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यज्ञ विधि की शंका समाधान : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा १- आचार्य सोमदेव जी की सेवा में सादर नमस्ते।

आर्यसमाजी दुनिया के किसी कोने में क्यों न हो। वे भगवान् के लिए हवन ही करते हैं। वेद की आज्ञा के आधार पर हमारे टापू में भी आर्यसमाज की तीन संस्थाएँ हैं, जो यज्ञ हवन बराबर करते आ रहे हैं।

हवन करते समय कहीं-कहीं पहले आचमन करते हैं, अंगस्पर्श और शेष कर्मकाण्ड। कहीं पर देखते हैं कि बिना आचमन किये ईश्वर-स्तुति-प्रार्थना, शान्तिकरण और अन्य मन्त्र पढऩे के बाद आचमन करते हैं, अग्न्याधान करते हैं और शेष पश्चात्। उसमें सही कौन है? पहले आचमन, अंगस्पर्श या मन्त्रों को पढक़र आचमन, अंग स्पर्श बाद में। यह मनमानी तो नहीं है या ऋषि दयानन्द की आज्ञा के आधार पर करते हैं, यह आपकी वाणी के आशीर्वाद से स्पष्टीकरण हो जायेगा, प्रतीक्षा रहेगी। अग्रिम धन्यवाद।

– सोनालाल नेमधारी, मॉरिशस


जिज्ञासा २- माननीय आचार्य जी, सादर नमस्ते।

विनती विशेष, मैं परोपकारी का नियमित पाठक हूँ। ‘शंका समाधान’ स्तम्भ के माध्यम से बहुत सारी शंकाओं का समाधान हो जाता है, किन्तु अभी तक निम्न शंकाओं का समाधान नहीं मिला है, कृपा कर समाधान करें।

क- ब्रह्म पारायण यज्ञ क्या है तथा उसकी विधि किस प्रकार की है?

ख- यज्ञोपवीत धारण करते समय जिन मन्त्रों का पाठ किया जाता है, उसका दूसरा मन्त्र आधा ही क्यों लिखा तथा पढ़ा जाता है।

ग- आघारावाज्याभागाहुति जब-जब भी यज्ञ में जिस स्थान पर दी जायेगी, तब-तब उसी प्रकार निश्चित दिशाओं में दी जायेगी अथवा केवल यज्ञ के आरम्भ में ही? कृपया स्पष्ट करें।

घ- यज्ञ में आहुति देने के पश्चात् कहीं ‘इदं न मम’ बोला जाता है, कहीं नहीं। इसका प्राचीन गृह्य सूत्रादि ग्रन्थों के अनुसार क्या नियम है?

– आर्य प्रकाशवीर भीमसेन, उदगीर, महा.



समाधान १- यज्ञ करने की विधि के अनेक अंग है, स्तुति-प्रार्थना-उपासना, आचमन, अंगस्पर्श, जल सिञ्चन आदि। यज्ञ की विधि के अंगों का क्रम क्या हो, यह विधि विधान हमें एकरूप से देखने को नहीं मिलता। मुख्य रूप से आचमन व अंगस्पर्श के विषय में यह अधिक देखने को मिलता है। कहीं कोई आचमन, अंग-स्पर्श, स्तुति-प्रार्थना उपासना आदि मन्त्रों के पहले करता है, तो कहीं कोई बाद में। आर्यसमाज में यज्ञ की विधि में एकरूपता देखने को नहीं मिलती।

यदि एकरूपता स्थापित हो जाये तो सर्वोत्तम है, चाहे वह एकरूपता पहले आचमन, अंग-स्पर्श करने में हो, चाहे बाद में। पूरे विश्व में जहाँ भी आर्यसमाज का पुरोहित व्यक्ति यज्ञ करे-करवावे, तो उसी एकरूपता वाली पद्धति से करे-करवावे। ऐसा करने से हमारे संगठन में भी दृढ़ता आयेगी।

यदि आर्य-विद्वान्, आर्य-संस्थाएँ एकत्र होकर यज्ञ विषयक पद्धति को सुनिश्चित कर उसके अनुसार यज्ञ करें तो अधिक शोभनीय होगा।

हमारी दृष्टि से तो जो क्रम महर्षि दयानन्द ने संस्कार-विधि में दिया है, उसी क्रम से यज्ञ-विधि का सम्पादन करना चाहिए। महर्षि ने संस्कार-विधि में आचमन, अंगस्पर्श स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि मन्त्रों के बाद करने को लिखा, सो उनके लिखे अनुसार सभी आर्यजन अनुकरण करें। जहाँ कहीं हमें महर्षि का स्पष्ट लेख उपलब्ध नहीं होता, वहाँ आर्य-विद्वान् इक_ा हो, वेदानुकूल पद्धति का निर्माण कर लेवें और उसको स्थापित कर दें और आर्यजनों का कत्र्तव्य है कि उसका सब पालन करें। अस्तु।

समाधान २- (क) यज्ञ करने को ऋषियों ने हमारे जीवन से जोड़ा। जोडऩे के लिए इसको धार्मिक कृत्य के रूप में रखा। आज वर्तमान में धार्मिक कृत्य के नाम पर स्वार्थी लोग पाखण्ड करते दिखाई देते मिल जायेंगे, ऐसा करके वे अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। यज्ञ भी धार्मिक कृत्य है, इसमें भी स्वार्थी लोग अपना पाखण्ड जोड़ देते हैं। जैसे यज्ञों के विशेष-विशेष नाम रखना, सर्वमनोकामनापूर्ण यज्ञ, सर्वरोगहरण यज्ञ, अमुक-अमुक बचाओ यज्ञ, वशीकरण यज्ञ, शत्रुविनाशक यज्ञ आदि-आदि। जैसे ये आकर्षक नाम हंै, ऐसा ही ब्रह्मपारायण यज्ञ भी एक है। शास्त्र में ब्रह्मपारायण यज्ञ का वर्णन कहीं पढऩे-देखने को हमें मिला नहीं, किसी महानुभाव को मिला हो तो हमें भी अवगत कराने की कृपा करें। जब इसका वर्णन ही नहीं मिला तो इसकी विधि भी कैसे बता सकते हैं!

(ख) यज्ञोपवीत धारण करते समय जो दूसरे मन्त्र का पाठ किया जाता है, वह मन्त्र का आधा भाग है। आपका कथन है कि आधा भाग पूरा क्यों नहीं? इसमें हमारा कहना है कि अनेकत्र महर्षि की प्रवृत्ति देखी जाती है कि जितने भाग से प्रयोजन की सिद्धि हो रही है, उतने भाग को महर्षि ले लेते हैं, शेष को छोड़ देते हैं। यहाँ भी ऐसा ही है, इसलिए आधा भाग दिया है।

यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि।

अर्थात् तू यज्ञोपवीत है, तुझे यज्ञ कार्य के लिए यज्ञोपवीत के रूप में ग्रहण करता हूँ। यहाँ यज्ञोपवीत ग्रहण करना था इसलिए ‘उपनह्यामि’ तक का भाग ले लिया।

ग्रह्यसूत्र में ‘उपनह्यामि’ के बाद जो मन्त्र का भाग है वह यज्ञोपवीत विषयक नहीं है, उससे आगे प्रकरण बदल जाता है। वस्त्र, दण्ड आदि ग्रहण करने का प्रकरण प्रारम्भ हो जाता है, इसलिए मन्त्र का जितना भाग आवश्यक था, महर्षि उतने भाग का विनियोग कर लिया, शेष का नहीं।

(ग) ‘आघारावाज्याभागाहुति’ जब-जब देनी हो, तब-तब सुनिश्चित भाग में ही देनी चाहिए, यही उचित है।

(घ) यज्ञ में आहुति देने के पश्चात् ‘इदं न मम’ वाक्य कहाँ-कहाँ बोला जाता है और कहाँ नहीं, इसका ज्ञान हमें नहीं है, कहीं पढऩे को भी नहीं मिला, इसलिए इस विषय में कुछ कह नहीं सकते। हाँ, जैसा महर्षि ने निर्देश किया है, वैसा करते रहें, जब अधिक जानकारी प्राप्त हो जाये तो अधिक किया जा सकता है। अलम्।

 

ज्ञान की प्राप्ति कैसे?- राजेन्द्र जिज्ञासु

ज्ञान की प्राप्ति कैसे?- श्री पीताम्बर जी रामगढ़ (जैसलमेर निवासी) एक भावनाशील आर्य पुरुष हैं। सफल व्यापारी व कुशल मिशनरी हैं। आपने एक सूझबूझ वाले सज्जन से चलभाष पर मुझसे शंका समाधान करवाया। मैंने उस भाई के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि विस्तार से तड़प-झड़प में उत्तर दूँगा और मिलने पर वार्तालाप करेंगे, उस बन्धु का प्रश्न था कि ज्ञान कहाँ से कैसे प्राप्त होता है?

मैंने कहा वेदानुसार सृष्टि के आदि में परमात्मा ने ऋषियों की हृदय रूपी गुफा में ज्ञान का प्रकाश किया फिर परम्परा से यह ज्ञान अगली पीढिय़ों तक पहुँचता जाता है। अन्न, जल, वायु, प्रकाश, पेड़, पशु, शरीर सब कुछ भगवान् देता है। इनके उपयोग प्रयोग का ज्ञान भी उसी ने दिया। ज्ञान के बिना सुख के साधनों व सम्पदा को देने का लाभ ही क्या?

वेद में आता है हमें ज्ञानी पवित्र करें। हमें ज्ञानियों व दानियों का संग प्राप्त हो। श्रद्धा से सत्य की (ज्ञान की) प्राप्ति होती है। गीता का कथन है कि श्रद्धा से बढक़र पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं। कारण? श्रद्धा से सत्य प्राप्त होता है। ज्ञानी ही ज्ञान दे सकता है। यह वेदोपदेश है। मैं या आप वेद से तो आगे नहीं। उस सज्जन पुरुष ने माना कि वेद का वचन ही प्रमाण है। बिना सिखाये कोई कुछ नहीं सीखता। कपड़ा सीना जिसे आता हो, वही हमें अपनी कला का ज्ञान देता है, कृषक कृषि का ज्ञान देता है, वैज्ञानिक विज्ञान का ज्ञान देता है। जो स्वयं कुछ नहीं जानता, वह दूसरे को कुछ सिखाता नहीं देखा गया। जब मनुष्य कुछ ज्ञानी बन जाता है तो फिर जड़-चेतन, नदी-नालों, पेड़-पौधों, फूलों-कलियों, पशु-पक्षियों से भी शिक्षा ग्रहण कर लेता है। वे शिक्षा देते नहीं, यह ले लेता है। मनुष्य जो कुछ जानता है, वह अपनी कला, अपना ज्ञान दूसरे मनुष्यों को दे सकता है, जैसा ऊपर बताया गया है परन्तु, सर्कस का सिंह, हाथी, बकरा, बैल या पिंजरे का तोता कितना भी प्रशिक्षित कर दिया जाय, वह अपनी कला अपने जातीय बन्धुओं को नहीं सिखा सकता।

मनुष्य व मनुष्येतर योनियों का यह भेद हमें समझना होगा। सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, ज्ञान, प्रयत्न ये जीव के लक्षण हैं, परन्तु ज्ञान का आदान-प्रदान मनुष्य योनि में ही सम्भव है।

छ: दर्शनों की वेद मूलकता डॉ. धर्मवीर

साहित्य के अन्य क्षेत्रों की भांति भारतीय दर्शनों का भी अनेकधा विद्वानों ने विस्तृत अध्ययन किया है। दर्शन साहित्य को अनेक दृष्टिकोण से जाँचा और परखा है। इसका वर्गीकरण आस्तिक या नास्तिक, वैदिक या अवैदिक, सेश्वर, निरीश्वर अनेक प्रकार से देखने में आता है। इस सबके पश्चात् हमारे इस निबन्ध में ऐसा क्या शेष रहता है, जो आलोच्य हो। दर्शन सम्बन्धी अध्ययन करने पर एक बात बार-बार ध्यान आती रहती है, दर्शनों का अध्ययन करने वालों ने इसे समग्र रूप में देखने का प्रयास कम किया है। अनेक विद्वानों ने दर्शन शास्त्र का अध्ययन करते हुये, इनको पृथक्-पृथक् मानकर इनका अध्ययन व समालोचन किया है। इस कारण इनमें विद्यमान सामंजस्य की अपेक्षा विभेद विरोध में परिवर्तित होता दिखाई पड़ता है, जिसके कारण अनेक सम्प्रदाय परस्पर नीचा दिखाते अपशब्दों का प्रयोग करते दिखाई देते हैं। यह विरोध क्या उचित और वास्तविक है? इसे जाँचने के लिए इनके समग्र रूप का चिन्तन किया जाना चाहिए। इस दृष्टि से छ: भारतीय दर्शनों में क्या परस्पर सामंजस्य है, इस पर इस निबन्ध में विचार किया जायेगा।

