खड़े हो और सावधानी से देखो ‘ऋत्वियं भागं जुहोतन’ समय-समय पर दिये जाने वाली ‘आत्म बलिदान’ रूपी हवी को दो। स्वामी दयानन्द जैसे सर्वात्मना बलिदानी ने जिसकी नींव डाली। स्वामी श्रद्धानन्द, लेखराम जिस भवन पर खड़े हुये, उस पर डॉ. धर्मवीर जैसे गर्वोन्नत कलश शिखर विश्वसागर में ‘दिपस्तम्भ’ बनकर सर्वदा मार्गदर्शन करते रहेंगे, इसमें सन्देह नहीं।

स्वामी श्रद्धानन्द जी का ९०वाँ बलिदान दिवस: – चान्दराम आर्य

स्वामी दयानन्द ने ही स्वराज्य की चिंगारी सुलगाई थी। उसी चिंगारी से श्रद्धानन्द ने क्रान्ति का दावानल फैलाया था। कोई माने या न माने, सत्य तो यही है। आर्यवीरों की कुर्बानी से ही आजादी आई थी।

बालक मुन्शीराम का जन्म पंजाब प्रान्त के तलवन (जालन्धर) ग्राम के लाला नानकचन्द के घर सन् १८५६ को हुआ था। पुरोहितों ने बच्चे का नाम ‘बृहस्पति’ रखा, परन्तु पिता ने उनका नाम मुंशीराम रखा। बदा में महात्मा गाँधी ने उनके नाम के आगे ‘महात्मा’ शब्द और जोड़ दिया। पिता नानकचन्द उन दिनों शहर कोतवाल थे। बरेली में स्थायी नियुक्ति हो जाने पर पिता ने परिवार को तलवन से बरेली में ही बुला दिया।

बरेली में मुंशीराम को महर्षि दयानन्द  के दर्शन हुए। उनके भाषणों से व दर्शन से मुंशीराम बहुत प्रभावित हुए। कानूनी शिक्षा प्राप्त करने के लिए आप लाहौर पधारे। वहाँ पढ़ाई के साथ-साथ सभा-संस्थाओं में आना-जाना आरम्भ हुआ। लाहौर में ही उन्हें आर्यसमाज में जाने का चस्का लगा। वहाँ पर उन्होंने आर्यसमाज के सभी ग्रन्थ पढ़ डाले थे। महर्षि दयानन्द के निर्वाणोपरान्त आर्यसमाज लाहौर के पदाधिकारियों ने १ जून १८८६ को डी.ए.वी. कॉलेज की स्थापना की। महात्मा हंसराज उस कॉलेज के अवैतनिक प्राचार्य नियुक्त किए गए। उससे वैदिक सिद्धान्तों का शिक्षण संस्कृत भाषा के द्वारा सम्भव न हो सका। आपने मन-ही-मन वैदिक सिद्धान्तों की शिक्षा मातृभाषा में देने के लिए गुरुकुल की स्थापना करने का संकल्प किया और उचित अवसर की तलाश करने लगे। दुर्भाग्य से ३१ अगस्त १८९१ को उल्टी-दस्त से पत्नी शिवदेवी जी का देहान्त हो गया।

दूसरे दिन जब मुुंशीराम जी शिवदेवी जी का सामान सँभालने लगे तो उनकी बड़ी बेटी वेदकुमारी जी ने माता जी के हाथ का लिखा हुआ कागज लाकर दिया, उसमें लिखा था- ‘‘बाबू जी, अब मैं चली। मेरे अपराध क्षमा करना। आपको तो मुझसे भी अधिक रूपवती व बुद्धिमती सेविका मिल जाएगी, किन्तु इन बच्चों को मत भूलना। मेरा अन्तिम प्रणाम स्वीकार करें।’’ पत्नी के इन शब्दों ने मुन्शीराम जी के हृदय में एक अद्भुत शक्ति का संचार कर दिया। निर्बलता सब दूर हो गई। बच्चों के लिए माता का स्थान भी स्वयं पूरा करने का संकल्प लिया। ऋषि दयानन्द के उपदेश और वैदिक आदेश को पूरा करने के लिए सन् १९०२ को गुरुकुल काँगड़ी (हरिद्वार) की स्थापना की। इसके साथ-साथ देश के उद्धार और जाति के उत्थान का कोई क्षेत्र अछूता न रहा। राजनीति, समाज सुधार, हिन्दी भाषा, अनाथ रक्षा, अकाल, बाढ़, दीन रक्षा, अछूतोद्धार, शुद्धि आन्दोलन आदि सभी कार्यों में स्वामी जी आगे दिखाई देते थे।

श्री रैम्जे मैकडॉनल्ड महोदय ने एक स्थान पर उनके सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है-

‘‘एक महान्, भव्य और शानदार मूत्र्ति-जिसको देखते ही उसके प्रति आदर का भाव उत्पन्न होता है, हमारे आगे हमसे मिलने के लिए बढ़ती है। आधुनिक चित्रकार ईसा मसीह का चित्र बनाने के लिए उसको अपने सामने रख सकता है और मध्यकालीन चित्रकार उसे देखकर सेन्ट पीटर का चित्र बना सकता है। यद्यपि उस मछियारे की अपेक्षा यह मूत्र्ति कहीं अधिक भव्य और प्रभावोत्पादक है।’’

कांग्रेस के स्वागताध्यक्ष पद से अमृतसर पंजाब में राष्ट्रभाषा हिन्दी में जो भाषण मुंशीराम ने दिया था, उनकी ये पंक्तियाँ अब भी रह-रहकर हमारे कानों में गूँज रही हैं, ‘मैं आप सब बहनों व भाइयों से एक याचना करूँगा। इस पवित्र जातीय मन्दिर में बैठे हुए अपने हृदयों को मातृभूमि के प्रेम जल से शुद्ध करके प्रतिज्ञा करो कि आज से साढ़े छ: करोड़ हमारे लिए अछूत नहीं रहे, बल्कि हमारे भाई-बहन हैं। हे देवियो और सज्जन पुरुषो! मुझे आशीर्वाद दो कि परमेश्वर की कृपा से मेरा स्वप्न पूरा हो।’ स्वामी श्रद्धानन्द जी के कार्य का परिचय कराने वाले दीनबन्धु श्री सी.एफ. एण्ड्रूज थे, जिन्होंने गाँधी जी से परिचय करवाया। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के नेटाल सत्याग्रह में व्यस्त गाँधी जी के दिव्य गुणों का वर्णन किया था। उस समय स्वामी जी केवल मुंशीराम जी थे, गाँधी जी भी केवल मिस्टर गाँधी थे। बाद में दोनों का पुण्य स्मरण ‘महात्मा’ नाम से होने लगा। गाँधी जी ने २१ अक्टूबर १९१४ को जो पत्र लिखा था, उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं-

प्रिय महात्मा जी,

मि. एण्ड्रूज ने आपके नाम और काम का इतना परिचय दिया है कि मैं अनुभव कर रहा हूँ कि मैं किसी अजनबी को पत्र नहीं लिख रहा हूँ, इसलिए आप मुझे आपको महात्मा जी लिखने के लिए क्षमा करेंगे। मैं और एण्ड्रूज साहब आपकी चर्चा करते हुए आपके लिए इसी शब्द का प्रयोग करते हैं। उन्होंने मुझे आपकी संस्था गुरुकुल को देखने के लिए अधीर बना दिया है।

