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हलाल व हराम – चमूपति

क़ुरान में कुछ आयतें खाने पीने के सम्बन्ध में आई हैं –

 इन्नमा हर्र्मा अलैकुमुल मैतता व इदमावलहमलखंजीरे व मा उहिल्लमा बिहीबिगैरिल्लाह – सूरते बकर आयत १७३

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वास्तव में तुम्हारे मृतक शरीर का (प्रयोग ) हराम (निषिद्ध )  किया गया है. सुअर  का लहू व गोश्त भी (अवैध ) है और वह भी (निषिद्ध) है जिस पर खुद के सिवाय कोई और (नाम ) पुकारा जाये।

इस्लाम के लोग ‘मैतता ‘ का अर्थ करते हैं जो स्व्यम मर जाएँ। शाब्दिक अर्थ तो यह है ‘ जो मर गया हो’ और उस पर अल्लाह मियाँ  का नाम लेने का अर्थ है वध करते हुए अल्लाहो अकबर व बिस्मिल्लाहहिर्रहमानिर्ररहीम पड़ना। इधर दयालु व कृपालु अलह का नाम लेना उधर मूक पशु के गले पर छुरी फेर देना कुछ तो वाणी और प्रसंग का संतुलन होना चाहिए।

सूरते मायदा में आया है –

हराम  (निषिद्ध) किया गया तुम पर मुरदार (मृत शरीर ) लहू और गोश्त सूअर का और जिसके (वध पर ) अल्लाह के अतिरिक्त कुछ और पड़ा जाये और जो घुटकर मर गया और जो लाठी  व पत्थर की चोट से और जो गिरकर और जो सींग मारने से या जानवरों के खाये जाने से (मर गया हो ) – सूरते मायदा आयत – ३

यदि यह ताजा मरे हुए मिल जाएँ तो उनमे और अपने हाथ से मारे हुए में फर्क क्या है ? इसके अतिरिक्त कि उन पर दयालु परमात्मा का नाम लेकर छुरी नहीं चलाई गई

हिंसक जंतुओं के स्वाभाव से बचो ! – हरम तो और भी कई चीजें हैं. जैसे मनुष्य का गोश्त हिंसक जीवों का गोश्त आदि आदि परन्तु उनका वर्णन क़ुरान में नहीं आया. हिंसक जीवों के माँस के निषेध के लिए तर्क यह दिया जाता है कि इससे खाने वाले में हिंसक जीवों के गुण आते हैं. नादिर बेग मिर्जा ने इस पर अच्छा प्रश्न किया है कि इन दरिंदों में यह गुण कहाँ से आ गए ? मांसाहार से ही तो ! हैम व्यर्थ में ही हिंसक बने भी जाते हैं और कहते भी हैं कि पशुओं के अवगुणों से बचना चाहिए अस्तु ये है बाद की व्याख्याएं। क्या ईश्वरीय सन्देश की कमी नहीं है कि इसमें निषिद्ध वस्तुओं की सूची अत्यंत अपूर्ण दी है. जिसे क़ुरान के पूर्ण ईश्वरीय ज्ञान होने का विश्वास हो वह क्या इन निषिद्ध वस्तुओं के अतिरिक्त और सब वस्तुएं वैध समझी जाएँ ?

रोज भी खाने पीने से सम्बन्ध रखता है इसका यहाँ वर्णन कर देना उचित न होगा। फ़रमाया है -ए वह लोग ! जो ईमान लाये हो तुम्हारे लिए रोजा निर्धारित किया जाता है जैसा तुमसे पहले वालों के लिए निर्धारित किया गया था।  सम्भव है तुम परहेजगार हो.- सूरते बकर आयत १८३

रोज का लाभ तो शारीरिक है कि कभी कभी  खाली रखने से पाचन शक्ति अपने कार्य इ में  उपयोगी बन जाती है. इसके अतिरिक्त साधक लोग इंद्रियों के ऊपर नियंत्रण पाने के लिए उपवास कर लेते हैं. उपरोक्त आयत में लल्लाह – कुमत्त्कुन (अर्थात सम्भव है तुम परहेजगार बन जाओ ) का तात्पर्य यही मालूम होता है. यह क़ुरान कोई नया  आदेश न था, अपितु जैसे इस आयत में स्पष्ट वर्णन किया है इससे पूर्व के संप्रदायों में भी उपवास (रोजे ) का आदेश था. जैसे हिन्दू विभिन्न प्रकार के व्रत रखते थे एक व्रत एक महीने का होता था इसका नाम चन्द्रायण व्रत था. इसमें शनै शनै भोजन घटाते व बढ़ाते थे. दिन में एक बार थोड़ा सा खाकर शेष समय भूखे रहते थे. दूसरी जातियों ने इसमें कुछ कुछ परिवर्तन कर लिया। परहेजगारी के उद्देश्य के लिए वासनाओं पर अधिकार पाने के लिए दमन व संयम की शिक्षा थी अतएव मैथुन निषिद्ध था. साधना इसके लिए उपवास और फिर मैथुन ? या तो दो सर्वथा विरोधी वृत्तियाँ हैं. खाने की भी सीमा थी कि हल्के व थोड़े आहार पर रहा जाये। पहले पहले मुसलमानो में भी यह रिवाज था परन्तु मुसलमानों में असंयम का जोर देखकर यह आयत उतरी |