समग्र अध्ययन की आवश्यकता- विरोध की विद्यमानता में एकरूपता की खोज क्यों आवश्यक है, यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है। दर्शन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष वस्तुओं का विवेचन कर यथार्थ का बोध कराने में सहायक होता है। इसलिए सभी दर्शनों में विरोध स्वाभाविक है, तो उनका निर्णय भिन्न-भिन्न होगा, ऐसा निर्णय दर्शन के लक्ष्य को पूरा करने में समर्थ नहीं होगा। विद्वानों के विचार में अनेक प्रकार से वस्तु को परखने की प्रवृत्ति हो सकती है, परन्तु वह विभिन्नता विरोध हो, यह अनिवार्य नहीं है। दर्शनों में विरोध स्वाभाविक इस कारण भी नहीं है, क्योंकि दर्शनों को शास्त्र कहा गया है। इनका दूसरा नाम उपाङ्ग है, जिस प्रकार वेदांग वेद के अंग होकर वेद के विरोधी नहीं हो सकते, उसी प्रकार वेद के उपांग वेद के विरोधी नहीं होने चाहिएं। यदि विरोध दिखाई दे तो उसे जानने का यत्न करना चाहिए कि यह विरोध वास्तविक है या कल्पित है। इस विरोध और अविरोध को जाँचने के कई प्रकार हो सकते हैं, उनमें से एक प्रकार है- दर्शनों की वेद के विषय में क्या सम्मति है। इस सम्मति को सब दर्शनों में देखने से विरोध या अविरोध का निश्चय करने में सहायता मिल सकती है।

प्रसिद्ध रूप में छ: दर्शन हैं, उनको दो-दो के साथ रखकर देखने की परम्परा है, जिससे प्रतीत होता है कि इनमें परस्पर निकटता है। यथा- सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त। इनकी एकरूपता या परस्पर पूरक होने के लिए ये प्रचलित कथ्य सहायक हो सकते हैं। यद्यपि आज ईश्वर-विचार के कारण सांख्य और योग में कोई साम्य नहीं दिखाई देता, परन्तु डॉ. राधाकृष्णन् का कथन है- ‘सांख्य इज़ द थ्योरी ऑफ योग एण्ड योग इज़ द प्रेक्टिस ऑफ द सांख्य’, यदि इनमें विरोध है तो समानता के इस प्रकार के प्रसंग निश्चय ही विरोध से अधिक होने चाहिएँ।

इसी प्रकार मीमांसा और वेदान्त विरोधी समझे जाते हैं, परन्तु एक का नाम पूर्व मीमांसा है और दूसरे का नाम उत्तर मीमांसा है, जो दर्शन के लक्ष्य और क्षेत्र को प्रकाशित कर रहे हैं। मीमांसा करना दोनों का लक्ष्य है, परन्तु पूर्व और उत्तर शब्द मीमांसा के क्षेत्र पर स्पष्ट रूप से प्रकाश डाल रहे हैं। इस प्रकार क्षेत्र भिन्न होने पर भी उनमें विरोध हो, यह अनिवार्य नहीं है। इस प्रकार इन दर्शनों को विरोधी कहने से पूर्व हमको विचार अवश्य कर लेना चाहिए। इसमें विद्वानों के विचार के साथ-साथ दर्शन स्वयं इस पर कैसी दृष्टि रखते हैं, यह जानना उचित है। इसी बात के लिए इस प्रसंग में दर्शनों में वेद सम्बन्धी विचारों का विवेचन किया गया है।

योग दर्शन और वेद- योग दर्शन में वेद की चर्चा अनेक स्थानों पर आई है। स्पष्ट रूप से वेद शब्द नहीं है, परन्तु अन्य प्रकार से वहाँ वेद का ही ग्रहण है, इसे व्याख्याकारों ने भी उसी प्रकार स्वीकार किया है। सर्वप्रथम योगदर्शन में वृत्तियों के निरूपण प्रसंग में प्रमाणों की विवेचना करते हुए कहा गया है- प्रत्यक्षानुमानागमा: प्रमाणानि। (१-७) यहाँ आगम शब्द मुख्य रूप से वेद का बोधक है, जैसा कि समस्त आर्ष साहित्य में अधिगृहीत होता है।

इसी प्रकार वैराग्य की विवेचना करते हुए आनुश्रविक शब्द का प्रयोग किया गया है, जो वेद के अर्थ में आता है अनुश्रवो वेद:- इस प्रकार लौकिक एवं वैदिक विषयों का योग में निषेधात्मक सम्बन्ध दर्शाया है कि जो सम्बन्ध आत्मा में आसक्ति के भाव बढ़ाते हैं। दृष्टानुश्रविक विषय वितृष्णस्य वशीकार संज्ञा वैराग्यम्। – योग (१-१५)

योगदर्शन के द्वितीय पाद में क्रिया योग को समझाते हुए तप और ईश्वर प्रणिधान के साथ स्वाध्याय का उल्लेख है, जिससे मुख्य रूप से वेद एवं गौण रूप से उपनिषदादि आध्यात्मिक शास्त्रों का ग्रहण होता है। ‘तप: स्वाध्यायेश्वर-प्रणिधानानि क्रियायोग:’ -योगदर्शन (२-१)

इसी प्रकार इसी पाद में योग के आठ अंगों में से नियम की व्याख्या करते हुए फिर से स्वाध्याय शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ वेद है। ‘शौच सन्तोष तप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा:’ (२-३२)। इसी प्रसंग में स्वाध्याय का लाभ दर्शाते हुए इसे परमात्मा का साक्षात्कार कराने वाला कहा है – ‘स्वाध्यायादिष्टदेवता सम्प्रयोग:’ (२-४४)

योगदर्शन के कैवल्य पाद में सिद्धियों के भेद बतलाते हुए मन्त्रजा सिद्धियों का उल्लेख है। इसकी व्याख्या करते हुए मन्त्र का अर्थ वेद किया है।

इस विवरण से स्पष्ट है कि दर्शन का लक्ष्य ईश्वर होने पर भी उसकी प्राप्ति का साधन वेद है और योगदर्शन का ईश्वर वेद प्रतिपादित ईश्वर से भिन्न नहीं है। इस प्रकार योगदर्शन को वेद का उपाङ्ग कहा जाना उचित प्रतीत होता है।

सांख्य दर्शन और वेद- सांख्य दर्शन को आजकल का पठित व्यक्ति निरीश्वरवादी जानता है। सांख्य ग्रंथ के रूप में ईश्वर कृष्ण विरचित सांख्यकारिका का ही पठन-पाठन होता है। यह स्पष्ट रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। सांख्य सूत्र को अन्य सूत्र ग्रन्थों की भांति विद्वानों ने प्राचीन स्वीकार किया है। इस विषय में दर्शन के इस युग के विद्वान् आचार्य उदयवीर शास्त्री के सांख्यदर्शन का इतिहास और सांख्य सिद्धान्त ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार सांख्य निरीश्वरवादी नहीं है। यह दर्शन वैदिक दर्शन है अत: वेद के सम्बन्ध में दर्शन ने क्या कहा है, प्रस्तुत प्रसंग में इतना ही विवेचन पर्याप्त है। इस विवेचन से स्वत: स्पष्ट होगा कि जिसे वेद मान्य है, उसे वेदोक्त विचार भी मान्य हैं।

जीव के मध्यम परिमाण की सिद्धि करते हुए जीवन में गति किस प्रकार होती है, इसका विवेचन करते हुए कहा गया है- ‘गतिश्रुतिरप्युपाधियोगादाकाशवत्’ (१-५१) यहाँ पर श्रुति द्वारा प्रतिपादित गति का आकाश की भांति जीव में घटित होना बताया है, श्रुति में वेद व उपनिषदों में इसके उदाहरण दर्शाये हैं, यथा- ‘आयोधर्माणि प्रथम’ (अथर्व. ५-१-२)

इसी भांति प्रकृति के उपादानकारण का निरूपण करते हुए कहा है- तदुत्पत्तिश्रुतेश्च (सांख्य १-७७) श्रुति में प्रकृति को उपादान कारण कहा गया है।

मुक्तात्मन: प्रशंसोपासा सिद्धस्य वा (सां. १-१५) सृष्टिकत्र्ता परमात्मा की प्रशंसा वेद में सपर्य. यजु. ४०-८ तथा पूर्णात् पूर्ण. अथर्व. १०-८-२९ उसमें आगे सिद्धरूपबोद्धृत्वाद्वाक्यार्थोपदेश: (सां. १-९८) में ईश्वर से वेद के प्रादुर्भाव की चर्चा है। इसी प्रकार तीसरे अध्याय के श्रुतिश्च (सां. ३-८०) वेद के आधार पर विवेक-ज्ञान हो जाने पर जीवन्मुक्त होने की चर्चा है। आगे वैदिक कर्मों के अनुष्ठान की आवश्यकता बतलाते हुए कहा गया है, मंगलाचरणं शिष्टाचारात् फलदर्शनात् श्रुतितश्चेति (सां. ५-१) कुर्वन्नेवेहकर्माणि. यजुर्वेद (४०-२) में वैदिक कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने के लिए कहा है। श्रुतिरपि प्रधानकार्यत्वस्य (सां. ५-१२) में प्रकृति के कार्य को बताने में श्रुति को प्रमाण कहा है। लोक की भांति वेद की भी सार्थकता बताते हुए कहा है- लोके व्युत्पन्नस्य वेदार्थप्रतीति:। (सां. ५-४०) जिस प्रकार लौकिक वाक्यों का अर्थ होता है, उसी प्रकार वेद-वाक्यों का भी अर्थज्ञान होता है। इससे आगे स्पष्ट रूप से वेद के प्रयोजन को इस प्रकार बताया है- न त्रिभिरपौरुषेयत्वाद् वेदस्य तदर्थस्याप्यतीन्द्रियत्वात् (सां. ५-४१) और आगे के सूत्रों में वेद की अपौरुषेयता प्रतिपादित की गई- न पौरुषेयत्वं तत्कत्र्तु: पुरुषस्याभावात्। (५-४६) वेद को अपौरुषेय के साथ स्वत: प्रमाण भी माना गया है- निजशक्त्याभिव्यक्ते: स्वत: प्रामाण्यम्। (सां. ५-५१) वेद ईश्वर की निज शक्ति से अभिव्यक्ति होने से स्वत: प्रमाण है। सांख्यदर्शन का उद्देश्य भी अन्य दर्शन से भिन्न नहीं है, जिस प्रकार योगदर्शन का उद्देश्य समाधि और मोक्ष है, उसी प्रकार सांख्य में भी इसी उद्देश्य का प्रतिपादन किया गया है- समाधिसुषुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता। (सां. ५-११६) अर्थात् समाधि, सुषुप्ति और मोक्ष में ब्रह्म के साथ स्थिति रहती है।

इस प्रकार सांख्य और योग में कहीं भी विरोध की प्रतीति नहीं होती, वेद के सम्बन्ध में भी दोनों दर्शनों के दृष्टिकोण में कोई विरोध नहीं मिलता।

वैशेषिक दर्शन- सांख्य-योग की भांति न्याय-वैशेषिक को भी एक युग्म स्वीकार किया जाता है। अन्य दर्शनों की भांति वैशेषिक दर्शन में वेद विषय की धारणा अन्य दर्शनों से भिन्न या विरोधी नहीं है। दर्शन में धर्म के प्रमाण के लिए वेद को मुख्य कहा गया है- तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम् (वै. १-१-३) धर्म का मुख्य प्रतिपादक प्रमाण वेद है। आगे वायु की संज्ञा वैदिक बताते हुए कहा है- तस्मादागमिकम् (वै. २-१-१७) आगे पुन:- तस्मादागमिक: (वै. ३-२-८) में आत्म संज्ञा को वेदोक्त बताया है। अयोनिज शरीरों की चर्चा में वेद को प्रमाण मानते हुए कहा है- वेदलिङ्गाच्च (वै. ४-२-११) अर्थात् वेद प्रमाण से भी उक्त अर्थ की सिद्धि होती है। आगे वैदिकाच्च (वै. ५-२-१०) दर्शनकार वेद को प्रमाण मानते हुए कहता है- बुद्धिपूर्वावाक्यकृतिर्वेदे (वै. ६-१-१) वेद में जो उपदेश किया गया है, वह सब बुद्धिपूर्वक है। बुद्धिपूर्वो ददाति (वै. ६-१-३) वेद द्वारा दान देने का विधान बुद्धिपूर्वक है। दर्शनकार अन्त में कहता है- तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यमिति (वै. १०-२-९) ईश्वर का वचन होने से वेद स्वत: प्रमाण है।

इन सूत्रों में वेद विषय में जो विचार व्यक्त किये हैं, इनसे स्पष्ट प्रतीत होता है। वेद विषय में दर्शन की धारणापूर्वक मान्यता समान प्रतीति होती है। अत: वेद की मान्यता से किसी भी दर्शन का विरोध नहीं है, अत: दर्शन में भी परस्पर विरोध का प्रतिपादन करना किस प्रकार उचित कहा जा सकता है।

न्याय दर्शन- न्याय दर्शन में अनेक प्रसंग है, जिसमें वेद के प्रति आदरभाव दर्शाया गया है। वेद को स्पष्ट रूप से प्रमाण मानते हुए दर्शनकार कहता है- मन्त्रायुर्वेद-प्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात्। (न्याय २/१/६९) मन्त्र तथा आयुर्वेद के समान आप्तोक्त होने से वेद प्रमाण है। आगे शरीर पार्थिव होने में शब्द प्रमाण का कथन करते हुए कहा गया है- श्रुतिप्रामाण्याच्च (न्याय. ३/१/३२) भस्मान्तं शरीरम्- आदि श्रुति के प्रमाण होने से शरीर पार्थिव है। अन्तिम अध्याय में दर्शन का उपसंहार करते हुए- समाधिविशेषाभ्यासात् (न्याय. ४/२/३८) में तत्त्वज्ञान के लिए योगदर्शन की भांति समाधि के अभ्यास का विधान किया गया है और तदर्थं यमनियमाभ्यामात्म-संस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायै:। (न्याय. ४/२/४६) में योग का साधन यम-नियमों का पालन करने का विधान किया है।