आपका मोहनदास कर्मचन्द गाँधी

इसके छ: महीने बाद गाँधी जी भारत में आये तो आप गुरुकुल पधारे। वहाँ गुरुकुल की ओर से उन्हें जो मानपत्र ८ अप्रैल १९१५ को दिया गया, उसमें गाँधी जी को भी ‘महात्मा’ नाम से सम्बोधित किया। आपने १५ वर्ष तक गुरुकुल की सेवा की और १९१७ में संन्यास लेकर स्वामी श्रद्धानन्द कहलाये। २३ दिसम्बर १९२६ को दिल्ली में उनके निवास स्थान पर एक मतान्ध अब्दुल रशीद ने स्वामी जी पर गोलियाँ चलाकर शहीद कर दिया। उनके बलिदान पर पंजाब केसरी लाला लाजपतराय ने निम्न उद्गार प्रकट किए- ‘स्वामी जी की हड्डियों से यमुना के तट पर एक विशाल वृक्ष उत्पन्न होगा, जिसकी जड़े पताल में पहुँचेंगी। शहीदों के खून से नये शहीद पैदा होते हैं।’

जो जीवनभर संघर्षों से खेला, मृदु मुस्कान लिए,

बाधाओं का वक्ष चीरता बढ़ा वेद का ज्ञान लिए।

तोपों-बन्दूकों के आगे, डटा रहा जो सीना तान,

धन्य-धन्य वह वीर तपस्वी, स्वामी श्रद्धानन्द महान्।

पर्यावरण की समस्या – उसका वैदिक समाधान: डॉ धर्मवीर

जब मनुष्य को जैसी आवश्यकता होती है, जैसी इच्छा करता है। यदि उसकी वह इच्छा पूरी हो जाती है तो सुख अनुभव करता है, इच्छा के पूरा होने में बाधाएँ आती हैं तो दु:ख अनुभव करता है, इसलिए आवश्यकता, इच्छा और समाधान के क्रम में सन्तुलन बना रहना चाहिए। सन्तुलन बनाये रखना प्राकृतिक नियम है। प्रकृति अपने स्वाभाविक क्रम में सन्तुलन की प्रक्रिया को निरन्तर जारी रखती है। वर्षा का जल भूमि पर गिरकर तथा अन्य तत्त्वों के साथ मिलकर अशुद्ध होता है। मनुष्यों, पशुओं, प्राणियों के द्वारा उपयोग में लिया जाकर उत्सर्जित पदार्थों के संयोग से मलिनता को प्राप्त होता है और बहकर नाली, नाले, नदी बनकर समुद्र में मिल जाता है या तालाबों में एकत्रित हो जाता है। प्रकृति इस अशुद्ध जल को वाष्पित करके पुन: शुद्ध कर देती है। मनुष्य शुद्ध तत्त्व जलवायु, पृथ्वी, अग्नि, आकाश के माध्यम से प्राप्त करता है, परिणामस्वरूप मनुष्यों से प्राप्त अशुद्धता को प्रकृति अपने नियम से शुद्ध कर देती है। इस प्रकार मनुष्य जो प्रकृति से प्राप्त करता है, वह उसका शुद्ध रूप होता है तथा जो प्रकृति को देता है, उसमें विकृति होती है। विकृति की मात्रा जब प्राकृतिक नियम से दूर होना कठिन हो, तब समस्या का जन्म होता है। प्रकृति में विषमता की मात्रा अधिक होने पर वर्षा का जल भी दूषित होने लगता है। इसी प्रकार वायु, भूमि और ध्वनि से प्रदूषण बढक़र प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ देता है, परिणामस्वरूप मनुष्यों व अन्य प्राणियों के लिए प्रकृति से उन्हें आवश्यक तत्त्व प्राप्त नहीं हो पाते, इस अभाव की स्थिति को हम पर्यावरण प्रदूषण कहते हैं।

प्रश्न उठता है कि प्रकृति में असन्तुलन क्यों उत्पन्न हुआ? दो कारण हो सकते हैं- प्रथम प्रकृति की क्षमता का घट जाना, दूसरा मनुष्यों द्वारा प्रकृति की क्षमता से अधिक का उपयोग करना। इसमें प्रथम कारण सम्भव नहीं, क्योंकि प्रकृति अपनी पूर्ण क्षमता के साथ हमारे सामने हैं। प्राणियों द्वारा विशेषकर मनुष्यों द्वारा प्रयोग में लाये जाने पर प्राकृतिक तत्त्वों की न्यूनाधिकता हम अनुभव करते हैं, इसलिए प्रकृति से सामंजस्य बैठाने के लिए प्रकृति को कुछ नहीं करना, जो कुछ करना है मनुष्य को ही करना है। ऐसी स्थिति में प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने वालों की संख्या अधिक होगी तो आवश्यक तत्त्व अधिक मात्रा में अपेक्षित हैं। उन्हें कैसे पूरा किया जाए? उनकी पूर्ति के लिए एक तरीका तो यह है कि उपभोक्ताओं की संख्या कम की जाए। यह मानवीय पक्ष नहीं हो सकता है, फिर इसका निर्णय कौन करेगा कि इस संसार में जीवित रहने का अधिकार किसे है और किसे नहीं, तो प्रकृति के अनुसार योग्यतम की विजय का सिद्धान्त स्वीकार करने पर मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं रहेगा, इसलिए मनुष्यता का पक्ष है कि जो प्राप्त है, उसका सम्यक् विभाजन और प्रदूषण पर अंकुश। यही पर्यावरण की समस्या का सम्भव समाधान है।

पर्यावरण की समस्या पहले विचार में उत्पन्न होती है, पश्चात् व्यवहार में, इस कारण मनुष्य का प्रकृति से सम्बन्ध आदिकाल से चला आ रहा है और यथार्थ है, इस कारण अन्य बातों के विचार के साथ प्रकृति से उसके सम्बन्धों पर भी उसने विचार किया हो, यह स्वाभाविक है। जिस प्रकार आज की परिस्थितियों ने मनुष्य को सोचने के लिए बाध्य किया है, उसी प्रकार पहले भी कोई प्रसंग आया हो, जब मनुष्य को इस दिशा में सोचने की आवश्यकता अनुभव हुई हो। पुराना चिन्तन पुरातन साहित्य में सुलभ है। भारतीय साहित्य की विशाल सम्पदा आज भी हमें प्राप्त है। उस अनुभव से आज हम अपने ज्ञान को समृद्ध करते हैं। पर्यावरण के विषय में यत्र-तत्र विचार बिखरे मिलते हैं। उन विचारों को लेकर यदा-कदा समाचार पत्रों में लेख भी प्रकाशित होते हैं। इस प्रकार यदि इन विचारों को संग्रह कर व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया जा सके तो आज की इस ज्वलन्त समस्या के समाधान में निश्चित सहायता मिल सकती है।

भारतीय चिन्तक और पाश्चात्य चिन्तन परम्परा में मौलिक अन्तर है। पाश्चात्य चिन्तन पहले लाभ के अवसरों का पूर्ण दोहन करने में विश्वास करता है, फिर उत्पन्न समस्या के समाधान का उपाय खोजता है। जैसे लाभ प्राप्त करना ध्येय होने से कुछ लोग ही उससे सम्पन्न होंगे, परन्तु  उसके दुष्प्रभाव और हानियाँ अधिक होंगी और अधिक लोगों को प्रभावित करेंगी, उसका समाधान बड़े स्तर पर अधिक व्यय-साध्य होता है। इसके विपरीत प्राचीन भारतीय मनीषी आवश्यकता के लिए स्वीकार करने और समाज की आवश्यकता के लिए उत्पादन करने को महत्त्व देते थे, इससे विभाजन और वितरण विके्रन्द्रित होता है, अत: सभी लोग समस्या के समाधान में सहभागी हो सकते हैं। पर्यावरण की समस्या के समाधान में भी सबकी सहभागिता आवश्यक है। इस बात को पुष्ट और प्रमाणित कर समाज को उत्तरदायित्व से अवगत कराना इस कार्य का उद्देश्य है। पर्यावरण की समस्या से परिचित व्यक्ति अपने स्तर पर भी समाधान में योगदान कर सकता है। उसे अपने प्राचीन साहित्य के तथ्य, उसका ध्यान इस ओर आकर्षित करने और उद्देश्य की ओर प्रेषित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं, क्योंकि इस देश की जनता में प्राचीन मर्यादा की स्थापना करने वाले पुरुषों ने पाप-पुण्य, धर्माधर्म के नाम से समाज में जो प्रथाएँ प्रचलित की हैं, उनके मूल में इस प्रकार की समस्याओं का समाधान निहित है।