रोजा और संयम – हलाल (वैध ) की गईं हैं तुम्हारे लिए रोजे की रात कि वासना करो अपनी बीवियों से. वे तुम्हारे परदा हैं और तुम उनके वास्ते हो. अल्लाह ने जाना कि तुम धोखा देते हो अपने आपको अतः उसने तुम पर दृष्टी डाली और क्षमा किया तुमको अतः अब मैथुन करो और जो चाहो खाओ पियो जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए निर्धारित किया यहाँ तक कि प्रातःकाल हो जाये तुम्हारे लिए सफ़ेद धागा काले धागे से प्रातःकाल होने पर –

मुजिहुल क़ुरान में  लिखा है –

कुछ लोग इस बीच न रह सके (मैथुन के बिना ) फिर हजरत के पास प्रार्थना की. यह आयत उतरी।

ऐसे रोजे से जिसमें सारी रात खाने पीने की छूट हो और मानसिक वासनाओं पर इतना भी संयम न हो कि चाओ यह एक महीना सही अकेले रहे (इससे) न कोई शारीरिक लाभ कल्पित हिअ न अध्यात्मिक।

अल्लाहमियाँ की कसमें | – चमूपति

क़ुरान में कसमें खाना निषिद्ध है. अतएव  कहा गया है –

कुलला तकसमू  – सूरते नूर ५३

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कह कि कसमें मत खाओ

परन्तु स्वयं परमात्मा स्थान स्थान पर कसमें खाता चला जाता है.

त  अल्लाह लक़द अरसलना – सूरते नहल आयत ६३

कसम है अल्लाह की भेजे हमने पैगम्बर

यह कौन है ? –  इस बात को ध्यान दें कि कसम खानी  भी चाहिए कि नहीं। क्या यह वचन अल्लाह का विदित होता है ? अल्लाह तो अपने आप को हम (बहुवचन ) कह रहा है , परन्तु कसम खाते हुए कहता है कि अल्लाह मियाँ  की कसम , स्पष्ट है कि ‘ हम’ कोई और है और अल्लाह मियाँ  कोई दूसरा।

 

वलकुरानुल हकीम

कसम है कुराने हकीम की

फल अकसमो बिबाकि अन्नुजूम – सूरते वाकिया आयत ७५

बस कसम खाता हूँ गिरने वाले तारों की

वस्समाओ जातल  बरजे – सूरते बुरुज आयत – १

और कसम है आसमान बुरजों वाले की

 

कुरान  में इस प्रकार की कसमों की भरमार है. यह कसमें क्या हैं ? ईंट की कसम , पत्थर की कसम, घोड़े के टापों  की कसम, कुछ निरर्थक सी बात प्रतीत होती है मगर यह है ईश्वरीय सन्देश (इल्हाम) का भाग ! कोई साधारण व्यक्ति किसी बात में कसम खाये तो कहते हैं कि इसे अपने आप पर विश्वास नहीं। परन्तु अल्लाहमियाँ  को कोई क्या कहे ? बड़े आदमियों को अदालत भी कसम से छूट देती है, परन्तु यहाँ तो अदालत की भी विवशता नहीं कि कानून के नियम का बंधन हो और इस आज्ञापालन से बच न सकें। होगी कोई बात|

कहीं इस निरर्थक अनावश्यक कसमें खाने का नाम ही तो साहित्य सौष्ठव नहीं। कुरान  मानने वालों का दावा  है कुरान जैसा कोई साहित्य सौष्ठव पूर्ण नहीं |

क़ुरान में नारी का रूप- चमूपति

फिर मानव मात्र का अर्थ ही कुछ नहीं – संसार की जनसंख्या  की आधी स्त्रियां हिएँ और किसी मत का यह दावा कि वह मानव मात्र के लिए कल्याण करने आया है इस कसौटी पर परखा जाना आवश्यक है कि वह मानव समाज के इस अर्थ भाग को सामजिक नैतिक और आध्यात्मिक अधिकार क्या देता है. क़ुरान में कुंवारा रहना मना है. बिना विवाह के कोई मनुष्य रह नहीं सकता। अल्प व्यस्क बच्चा तो होता ही माँ  बाप के हाथ का खिलौना होता है. वयस्क होने पर मुसलमान स्त्रियों को यह आदेश है –