इस प्रकार दर्शनों का लक्ष्य भी समान प्रतीत होता है। लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन भी समान हैं। फिर उनके सैद्धान्तिक विरोध की कल्पना करना, इन प्रमाणों की विद्यमानता में उचित प्रतीत नहीं होता।

पूर्व मीमांसा और वेद- मीमांसा दर्शन वेद के शब्द अर्थ सम्बन्ध को नित्य प्रतिपादित करता है यथा (१/१/५) साथ ही वेद के अपौरुषेय और नित्य होने में जितनी बाधक युक्तियाँ हैं, उनका निरसन किया गया है। इस प्रकरण में- वेदांश्चैके सन्निकर्षपुरुषाख्या:। (मीमांसा १/१/२७) कुछ लोग वेदों का रचयिता पुरुषों को बतलाते हैं- इस प्रसंग में इसका खण्डन किया गया है तथा परन्तु श्रुतिसामान्यमात्रम्। (मीमांसा १/१/३१) मन्त्र में आये ऋषि नामों को सामान्य संज्ञा बतलाया है। साथ ही सर्वत्वमाधिकारिकम् (१/२/१६) में सभी का वेदाध्ययन में अधिकार प्रतिपादित किया है। वेद का पाठ मात्र दर्शनकार को अभिप्रेत नहीं है- बुद्धशास्त्रात् (मीमांसा १/२/३३) में वेद के अर्थ सहित पठन-पाठन का विधान किया है। वेद से भिन्न वेद व्याख्या ग्रन्थों को दर्शनकार बाह्य कहता है- शेषे ब्राह्मणशब्द: (२/१/३३)

मीमांसा दर्शन यज्ञ-कर्मकाण्ड का प्रतिपादक है और वेद को परम प्रमाण स्वीकार करने वाला ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के अधिकांश सूत्र वेद की समस्याओं का समाधान करते हैं। इस प्रकार यह शास्त्र वेद के सम्बन्ध में उत्पन्न अनेक समस्याओं का समाधान करने वाला होने से विभिन्न कार्य का प्रतिपादक प्रतीत होने पर भी अन्य दर्शनों का विरोधी नहीं हो सकता।

उत्तर मीमांसा और वेद- उत्तर मीमांसा नाम के अनुसार यदि पूर्व मीमांसा का वेद से सम्बन्ध है तो उत्तर मीमांसा का वेद से सम्बन्ध होना स्वाभाविक है। इसका दूसरा नाम इस वेद से साक्षात् सम्बन्ध को प्रतिपादित करता है। वेदान्त नाम बता रहा है कि इस दर्शन का उद्देश्य वेद के रहस्य का प्रतिपादन करना है। इसका प्रत्येक सूत्र रहस्य का प्रतिपादक है। मध्यकाल में वेद को मनुष्यों से दूर करने का प्रयत्न किया गया और इसी दर्शन के आधार पर स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम् पंक्ति वेदान्त दर्शन के श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधात् स्मृतेश्च- १/३/३८ के भाष्य में आचार्य शंकर उद्धृत करते हैं, परन्तु सूत्र स्पष्ट रूप से आचारवान् का वेदाध्ययन में अधिकार और आचारहीन का अनधिकार प्रतिपादित करते हैं। वेद कहता है- यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च। (यजु. २६/२) और सूत्रकार इसी बात की पुष्टि करते हुए कहता है- भावं तु बादरायाणोऽस्ति हि। (वेदान्त १/३/३३)

इसी प्रकार जीवात्मा के परमात्मा के एक देश में अंश साहचर्य के कारण है, इसमें दर्शनकार ने वेद प्रतिपादन को प्रमाण बतलाते हुए- मन्त्रवर्णाच्च (वेदान्त २/३/४४) कहा है।

परमात्मा को जीव के कर्मफलों का प्रदाता प्रतिपादित करते हुए सूत्रकार वेद को प्रमाण रूप में उपस्थित करता है श्रुतत्वाच्च (वेदान्त ३/२/३९) यदङ्गदाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि (ऋ. १/१/६) शन्नोऽस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे (यजु. ३६/८) अन्य दर्शनों की भांति वेदान्त का लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति है। दूसरे शास्त्रों की भांति योग साधना उसका साधन है। इस विषय में द्रष्टव्य है- ध्यानाच्च (वेदान्त ४/१/८) ध्यान से ब्रह्मोपासना होती है। अचलत्वं चापेक्ष्य (४/१/९) अचलत्व के बिना ध्यान सम्भव नहीं है और ध्यान के लिए आसन और आसन के लिए अनुकूल स्थान की अपेक्षा है- यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् (वेदान्त ४/१/११) जिस स्थान में एकाग्रता हो, उस स्थान में आसन लगाकर ब्रह्मोपासना करें।

इस प्रकार अन्य सभी दर्शनों की भांति वेदान्त भी वैदिक सिद्धान्तों का प्रतिपादक शास्त्र सिद्ध होता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि दर्शनों का पृथक्-पृथक् अध्ययन करके उनको परस्पर विरोधी प्रतिपादित करने की परम्परा किस प्रकार और कब प्रारम्भ हुई, यह विचारणीय है। जब सभी दर्शन वेद को परम प्रमाण मानते हैं तो परस्पर विरोधी होने पर वेद में एकवाक्यता गुण की प्राप्ति सम्भव नहीं है। दर्शनशास्त्र बुद्धिहीन बातों का प्रतिपादक शास्त्र नहीं हो सकता, अत: दर्शनों का विरोध कल्पित और अनावश्यक है।

इस्लामिक जिहाद

जिहाद (धर्मयुद्ध)

जिहाद के सिद्धान्त ने इस्लाम को तलवार का धर्म बना दिया है ।

[1. आज विश्व में इस्लामी आतंकवाद फैला हुआ। मुस्लिम संस्थाओं व मौलवियों ने इन जिहादियों आतंकवादियों के विरुद्ध कोई फ़तवा नहीं दिया। न इनका उग्र विरोध किया है। यह जिहादी चिन्तन की ही तो उपज है। भारत में ही जिहादियों के विरुद्ध सामूहिक रूप से इस्लामी जोश से मुसलमानों ने कुछ भी नहीं किया। यदा कदा कुछ लोग गोलमोल शब्दों में आतंकवाद की निन्दा करते हुए जिहाद की अपनी व्याख्या कर देते हैं।   —‘जिज्ञासु’]

इस्लामी परम्पराओं के अनुसार मुसलमानों के लिए, यदि उनमें शक्ति हो तो अमुस्लिमों पर आक्रमण करना, उनसे लड़ना और उन्हें मार डालना अथवा वे धार्मिक कर (जज़िया) देना स्वीकार करें तो ज़िम्मी (शरणागत) बना लेना धार्मिक कर्त्तव्य है।

इसमें सन्देह नहीं कि कुरान में यह शिक्षा है कि—

व कातिलू की सबीलिल्लाहै अल्लज़ीना युकातलूनकुम।

—(सूरते बकर 190)

और लड़ो ईश्वर के मार्ग में उनसे जो तुमसे लड़ते हैं।

परन्तु तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है कि—

र्इं हुकुम ब  आयते सैफ़  मन्सू ख अस्त।

यह आदेश आयते सैफ़ द्वारा निरस्त किया गया है।

मुज़िहुल कुरान की टिप्पणी इस आयत पर यह है—

यह जो फ़रमाया है कि जो तुमसे लड़े उनसे लड़ो और अत्याचार न करो इसके अर्थ यह हैं कि लड़ाई में लड़कों, स्त्रियों व बूढ़ों को लक्ष्य बनाकर न मारे, लड़ने वालों को मारे।

जलालैन में कहा है—

यह आयत आगामी आयत से निरस्त हो गई।

अर्थात् लड़ने का आदेश केवल आत्मरक्षा के निमित्त ही नहीं, अपितु आक्रमणकारी युद्ध व झगड़ा करने का आदेश है।

कुरान में एक स्थान पर यह भी कहा गया है—

अफ़अन्ता तकरिहुन्नासो हत्ता यकूनुल मौमिनीम।

—(सूरते यूनुस आयत 99)

ऐ मुहम्मद क्या तू लोगों पर उनके मुसलमान बनाने के लिए बलात्कार करेगा।

यह स्पष्ट ही अत्याचार का निषेध है। परन्तु इस पर भी भाष्यकारों ने लिख रखा है कि इस निषेध को आयत सैफ़ ने निरस्त कर दिया है। पाठक को यह आयत पढ़कर यह विचार भी होगा कि अल्लामियाँ को यह आदेश देने की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्यों हज़रत मुहम्मद से पूछताछ की गई? क्या हज़रत मुहम्मद की इच्छा बलात्कार करने की थी? यह इच्छा किसके आदेश से उत्पन्न हुई? और क्या यह सम्भव नहीं कि विवश अल्लाह के प्यारे ने अपनी इच्छा अल्लाह मियाँ से मनवा ही ली हो? भाष्यकारों का विचार है कि निषेध जहाँ भी हुआ परिस्थितियाँ अनुकूल न होने के कारण हुआ है। अल्लाह मियाँ प्रतीक्षा करा रहे थे, जब परिस्थितियाँ अत्याचार करने के अनुकूल हो गर्इं तो वह आदेश भी प्रदान कर दिया और अब इन सब आदेशों के अर्थ यही लिए जाते हैं कि बिना किसी झिझक व संकोच के अपनी ओर से ही आक्रमण करो। अतएव हदाया जो सुन्नी सम्प्रदाय की प्रामाणिक संहिता है उसमें जिहाद (धर्मयुद्ध) के अध्याय का प्रारम्भ ही इन शब्दों से हुआ है—

व कत्तालुल कुफ़्फ़ारो बाजिबुन व इनलम यब्तदिओ विही।

और काफ़िरों से युद्ध करना कर्त्तव्य है चाहे वे अपनी ओर से प्रारम्भ न भी करें।

सर अब्दुल रहीम जो बंगाल हाईकोर्ट के जज रहे उन्होंने एक पुस्तक लिखी है ‘मुस्लिम जुरिस्परोण्डेंस’, अर्थात् ‘इस्लामी आचार संहिता’ जिसे न्यायालयों में भी इस्लामी आचार संहिता पर प्रामाणिक पुस्तक माना जाता है। उसमें लिखा है—

“मक्का के काफ़िरों ने जो व्यवहार हज़रत रसूल से किया था उससे अनुमान किया जाता है कि इस्लाम को सदा अमुस्लिमों से शत्रुता व पक्षपात से प्रतिशोध व ख़तरों की आशंका है। इसलिए इस्लाम की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इस्लामी राज्य यदि उसमें   ऐसा करने का सामर्थ्य है तो किसी पराए या विरोधी या अमुस्लिम राज्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर सकता है। ” —पृष्ठ 393

कुरान में फ़रमाया है—

या यत्तरिवज़ुल मौमिनूना लकाफ़िरीना औलियाआ मिन दूनिल मौमिनीना व मन यफ़अलो ज़ालिका फ़लैसा मिनल्लाहे फी शैइन इल्ला अनतत्तकू मिनहुम तुकता।

—(सूरते आले इमरान आयत 28)

इस पर जलालैन की टिप्पणी यह है—

यदि किसी भय के कारण बचाव के दृष्टिकोण से मित्रता का वचन भी कर दिया जाए और दिल में उसके ईर्ष्या व शत्रुता रहे तो इसमें कोई हानि नहीं……जिस स्थान पर इस्लाम ने पूरी शक्ति नहीं पकड़ी है वहाँ अब भी यह आदेश चालू है…….काफ़िर की मित्रता ख़ुदा के क्रोध व अप्रसन्नता का कारण है।

जहाँ शत्रुता कर्त्तव्य हो जाए मित्रता उचित भी हो तो धोखाधड़ी के रूप में, वहाँ न्याय व प्रेम ही क्या है? अच्छे या बुरे सभी धर्मों में पाए जाते हैं। अमुस्लिम सज्जन भी हों तो भी उसके विरोधी रहो, यह कहाँ का सदाचार है?