विष्णु धर्मसूत्र में लिखा है कि जो व्यक्ति इस जन्म में जितने वृक्ष लगाता है, वे उसे परलोक में सन्तान के रूप में मिलते हैं-

वृक्षा रोपयितुर्वृक्षा: परलोके पुत्रा: भवन्ति

वराह पुराण में लिखा है- वृक्ष लगाने वाला नरक में नहीं जाता-

अश्वत्थमेकं पियुमन्दमेकं

न्यग्रोधमेकं दश पुष्प जाती:।

द्वे द्वे तथा दाडिम मातुलुंगे

पंचाम्र रोपी नरकं न याति।।

‘सम्पूर्ण जीवन चरित्र-महर्षि दयानन्द’ को क्यों पढ़ें?:- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

‘सम्पूर्ण जीवन चरित्र-महर्षि दयानन्द’ को क्यों पढ़ें?:- गत वर्ष ही इस विनीत ने श्रीयुत् धर्मेन्द्र जी जिज्ञासु तथा  श्री अनिल आर्य को बहुत अधिकार से यह कहा था कि आप दोनों इस ग्रन्थ के गुण-दोषों की एक लम्बी सूची बनाकर कुछ लिखें। मुद्रण दोष के कारण कहीं-कहीं भयङ्कर चूक हुई है। जो इस ग्रन्थ में मौलिक तथा नई खोजपूर्ण सामग्री है, उसको मुखरित किया जाना आवश्यक है। विरोधियों, विधर्मियों ने ऋषि की निन्दा करते-करते जो महाराज के पावन चरित्र व गुणों का बखान किया है, वह Highlight मुखरित किया जाये। लगता है, आर्य जगत् या तो उसका मूल्याङ्कन नहीं कर सका या फिर प्रमादवश उसे उजागर नहीं करता। वे तो जब करेंगे सो करेंगे, आज से परोपकारी में इसे आरम्भ किया जाता है। पाठक नोट करते जायें।

१. महर्षि की मृत्यु किसी रोग से नहीं हुई। उन्हें हलाक ((Killed)) किया गया। नये-नये प्रमाण इस ग्रन्थ में पढिय़े। अंग्रेज सरकार के चाटुकार मिर्जा गुलाम अहमद ने अपने ग्रन्थ हकीकत-उल-वही में बड़े गर्व से महर्षि के हलाक किये जाने का श्रेय (Credit) लिया है। यह प्रमाण पहली बार ही ऋषि जीवन में दिया गया है।

२. काशी शास्त्रार्थ से भी पहले उसी विषय पर मेरठ जनपद के पं. श्रीगोपाल शास्त्री ने ऋषि से टक्कर लेने के लिये कमर कसी। घोर विरोध किया। विष वमन किया। अपनी मृत्यु से पूर्व उसने अपने ग्रन्थ ‘वेदार्थ प्रकाश’ में ऋषि के पावन चरित्र की प्रशंसा तो की ही है। ऋषि को गालियाँ देने वाले, ऋषि के रक्त के प्यासे इस विरोधी ने एक लम्बी $फारसी कविता में ऐसे लिखा है:-

हर यके रा कर्द दर तकरीर बन्द

हर कि खुद रा पेश ऊ पण्डित शमुर्द

दर मुकाबिल ऊ कसे बाज़ी न बुर्द

उस महाप्रतापी वेदज्ञ संन्यासी ने हर एक की बोलती बन्द कर दी। जिस किसी ने उसके सामने अपनी विद्वत्ता की डींग मारी, उसके सामने शास्त्रार्थ में कोई टिक न सका। सभी उससे शास्त्रार्थ समर में पिट गये।

३. ऋषि की निन्दा में सबसे पहली गन्दी पोथी जीयालाल जैनी ने लिखी। इस पोथी का नाम था ‘दयानन्द छल कपट दर्पण’ यह भी नोट कर लें कि यह कथन सत्य नहीं कि इस पुस्तक के दूसरे संस्करण में इसका नाम ‘दयानन्द चरित्र दर्पण’ था। हमने इसी नाम (छल कपट दर्पण) से छपे दूसरे संस्करण के पृष्ठ की प्रतिछाया अपने ग्रन्थ मेें दी है। इस ग्रन्थ में जीयालाल ने ऋषि को महाप्रतापी, प्रकाण्ड पण्डित, दार्शनिक, तार्किक माना है। विधर्मियों से अंग्रेजी पठित लोगों की रक्षा करने वाला माना है। कर्नल आल्काट के महर्षि दयानन्द विषयक एक झूठ की पोल खोलकर ऋषि का समर्थन किया। कर्नल ने ३० अप्रैल १८७९ को ऋषिजी की सहारनपुर में थियोसो$िफकल सोसाइटी की बैठक में उपस्थिति लिखी है। जीयालाल ने इसे गप्प सिद्ध करते हुए लिखा है कि ऋषि ३० अप्रैल को देहरादून में थे। वे तो सहारनपुर में एक मई को पधारे थे। यह प्रमाण इसी ऋषि जीवन में मिलेगा।

४. ज्ञानी दित्त सिंह की पुस्तिका सिखों ने बार-बार छपवाकर दुष्प्रचार किया कि दित्त सिंह ने शास्त्रार्थ में ऋषि को पराजित किया। हमने दित्त सिंह की पुस्तक की प्रतिछाया देकर सिद्ध कर दिया कि वह स्वयं को वेदान्ती बताता है, वह सिख था ही नहीं। वह स्वयं लिखता है कि तेजस्वी दयानन्द के सामने कोई बोलने का साहस ही नहीं करता था। यह प्रमाण केवल इसी जीवन चरित्र में मिलेंगे। (शेष फिर)

श्रद्धेय आचार्य डॉ धर्मवीर को प्रथम पुण्य तिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि

Dharmveer ji

भला समय बीतते भी कहीं समय लगता है? विश्वास नहीं होता कि डॉ. धर्मवीर जी को पार्थिवता से मुक्त हुये एक वर्ष हो गया। हो भी कैसे? एक दिन की …. है जो हमारे हृदय पटल पर उस दिव्य मूर्ति का सौम्य स्वरूप न प्रकट हुआ हो, जो हमारी सांसों के स्पन्दन में भीगी हुयी करुणा न छायी हो, जो हमारे कण्ठ ने फफक-फफक कर आहें न भरी हों, जो इन शुष्क आखों ने यह जानते हुये कि यह सम्भव नहीं है राह तकते-तकते तनिक आराम की ख्वाहिश की हो। पर समय पर जोर किसका? वह तो यूँ भी बीतेगा और यूँ भी।

हाय रे! निष्ठुर हृदय, निष्ठुरता पर आश्चर्य है। इतने संताप को तू सह कैसे गया?