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व करना फी बयुति कन्ना – सूरते अह्जाब आयत ३२

और ठहरी रहो अपने घरों में

यही वह आयत है जिसके आधार पर परदा प्रथा खड़ी की गयी. इससे शारीरिक मानसिक नैतिक व आध्यात्मिक सब प्रकार की हानियाँ होती हैं और हो रही हैं।  स्व्यम इस्लामी देशों में इस प्रथा के विरुद्ध कड़ा आंदोलन किया जा रहा है. कानून बन रहे हैं जिससे परेड को अनावश्यक ही नहीं अनुचित घोषित किया जा रहा है. परदा इस बात का प्रमाण है कि स्त्री अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं रखती। वह स्वतंत्र रह नहीं सकती। विवाह से पूर्व व बाद में दोनों दशाओं में परदे  का प्रतिबन्ध बना रहता है. Continue reading क़ुरान में नारी का रूप- चमूपति

पण्डित नरदेव शास्त्री

आर्य समाज के त्यागी व तपस्वी कार्यकर्ताओं में एसे अनेक महापुरुष हुए जिनका नाम शिक्शा, साहित्य तथा यहां तक कि रजनीति के क्षेत्र में भी समान रुप से रुचि लेते हुए देश की स्वाधीनता के लिए भर पूर योगदान किया । एसे आर्य समाजियों में पण्डित नरदेव शास्त्री भी एक थे । मात्र पं. नरदेव के नाम से एक भ्रम भी पैदा होता है क्योंकि आर्य समाज के विद्वानों में तीन व्यक्ति एसे हुए जो नरदेव के नाम से जाने गए । इन तीन में एक पं नरदेव वेदलंकार, दूसरे डा. नरदेव शास्त्री तथा त्रतीय हमारी इस कथा के कथानक पं. नरदेव शास्त्री, वेद तीर्थ । इस प्रकार एक के नाम के साथ वेदालंकार , दूसरे के नाम के साथ शास्त्री व तीसरे के नाम के साथ वेदतीर्थ होने से तीनों की पहचान अलग अलग हो पायी ।

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पण्डित नरदेव जी का जन्म शैडम गाव , जो उस समय हैदराबाद की रियासत में था , मे दिनांक २१ अक्टूबर सन १८८० को हुआ । आप के पिता का नाम पं. निवास राव तथा माता का नाम श्री मती क्रष्णा बाई था , जो कि ब्राह्मण कुल से थे । जन्म के समय आप का नामकरण नरसिंहाराव के नाम से दिया गया किन्तु जब आप आर्य समाज के सम्पर्क में आये तो आप ने स्वयं ही अपना नाम बदल कर नरदेव कर लिया किन्तु मित्र मण्डली में आप राव जी के नाम से ही जाने जाते थे ।
इस राव जी की आरम्भिक शिक्शा पूणा में हुई । आरम्भिक शिक्शा पूर्ण कर आपके मन में संस्क्रत की उच्च शिक्शा प्राप्ति की इच्छा शक्ति उदय हुई , जिसकी पूर्ति के लिए आप लाहौर के लिए रवाना हो गये । लाहौर रहते हुए आपने सन १९०३ में शास्त्री परीक्शा उतीर्ण की । इस शास्त्री शिक्शा काल में ही आपका सम्पर्क आर्य समाज से हुआ । लाहौर उस काल में आर्य समाज का मुख्य केन्द्र था तथा यहां आर्य समाज के बडे बडे विद्वान आते ही रहते थे । इस विद्वानों से आपका सम्पर्क होता ही रहता था , उनसे चर्चा के अवसर मिलते ही रह्ते थे अत; आप जल्दी ही आर्य समाज की गतिविधियों में बडी रुचि के साथ भाग लेने लगे ।
एक संस्क्रत का विद्वान ओर वह भी आर्य समाजी , अत: उसके मन में वेदाध्ययन की इच्छा का होना स्वाभाविक ही है । इस कारण ही आप के मन में भी वेद का विस्तार से अधययन करने की इच्छा उत्पन्न हुई । इस कारण इस इच्छा की पूर्ति के लिए कलकता जा कर वहां के वेद के उच्च कोटि के विद्वान सामश्रमी जी से आप ने रिग्वेद की शिक्शा का मार्गदर्शन प्राप्त किया । इसी रिग्वेद की ही वेदतीर्थ परीक्शा आपने कलकता विश्व विद्यालय से उतीर्ण की तथा वेदतीर्थ नाम से प्रसिद्ध हुए । इन्हीं दिनों में ही आपने व्याकरण , दर्शन तथा साहित्य का भी भली प्रकार से अध्ययन कर इन पर भी पाण्डित्य प्राप्त किया ।
कलकता की शिक्शा पूर्ण कर आपकी नियुक्ति गुरुकुल कांगडी में निरुक्त के प्राध्यापक स्वरुप हुई किन्तु १९०६ – १९०७ तक की मात्र थोडी सी अवधि ही यहां टिक पाये तथा अगले वर्ष आपने फ़र्रुखाबाद के आचार्य स्वरुप कार्य किया । यह गुरुकुल आर्य प्रतिनिधि सभा संयुक्त प्रान्त द्वारा संचालित होता था । यहां भी आप अधिक समय न रुक सके तथा इस १९०८ के वर्ष में ही आप ज्वालापुर आ गये तथा यहां के गुरुकुल महाविद्यालय में नियुक्त हुए । यह स्थान आप को सुहा गया तथा लम्बे समय तक अर्थात सन १९५७ तक आप ने विभिन्न पदों पर इस गुरुकुल को अपनी सेवाएं दीं । इस गुरुकुल में आप मुख्याध्यापक, आचार्य , मुख्याधिष्टाता, मन्त्री , उप प्रधान ओर कुलपति आदि प्राय: विभिन्न पदों पर कार्य करते रहे ।
आप राजनीति के भी अच्छे खिलाडी थे । इस कारण देश के स्वाधीनता अन्दोलन में निरन्तर भाग लेते रहते थे । इस कारण अनेक बार कारावास भी हुआ किन्तु कभी घबराये नहीं । १९४७ में देश के स्वाधीन होने पर उतर प्रदेश में जो विधान सभा बनाई गयी आप १९५२ से १९५७ तक इस के सद्स्य रहे । संस्क्रत प्रेमी का हिन्दी प्रेम तो होना ही था । अत: हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्यों में अत्यधिक रुचि रही तथा इसका जो १९२४ में देहरादून में सम्मेलन हुआ , इसके आप स्वागताध्यक्श थे । इसके भरत पुर अधिवेशन में जिस पत्रकार सम्मेलन का आयोजन किया गया , उसके भी आप अध्यक्श बनाए गये तथा जब सन १९३६ में नागपुर में सम्मेलन हुआ तो आप को दर्शन सम्मेलन का सभापति बनाया गया ।