यही बात सूरते निशा में फरमाई है—

या अय्युहल्लज़ीना आमनूला तत्तरिवज़ुल काफ़िरीना औलिया- आमिन दूनिल मौमिनीन।

—(सूरते निसा आयत 144)

ऐ वह लोगो! जो ईमान लाए हो मत चुनो काफ़िरों में से मित्र केवल मुसलमानों को ही मित्र बनाओ।

आजकल की राजनीतिक कठिनाईयों का बीज इस आयत में स्पष्ट मिल जाता है। हर काफ़िर का स्थान दोज़ख़ निश्चित करने के पश्चात् ऐसी शिक्षाएँ आवश्यक हैं। जिन लोगों को अल्लाह ताला ने बनाया ही दोज़ख़ का र्इंधन बनाने के लिए है उनसे मित्रता का सम्बन्ध कैसे अपनाया जा सकता है? वे तो ईश्वरीय क्रोध के पात्र हैं, उनका जीवन हो या मृत्यु समान है। उनके जीवन का मूल्य ही क्या? फ़रमाया है—

वक्तलुहुम हैसो तक्फ़ितमूहुम व रवरिजूहुम मिन हैसो अख़रजूकुम वलफ़ितनतो अशद्दो मिनल कतले।

—(सूरते बकर आयत 191)

और मार डालो उनको जहाँ भी पाओ उनको और निकाल दो उनको जहाँ से निकाल दिया तुमको और कुफ़्र कत्ल से भी बहुत बुरा है। —(अनुवाद शाह रफ़ीउद्दीन)

यह आयत कातिलू फ़ीसबीलिल्लाह के बाद आई है जिसमें कहा था जो तुमसे लड़े उनसे ही लड़ो। परन्तु जलालैन फ़रमाते हैं—

यह आयत अगली आयत द्वारा निरस्त (निरर्थक) कर दी गई है। अब अगली आयत वही है जिसका अनुवाद हमने ऊपर दिया है। इस पर जलालैन की टिप्पणी यह है—

और उनको जहाँ भी पाओ मारो और निकालो उनको मक्का से जैसे कि उन्होंने तुमको निकाला। (अतएव मक्का विजय के वर्ष में उन्हें निकाल दिया) और हरम (हजकाल) में जब तुम हज की अवस्था में हो, लड़ने से, जिसको तुम बुरा समझते हो इस्लामी परम्परा के विपरीत आचरण बहुत बुरा है।

सूरते इन्फ़ाल में कहा है—

व कातिलूहुम हत्तालातकूनो फ़ितनतुन व यकूनुद्दीना कुल्लहू लिल्लाहे।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 39)

और लड़ो उनसे यहाँ तक कि न शेष रहे काफ़िरों का उपद्रव व उनका वर्चस्व समाप्त हो जाये और सारा समुदाय अल्लाह के दीन (मत) में मिल जाये। —(अनुवाद शाह रफीउद्दीन)

जलालैन की टिप्पणी है—

और काफ़िरों की हत्या करो यहाँ तक कि इस्लाम विरोधी कोई भी विचारधारा मतभेद का नामो-निशान तक न बच पाए और सर्वत्र अल्लाह का दीन वहदहूला शरीक (कल्मा पढ़ने वाला) ही फैल जावे उसके सिवा किसी और की पूजा न रहे।

आगे फ़रमाया है—

या अय्युहन्नबियो हुर्रिजल मौमिनीना अललकिताले इनयकुन आशिरुना सबिरुना यग़लिबू मियतैने।

—(इन्फ़ाल)

ऐ पैग़म्बर मुसलमानों को (काफ़िरों से) लड़ने पर उत्तेजित करो यदि तुम में धीरज वाले (और मुकावले पर) जमने वाले बीस आदमी भी होंगे तो वह दो सौ पर अपनी विजय प्राप्त कर लेंगे।

—(टिप्पणी जलालैन)

सूरते तौबा में है—

या अय्युहुल्लज़ीना आमनू कातिलुल्लज़ीना यनूतकुम मिनल- कुफ़्फ़ारे व लयजिदूफ़ीकुम ग़िलज़तन।

—(सूरते तौबा आयत 123)

ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो, लड़ो उन लोगों से जो तुम्हारे पास रहने वाले काफ़िर हैं। ऐसा होना जरूरी है कि वे तुम्हारे अन्दर कठोरता पावें।

अर्थात् सर्वप्रथम उन काफ़िरों से लड़ो जो तुमसे मिले हुए हैं फिर उनसे जो उनके निकटवर्ती हैं इस प्रकार एक के बाद दूसरे सभी काफ़िरों का मुकाबला करो।

सूरते फ़ुरकान में है—

फ़लाततअल काफ़िरीना व जाहदाहुम जिहादनकबीरन।

—(सूरते फ़ुरकान आयत 52)

और काफ़िरों का कहना मत मान बल्कि उनके साथ बड़ा धर्मयुद्ध कर।

तफ़सीरे हुसैनी में जिहाद की परिभाषा दी है—

या ब कुरआन या ब इस्लाम या ब शमशीर या ब तरके इताअते एशां।

कुरान, इस्लाम या तलवार के बल पर अथवा उनकी अधीनता को छोड़ देने पर।

सूरते तहरीम में कहा है—

ता अय्युहन्नबिओ जाहिदलकुफ़्फ़ारा वलमुनाफ़िकीना वग़ालज़ोअलैहुम।

—(सूरते तहरीम)

ऐ पैग़म्बर काफ़िरों से धर्मयुद्ध कर (साथ वाणी के) उन पर विजय पाने के लिए उन पर लड़ाई कर उन्हें झिड़क व क्रोध कर।

सूरते सफ़ में आया है—

इन्नल्लाहा यहिब्बुल्लज़ीना युकातिलूना फ़ी सबीलिही सफ़्फ़न।

—(सूरते सफ़्फ़ आयत 4)

वास्तव में ख़ुदा अपनाता है उनको जो गिरोह बनाकर उसके मार्ग में युद्ध करते हैं।

सूरते आले इमरान में है—

या अय्युहल्लज़ीना आमिनू असबरु वसाबिरु व राबितू।

—(सूरते आले इमरान आयत 200)

ऐ ईमान वालों धैर्य रखो परस्पर दृढ़ता व विश्वास रखो और युद्ध में लगे रहो। —(अनुवाद शाह रफीउद्दीन)

हम ऊपर प्रकट कर चुके हैं कि मुसलमान धर्माचार्यों के मत में  युद्ध केवल आत्मरक्षा के निमित्त ही कर्त्तव्य नहीं, अपितु यदि सामर्थ्य हो तो स्वयं दूसरे पर आक्रमण करने का भी आदेश है। सारे युद्ध का रोक देना तो कठिन है। अत्याचार के विरुद्ध युद्ध करने की आज्ञा दी जा सकती है, परन्तु इस्लामी आचार संहिता में इस सीमा को स्वीकार नहीं किया गया है। इस सीमा के साथ भी युद्ध का ढंग ऐसा होना चाहिए कि अनावश्यक कठोरता न बरती जाए। हत्या भी करनी पड़े तो बर्बरता पूर्वक न हो। परन्तु कुरान ने तो फ़रमाया है—

सउलिकीफ़ी कुलूबिल्लज़ीना कफ़रुर्रुअबो फ़जरिबू फ़ौकलअअनाके वज़रिबू मिनहुम कुल्ला बनानिन।

—(सूरते इनफ़ाल आयत 12)

मैं काफ़िरों के दिल में आतंक डालूँगा अब मारो उनकी गर्दनों पर और काटो उनकी बोटी-बोटी। गर्दनें तो उनकी आत्मरक्षा में काटी होंगी अब उंगलियों के पोर-पोर काटने में कैसी आत्मरक्षा हुई?

यह अत्याचार व प्रतिशोध की पराकाष्ठा है। सूरते मुहम्मद में फ़रमाया है—

फ़इज़ा लकीतुमुल्लज़ीना कफ़रु फ़लरव र्रिकाबिन हत्ता इज़ा अतरब्नतमूहुम।

—(सूरते मुहम्मद आयत 4)

फिर जब तुम भेंट करो उनसे जो काफ़िर हुए बस काट दो उनकी गर्दनें यहाँ तक कि चूर-चूर कर दो उनको।

—(अनुवाद शाह रफ़ीउद्दीन)

व माकाना लिमौमिनिन अन यकतुला मौमिनून इल्ला ख़ताअन व मनकतला मौमिननख़ताअन फ़तहरीरो मोमिनतिन वदिय्यतुन मुसल्लम तुन इला अहलिही इल्लाअन यस्तद्दिद्दू। फ़अनकाना मिनकौमिन उदुव्वकुम……….व मन यक्तुला मौमिनन मुअतमिदन फ़जज़ाउहू जहन्नमा खालिदन फ़ीहा व गज़बल्लाहो अलैहे व लअनहू।

—(सूरते निसा आयत 62,93)

मुसलमानों को मुसलमान का मारना उचित नहीं, परन्तु अनजाने में, परिणामतः एक मुसलमान को आज़ाद करना है व खून की क्षति-पूर्ति अदा करना उसके घर वालों को, परन्तु यह कि दान कर देवे अतः यदि होवे उस कौम से जो दुश्मन है तुम्हारे……और जो कोई मुसलमान जानकर मार डाले वहाँ उसका फल है कि दोज़ख़ में सदा के लिए रहेगा और क्रोध अल्लाह का उसके ऊपर और लानत है।

इतना पक्षपात!—इन आयतों ने जिहाद की वास्तविकता को और स्पष्ट कर दिया है यदि जिहाद आत्मरक्षा की लड़ाई है और प्रतिशोध में विरोधी की जाति की हत्या की जा रही हो तो उस जाति में चाहे जो कोई मुसलमान हो चाहे अमुस्लिम समानरूप से वध करने योग्य होगा, परन्तु नहीं अमुस्लिम की हत्या जानकर करना भी कर्त्तव्य है और मुसलमान की हत्या यदि भूल से भी हो जाए तो उसका रक्त का बदला प्रायश्चित। इससे अधिक पक्षपात और क्या हो सकता है और यदि खून का बदला व प्रायश्चित न करे तो उसका दण्ड क्या? वही दोज़ख़।

इस प्रकार के रक्तपात व हत्या में अपनी ओर के लोग भी मारे जायेंगे और रुपया भी खर्च होगा। इसकी व्यवस्था निम्नलिखित आयत में की है—

व लातकूल्लू लिमन्युकतलो फ़ो सवीलिल्लाहे अमवातुन बल अहयाउन।

—(सूरते बकर आयत 149)

और जो ख़ुदा के मार्ग में मारे जाते हैं उन्हें मरा हुआ मत कहो, अपितु वह जीवित है।

जलालैन में टिप्पणी में लिखा है—

हरे पक्षियों के लिबास में हैं जो जन्नत में चुगते हैं।

यदि धर्म प्रचार बलपूर्वक न हो तो व्यर्थ का रक्तपात व हत्या काण्ड क्यों हो? और क्यों मरे हुओं को व्यर्थ ही जीवित कहें और बहिश्त में उन्हें पक्षी बनाएँ?

सूरते तौबा में आया है—

व लाकिनिर्रसूलो वल्लज़ीना आमन् मअहूजाहिदू विअम- वालिहिम व अनफ़ुसिहिम व उलाइकालहुमल ख़ैरातो।

—(सूरते तौबा आयत 88)

परन्तु रसूल और जो लोग ईमान लाए उसके साथ, जिहाद किया उन्होंने अपने धन और अपने जीवन व व्यक्तित्व सहित और भलाईयाँ उन्हीं के लिए हैं।

फिर फ़रमाया है—

इन्नल्लाहश्तरा मिनउल मौमिनीना अनफ़ुसहुम व अमवालहुम व अन्ना लहुम जन्नता युकातिलूना फ़ीसबीलिल्लाहे फ़यकतलूना व युकतिलून।

—(सूरते तौबा आयत 111)

सचमुच अल्लाह ने ख़रीद ली है मुसलमानों से उनकी जानें और माल उनके, इस मूल्य पर कि उनके लिए बहिश्त (दे दिया) है। वे ख़ुदा के मार्ग में लड़ेंगे।

ख़ुजमिन अमवालिहुम सदकतन तुतहिरहुम व तुन्ज़की हिमविहा।

—(सूरते तौबा आयत 103)

उनकी सम्पत्ति में से दान ले लें कि पवित्र करें उनको (प्रकट रूप में) और शुद्ध करे तू उनको साथ उनके (आन्तरिक रूप से)।

मज़हब के लिए त्याग ऐसे भी—अब यदि मुसलमानों को केवल अपने जानोमाल मज़हब पर बलिदान करने का आदेश हो तो फिर भी ठीक है, क्योंकि अमुस्लिमों से लड़े बिना यह दोनों वस्तुएँ मज़हब को भेंट की जा सकती हैं। जैसे ताऊन के समय पीड़ितों की सहायता करें। आपत्तिग्रस्त लोगों की सहायता में अपनी जान जोखिम में डालें। परन्तु इस्लाम के इतिहास में इस प्रकार के उदाहरण नहीं मिलेंगे (कि ऐसे सेवा कार्य के लिए किसी ने अपनी जान व माल भेंट किया हो।)

[ कोष्ठक में दिये गये शब्द अनुवादक ने व्याख्या के लिए दिये हैं। —‘जिज्ञासु’]

यह जानें व यह माल इस्लाम पर कैसे सत्य सिद्ध होंगे? फ़रमाया है—

व ग़नहनो नतरब्बसो बिकुम अन्युसीबुकुसुल्लाहो विअज़ाबे मिनइन्दही औविएदेना।

—(सूरते तौबा आयत 52)

और हम प्रतीक्षा करते हैं तुम्हारे लिए कि अल्लाह पहुँचाए पीड़ा अपने पास से या तुम्हारे हाथों से। 

तफ़सीरे हुसैनी में इस अन्तिम वाक्य की व्याख्या ऐसे की है—

अज़ नज़दीके ख़ुद चूं सैहा व रजफ़ व ख़सफ़ ता हलाक शवेद या बिरसानद अज़ाबे बशुमा ब दस्तहाए मा कि शुमा रा बसबब कुफ़र बकतल रसानेम।

अपने पास से (पीड़ा) जैसे सूरज ग्रहण, चन्द्र ग्रहण से मृत्यु हो जावे या तुम्हें पीड़ा पहुँचाए हमारे हाथों ताकि तुम्हें कुफ़्र के कारण वध करें।

इन ख़ुदाई फ़ौजदारों को देखना कि अल्लामियाँ ने कुफ़्र दण्ड का आदेश नहीं दिया है कि काफ़िर को वध कर दो। क्या व्यंगोक्ति है? लड़ाई में यह मरें तो जीवित हैं और जो काफ़िर मरें तो उन पर क्रोध व दण्डादेश हुआ है। मृत्यु तो भाई दोनों की एक समान है इसका नाम बलिदान है तो, और दण्डादेश है तो—

यह तो जीवनों का प्रयोग, माल (सम्पत्ति) का भी सुन लीजिए। फ़रमाया है—

या अय्युहल्लज़ीना आमनू ला तरख़ुनुल्लाहा वर्रसूला।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 26)