हे आचार्य! जरा देखो तो, आपकी सजाई बगिया का हर नुक्कड़ आपकी बाट जोहता है। ये झील, ये पर्वत, ये उमड़ती हुयी बदलियाँ आपके गुञ्जायमान शब्दों के श्रवण को लालयित हैं। देखें इन वृक्षों को और लताओं को, इन खिलती हुयी कलियों की मजबूर हँसी को। लगता है जैसे हँसने की कोई कीमत ली हो इन्होंने। निरापद झूठी और फीकी हँसी। यह निष्प्राण उद्यान अब किसी बीहड़ वन सा मालूम होता है। न जाने क्यूँ? पर सब कछ नीरस सा हो गया है। सब कुछ बिखर सा गया है। किस-किस बात पर रोयें। उस जगन्नाथ के रहते हम स्वयं को अनाथ भी नहीं कह सकते, भला हम क्या जगत् से बाहर हैं? और सनाथ कहने का भी अब कोई कारण न रहा है। हाय! माता जी की अन्तर्वेदना को कौन मरणधर्मा जान सकता है। कौन सुन सकता है उनके दर्द की पुकार। अब तो आँसू भी थक गये है। किसका सामथ्र्य है जो उन पथरायी हुयी आँखों से आखें मिला सके। दिन में न जानें किनी बार एक ही प्रश्र उनकी जिह्वा पर उठता है बाकी सब ठीक पर धर्मवीर जी  क्यों …..? कदाचित् आपके पास इसका उत्तर हो।

काश….काश! कि आप इस पीड़ा को सुन पाते। पर अफसोस! ‘काश’ जैसे शब्द तो पीड़ा को बढ़ाने के लिये बनते हैं।

वो और दौर था जब संन्यासी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त और पं. लेखराम जैसे दिग्गजों की धाक् थी। स्वामी दर्शनानन्द, पं. गणपति और पं. चमूपति जैसे सूरमा विचरते थे। किसी एक के हाथ से पतवार छूटे तो पलक झपकते ही उसे दूसरा सम्भाल लेता था। पर आज तो आर्यजगत् की पतवार सिर्फ और सिर्फ आपके हाथ में थी। और कोई दीखता ही नहीं जो खिवैया बन सके। न जाने इस नैया को और कितना वक्त लगे अपना सिपैया ढूढऩे में। वैदुष्य के दर्शन को हमारी आखें तरस गयी हैं। वेद और उपनिषद् की बातें तो जैसे बातें ही बनकर रह गयी हैं। अब अगर विरोधी प्रश्र उठायें तो हमारी आँखें झुक जायेंगी। मगर हाँ! आपको ये जानकर सन्तोष होगा कि आपकी जलाई लौ मन्द बेशक पड़ी हो, पर बुझी नहीं है और हमारा विश्वास है कि दयानन्द के स्वप्र पर बलिहारी होने को फिर अनेकों धर्मवीर उठ खड़े होंगे। ऋषिवर की जय-जयकार चहुँओर गूँजेगी।

‘आप नहीं हैं’ इस सत्य को स्वीकार करने में हम अब तक समर्थ न हो पाये हैं। और शायद हो भी न सकें। यतो हि यह सत्य भी असत्य सा मालूम होता है और कदाचित् हो भी। आपकी वाणी और आपकी लेखनी आज भी हृदयों को झंकझोरने में समर्थ है। आपके व्याख्यानों को लिपिबद्ध किया जा रहा है। ये समस्त कार्य सदैव आपके होने की सूचना देते रहेंगे।

हे आचार्य! हमें प्रेरणा दीजिये कि हम आपके पथ के पथिक बन सकें।

 

क्या आर्य बाहर से आये थे : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

गुरुकुल काँगड़ी से एक भावनाशील युवक ने दो बार चलभाष पर ‘आर्यों का आदि देश’ विषय पर लेखक से चर्चा करते हुए यह पूछा कि कोई ऐसी पुस्तक बतायें, जिसमें ‘आर्यों का आदि देश आर्यावत्र्त है’ इस विषय में अकाट्य तर्क प्रमाण दिये गये हों। उनका प्रश्र हमारे लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है, इसलिये इसे परोपकारी द्वारा मुखरित किया जा रहा है। हम यदा-कदा अपनी पुस्तकों में तथा इस स्तम्भ में एतद्विषयक प्रबल तर्क व प्रमाण देते चले आ रहे हैं। प्रबुद्ध पाठक सूझबूझ से इनको व्याख्यानों व लेखों में देकर मिथ्या मतवादियों के दुष्प्रचार का निराकरण किया करें।

जो लोग थोड़ा गुड़ डालकर अधिक मीठा चाहें, वे पं. भगवद्दत्त जी की पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति का इतिहास’ पढ़ें। मेरे द्वारा लिखित ‘बहिनों की बातें’ पुस्तक में भी इस विषय में आकट्य तर्क दिये हैं। एक फै्रंच लेखक फें्रकायस गाटियर लिखित India’s self Denial भी पठनीय है। श्री अनवर शेख की उर्दू पुस्तकों में भी साम्राज्यवादी सूली के वेतन भोगियों केे मत का प्रबल खण्डन मिलता है।

योरुपीय ईसाई जातियों के अठारहवीं शताब्दी में भारत में घुसने से पहले विश्व के किसी भी इतिहास लेखक ने आर्यों के भारत पर आक्रमण या बाहर से भारत में आने का कहीं भी उल्लेख नहीं किया। तुर्कों, अफगानों व मुगलों के दरबारी इतिहास लेखकों ने हिन्दुओं को सग (कुत्ता), काफिर व नरकगामी आदि के रूप में बार-बार लिखा है, परन्तु फैजी अबुलफजल आदि की किसी पुस्तक में आर्यों को भारत में बाहर से आये आक्रमणकारी नहीं लिखा। इससे अधिक प्रबल तर्क  ‘भारत ही आर्यों का आदि देश है’ के लिये और क्या हो सकता है?

२. आर्यों के किसी भी ग्रन्थ में आर्यों के बाहर से भारत में आने का लेश मात्र भी कोई प्रमाण नहीं मिलता। यूँही वेद शास्त्र के वचनों को तोड़-मरोड़ कर ईसाई पादरी, सरकारी लेखक यह मनगढ़न्त मत थोपते चले आ रहे हैं। जवाहरलाल जी नेहरू आदि अंग्रेजी पठित लोगों ने हीन भावना से इस मिथ्या मत को खाद-पानी देकर और बढ़ाया।

३.महर्षि दयानन्द जी महाराज पहले ऐसे भारतीय विचारक, महापुरुष और राष्ट्र नायक हैं, जिन्होंने सूली व सरकार के चाकर इतिहास लेखकों के इस मनगढ़न्त मत को चुनौती दी। ऋषि की शिष्य परम्परा में आचार्य रामदेव जी, डॉ. बालकृष्ण जी, पं. धर्मदेव जी, पं. भगवद्दत्त जी, वैद्य गुरुदत्त जी आदि प्रकाण्ड इतिहासज्ञ और विद्वानों ने इस मिथ्या मत की धज्जियाँ उड़ा दीं। अंग्रेजों के शिष्य राजेन्द्र लाल मित्र (गो-मांस भक्षण के प्रबल पोषक) को भी यह लिखना पड़ा कि स्वामी दयानन्द वेदों के अद्वितीय बेजोड़ विद्वान् थे। उनके दृष्टिकोण को हिन्दू समाज ने आज कुछ समझा है, अन्यथा अभागा हिन्दू तो स्वामी विवेकानन्द जी के शिकागों के अंग्रेजी भाषण का ही ढोल पीटता रहा। जब स्वामी विवेकानन्द ने ही मैक्समूलर की प्रशंसा के पुल बाँध दिये तो फिर भारतीय स्वाभिमान की रक्षा कैसे हो?

४. सब जातियाँ अपनी विजयों, उपलब्धियों पर इतराते हुये उनकी चर्चा करती हैं, अपने वीरों का यशोगान करती हैं। भारत विजय यदि आक्रमणकारी आर्यों ने की तो कहाँ-कहाँ लड़ाई हुई? कौन तब आर्यों का सेनापति था? किसी विजय का कोई स्मारक तो दिखाया जाये। वे आर्य जो अथर्ववेद के भूमिसूक्त की ऋचायें गाते आये हैं, उन्होंने उस भूमि, उस देश, उस प्रदेश, उन नदियों, पर्वतों को कैसे सर्वथा सर्वदा के लिये बिसार दिया-जहाँ से वे भारत में आये?

५. इस्लाम मक्का से आया। ईसाई मत यरूशलम से निकला। संसार भर के नमाजी मक्का, मदीना की ओर मुँह करके नमाज पढ़ते हैं। ईसाई रोम की यात्रा को जाते हैं, परन्तु आर्य जाति ने तो सागर पार जाना ही पाप मान लिया। आर्यों का आदि देश भारत ही है-इसका इससे बड़ा तर्क व प्रमाण क्या हो सकता है?