कुशल पत्रकार होने के नाते गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर के मासिक मुख पत्र भारतोदय के सम्पादक पं. पद्म सिंह शर्मा थे तो आप १९६६ वि. में इसके सह सम्पादक रहे । मुरादाबाद से शंकर नाम से जो मासिक निकलता था , उसके भी आप सम्पादक थे ।
आप ने अपने जीवन काल मेम अनेक पुस्तके लिख्ह कर भि देश व आर्य समाज का मार्ग दर्शन किया । इन पुस्तकों एम रिग्वेदालोचन, गीता विमर्श, आर्य समाज्का इतिहास , पत्र पुष्प , यग्ये पशुवधो वेद्विरुध:, सचित्र शुद्बोबोध (जीवन चरित), गुरुकुल महाविद्यालय का इतिहास, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती स्म्क्शिप्त जीवन, याग्य्वल्क्य चरित, कारावास की राम कहानी , अछूत मीमाम्सा तथा कालगति आदि |
इस प्रकार पण्डित जी ने समय समय पर विभिन्न प्रकार से आर्य समाज की सेवा की । अन्त में २४ सितम्बर १९६२ इस्वी को आप इस संसार को त्याग गये , सदा सदा के लिए छोड गये ।

हनुमान आदि बन्दर नहीं थे ? – स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

वानर –  वने भवं वानम , राति ( रा आदाने ) गृह्णाति ददाति वा. वानं वन सम्बन्धिनम फलादिकम् गृह्णाति ददाति वा –  जो वन   उत्पन्न होने वाले फलादि खाता है वह वानर कहलाता है. वर्तमान में जंगलों व पहाड़ों में  रहने और वहाँ पैदा होने वाले पदार्थों पर निर्वाह करने वाले “गिरिजन” कहाते हैं. इसी प्रकार  वनवासी और वानप्रस्थ वानर वर्ग में गिने जा सकते हैं. वानर शब्द से किसी योनि विशेष जाति  प्रजाति अथवा उपजाति का बोध नहीं होता।

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जिसके द्वारा जाति  एवं जाति  के चिन्हों को प्रगट किया जाता है वह आकृति है. प्राणिदेह के अवयवों की नियत रचना जाति  का चिन्ह होती है. सुग्रीव बाली  आदि के जो  चित्र देखने में आते हैं उनमें  उनके पूंछ  लगी दिखाई है  परन्तु उनकी स्त्रियों के पूंछ  नहीं होती। नर मादा में इस प्रकार का भेद अन्य किसी वर्ग में देखने में नहीं आता. इसलिए पूंछ  के कारण हनुमान आदि को बन्दर नहीं माना जा सकता। Continue reading हनुमान आदि बन्दर नहीं थे ? – स्वामी विद्यानन्द सरस्वती