ऐ लोगो! जो मुसलमान बने हो, विश्वासघात अल्लाह व रसूल से मत करो (धन मत छुपाओ)।

इस पर मूज़िहुल कुरान में लिखा है—

अल्लाह व रसूल की चोरी यह है कि काफ़िरों से छुपकर मिलें अपनी सम्पदा व सन्तानों को बचाने के लिए………और यह भी है कि लूट के (युद्धों के) माल को छुपाकर रखें, सेना के सरदार को न प्रकट करें।

मुसलमानों की जानें व माल अल्लाहमियाँ की सम्पत्ति हुए मगर अब अल्लाहमियाँ कर्ज़ भी चाहता है। कहा है—

मनज़ल्लज़ी युकरिज़ोल्लाहा करज़न हसनन फ़यजइफ़हू।

—(सूरते बकर आयत 245)

भला कौन है जो ऋण दे ख़ुदा को अच्छा ऋण फिर वह उसके लिए उस ऋण को दोगुना करे।

इस कर्ज़ की व्याख्या मूज़िहुल कुरान में की है—

धर्मयुद्ध (जिहाद) में खर्च करें।

तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है—

अबू अलदहद्दाह अंसारी पेश आमद व गुफ़्त वा रसूलिल्लाह ख़ुदा र्इं करज़ चिरा मेतलबद, आंहज़रत फ़रमूद कि मेख्वाहद कि ता शुमा रा ब वास्ताए आँबबहिश्त बिबुरद। अबूअलदहद्दाह गुफ़्त या रसूलिल्लाह मरा दोख़रामस्तान हस्तन्द व बहतरीन ख़रा मस्तान जनीमा नाम दारद अगर आंरा बकरज़ ख़ुदा दहम शुमा ज़ामिने बहिश्त मन मेशवेद, सैय्यद आलम फ़रमूद कि मन ज़ामिन मेशवम कि हक सुबहानहू दहचन्दा दर रियाज़े जिनां बतो अरज़ानी दारद। गुफ़्त ए सैय्यद, बशर्तें आंकि फ़रज़न्दाने मन व मादरे एशां बा मन बा मन बाशद। ख्वाजा आलम फ़रमूद कि आरे चुनीं बाशद।

अबू अलदहद्दाह अंसारी सामने आया और कहा कि या रसूलिल्लाह ख़ुदा यह कर्ज़ क्यों माँगता है। आं हज़रत ने फ़रमाया कि ख़ुदा चाहता है कि तुम्हें इसके द्वारा स्वर्ग में ले जाए। अबूअलदहद्दा ने कहा या रसूलिल्लाह मेरे पास दो नख़लिस्तान हैं उनमें से उत्तम का नाम जनीमा है, यदि उसे ख़ुदा को कर्ज़ दे दूँ तो क्या आप मेरे लिए बहिश्त के ज़ामिन (उत्तरदायी) होते हैं? सरवरे आलम ने फ़रमाया कि मैं उत्तरदायी होता हूँ कि सच्चा ख़ुदा बहिश्त में दस गुना तुझे देगा। कहा ऐ पैग़म्बर! इस शर्त पर कि मेरे लड़के व उसकी माँ भी मेरे साथ हो, फ़रमाया हाँ ऐसा ही होगा।

धर्मयुद्ध के लिए रुपये की ज़रूरत होती है। सरकार भी युद्ध के लिए कर्ज़ लेती है। अल्लाह मियाँ ने भी तो क्या बुरा किया? सरकार भी सूद का वचन देती है यह भी स्वर्ग में कई गुना दिये जाने का वचन है और केवल देने वाले को नहीं उसकी सन्तान व सन्तानों की माता को वहाँ ले जाने का वचन है। एक नख़लिस्तान के बदले में एक परिवार का परिवार स्वर्ग में, यह दयालुता है या आवश्यकता, ब्याज की दर बढ़ रही है।

यही बात सूरते माइदा में फिर फ़रमाई है—

व अकरज़ुतुमुल्लाहो करज़न हसनतन लउकुफ़िरन्ना अनकुम सियातिकुम व लअदरिवलन्नकुम जन्नातिन।

—(सूरते मायदा आयत 12)

और ऋण दो तुम अल्लाह को अच्छा, निश्चय ही मैं तुम्हारी बुराई दूर करूँगा और तुम्हें जन्नतों में प्रविष्ट करूँगा।

धर्मयुद्ध (जिहाद) में ख़र्च कर दिया। अब चाहे पाप किए भी हों सब दूर, ऊपर जो फ़रमा आय हैं। ले माल इनसे धर्मादे में ताकि तू इन्हें शुद्ध पवित्र कर दे।

यह माल किस काम में ख़र्च होता है फ़रमाया है—

व अइदूलहुम मस्ता अतुममिन कुव्वतिन व मिनरिबा तिलाहैले, तुरहिबूना बिहि अदुव्वाल्लाहो व अदुव्वकुम…………वा मातुनफ़िकू मिनशैइनकी सबीलिल्लाहे युवाफ़्फ़ा अलैकुम व अन्तुमला तुज़लिमून।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 59-60)

और जो तुम कर सको उनके लिए तैयारी करो शक्ति से और घोड़ों से और उनके द्वारा अल्लाह के शत्रुओं को डराओ और अपने शत्रुओं को डराओ………….और जो तुम व्यय करोगे अल्लाह के मार्ग में अल्लाह तुम्हें पूरा कर देगा। और तुम पर अत्याचार नहीं किया जाएगा।

इस्लामी शासन के काल में अधिकतर देशों में ग़ैर मुस्लिमों के लिए घोड़े की सवारी और हथियारों का प्रयोग निषिद्ध घोषित किया जाता रहा है। इसकी आधारशिला मुसलमान धर्माचार्यों ने इसी आयत को निश्चित किया है और इन सारे साधनों की आवश्यकता धर्मयुद्ध (जिहाद) के लिए है। काफ़िरों के हाथ में इन सभी साधनों को छोड़ना धर्मयुद्ध के नियमों की स्पष्ट आज्ञा का उल्लंघन है।

जान व माल ख़ुदा के मार्ग में ख़र्च करने का बदला अब तक परलोक के लिए रहा है, अर्थात् मृत्यु के पश्चात् सम्भव है कोई इस दूर के वचन के भरोसे इतना त्याग करने को तैयार न हो इसका भी फल बतलाया है—

व अदकुमुल्लाहो मग़ानिकसीरतन ताख़ुज़ूनहा।

—(सूरते फ़तह रकूअ 3)

और वचन दिया है तुमको अल्लाह ने बहुत लूटों का, कि उनको प्राप्त करोगे।

व आलमू अन्नमा ग़निमतुम मिनशैअन व अन्नल्लाहे ख़मसहू व लिर्रसूले।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 41)

और इस बात को समझलो कि जो कोई वस्तु तुम लूटकर लाओ उसमें से पाँचवाँ भाग अल्लाह के और रसूल के लिए (निर्धारित) है।

व यसइलूनका अनिल अन फ़ाले, कुलिल अनफ़ालो लिल्लाहे वर्रसूले बत्तकुल्लाहा।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 1)

तुमसे लूटों के माल के सम्बन्ध में पूछते हैं लूटें ख़ुदा के लिए और रसूल के लिए हैं इसलिए ख़ुदा से डरो।

अर्थात् ख़ुदा व रसूल का हिस्सा दो। और शेष तुम ले जाओ यही नहीं कुछ और भी है। फ़रमाया है—

ओ मा मलकत एमानहुम।

—(सूरते अलमोमिनून रकूअ 1)

और वह (लूटी हुई स्त्रियाँ) तुम्हारे दाएँ हाथ इन स्वामी बनें।

यह एक परिभाषा है कुरान की जिसका अनुवाद प्रत्येक भाष्यकार ने युद्धों में हाथ लगी हुई स्त्रियाँ किया है और वे लौंडियों (दासियों) के रूप में रखी जा सकती हैं।

गैर मुस्लिम के लिए केवल वध का ही आदेश नहीं है यदि वे धार्मिक कर (जज़िया) दे दें तो उसे प्रजा बनाकर रखा जा सकता है।

कातिलुल्लज़ीना लायोमिनूना बिल्लाहे व लाबिलयोमि लआरिवरे वला युहर्रिमूनामा हर्रमल्लाहो व रसूलूहा। वलायदीनूना दीनलहक्के मिल्लज़ीना उतुल किताबो हत्तायअतुलजतियता अनयदिव्वहुम साग़िरुन।

—(सूरते तौबा आयत 29)

जो मुसलमान नहीं बन जाते उनसे युद्ध करो, जो अल्लाह पर ईमान नहीं लाते और जो न्याय के दिन (कयामत) पर विश्वास नहीं लाते उनसे और सच्चे दीन (इस्लाम) का पालन नहीं करते जो जिन बातों को, हराम नहीं करते जो अल्लाह ने हराम किया है और उसके रसूल ने और उनमें से जिन्हें ख़ुदा ने किताब दी है जब वह आज्ञापालक हों और अपने हाथ से कर जज़िया दें और दुर्गति स्वीकार करें।

जलालैन की टिप्पणी इस आयत पर यह है कि—

उन लोगों को जो अल्लाह और कयामत पर विश्वास नहीं   रखते उनको मारो-काटो (अर्थात् रसूलिल्लाह सल्लम के प्रति भी अविश्वासी हैं, क्योंकि अल्लाह व कयामत पर विश्वास रखते तो रसूल पर भी विश्वास रखते) और जिन वस्तुओं को अल्लाह व उसके पैग़म्बर ने हराम (अवैध) निश्चित किया है जैसे शराब पीना। उसको हराम नहीं मानते और इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करते जो सच्चा दीन है व सब दीनों को निरस्त करने वाला है। ये लोग यहूदी व नसरानी हैं जिनको आसमानी किताब दी गई यह कदापि मुसलमान न होंगे फलतः जो कर उन पर लगाया जाएगा प्रति वर्ष अपमानित होकर उसे देंगे और इस्लामी शासन के अधीन विवशता में होंगे।

कुरान में जो यह सुविधा है कि कर (जज़िया) लेकर अपनी प्रजा बना लो ईसाइयों व यहूदियों तक ही सीमित है, परन्तु बाद के धर्माचार्यों (इस्लामी आचार संहिता के प्रणेताओं) ने इसे समस्त गैर मुस्लिमों के लिए सामान्य बना दिया है। अतएव हदाया (इस्लामी आचार संहिता) में लिखा है—

फ़इन्नमतनिऊ दऊहुम इललजियते फ़इन बज़लूहा कुलहुम मालिल मुसलिमीन।

यदि इस्लाम स्वीकार करने से अस्वीकृति दें तो उन पर कर निर्धारित किया जाए यदि उन्होंने स्वीकार कर लिया तो उनके लिए सुरक्षा है, जैसा मुसलमानों के लिए है।

 

लोकतन्त्र की जीत: दिनेश

कोई भी समाज अपने आस-पास घट रही घटनाओं से उदासीन नहीं रह सकता/विशेषकर यदि वे घटनाएँ राजनीति या सरकार से सम्बन्ध रखती हैं। यद्यपि आर्यसमाज एक धार्मिक-सामाजिक संगठन है, परन्तु इसकी ‘धर्म’ की परिभाषा विशद है, जिसमें मानव जीवन से सम्बन्धित सभी पक्षों का सम्यक् समावेश रहता है। इसी दृष्टि से हमें पिछले दिनों भारत के पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव और उनके परिणामों पर विचार करना उचित होगा।

उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखण्ड, मणिपुर और गोवा में चुनाव सम्पन्न हुए और दो प्रदेशों में (उत्तरप्रदेश और उत्तराखण्ड) भाजपा ने प्रधानमन्त्री श्रीमान् नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में प्रचण्ड विजय प्राप्त की। पंजाब में जो सरकार कैप्टन अमरिन्दर सिंह के नेतृत्व में बनी उसका श्रेय बादल सरकार के भ्रष्टाचार एवं व्यक्तिगत रूप से कैप्टन अमरिन्दर सिंह को ही जाता है। कांग्रेस पार्टी के रूप में वहाँ कोई विशेष प्रभाव नहीं था। शेष दो राज्यों में स्पष्ट बहुमत न होने पर भी भाजपा की सरकार बनी है, क्योंकि कांग्रेस नेतृत्व सक्रिय रहकर निर्णय लेने में अक्षम है। श्री नरेन्द्र मोदी जी के सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबन्दी जैसे सफल अभियानों को जनता ने हृदय से स्वीकार किया है।

यह उल्लेखनीय है कि भाजपा ने उत्तर-पूर्व में अपना परचम मणिपुर में फहराकर अपनी जन स्वीकार्यता को स्पष्ट किया है। इस प्रकार कुल मिलाकर भाजपा इन चुनावों में विशेष लाभ की स्थिति में रही। इस समय सिद्ध हुआ कि भाजपा के प्रधानमन्त्री श्री मोदी जी ही विजयी हुए हैं, इसमें दो राय नहीं। हालाँकि भाजपा कार्यकत्र्ताओं और अपने अन्य संगठनों (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) की बदौलत एक सुगठित पार्टी है। भाजपा को समान विचारधारा के सभी संगठनों का सहयोग भी मिला है।

हमें यह देखना चाहिए कि आखिर क्या बात है कि मोदी जी की स्वीकार्यता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इस विजय में जहाँ अन्य राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों की नेतृत्व-अक्षमता मुख्य कारण बनी, वही राष्ट्रीय समस्याओं को सही परिपे्रक्ष्य में न देख पाना भी कारण रहा। यद्यपि सभी पार्टियाँ विकास का नारा देती दीख रहीं थीं, परन्तु वे यह बताने में असमर्थ थीं कि मोदी जी स्वयं ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे के साथ इस चुनाव में उतरे थे। जहाँ क्षेत्रीय पार्टियों ने जातिवाद तथा साम्प्रदायिकता का सहारा लिया, वहीं मोदी जी ने सर्वसमावेशी दृष्टिकोण अपनाए रखा तथा कोई भी विभेदकारी वक्तव्य नहीं दिया है।