६. परकीय मतों के पवित्र व ऐतिहासिक स्थल सब भारत से बाहर हैं। हिन्दुओं के सब स्थल अखण्ड भारत में ही हैं। कोई भी भारत से बाहर नहीं। आशा है कि इतने से प्रश्रकत्र्ता आर्य युवक का काम चल जायेगा। हिन्दू अब भी कृतज्ञता से ऋषि दयानन्द का कहाँ गुणगान करता है कि उस ऋषि ने इस महान् सांस्कृतिक आक्रमण का प्रतिकार इस ढंग से किया कि आज यूरोप व अमरीका के विद्वान् उसके शंखनाद को सुनकर हमारी मान्यताओं को सत्य सिद्ध कर रहे हैं। अमरीकन लेखक की पुस्तक Glory of the Vedas इसका एक प्रबल प्रमाण है।

७. प्रसंगवश हम बतादें कि राजेन्द्र लाल मित्र के जिस पत्र की ऊपर हमने चर्चा की है, वह हमारे प्रकाण्ड विद्वान् विरजानन्द जी ने खोज कर हमें दिया। हमने उसकी छायाप्रति छपवा दी है।

नकली भगवान्: डॉ धर्मवीर

नकली भगवान्

पाठकगण! इससे पूर्व के अंक में सम्पादकीय को अन्तिम कहकर प्रकाशित किया गया था, परन्तु जब विश्व पुस्तक मेले के लिये श्रीमती ज्योत्स्ना जी दिल्ली गईं, तो उन्हें दिल्ली स्थित आश्रम के डॉ. धर्मवीर जी के कक्ष से यह लेख प्राप्त हुआ, जो कि सम्पादकीय के रूप में ही लिखा गया था। -सम्पादक

किसी भी चित्र को देखकर उसे पहचान लेते हैं, तो यह कलाकार की सफलता है। यदि हम एक चित्र को देखें, उसे कोई दूसरे नाम से पुकारे और किसी अन्य चित्र को किसी और नाम से, तो निश्चय ही नाम और आकृति की भिन्नता से वे दोनों चित्र दो भिन्न व्यक्तियों के होंगे। हम मन्दिर में राम की मूत्र्ति को देखकर उसे भगवान् की मूर्ति नहीं कहते, उसे हम भगवान् राम की मूर्ति कहते हैं। हनुमान् की मूर्ति को भगवान् नहीं कहते, भगवान् हनुमान् कहते हैं। भगवान् विशेषण है, राम, हनुमान् नाम है। अत: मूर्तियाँ भगवान् की नहीं हैं, भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की हैं। राम और हनुमान् की। भगवान् की मूर्ति होती तो दो नाम और भिन्न आकृतियाँ नहीं होती और एक मन्दिर में अनेक प्रकार की मूर्तियों की आवश्यकता भी नहीं होती। हर व्यक्ति किसी विशेष आकृति का उपासक है। अत: सभी को सन्तुष्ट करने के लिए सभी आकृतियों को भगवान् के रूप में स्थापित कर लिया जाता है।

सबसे विचित्र बात है- भगवान् को भोग लगाना। हम पूजा करते हुए यह मानते हैं कि भगवान् खाता है, पीता है। आजतक मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी भी बिना मुख खोले नहीं खा सकते। एक माँ अपने तत्काल उत्पन्न हुए शिशु को भी बिना मुख खोले अपना दूध नहीं पिता सकती, फिर हम हजारों वर्षों से भगवान् को भोग लगाने के नाम पर खिलाने का अभिनय करते हैं और उसे सत्य मानते हैं। घर आये अतिथि को खिलाने में, घर में पाले पशु, गाय, कुत्ते आदि प्राणियों को खिलाने में कष्ट होता है, परन्तु भगवान् को जीवनभर खिलाते हैं और खिलाने की सन्तुष्टि का अनुभव करते हैं, क्योंकि वह खाता ही नहीं। मन्दिर में जाकर भगवान् से माँगते हैं, परन्तु भगवान को अपने घर पधारने का निमन्त्रण नहीं देते, क्योंकि वह जड़ है, चल-फिर नहीं सकता।

जो सदा रहता है, वह कभी नहीं रहा, ऐसा नहीं हो सकता, परन्तु जड़ वस्तुओं से बनाया भगवान् आज होता है, कल नहीं होता। गणेश जी, देवी-देवताओं की प्रतिमायें गणेश चतुर्थी या दुर्गा-पूजा पर हजारों नहीं, लाखों की संख्या में कूड़े-कचरे से बनाई जाती हैं, उनको पण्डाल में सजाया जाता है, उनकी पूजा आरती की जाती है, भोग लगाया जाता है, उनसे प्रार्थनाएँ की जाती हैं, नमस्कार किया जाता है और अगले दिन कचरे के ढ़ेर पर फेंक दिया जाता है। इस प्रकार कचरे से बना भगवान्, वापस कचरे में चला जाता है। यदि जड़ वस्तु को आप भगवान् मानते हैं तो मूर्ति बनने से पहले भी कचरा भगवान् था और वापस कचरे में फेंकने के बाद भी भगवान् ही रहेगा, परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं होता, अत: जड़ वस्तु भगवान् नहीं है। आप उसे कुछ समय के लिए भगवान् मान लेते हैं। इसीलिए गणेश विसर्जन के पश्चात् समुद्र में फेंके गये चित्रों के नीचे लिखा था- कचरे का भगवान् कचरे में।

कभी कोई बात लाख उक्ति, प्रमाणों से नहीं समझाई जा सकती, वह घटना से एक बार में समझ में आ जाती है।

एक बार दिल्ली में वेद मन्दिर में स्वामी जगदीश्वरानन्द जी के निवास पर एक परिवार उनसे भेंट करने आया, परिवार दिल्ली का ही रहने वाला था। पति-पत्नी दोनों केदारनाथ की यात्रा करके लौटे थे। सब कुशलक्षेम की बातें होने के बाद अपनी यात्रा का वृत्तान्त सुनाते हुए एक रोचक घटना सुनाई, जो बहुत शिक्षाप्रद है-

केदारनाथ मन्दिर में प्रात:काल वे दोनों दर्शन के लिए गये। भीड़ बहुत थी, पंक्ति में खड़े थे, उनके पीछे एक वृद्ध राजस्थान से भगवान् के दर्शन के लिये आया था, वह भी पंक्ति में चल रहा था। उन्होंने बताया मन्दिर में पहुँचे, मूर्ति के दर्शन करके आगे बढ़ रहे थे, पीछे के वृद्ध व्यक्ति ने दर्शन करते हुए वहाँ खड़े पुजारी से प्रार्थना की- पुजारी जी, बहुत वर्षों से भगवान् के दर्शनों की इच्छा थी, बड़ी दूर से चलकर आया हूँ। थोड़ी देर खड़े रहने दीजिए, जिससे भगवान् के भली प्रकार दर्शन कर सकूँ, यह सुनकर पुजारी झल्लाया और उस वृद्ध को आगे की ओर धक्का देते हुए बोलो- तुझे दो मिनट में भगवान् क्या दे देगा? मैं यहाँ बत्तीस साल से खड़ा हूँ, मुझे आज तक  कुछ नहीं दिया। चलो, आगे बढ़ो। यह है भगवान् की वास्तविकता। यदि कोई भी भगवान् प्रभावशाली होते तो पुजारी, पादरी, ग्रन्थी, मुल्ला, मनुष्य समाज में आदर्श जीवन के धनी होते, परन्तु पाप सम्भवत: सामान्य भोगों की अपेक्षा इनके पास अधिक है, क्योंकि ये भगवान् से डरते नहीं, उन्हें वास्तविकता का पता है।

योगदर्शन में ईश्वर की पहचान बताते हुए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा-

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।।

– धर्मवीर

MAHOMEDANISM IS MAINLY BASED UPON JUDAISM: Ganga Prasad

THE religion of Mahomed is based chiefly on Judaism,

and partly on Zoroastrianism on which Judaism

itself is based. The first proposition is not denied

by the Mahomedans themselves, who only claim that their

Prophet has improved upon the Jewish religion in certain

respects. A detailed comparison of the two religions would,

however, show how closely Mahomed has followed the

Jewish religion even on points of detail, and would lead to

the conclusion that there is little or .nothing important in

Mahomedanism for which the Prophet could lay claim to

originality.

