जिस
ब्रह्म और क्षत्र का
विवरण ऊपर दिखलाया है उनको ही
वेदों में मित्र और वरुण कहते
हैं । ब्रह्म मित्र
है और क्षत्र वरुण
है । इसमें यद्यपि
अनेक प्रमाण मिलते हैं तथापि मैं केवल शतपथ का एक प्रबल
प्रमाण यहाँ लिखता हूँ । यजुर्वेद ७
। ९ की व्याख्या
करते हुए शतपथ कहता है-
क्रतुदक्षौ
ह वा अस्य मित्रावरुणौ
। एतन्न्वध्यात्मं स यदेव मनसा
कामयत इदं मे स्यादिदं कुर्वीयेति
स एव ऋतुरथ यदस्मै
तत्समृध्यते स दक्षो मित्र
एव क्रतुर्वरुणो दक्षो ब्रह्मैव मित्रः क्षत्रं वरुणोभिगन्तैव ब्रह्म कर्त्ता क्षत्रियः ॥ १ ॥
ते ते अग्रे नानेवासतुः
। ब्रह्म च क्षत्रं च
। ततः शशाकैव ब्रह्म मित्र ऋते क्षत्राद्वरुणात्स्थातुम् ॥ २ ॥
न क्षत्रं वरुणः । ऋते ब्रह्मणो
मित्राद्यद्ध किं च वरुणः कर्म
चक्रेऽप्रसूतं ब्रह्मणा मित्रेण न है वास्मै
तत्समानृधे ॥ ३ ॥
स क्षत्रं वरुणः । ब्रह्म मित्रमुपमन्त्रयां
चक्र उपमा वर्तस्व सं सृजावहै पुरस्त्वा
करवै त्वत्प्रसूतः कर्म करवा इति
तथेति
तौ समसृजेतां तत एष मैत्रावरुणे
ग्रहोऽभवत् ॥ ४ ॥
सो एव पुरोधा ।
तस्मान्न ब्राह्मणः सर्वस्येव क्षत्रियस्य पुरोधां कामयते । सं ह्येतौ
सृजेते सुकृतं च दुष्कृतं च
नो एव क्षत्रियः सर्वमिव
ब्राह्मणं पुरोदधीत सं ह्ये ल्वेतौ
सृजेते सुकृतं च दुष्कृतं च
स यत्ततो वरुणः कर्म चक्रे प्रसूतं ब्रह्मण मित्रेण सं है वास्मै
तदानृधे । शतपथ ।
४ । १ ॥
क्रतु
और दक्ष ही इसके मित्र
और वरुण हैं । यह अध्यात्म
विषय है । सो
यह यजमान मन से जो
यह कामना करता है कि यह
मुझे हो और यह
कर्म मैं करूँ, इसी का नाम क्रतु
है और जो इस
कर्म से उसको समृद्धि
प्राप्त होती है, वही दक्ष है । मित्र
ही क्रतु है और वरुण
ही दक्ष है । ब्रह्म
अर्थात् ज्ञानी न्यायी वर्ग ही मित्र है
और क्षत्र अर्थात् न्यायी शासक वर्ग ही वरुण है
। मन्ता ही ब्रह्म है
और कर्त्ता ही क्षत्रिय है
॥ १ ॥ पहले
ब्रह्म और क्षत्र ये
दोनों पृथक्-पृथक् रहते थे । ब्रह्म
जो मित्र है वह तो
क्षत्र वरुण के बिना पृथक्
रह सका, किन्तु क्षत्र जो वरुण है
वह ब्रह्म मित्र के बिना न
रह सका ॥ २ ॥
क्योंकि ब्रह्म मित्र की आज्ञा बिना
क्षत्र वरुण जो-जो कर्म
किया करता था वह वह
उसके लिए वृद्धिप्रद नहीं होता था ॥ ३
॥ सो इस क्षत्र
वरुण ने ब्रह्म मित्र
को बुलाया और कहा कि
मेरे समीप आप रहें। (संसृजाव
है ) हम दोनों मिल
जाएं। मिलकर सर्व व्यवहार करें। मैं आपको आगे करूँगा और आपकी आज्ञानुसार
मैं कर्म करूँगा । ब्राह्मण इसको
स्वीकार कर दोनों मिल
गये ॥ ४ ॥
तब से ही मैत्रा
वरुण नाम का एक ग्रह
अर्थात् एक पात्र होता
है ॥ ४ ॥
इस प्रकार पौरोहित्य चला। इस कारण सब
ब्राह्मण, सब क्षत्रिय की
पौरोहित्य – वृत्ति की कामना नहीं
करता, क्योंकि ये दोनों मिलकर
सुकृत और दुष्कृत कर्म
करते हैं अर्थात् दोनों ही पाप-पुण्य
के भागी होते हैं । वैसा ही
सब क्षत्रिय सब ब्राह्मण को
पुरोहित नहीं बनाता, क्योंकि दोनों मिलकर सुकृत और दुष्कृत करते