प्रधानमन्त्री जी के इस दृष्टिकोण की प्रशंसा की जानी चाहिए कि वे एक सच्चे शासक की भाँति सभी वर्गों, धर्मों, समाजों को समान दृष्टि से देखते हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि देश के कुछ (धार्मिक, सामाजिक एवं क्षेत्रीय) वर्गों के शासकों की विभेदकारी एवं तुष्टिकरण की नीति का शिकार समाज स्वतन्त्रता के बाद से ही बनता आया है, जिससे उन्हें विशेष पहचान के कारण कुछ अतिरिक्त सुविधाएँ आजादी के बाद से ही प्राप्त होती आई हैं। अत: वे मोदी जी की समानता की विचारधारा को भी अपने लिए हानिकारक समझते हैं। लेकिन उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि उनके शेष देशवासी, जो उन सुविधाओं से वंचित रहते हैं, वे उन्हें अपना विरोधी और शत्रु मानने लगते हैं।

अस्तु, प्रधानमन्त्री जी ने विशेषत: उत्तर प्रदेश की बड़ी विजय के पश्चात् अपने सम्बोधन में कहा कि सभी के साथ समानता का बर्ताव करते हुए सभी को साथ लेकर देश का विकास किया जाएगा। इससे हम आशान्वित हैं कि सभी वर्गों, मतों, सम्प्रदायों एवं क्षेत्रों-प्रदेशों को विकास के समान अवसर दिए जाएँगे एवं हार-जीत की निराशा एवं गर्वोन्मत्तता से दूर रहकर राजधर्म का निर्वाह किया जाएगा।

सौभाग्य से प्रधानमन्त्री में हम उन गुणों का समावेश पाते हैं, जो ऋषियों की दृष्टि से एक शासक में अनिवार्यत: होने चाहिएं- सदाचार, ईमानदारी, कर्मठता, निरालस्य, राष्ट्रप्रेम, अर्थ-शुचिता, सतत अथक परिश्रमशीलता, प्रजा (जनता) के प्रति समदृष्टि इत्यादि। हमें ज्ञात नहीं कि उन्होंने किसी गुरु से आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन किया अथवा नहीं, परन्तु यदि किया होता तो वे ‘राजर्षि’ की उपाधि अवश्य प्राप्त करते।

मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान सो एक।

पालइ पोसइ सकल अंग तुलसी सहित विवेक।।

– दिनेश

कुरान में नारी की दुर्दशा

कुरान में नारी का रूप

फिर मानव मात्र का अर्थ ही कुछ नहीं—संसार की जनसंख्या की आधी स्त्रियाँ हैं और किसी मत का यह दावा कि वह मानव मात्र के लिए कल्याण करने आया है इस कसौटी पर परखा जाना आवश्यक है कि वह मानव समाज के इस अर्ध भाग को सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक अधिकार क्या देता है। कुरान में कुंवारा रहना मना है। बिना विवाह के कोई मनुष्य रह नहीं सकता। अल्प, व्यस्क, बच्चा तो होता ही माँ-बाप के हाथ का खिलौना है।


वयस्क होने पर मुसलमान स्त्रियों को यह आदेश है—

व करना फी बयूतिकुन्ना। —(सूरते अहज़ाब आयत 32)


यही वह आयत है जिसके आधार पर परदा प्रथा खड़ी की गई है। इससे शारीरिक, मानसिक, नैतिक व आध्यात्मिक सब प्रकार की हानियाँ होती हैं और हो रही हैं। स्वयं इस्लामी देशों में इस प्रथा के विरुद्ध कड़ा आन्दोलन किया जा रहा है। कानून बन रहे हैं जिससे परदे को अनावश्यक ही नहीं, अनूचित घोषित किया जा रहा है। परदा इस बात का प्रमाण है कि स्त्री अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रखती। वह स्वतन्त्र रह नहीं सकती। विवाह से पूर्व व बाद में दोनों दशाओं में परदे का प्रतिबन्ध बना रहता है। 1

[1. अब जो कट्टरपंथी पूरे विश्व में आन्दोलन चला रहे हैं इसका अन्त क्या होता है यह आने वाले युग का इतिहास बतायेगा।   —‘जिज्ञासु’]

इस्लाम में विवाह का सम्बन्ध निरस्त किया जा सकता है, परन्तु जहाँ पति जब चाहे तलाक दे सकता है और उसे किसी न्यायालय में जाने की आवश्यकता नहीं वहाँ स्त्रियों को न्यायालय में सिद्ध करना होता है कि उसे तलाक दिया जाना आवश्यक है। नारी और न्यायालय तलाक देते समय पुरुष पर केवल आवश्यक है कि वह महर (विवाह के समय निश्चित राशि) अदा कर दे। इसे कुरान की परिभाषा में अजूरहुन्ना कहा है।

फमा अस्तमतअतमाबिहि मिन्हुन्ना फ़आतूहुन्ना अजूरहुन्ना  फरी ज़तुन।

और जिनसे तुम फ़ायदा उठाओ उन्हें उनका निर्धारित किया गया महर दे दो।

तलाक से अल्लाह रुष्ट—शादी रुपयों-पैसों का रिश्ता नहीं। यह दो शरीरों का ही नहीं दो दिलों का बन्धन है जिसकी दशा शारीरिक रूप में सन्तान, परमात्मा की पवित्र सन्तान है। और आत्मिक दशा में दो आत्माओं की दो शरीरों में एकता है। इतना ही अच्छा है कि एक हदीस में फ़रमाया है कि ख़ुदा किसी बात से इतना रुष्ट नहीं होता जितना तलाक से।

सन्तान हो जाने पर किसी ने तलाक दे दिया तो? फ़रमाया है—

बल बालिदातोयुरज़िअना औलादहुन्ना हौलैने कामिलीने, लिमन अरादा अन युतिम्मरज़ाअता व अललमौलूदे लहू रिज़ कहुन्न व कि सवतहुन्ना बिल मारुफ़े।

—(सूरते बकर आयत 233)

और माँऐ दूध पिलायें अपनी सन्तानों को पूरे दो वर्ष। और यदि वह (बाप) दूध पिलाने की अवधि पूरा कराना चाहे। और बाप पर (ज़रूरी है) उनका खिलाना, पिलाना और कपड़े-लत्तों का (प्रबन्ध) रिवाज के अनुसार माँ का रिश्ता इतना ही है औलाद से, इससे बढ़कर उनकी वह क्या लगती है?

फिर बहु विवाह की आज्ञा है। कहा है—

फ़न्किहु मताबालकुम मिनन्निसाए मसना व सलास वरूब आफ़इन ख़िफ्तुम इल्ला तअदिलू फ़वाहिदतन ओमामलकत ईमानुकुम।

—(सूरते निसा आयत 3)

फिर निकाह करो जो औरतें तुम्हें अच्छी लगें। दो, तीन या चार, परन्तु यदि तुम्हें भय हो कि तुम न्याय नहीं कर सकोगे (उस दशा में) फिर एक (ही) करो जो तुम्हारे दाहिने हाथ की सम्पत्ति है। यह अधिक अच्छा है ताकि तुम सच्चे रास्ते से न उल्टा करो।

अधिक शादियों पर न्याय शर्त है। फिर कहा है—

व लन तस्ततीऊ अन तअदिलू बैनन्निसांए वलौहरसतुम।

—(सूरते निसा आयत 129)

और तुम औरतों में न्याय नहीं कर सकते चाहे तुम लालच    करो।

मुसलमान फिर भी बहुविवाह करते हैं—ऐसी दशा में तो अहले इस्लाम को एक से अधिक विवाह करने ही नहीं चाहिए, परन्तु हो रहे हैं और उनका (हानिकारक) फल भी भुगता जा रहा है।

इस हेराफेरी के द्वारा विरोध करने से तो उचित यही था कि स्पष्ट निषेध कर दिया जाता। बात यह है कि कुरान ने (अदल बिन्नसा) (स्त्रियों में न्याय) पर तो आग्रह किया है, परन्तु अदल बैना जिन्सैन (दो प्राणियों में न्याय) स्त्री व पुरुषों में न्याय को लक्ष्य नहीं बनाया है।

औरतों में न्याय का तो अर्थ यह हुआ कि मर्द शासक है औरतें उनकी कचहरी में एक पक्ष है। चाहिए था कि मर्द व औरत को परस्पर पक्ष बनाना जैसे मर्द को यह पसन्द नहीं कि उसकी स्त्री का परपुरुष से सम्बन्ध हो, वैसे ही औरत भी सौतन के डाह से जलती है।

न्याय यह है कि दोनों को एक ही विवाह पर सन्तोष करना चाहिए फिर दाहिने हाथ की सम्पत्ति, जिसके अर्थ सभी कुरान के भाष्यकारों ने बान्दियाँ किए हैं। यह दो प्राणियों में न्याय का सर्वथा विपरीत है। यह आज्ञा किसी नैतिकता के नियमानुसार उचित नहीं हो सकती।

शियाओं के मत में मुतआ (अस्थायी विवाह) भी उचित है। जो आयत हम ऊपर महर के अधिकार के दिए जाने के सम्बन्ध में प्रमाण रूप में उद्धृत कर चुके हैं।

शिया मुसलमान इस आयत से मुतआ का औचित्य ग्रहण करते हैं। सुन्नी मुसलमान भी मानते हैं कि मुहम्मद साहेब के जीवनकाल में कुछ समय तक मुतआ प्रचलित रहा बाद में निषिद्ध हुआ और मुतआ के अर्थ हैं अस्थायी विवाह। जिसका रिवाज ईरान में अब तक पाया जाता है।

विवाह और अस्थायी, फिर इस पर हलाला है, कहा है—

वत्तलाको मर्रतैने….फ़इनतल्लकहा फ़लातहिल्लु लहू मिनबादे हत्तातन्किहाज़ौजन गरहू, फ़इन तल्लकहा फ़ला जुनाहा। अलैहुमा।

—(सूरते बकर आयत 229-230)

तलाक दो बार दिया जा सकता है…….फिर यदि (तीसरी बार) दे दे तो उसे विहित (हलाल) नहीं उसे, उसके पश्चात् यहाँ तक कि वह निकाह करे दूसरे पुरुष से फिर जब वह भी तलाक दे दे तो फिर कोई दोष नहीं।

तीसरे निकाह पर कहा है—

मुतआ क्या है? इसे हम एक जाने माने मौलाना के शब्दों में बताते हैं, ‘‘It means that a man settles it, under the name of muta, with a woman not having a husband and with whom marriage is not forbidden,according to the shariat, that he will take her for a wife for a fixed period of time and on payment of a fixed amount of money, and then during that period he can legitimately have sex with her.No qazi, witness or vakil is required for it and it needs not, also be made known nor even disclosed to a third person. It can all be done clandestine manner which (we are told) is the usual practice.” Khomeini Iranian Revolution and the Shi’te faith P. 180

[इसका सारांश यह है कि कुछ राशि देकर एक निश्चित समय के लिए किसी स्त्री से जिसका पति न हो सम्भोग किया जाता है। उस काल में उसे बीवी बनाया जाता है। यह सम्बन्ध गुप्त होता है। किसी तीसरे व्यक्ति को पता तक नहीं लगने दिया जाता। इसमें कोई काज़ी, कोई साक्षी व वकील नहीं होता।    —‘जिज्ञासु’]

निकाह नहीं बन्ध सकता जब तक कि बीच में दूसरे पति से सम्भोग न हो चुके। (मूज़िहुल कुरान)।

इस हलाला पर संख्या का बन्धन नहीं जितनी बार तीसरा तलाक दिया जाएगा। उतनी ही बार पहले पति से निकाह करने के लिए हलाला आवश्यक होगा। यह कानून की बहुत बड़ी भूल है। इसकी दार्शनिक, तार्किक, सामाजिक परिणामों की कल्पना करके भी पाठक काँप उठेगा 1 ।

[1. कुर्आन व इस्लामी साहित्य के मर्मज्ञ विश्व प्रसिद्ध लेखक श्री अनवरशेख ने ‘हलाला’ पर एक लोकप्रिय पठनीय कहानी लिखकर विचारशील लोगों को झकझोर कर रख दिया है। सत्यान्वेषी पाठकों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए।   —‘जिज्ञासु’]

 

मकर सौर संक्रान्ति – श्री पंडित भवानी प्रसाद : शांति देवी आर्य

मकर सौर संक्रान्ति – श्री पंडित भवानी प्रसाद – आर्य पर्व पध्दति

 दोहा

 शीत शिविर हेमन्त का,हुआ परम प्राधान्य।

तैल,तूल,तपन का,सब जग में है मान्य।।

 

रूचिरा

 उत्तर अयन इसी तिथि को है,सविता का सुप्रवेश हुआ।

मान दिवस का इसी ही कारण, अब से है सविशेष हुआ।।

वेद प्रदर्शित देवयान,जगती में विस्तार हुआ।

उत्सव संक्रान्ति , मकर की का, जनता में सुप्रचार हुआ।।

तिल के मोदक, खिचड़ी, कम्बल, आज दान में देते है।

दीनों का दुख दूर भगाकर, उनकी आशीष लेते है।।

सतिल सुगन्धित सुसाकल्य से होम यज्ञ भी करते हैं।

हिम से आवृत नभमंडल को शुद्ध वायु से भरते हैं।।

 