We shall in this branch of our enquiry follow Dr. Sale,

whose preliminary discourse, appended to his celebrated

translation of the Koran, contains a wealth of information

on this subject.

 

SECTION 1

 

THE ORIGIN OF THE UNIVERSE OR COSMOGONY

 

The idea that this universe is the first and the last of

its kind is purely a Jewish idea, and forms a distinctive feature

of Judaism, and the two great religions founded

upon it, Viz., Christianity and Mahomedanism. Again,

the belief that this world was created out of nothing by

a fiat of the Almighty is also borrowed from Judaism. The

story of Adam and Eve being created and placed in the

garden of Eden, where they were allowed to partake of

all things except the fruit of a particular tree; of their being

I tempted by Satan in the form of a serpent to eat of that very

fruit; and of their subsequent fall from paradise is borrowed

almost literally from the Jewish scriptures.

The same may be said of the existence of a higher order

of beings than man, Viz., the angels who have pure and

subtle bodies, created of fire, and who neither eat nor drink,

nor propagate species. These angels are supposed to have

various forms and offices, and the most eminent among them

are Gabriel, Michael, Azracl and Israfil. “This whole

doctrine concerning angels,” says Dr. Sale, “Mahomed

borrowed from the Jews, Who learned the names and offices

of those beings from the Persians, as they themselves confess.

-( Talmud Hieros and Roshbhashan). “:j:

The Koran teaches the existence of also an inferior class

of beings called jin or genii’ created also of fire, but of a

grosser fabric than angels, since they eat, drink and propagate

their species and are subject to death.’ “These notions,”

says Dr. Sale, “agree almost exactly with what the Jews

write of a sort of demons called Shedim. It

SECTION 2

THE DESTRUCTION OF THE UNIVERSe AND’

THE RESURRECTION

– The Mahomedans believe in the immortality of the

soul and think that there will be a day of resurrection

when the dead will rise to receive the rewards and punishment

of their actions in life according to their merits and

demerits. The whole of this doctrine has been taken from

Judaism.

The ,Resurreclion.-According to some writers the

resurrection will be merely spiritual. The generally received

opinion, however, is that both the body and the soul will

be raised.::: It might be asked: how will the body, which

has been decomposed rise again ~ “But Mahomed has

taken care to preserve one part of the body, whatever

becomes of the rest, to serve for a basis of future edifice, or

rather a leaven for the mass which is to be joined to it.

For he taught that a man t s body was entirely consumed by

the earth, except only the bone called AI Ajb which we

name the os coceygis or rumpbone; and that as it was the

first formed in the human body, it will also remain uncorrupted

till the last day, as a seed from whence the whole

is to be renewed; and this, he said, would be effected by

a forty days’ rain which Cod would. send, and which w~uld

cover the earth 10 the height of twelve cubits, and cause the

bodies to sprout forth like plants. Herein also is Mahomed

beholden to the Jews who say the same things of the bone,

Luz excepting that what Mahomed attributes to a great rain

would be effected according to them by a dew impregnating

the dust of the earth.

Signs of the Resurrection.-The approach of the day of

resurrection will be known from certain signs which are to

precede it; for example:-

  1. The rising of the sun’in the west.

(b) The appearance of the beast Dajjal, a monster of

the most curious appearance, who would preach

the truth of Islam in Arabic language. The

beast in the Revelation (Luke, xxiii: 8) seems,

according to Dr. Sale, to be responsible for this

idea.

( c) The coming of the Mehdi.

(d). The blast of the trumpet called Sur, which will be sounded three times.

All these are more or less Jewish ideas, So is the teaching that after the Resurrection, but before Judgment the resuscitated souls will have to wait for a long time

under the burning heat of the sun which would descend to

within a few yards of their heads

The Day of Judgment .-After mankind have waited

for fixed time God will, at length, appear to judge them,

Mahomed taking the office of intercessor. Then everyone

will be examined concerning all his actions in this life.

Some say that all the limbs and parts of the body ,will be

made to confess the sins committed by each. Each person

will be given a book in which all his actions arc recorded.

These books will-be weighed in a balance to be held by

Gabriel. Those whose good actions are heavier than the

bad ones, will be sent to Heaven; and those whose evil

actions preponderate, to the Hell. This belief has been taken

in its entirety from the Jews, “The old Jewish writers,”

says Dr, Sale, “make mention as well of the books to be

produced at the last day wherein men’s actions are registered,

as of the balance wherein they shall be weighed.

 

The Jews in their turn borrowed this idea from the

Zoroastrians. Dr. Sale hints that the Old Testament seems

to have given the first notion of both (Exod., xxxii, 32-33 ;

Dan., vii, 10; Revel., xx, 12; Dan., v, 27.) but, he

admits, “what the Persian Magi believe of the’ balance’

comes nearest to the Mahomedan opinion. They hold that

on the day of Judgment two angels named Mehr and Sarush

will stand on the bridge we shall describe by and by, to

examine every person as he passes; that the former ,,,ho

represents divine mercy will hold a balance in his hand to

weigh the actions of men; that according to the report he

shall make thereof to God sentence will be pronounced, and

those ‘whose good works are found more ponderous, if they

turn the scale but by the weight of a hair, will be permitted

to pass forward to paradise; but those whose good works

shall be found light will be, by the other angel who represents

God’s justice, precipitated from the bridge into hell.”*

On the road to heaven is the bridge called by

Mahomed Al Sirai. This bridge is thrown over the abyss

of hell, and is said to be finer than a hair, and sharper than

the edge of a sword. Over this bridge the Muslims will

easily pass led by Mahomed; whereas the wicked will

soon miss their footing and fall down headlong into hell

which is gaping beneath them. The Jews likewise speak

of the bridge of hell which, according to them, is no

broader than a thread. For this idea the Jews and

the Mahomedans seem to be equally indebted to the

Zoroastrians who teach that on the last day all men will be

obliged to pass over a bridge called Pul Chinavad.

 

Paradise.-After passing the Al Sirai, the faithful will

reach paradise ‘which is situated in the seventh heaven.

The Mahomedan conception of paradise is that of a

beautiful garden, furnished with springs, fountains, and

rivers flowing with water, milk, honey and balsam, and

trees having their trunks of gold, and producing the most

delicious fruits. Above all, there will be seventy resplendent

ravishing girls called hur-ul-ayun on account of their big

black eyes. For almost. the whole of this description

Mahomed is indebted to the Jews. “The Jews constantly

describe the future mansion of the just as a delicious garden,

and make it also reach the seventh heaven ( vide Gemar

Tanith, f. 25; Biracoth, f. 34; Midrash Sabboth, f. 37).

They also say it has three gates ……… and four rivers

Flowing with milk, wine, balsam and honey.-( MiJrash,

Yalkul Shcwini).”:::

It is more than probable that the Jews themselves

borrowed this idea from the Zoroastrians, who described

the felicities of paradise in similar language. Dr. Sale

observes: “The Persian Magi had also an idea of the

future happy state of the good, very little different from

that of Mahomed. Paradise they call Bihishl, and Minu,

which signifies crystal, where they believe the righteous’

shall enjoy all manner of delights and particularly, the

company of huran-i-Bihisht or black-eyed nymphs of

paradise, the care of whom, they say, is committed to the

angel Zamiyad and hence Mahomed seems to have taken the

first hint of his paradisiacal ladies. “t

We may also quote from Nama Mihabad, one of the

later writings of the Parsis: “The lowest order of heaven

is this that its inmates will enjoy all the delights of this

world: nymphs, male and female slaves, meat and drink,

clothing and bedding, articles of furniture, and other things

which ca~not be enumerated here.”-Mihabad, 40 & 41. :::

 

Hell.-Similarly the different torments of hell, the

seY~n compartments into ,,,·hich it is said to be divided,

and the partition called Al Aira/, separating heaven from

hell, all seem to be copied from the Jews.