जितने काल में पृथ्वी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा पूरी करती है उसको एक “सौर वर्ष “कहते हैं और कुछ लम्बी वर्तुलाकार जिस परिधि पर पृथ्वी परिभ्रमण करती है, उसको “क्रान्तिवृत्त” कहते हैं।

ज्योतिषियों द्वारा इस कर्न्तिवृति के १२ भाग कल्पित किए हुए हैं और उन १२ भागों के नाम उन उन स्थानों पर आकाशस्थ नक्षत्र पूंजो से मिलकर बनी हुई कुछ मिलती जुलती आकृति के नाम पर रख लिए गए है।

यथा-१मेष २वृष ३मिथुन ४कर्क ५सिह ६कन्या ७तुला ८वृश्चिक ९धनु १०मकर ११कुम्भ १२मीन।

प्रत्येक भाग वा आकृति “राशि” कहलाती है। जब पृथ्वी एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करती है तो उसको “संक्रान्ति” कहते हैं। लोक में उपचार से पृथ्वी के से संक्रमण को सूर्य का संक्रमण कहने लगे हैं।

छ:मास तक सूर्य संक्रान्ति क्रान्तवृत्त से उत्तर की ओर उदित होता रहता हैऔर छ:मास तक दक्षिण की ओर निकलता रहता है प्रत्येक षण्मास की अवधि का नाम ‘अयन’ है। सू्र्य के उत्तर की ओर उदय की अवधि को उत्तरायण और दक्षिण की ओर उदय की अवधि को ‘दक्षिणायण’ कहते हैं।

उत्तरायण काल सू्र्य उत्तर की ओर से उदय होता हुआ दिखता है और उसमें दिन बढ़ता जाता है और रात्रि घटती जाती है। दक्षिणायन में सूर्योदय में सूर्य दक्षिण की ओर दृष्टिगोचर होता है और उसमें रात्रि बढ़ती जाती है और दिन घटता जाता है। सूर्य की मकर राशि की संक्रान्ति से उत्तरायण और कर्कसंक्रान्ति से दक्षिणायण प्रारम्भ होता है।

सू्र्य के प्रकाश आधिक्य के कारण उत्तरायण विशेष महत्वशाली माना जाता है अतीव उत्तरायण के आरम्भ दिवस मकर की संक्रान्ति को भी अधिक महत्व दिया जाता है और स्मरणातीत चिरकाल से उस पर पर्व मनाया जाता है।

यद्यपि इस समय उत्तरायण परिवर्तन ठीक ठीक मकर संक्रान्ति पर नहीं होता और अयन चयन की गति बराबर पिछली ओर को होते रहने के कारण इस समय (संवत १९९५ वि.मे) मकर संक्रान्ति से २२ दिन पूर्व धनराशि के ७ अंश २४ कला पर “उत्तरायण” होता है।

इस परिवर्तन को लगभग १३५० वर्ष लगे हैं परन्तु पर्व मकर संक्रान्ति के दिन ही होता चला आता है इससे सर्वसाधारण की ज्योतिष-शास्त्रानभिज्ञता का कुछ परिचय मिलता है, किन्तु शायद पर्व चलते न रहना अनुचित मानकर मकर संक्रान्ति के दिन ही मनाने की रीति चली आती हो।

 

मकर संक्रान्ति के अवसर पर शीत अपने यौवन पर होता है। जनावास,जंगल,वन,पर्वत सर्वत्र शीत का आतंक छा रहा है, चराचर जगत शीतराज का लोहा मान रहा है, हाथ पैर से सिकुड़ जाते है, “रातों जानु दिवा भानु:” रात्रि में जंघा और दिन में सूर्य, किसी कवि की यह उक्ति दोनों पर आजकल ही पूर्णरूप से चरितार्थ होती है।

दिन की अब तक यह अवस्था थी कि सूर्यदेव उदय होते ही अस्ताचल के गमन की तैयारियाँ आरम्भ कर देते थे, मानो दिन रात्रि में लीन हुआ जाता था। रात्रि सुरसा राक्षसी के समान अपनी देह बढ़ाती ही चली जाती थी। अन्त को उसका भी अन्त आया। आज मकर संक्रान्ति के मकर ने उसको निगलना आरम्भ कर दिया। आज सूर्यदेव ने उत्तरायण में प्रवेश किया।

इस काल की महिमा संस्कृत साहित्य में वेद से लेकर आधुनिक ग्रंथ सविशेष वर्णन की गई है। वैदिक ग्रंथों में उसको ‘देवयान’ कहा गया है और ज्ञानी लोग स्वशरीर त्याग तक की अभिलाषा इसी उत्तरायण में रखते है। उनके विचारानुसार इस समय देह त्यागने उनकी आत्मा सूर्य लोक में होकर प्रकाश मार्ग से प्रयाण करेगी। आजीवन ब्रह्मचारी भीष्म पितामह ने इसी उत्तरायण के आगमन पर शर-शैय्या पर शयन करते हुए प्राणोत्क्रमण की प्रतीक्षा की थी।

ऐसा प्रशस्तियाँ किसी पर्वता (पर्व बनने)से कैसे वन्चित रह सकता था। आर्य जाति के प्राचीन नेताओं ने मकर-संक्रान्ति (सूर्य की उत्तरायण संक्रमण तिथि) का पर्व निर्धारित कर दिया।

 

जैसा कि पूर्व में बताया जा चूका है यह पर्व बहुत चिरकाल से चला आता है। यह भारत के सब प्रांतों में प्रचलित है अत: इसको एकदेशी न कहकर सर्वदेशी कहनाचाहिए। सब प्रांतों में इसके मनाने की परिपाटी में भी समानता पाई जाती है। सर्वत्र शीतातिशय के निवारण के उपचार प्रचलित हैं।

 

वैद्यक शास्त्र में शीत के प्रतिकार तिल,तेल,तूल (रूई) बतलाए हैं। जिसमें तिल सबसे मुख्य है। इसलिए पुराणों में इस पर्व के सब कृत्यों में तिलों के प्रयोग का विशेष माहात्म्य गाया गया है। किसी पुराण का निम्नलिखित वचन प्रसिद्ध है-

 

तिलस्नायी तिलोद्वर्ती तिलहोमी तिलोदकी।

तिलभुक् तिलदाता च षट्तिला: पापनाशना:।।

 

अर्थ- तिलमिस्रित जल से स्नान, तिल का उबटन, तिल का हवन, तिल का जल, तिल का भोजन और तिल का दान ये छ: तिल के प्रयोग पापनाशक हैं।

 

मकर संक्रान्ति के दिन भारत में सब प्रांतों में तिल और गुड या खाँड़ के लड्डू बनाकर जिनको ‘तिलवे कहते हैं,दान दिए जाते हैं और इष्ट मित्रों में बाटे जाते है। महाराष्ट्र प्रात में इस दिन तिलों का ‘तीलगूल’ नामक हलुआ बाटनें की प्रथा है और सौभाग्यवती स्त्रियाँ तथा कन्यायें अपनी सखी सहेलियों से मिलकर उनको हल्दी, रोली, तिल और गुड भेंट करती हैं।

प्राचीन ग्रीक लोग भी वधू-वर को सन्तान वृद्धि के निमित्त तिलों का पकवान बाटते थे। इससे ज्ञात होता है कि तिलों का प्रयोग प्राचीनकाल में विशेष गुणकारक माना जाता रहा है। प्राचीन रोमन लोगों में मकर संक्रान्ति के दिन अंजीर, खजूर और शहद अपने इष्ट मित्रों को भेंट करने की रीति थी। यह भी मकर संक्रान्ति पर्व की सार्वत्रिकता और प्राचीनता का परिचायक है।

 

मकर संक्रान्ति पर्व पर दीनों को शीत निवारणार्थ कम्बल और घृत दान करने की प्रथा सनातनियो में प्रचलित है। “कम्बलवन्तं न बाधते शीतम” की श्लिष्ट उक्ति संस्कृत में प्रसिद्ध ही है। घृत को भी वैद्यक में ओज और तेज़ को बढ़ाने वाला तथा अग्निदीपक कहा गया है। आर्य पर्वों पर दान, जो धर्म एक स्कन्ध है, अवश्यमेव ही कर्तव्य है-

 

देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्विकं सात्विक स्मृतम्।।

गीता, अध्याय १७। श्लोक २०।

 

अर्थ-देश, काल और पात्र के अनुसार ही दिया हुआ दान ‘सात्विक’ कहलाता है। तथा-

 

दरिद्रान्भर कौन्तेय माँ प्रयच्छेश्वरे धनम्।

 

अर्थ- हे अर्जुन! दरिद्रों का पालन करो, धनियों को धन मत दो।

 

इन श्रीमद्भगवद्गीता के वचनों के अनुसार इस प्रबल शीतकाल में मकर संक्रान्ति के पहले दिन लोढ़ी का त्योहार मनाने की रीति है। इस अवसर पर स्थान स्थान पर होली के समान अग्नियॉ प्रज्वलित की जाती है और उनमें तपे हुए गन्ने भूमि पर पटकाकर आनन्द मनाया जाता है। उससे अगले दिन वहॉ मकर संक्रान्ति का भी उत्सव होता है, जिसको वहॉ ‘माघी’ बोलते है। ज्ञात होता है कि ये दोनों दिन के लगातार दो उत्सव न होकर दिनद्वयव्यापी मकर संक्रान्ति महोत्सव के एक ही पर्व का अपभ्रंश रूप है। देश के आर्य सामाजिक पुरूषों को चाहिए कि वे दो दिन त्योहार न मनाकर मकर संक्रान्ति की तिथि को ही परिमार्जित रूप में इस पर्व को मनाए और आर्यसामाजिक जगत् में पर्वों की एकाकारता स्थापित करने में सहायक हों।

साभार :- शान्ति देवी जी आर्य

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पूज्य मीमांसक जी और परोपकारिणी सभा:- राजेन्द्र जिज्ञासु जी

कुछ विचारशील मित्रों से सुना है कि एक अति उत्साही भाई ने श्री पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक के नाम की दुहाई देकर, सत्यार्थप्रकाश के प्रकाशन की आड़ लेकर परोपकारिणी सभा तथा उसके विद्वानों व अधिकारियों पर बहुत कुछ अनाप-शनाप लिखा है। किसी को ऐसे व्यक्ति की कुचेष्टा पर बुरा मनाने की आवश्यकता नहीं। आज के युग में लैपटॉप आदि साधनों का दुरुपयोग करते हुए बहुत से महानुभाव यही कुछ करते रहते हैं। आर्य समाज में धन का उपयोग यही है कि एक ही लेख को सब पत्रों में छपवा दो।

केजरीवाल व राहुल से कुछ युवकों ने यही तो सीखा है कि जैसे मोदी को कोसकर वे मीडिया में चर्चित रहते हैं, आप परोपकारिणी सभा को कोसकर और सत्यार्थ प्रकाश के प्रकाशन पर अपनी रिसर्च का शोर मचाकर चर्चा में रहो। विधर्मियों से टक्कर लेने का इनमें साहस कहाँ? बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा?

धर्मप्रेमियों को पूज्य मीमांसक जी व परोपकारिणी सभा विषयक कुछ और प्रेरक घटनायें बताते हैं।

१. लोकतन्त्र में किन्हीं बातों पर विचार-भेद की सम्भावना तो सम्भव है। मन-भेद व सिद्धान्त-भेद अहितकर है। पूज्य मीमांसक जी से परोपकारिणी सभा के अधिकारी व विद्वान् यदा-कदा मिलने जाते रहते थे। श्री धर्मवीर जी उनके दर्शनार्थ तथा विचार-विमर्श के लिये उनके पास गये। धर्मवीरजी ने ऋषि के कुछ पत्र खोजकर छपवा दिये थे। मीमांसक जी इससे गद्गद हो गये। आपके पास कुछ और नये पत्र थे, जो ट्रस्ट के नहीं बल्कि पण्डित जी की खोज व पुरुषार्थ का फल थे। श्री धर्मवीर जी को इन पत्रों का पता नहीं था। आपने अत्यन्त उदारता व आत्मीयता से ये पत्र डॉ. धर्मवीर जी को भेंट कर दिये। यह भी कहा, मैंने यह पत्र किसी को दिखाये भी नहीं। इनकी सुरक्षा के लिये आपसे उपयुक्त और कोई व्यक्ति मेरे ध्यान में नहीं है।

पण्डित जी इन्हें बेचकर पैसा कमा सकते थे। किन्तु आपने अपने प्यारे धर्मवीर जी को यह आर्ष सम्पदा सौंप दी।

२. धर्मवीर जी पण्डित जी के दर्शन करने गये। किसी विषय पर कुछ विचार करना था। पण्डित जी से एक दुर्लभ ग्रन्थ दिखाने को कहा। उस अलमारी की चाबी पण्डित जी के पास ही रहती थी। ऐसी ज्ञान-सम्पदा तक हर किसी की पहुँच होनी भी नहीं चाहिये। परोपकारिणी सभा के ज्ञानकोश की तस्करी ऐसे ही तो होती रही।

धर्मवीर जी की विनती सुनकर पूज्य मीमांसक जी ने झट से वह अलभ्य ग्रन्थ उन्हें दिखा दिया।

३. पण्डित जी ने अपनी टिप्पणियों से युक्त सत्यार्थप्रकाश छापा। उसमें ‘जप’ विषय के प्रसंग में ‘मन’ शब्द की बजाय जन्म कर दिया और बड़ी लम्बी विचित्र टिप्पणी दे दी। शुद्ध को अशुद्ध कर दिया।