 

SECTION 3

GOD AND THE DEVIL

 

The Mahomedan conception of God agrees almost

exactly with the Jewish notion. And the doctrine that there

arc two powers in the world, a good and benevolent

power, viz., God, and an evil’ and malevolent power, Viz.,

Satan, is also taken from the Jews. This notion, which

seriously mars the Monotheism of the Bible and the

Koran, was certainly borrowed by the Jews from the

Zoroastrians, vrho call these (wo principles Spenla Mainyu

and A ngira M ainyu. In a later chapter we shall discuss

this question more fully, and show how this Zoroastrian

idea can be traced to a beautiful allegory in the Veda,

describing the struggle of good and evil in this world; and

how this allegory was misunderstood till in the hands of the

Jews, Christians, and Mahomedans, it degenerated into a

belief in two powers, Satan having been elevated to a

position a little below that of the Deily. This is a very

important point, and will show, in a remarkable manner,

how the stream of religious thought has flowed from the

Vedas to the Zend Avesta, and thence to the Bible and

the Koran.

 

SECTION 4

RELIGIOUS PRACTICES

We have show’n so far that the principal dogmas of the

Mahomedan religion have a Judaic origin. We shall next

show that their religious practices can’be traced to the same

source.

There are four duties incumbent upon every

Mahomedan: viz., (i) Prayer; (ii) Fasting; (iii) Zakat

or charity; and ( iv) Pilgrimage to Mecca.

(i) Prayer.-The following extract from. the Dasalir

would show to the reader that the several postures of the

followers of the Prophet at prayers have been probably’

copied from the Zoroastrians:-

II During prayer a pious and wise man should stand

ahead, and the rest should stand behind him. A man

(during prayer) should stand erect and join his hands

together; then bow down, then prostrate himself on the

ground; then again stand erect, place one of his hands on

the head, and removing it place the other hand on the

head; then raise his head and clasp his hands without

joining the thumbs, place his thumbs on his eyes, making

the fingers reach the head, then bend his head down to his

breast; then raise it; then sit on the ground; then putting

his hand on the ground and kneeling down touch the

ground with his forehead, and then with each side of the

face; then prostrate himself on the ground like a staff;

then stretch his hand till the breast touches the ,ground,

then do the same with, the thighs; then kneel down;

then squat, and place his head on his folded hands.

Such prayer is to be addressed to none but God.”:::

 

The practice among Mahomedans of saying their

prayer with their faces towards the Kabah is likewise

borrowed from the Jews who constantly pray with their

faces turned towards the temple of Jerusale~. ” The

same,” observes Dr. Sale, ” was the Kibla of Mahomed

and his followers for six or seven months (some say eighteen

months, vide Abulfed, Nit. Moh., p. 54), till he found

himself obliged to change it for the. Kabah. tt;:;

The practice of performing before prayers ablutions

with water or sand is also borrowed from the Jews and

the Persians. The. circumcision is well-known to be a

Jewish custom.

 

(ii) Fasling.-Speaking of Mahomed’s ordinances

concerning fasting, Dr. Sale traces them to those of the Jews,

and observes: “That nation, when they fast abstain not

only from eating and drinking but from women and from

anointing themselves, from daybreak until sunset ……….. :

spending the night in taking what refreshments they please,

(Gemar Yama, f. 40, etc. )”

 

(iii) Charily.-This is of two kinds, viz., ( 1 ) Zakat,

and ( 2) Sadka; and specific rules are laid down for the

giving of these alms. In these rules also Dr. Sale observes the

footsteps of the Jews, ( Vide. Prel. Dis., p. 87).

 

(iv) The Haj or Pilgrimage to Mecca . …;;.. The pilgrimage

to Mecca was not borrowed from the Jews, but was a

relic of the pagan Arabs. The temple of Mecca had long

been held in singular veneration by the Arabs, and the

Prophet considered it inexpedient to disturb the belief.

 

SECTION 5

NEGATIVE PRECEPTS

 

Among the negative precepts common to the Jews and

the Mahomedans may be mentioned abstaining from gaming ;:::

wine ; usuryt and certain kinds of prohibited meats.

Regarding prohibited meats we read in the Koran as

follows :-” Ye are forbidden to eat that which diet of

itself, and blood, and swine’ s flesh, and that on which the

name of any besides God has been invocated, and that

which hath been strangled or killed by a blow, or by a

fall, or by the horns of another beast, and that which has

been eaten by a wild beast, except what ye shall kill yourselves,

and that which, had been sacrificed to idols.”

 

In these particulars,” says Dr. Sale, ” Mahomed seems chiefly

to have imitated the Jews, by whose law, as is well-known,

all those things are for bidden, but he allowed some things

to be eaten which Moses did not. ”

 

SECTION 6

CIVIL INSTITUTIONS

 

The civil institution of the Mahomedans are founded

upon the Koran, as those of the Jews are founded on the

Pentateuch. That the former were copied from the latter

would be evident from the following!-

 

( i) Polygamy is allowed by both, but no Mussalman

may marry more than four wives at a time. U In

making the above mentioned limitation,” observes Dr. Sale

 

Mahomed was directed by the decision of the Jewish

doctors who, by way of counsel, limit the number of wives

to four ( rJide Maimon in Halachoth Ishath, c. 14), though

their law confines them not to any certain number. “:::

 

( ii) Dirvorce is an institution common to both religions.

In allowing divorce Mahomed has followed Jews. When

a woman is divorced, she must wait for three months before

she can re-marry. This period, is called iddal. At the end

of this period, if she is found with child, she must be

delivered of it before she can marry again. These rules”

says Dr. Sale, are also copied from the Jews, according to

whom a divorced woman or widow cannot marry another

man till ninety days be passed after the divorce or death

of the husband.” Dr. Sale adds: “The institutions of

Mahomed relating to the pollution of women during their

courses, the taking of slaves to wife, and the prohibiting of

marriage within certain degrees, have likewise no small

affinity with the institution of Moses.

 

SECTION 7

SOME MINOR SIMILARITIES

( 😉 The setting apart of one day in the week for

the special service of God is also an institution of the Jews

who keep Saturday sacred. THe Christians have Sunday for

their Sabbath day. Mahomed has imitated these religions

in this respect; but for the sake of distinction he has ordered

his followers to observe Friday, instead of Saturday or

Sunday. ,

 

(if) The celebrated formula of the Koran “La-Elah-illillah” (there is no God but God) is a mere paraphrase of the Zoroastrian formula, “Nest ezad magar

Yazdan.”

( iii ) It should be further noted that every chapter of the Koran (excepting only the ninth) opens with the words “Bismillah uar Rahman er Rahim,” which. exactly

correspond to the formula with which the Zoroastrians begin

their books, Viz., fI Banam Yazdan bakhshish gar dadar (in the name of the most merciful God ).

 

SECTION 8

SUMMARY

The above is sufficient to show that Mahomedanism

has borrowed almost all its doctrines and precepts mainly

from Judaism and partly from Zoroastrianism. The religion

of the Koran cannot, therefore, claim to be a new revelation,

or a special dispensation of the Will of God. Our

Mahomedan brethren will perhaps urge; “the monotheism

of the Koran is purer and better than that of Judaism and

Christianity, to speak nothing of Zoroastrianism which is not

monotheism at all, being a belief in two gods.”· Now there

can be no doubt that the Christian conception of God is’, in

several ways, superior to the Mahomedan conception. God

is represented by the Christians as a more righteous, more

merciful, more holy and more loving being than the God of

the Koran. In another way, the theism of Christianity is

certainly inferior to that of the Koran. Christianity teaches

the doctrine of Trinity which is virtually a belief in three

gods. and in this respect the Koran teaches a stricter monotheism

than Christianity. But it is difficult to understand how

Mahomedanism can claim to teach a better theism than

Judaism; because both are equally monotheistic or equally

dualistic. Both raise Satan to a position all but equal to

that of God, and thus equally mar the purity of their

monotheism. Both have the same conception of the Divine

character; and the anthropomorphic, vacillating, and

revengeful Jehovah of the Jews finds an exact counterpart

in the Allah of the Koran, who is described as an intolerant

and despotic potentate, urging his worshippers to make war

upon, and slay, the infidels.