श्री विरजानन्द जी उनके चरणों में उपस्थित हुए, कहा, ‘‘यह क्या कर दिया महाराज?’’ विचार-विमर्श हुआ। श्रद्धेय मीमांसक जी को अपनी भूल पर बड़ा दु:ख हुआ। विरजानन्द जी को अपार प्रसन्नता हुई कि हमारे श्रद्धेय मीमांसक जी ने भूल का सुधार करना मान लिया।

४. पूज्य पण्डित जी अपने ग्रन्थों के लेख व विशेषाङ्कों के लिये इस विनीत से भी विचार-विमर्श व पत्र-व्यवहार करते रहते थे। सत्यार्थ प्रकाश के सम्पादन व प्रकाशन के समय कुछ स्थलों पर मेरे साथ विचार न कर सके। आपने उसमें लिख दिया कि चौदहवें समुल्लास में कुरान की आयतों के अर्थ महर्षि ने अपने तैयार करवाये गये हिन्दी कुरान (अप्रकाशित) से दिये हैं। मेरा ध्यान पण्डित जी के इस कथन पर गया। मैं बहालगढ़ पहुँचा। कहा, ‘‘गुरुजी! यह क्या लिख दिया? सत्यार्थ प्रकाश की अन्त:साक्षी का प्रमाण दिया, श्री स्वामी वेदानन्द जी, दर्शनानन्द जी, पं. लेखराम जी, स्वामी योगेन्द्रपाल जी, देहलवी जी आदि विद्वानों के प्रमाण तथा कोर्टों के निर्णय सुनाये तो झट से बोले, ‘‘यह तो भयंकर भूल हो गई। अब तो अगले संस्करण में ही सुधार होगा।’’

इस भेंट के पश्चात् भूल स्वीकार करने के उनके साहस को उनकी महानता बताते हुए मैंने ‘परोपकारी’ तथा ‘दयानन्द सन्देश’ में लेख दिये। ऐसा करना आवश्यक था अन्यथा विरोधी लाभ उठाते।

५. पण्डित जी के निधन से पूर्व परोपकारिणी सभा के कई ट्रस्टी, कई विद्वान् कई बार उनके स्वास्थ्य का पता करने जाते रहे। ये बातें बनाने वाले कितनी बार गये? उनसे अन्तिम भेंट जब हुई तो ‘रसाला एक आर्य’ मूल उर्दू पुस्तक की खोज करने का मुझे आदेश देते हुए कहा, ‘‘सब कार्य छोडक़र पहले इसे करो। यह महर्षि की लिखवाई पुस्तक है। इसे फिर से तैयार (अनुवाद-सम्पादन) करके यह पुस्तक छपवा दो। आर्यसमाज को बता दो कि सब प्रश्रों के उत्तर ऋषि जी द्वारा लिखवाये गये हैं। यह ला. साईंदास रचित पुस्तक नहीं है। कोई असाधारण विद्वान् ही इतने ग्रन्थों के प्रमाण व उत्तर दे सकता है।’’

ईश्वर कृपा से उनके निधन के शीघ्र पश्चात् वह पुस्तक अकस्मात् मिल गई। मैंने यह हिन्दी में छपवाकर पूज्य पण्डित जी को समर्पित कर दी। उनका आदेश हुआ तो उनकी प्रेरणा से सम्पूर्ण जीवन चरित्र-महर्षि दयानन्द भी दो खण्डों में छपवा दिया।

पण्डित जी के निधन के पश्चात् डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी ने पता दिया कि उनके ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश शताब्दी संस्करण में ‘दौड़ा सपुर्द’ शब्द एक से अधिक बार आया है। ऐसा कोई शब्द है ही नहीं। शब्द था ‘दौर सपुर्द’ ऐसे ही बाईबल के एक अवतरण में वे भूल कर गये। डॉ. सुरेन्द्र जी ने भूल का सुधार करके आर्यसमाज का गौरव बढ़ाया,उपहास से बचाया।

रामलाल कपूर ट्रस्ट से पता किया जा सकता है कि पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक की शोकसभा में परोपकारिणी सभा के तो कई विद्वान् पहुँचे और किसी सभा से एक भी व्यक्ति न पहुँचा। सम्भवत: यह चर्चा छेडऩे वाले भाई भी नहीं पहँुचे थे। यह एक ऐसी शोक सभा थी जिसके दो अध्यक्ष थे। दोनों परोपकारिणी सभा के……………। केवल परोपकारिणी सभा ने उनके निधन पर एक श्रद्धाञ्जलि सम्मेलन आयोजित किया। रामलाल कपूर ट्रस्ट ने उसकी अध्यक्षता के लिये मेरा ही नाम सुझाया। मैंने तथा श्री डॉ. धर्मवीर जी ने कहा, ‘‘अध्यक्ष ट्रस्ट का होना चाहिये।’’ हमने विचार करके आचार्य प्रदीप जी को उस सभा का अध्यक्ष बनाया।

पूज्य पं. सत्यानन्द जी को श्रद्धेय मीमांसक जी अगली पीढ़ी का सबसे बड़ा आर्ष ग्रन्थों व व्याकरण का विद्वान् मानते थे। सभा ने उन्हें आदरपूर्वक अपना न्यासी चुना है। कभी एक भद्रपुरुष ने ऋषि मेले पर उन्हें ब्रह्मा ही न बनने दिया। स्वामी सर्वानन्द-युग में उनका ध्यान इधर दिलाया गया। धर्मवीर जी ने बार-बार उन्हें यज्ञ का ब्रह्मा बनाया। रामलाल कपूर ट्रस्ट में अलभ्य स्रोत हर किसी की पहुँच में न हों, यह नियम पूज्य मीमांसक जी के समय मेें भी था। इसके न होने से सार्वदेशिक के पुस्तकालय का नाश हो गया। सब तस्करी हो गई।

परोपकारिणी सभा ने ही तो ‘परोपकारी’ द्वारा बताया कि ऋषि के शास्त्रार्थ-संग्रह में भयङ्कर अशुद्धियाँ हैं। क्या यह सुधार सभा का आलोचक मण्डल कर सकता है? जिसने कभी विधर्मियों से लिखित व मौखिक शास्त्रार्थ नहीं किया, ऐसे गुणी पहलवान परोपकारिणी सभा को शास्त्रार्थ की चुनौती देते सुने गये। सभा का पत्र विरोधियों के उत्तर देने में प्रमाद नहीं करता। आक्षेप करने वालों को सभा रोक नहीं सकती। उनका भगवान् भला करे।

आर्य वक्ताओं व लेखकों की सेवा में:- राजेन्द्र जिज्ञासु

कुछ समय से आर्यसमाज के उत्सवों व सम्मेलनों में सब बोलने वालों को एक विषय दिया जाता है, ‘‘आज के युग में ऋषि दयानन्द की प्रासंगिकता’’ इस विषय पर बोलने वाले (अपवाद रूप में एक दो को छोडक़र) प्राय: सब वक्ता ऋषि दयानन्द की देन व महत्ता पर अपने घिसे-पिटे रेडीमेड भाषण उगल देते हैं। जब मैं कॉलेज का विद्यार्थी था तब पूज्य उपाध्याय जी की एक मौलिक पुस्तक सुरुचि से पढ़ी थी। पुस्तक बहुत बड़ी तो नहीं थी, परन्तु बार-बार पढ़ी। आज भी यदा-कदा उसका स्वाध्याय करता हँू। आज के संसार में वैदिक विचारधारा को हम कैसे प्रस्तुत करें, यही उसके लेखन व प्रकाशन का प्रयोजन था।

इसमें दो अध्याय अनादित्त्व पर हैं। सब मूल सिद्धान्तों पर लिखते हुए महान् दर्शनिक की तान यही है कि ईश्वर, जीव व प्रकृति अनादि हैं। ईश्वर का ज्ञान और विद्या भी अनादि है। यह जगत् परिवर्तनशील है, परन्तु इस सृष्टि के नियम जो प्रभु ने बनाये हैं वे सब अपरिवर्तनशील व अनादि हैं, परमेश्वर इन नियमों का नियन्ता है। उसका एक भी नियम ऐसा नहीं जो अनादि व नित्य (अनश्वर) न हो। ऋषि दयानन्द के वैदिक दर्शन की महानता, विलक्षणता, उपयोगिता तथा प्रासंगिकता का बोध इसी से हो जाता है। हमारे अधिकंाश वक्ता इस विषय पर बोलते हुए इसे छूते ही नहीं।

एक बार नागपुर के एक महासम्मेलन में मुझे भी इसी विषय पर बोलना पड़ा। मैंने पहला वाक्य यह कहा, ‘‘क्या कभी किसी ने यह प्रश्र उठाया है कि आज के युग में चाँद की, सूर्य की, पृथिवी की गति की, सूर्य के पूर्व से उदय होने की, दो+दो=चार, दिन के पश्चात् रात और रात के पश्चात् दिन की, कर्मफल सिद्धान्त की, प्रभु की दया, प्रभु के न्याय की, व्यायाम की, दूध-दही के सेवन की, गणित के नियम की, भौतिकी शास्त्र के रुड्ड2ह्य (नियमों) की क्या प्रासंगिकता है?’’

जो इस प्रश्र को उठायेगा, उसका उपहास ही उड़ाया जायेगा। इस प्रकार त्रैतवादी विचारक महर्षि दयानन्द के सन्देश, उपदेश ‘वेद अनादि ईश्वर का अनादि ज्ञान है’ को सुनकर जो उसकी प्रासंगिकता का प्रश्र उठाता है तो उसे कौन बुद्धिमान् कहेगा? एक सेवानिवृत्त प्राध्यापक मुझे बाजार में मिल गया। वार्तालाप में उसने एक बात कही, ‘‘वैज्ञानिक चाँद पर घूम आये। उपग्रह से भ्रमण करते रहते हैं। कहीं उन्हें नरक व स्वर्ग नहीं दिखे। कहीं किसी ने हूरें नहीं देखीं, फरिश्ते नहीं देखे……..।’’

मित्रो! जो चमत्कार मानते थे उनको लिखित रूप से मानना पड़ रहा है कि किसी पैगम्बर ने कोई चमत्कार नहीं किया। धर्म अनादि काल से है। युग-युग में ईश्वर नया ज्ञान नहीं देता। ऐसा साहित्य छप रहा है। ऐसे लोगों से पूछो कि आज के युग में उनके ग्रन्थों व पन्थों की क्या प्राासंगिकता है? विस्तार से कभी फिर कुछ लिखूँगा। आशा है हमारे बड़े-बड़े विद्वान् नये फैशन के इस सम्मेलन से समाज को बचायेंगे।

हमारे पूजनीय स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तो पण्डित चमूपति जी की यह तान सुनाया करते थे:-

जुग बीत गया दीन की शमशीर ज़नी का।

है वक्त दयानन्द शजाअत के धनी का।।

इतिहास का हस्ताक्षर-महाशय कृष्ण जी का पत्र:- राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री धर्मवीर जी ने ‘परोपकारी’ में इतिहास के ‘हस्ताक्षर’ शीर्षक से एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी रूप-लेख आरम्भ किया था। जिसके दूरगामी परिणाम निकले। साहित्यकारों ने इसकी महत्ता व उपयोगिता का लोहा माना। इसी के अन्तर्गत बनेड़ा के राजपुरोहित श्री नगजीराम की डायरी के कुछ पृष्ठ, वीर भगतसिंह, स्वामी वेदानन्द जी के हस्ताक्षर और श्री सुखाडिय़ा का आर्यसमाज ब्यावर के नाम पत्र छापे। इनमें से कुछ सामग्री कई विद्वानों के ग्रन्थों में स्थान पा चुकी है।

आर्यसमाज के अग्रि-परीक्षा काल के एक अभियोग पटियाला के महाशय रौनक राम जी शाद के केस के बारे में पूज्य महाशय कृष्ण जी का १०२ साल पुराना एक ऐतिहासिक पत्र परोपकारी में छपा। मेरे पास ऐसे कई महापुरुषों के पत्र व दस्तावेज हैं। परोपकारी में इनके प्रकाशन से इतिहास की सुरक्षा हो जायेगी।

पं. मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या का पत्र:- परोपकारिणी सभा के आरम्भिक काल के मन्त्री श्री पण्ड्या मथुरा निवासी का एक पत्र मई १८८६ के आर्य समाचार मेरठ के पृष्ठ ४५-४८ तक छपा मिलता है। सभा ने व समाजों ने पण्डया जी को ऋषि-जीवन के लिखने का कार्य सौंपा। आपने इस दायित्व को लेकर ऐसे कई पत्र तत्कालीन आर्यपत्रों में प्रकाशित करवाये। पण्ड्या जी मन से तो पोप ही थे, ऊपर से वैदिक धर्मी व ऋषि-भक्त बने हुये थे। एक भी पृष्ठ नहीं लिखा। ऋषि जीवन की खोज के लिये घर से निकलकर भटकना, कष्ट सहन करना ऐसे लोगों के बस में कहाँ। कोई लेखराम ही धर्म-रक्षा व धर्मप्रचार के लिए जान जोखिम में डाल सकता है। बाबू लोग घर में कुर्सी पर बैठे-बैठे लेख लिखकर रिसर्च की धौंस जमाते हैं। वर्षों तक समाजों के अधिकारी रहने वाले कभी अड़ोस-पड़ोस में किसी ग्राम में नये स्थान पर जाकर कभी धर्मप्रचार करने का कष्ट नहीं उठाते। इस प्रकार से तो इतिहास नहीं बना करता।