As for Zoroastrianism, its theism is in no way inferior ,

to that of either Judaism or Mahomedanism. ” Ahurmazda ”

says the Rev. L. H. Mills, “is one of the purest conceptions

which had yet been produced,”::: and-we may add,-is

undoubtedly the prototype ~ of the God of the Koran as

well as the God of the Bible. We shall revert to this

subject in detail later on it The great value of Mahomed’s

doctrine of the unity of God lies in its being a protest against

the degenerate Christianity of his time and the polytheism

of the Arabs among whom he lived. But however superior

to the belief of his contemporaries, the theism of the Koran

can hardly be said to be superior to that of Judaism. The

claim of the Koran, therefore, to be an independent

revelation of God, on the plea of teaching a better theism

than Judaism and Zoroastrianism, to which it can be

traced, is untenable.

वेदों में मांसाहार: गौरव आर्य

ved me mansahar

 

जी हाँ बिलकुल सही शीर्षक है मुसलमानों को अत्यंत लुभावना लगता होगा यह शीर्षक पढ़कर मुझे भी लगता है में जब भी ऐसे शीर्षक पढ़ता हूँ मुझे प्रसन्नता होती है और विश्वास बिना पढ़े पहले ही हो जाता है की अब मुझे मुसलमानों और वामियों की मुर्खता पढने को मिलेगी और यही होता है, चलिए आप भी पढ़िए और आनन्द उठाइये और सोशल मिडिया पर हर तरफ भेजिए जिससे इन मूर्खों का पर्दाफास हो सके

मांसाहार के समर्थक मुसलमान, वामपंथी और जिह्वा स्वाद के आगे बेबस हिन्दू सनातन धर्म पर मांस भक्षण का आरोप लगाते है और ऐसे ऐसे प्रमाण देते है जिनमें सच्चाई १% भी नहीं होती वेसे तो इन आरोपों में इनकी बुद्धि बिलकुल नहीं होती है क्यूंकि जो कौम भेड़चाल की आदि हो जो परजीवियों सा व्यवहार करें वह कौम दूसरों के लगाये आरोपों का ही उपयोग कर अपनी वाहवाही करवाने में लगी रहती है

 

ऐसे ही कुछ मूर्खों का पाला हमसे पड़ा जिनके आरोप पढ़कर हंसी आती है

चलिए आपको कुछ आरोप और उनके प्रति हमारे (पण्डित लेखराम वैदिक मिशन द्वारा) दिए जवाबों से आपको भी अवगत करवाते है

 

मुस्लिम:- जो लोग इस्लाम मे जानवरोँ की कुर्बानी की आलोचना करते हैं उन्हें अपने वेदों को भी पढ लेना चाहिए :-

वेदों मे मनुष्य बलि का जिक्र :-

देवा यदयज्ञ————पुरूषं पशुम।।
यजुर्वेद ( 31 / 15)
अर्थात : = देवताओं ने पुरूषमेध किया और पुरूष नामक पशु वध का किया ।

 

सनातनी:- पहले तो सच सच बताना ये अर्थ करने वाला गधा कौन था यदि भाष्य करना इतना सरल होता तो आज गल्ली गल्ली जेसे पंक्चर वाले बैठे है वेसे ही भाष्यकार बैठे होते

मुसलमानों की यही कमी है की इनका दिमाग घुटनों में होता है

देवा यद्यज्ञं आया तो मतलब देवताओं ने यज्ञ किया पुरुषं आया तो ! ओह हा पुरुषमेध यज्ञ किया, पशुम आया तो अच्छा पुरुष नाम का पशु था |

सच में तुम लोगों की मुर्खता का कोई सानी नहीं है

http://www.onlineved.com/yajur-ved/?language=2&adhyay=31&mantra=15

इस लिंक पर जाकर सही अर्थ पढो मूर्खों कही भी मनुष्य हत्या जैसी बात नहीं है

मुस्लिम:- कोई इस वेद भाष्य को गलत साबित करके दिखाए ।

सनातनी:- लो कर दिया गलत साबित जाओ कुछ नया लाओ मूर्खों

मुस्लिम:- हिंदू धर्म ग्रंथो मे एक भी धर्म ग्रंथ ऐसा नही है जहां जीव हत्या और कुर्बानी का जिक्र मौजूद ना हो पढो :-

वेद , महाभारत , मनुस्मृति, रामायण मे मांस भक्षण और जीव हत्या :-

1 जो मांस नहीं खाएगा वह 21 बार पशु योनी में पैदा होगा-मनुस्मृति (5/35)

सनातनी:- यह श्लोक प्रक्षिप्त है यानी बाद में मिलाया हुआ है मनु प्राणी मात्र की हत्या के विरोधी थे, यह मिलावट सनातन धर्म को और महाराज मनु के लिखे संविधान को समाप्त करने के उद्देश्य से किया गया वामपंथियों का काम है

 

मुस्लिम:- 2 यजुर्वेद (30/15) मे घोडे की बलि कुर्बानी की जाती थी ।

सनातनी:- पुरे मन्त्र में घोडा गधा नहीं दिखा
लगता है जाकिर नाइक के गुण आ गये है जिसे वेदों में हर जगह मोहम्मद दिखता है लिंक देखो पूरा भाष्य पदार्थ के अर्थ सहित

http://www.onlineved.com/yajur-ved/?language=2&adhyay=30&mantra=15

मुस्लिम:- रामायण मे राम और दशरथ द्वारा हिरण का शिकार और मांस भक्षण देखे 🙁 वाल्मिकी रामायण अयोध्या कांड (52/89) गीता प्रेस गोरखपुर प्रकाशन )

सनातनी:- अयोध्याकाण्ड में किसी हिरण को मारने और मांस भक्षण का प्रमाण नहीं

हाँ एक बार जंगली हाथी को मारने के प्रयास में गलती से बाण एक मनुष्य को अवश्य लगा जिसका राजा दशरथ को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने उस कर्म को अपना पाप माना और उसी पाप के फलस्वरूप उन्होंने अपना देह त्याग दिया

वास्तव में मूर्खों का सानी कोई नहीं अरे मूर्खों प्रमाण तो सही दिया करो
यह अरण्यकाण्ड के सताईसवे सर्ग में आया हुआ है और इसमें कही मांस भक्षण जैसी बात ही नहीं है वह हिरण भी मारीच राक्षष था जिसने हिरण का रूप धारण कर रखा था जैसे आजकल बहरूपिये रूप धारण करते है वेसे ही

मुस्लिम:- 3 ऋषि वामदेव ने कुत्ते का मांस खाया (मनुस्मृति 10/106)

सनातनी:- यह श्लोक भी प्रक्षिप्त है

मुस्लिम:- ऋग्वेद मे (1/162/10)

सनातनी:- http://www.onlineved.com/rig-ved/?language=2&mandal=1&sukt=162&mantra=10

मुस्लिम:- ऋग्वेद (1/162 /11) मे घोडे की कुर्बानी का जिक्र है ।

सनातनी:- http://www.onlineved.com/rig-ved/?language=2&mandal=1&sukt=162&mantra=11

 

इन दोनों मन्त्रों में कही घोडा नहीं है समझ नहीं आता है ये औरत के मुह वाले घोड़े खच्चर (मेराज) का असर तो नहीं रह गया अभी तक दिमाग में

ये लो मुसलमानों तुम्हारे बेसर पैर के घटिया आरोपों का जवाब

अब जाओं और कुछ नया लाओं जो तुम्हारे जीव हत्यारे मत की इज्जत बचा सके