हैं । तब से
क्षत्रिय वरुण जो-जो कर्म
ब्राह्मण मित्र से आज्ञा पाकर
किया करता था वह वह
कर्म उसको वृद्धिप्रद हुआ । इस प्रमाण
से सिद्ध होता है कि ब्रह्म
को मित्र तथा क्षत्र को वरुण कहते
हैं और इन दोनों
को मिलकर ही व्यवस्था करनी
चाहिए। इसमें यदि शासक वर्ग, ज्ञानी वर्ग की अधीनता को
स्वीकार नहीं करे तो उसका निर्वाह
कदापि न हो ।
अब आप वशिष्ठ और
अगस्त्य दोनों मैत्रावरुण क्यों कहलाते
स
प्रकेत उभयस्य विद्वान् सहस्रदान उत वा सदानः
। यमेन ततं परिधिं वयिष्यन्नप्सरसः परि जज्ञे वसिष्ठः ॥
– ऋ०
७ । ३३ ।
१२
वेदों
में एक यह भी
रीति है कि गुण
में भी चेतनत्व का
आरोप कर गुणिवत् वर्णन
करने लगते हैं। राज्य नियम से लोक ज्ञानी
विद्वान् महाधनाढ्य होते हैं अतएव वह नियम ही
ज्ञानी, विद्वान्, महाधनाढ्य आदि कहा जाता है। (स: + प्रकेतः ) वह परम ज्ञानी
(उभयस्य+ विद्वान्) ऐहलौकिक और पारलौकिक दोनों
सुखों को जानता हुआ
वसिष्ठ (सहस्रदान: ) बहुत दानी होता है । (उत
वा + सदान: ) अथवा सर्वदा दान देता ही रहता है।
कब ? सो आगे कहते
हैं— (यमेन
) ब्रह्म क्षत्रों के प्रबल दण्डधारा
से ( ततम् + परिधिम् ) विस्तृत व्यापक परिधि रूप वस्त्र को (वयिष्यन्) बुनता हुआ (वसिष्ठः ) वह सत्य धर्म
( अप्सरसः + परि जज्ञे ) सर्व संस्थाओं को लक्ष्य करके
उत्पन्न होता है। अब आगे सार्वजनीन
परम हितकारी सिद्धान्त कहते हैं-
सत्रे
ह जाता विषिता नमोभिः कुम्भेरेतः सिषिचतुः समानम् । ततोह मान
उदियाय मध्यात्ततो जातमृषिमाहुर्वसिष्ठम् ॥ १३ ॥
उक्थभृतं सामभृतं विभर्ति ग्रावाणं बिभ्रत्प्रवदात्यग्रे उपैनमाध्वं सुमनस्यमाना आ वो गच्छाति
प्रतृदो वसिष्ठः ॥
ऋ०
।७।३३ । १४ ॥
सत्र – सतांत्र: सत्रः । सज्जनों की
जो रक्षा करे, उस यज्ञ का
नाम सत्र है । अथवा
जो सत्य यज्ञ है, वही सत्र है । सम्पूर्ण
प्रजाओं के हितसाधक उपायों
के बनाने के लिए जो
अनुष्ठान है, वही महासत्र है । कुम्भ
= वासतीवर कलश अर्थात् सुन्दर उत्तम उत्तम जो बसने के
ग्राम- नगर हैं वे ही यहाँ
कुम्भ हैं। जैसे कुम्भ में जल स्थिर रहता
है तद्वत् ग्राम में बसने पर मनुष्य स्थिर
हो जाता है । अतः
सर्व भाष्यकार, इस कुम्भ का
नाम वासतीवर रखा है । मानमाननीय
। जिसका सम्मान सब कोई करे
। मापनेहारा, परीक्षक इत्यादि । अथ मन्त्रार्थ-
(सत्रे
+ ह + जातौ ) यह प्रसिद्ध बात
है कि जब बहुत
सम्मति से सत्र में
दीक्षित होते हैं और ( नमोभिः + इषिता) सत्कार से जब अभिलाषित
होते हैं अर्थात् जब ब्रह्मसमूह और
क्षत्रसमूह को बड़े सत्कार
के साथ
सर्व
हितसाधक धर्मप्रणेतृ सभारूप महायज्ञ में प्रजाएँ बुलाकर धर्म नियम बनवाती हैं तब ( समानम्+ रेतः + कुम्भे+सिषिचतुः ) वे मित्र और
यरुण अर्थात् ब्रह्म और क्षत्र दोनों
मिलकर समान रूप से रेत – रमणीय
धर्मरूप प्रवाह को प्रत्येक ग्राम
रूप कलश में सींचते हैं। (ततः+ह+ मान: + उदियाय)
तब सबका मापनेहारा, सर्व को एक दृष्टि
से देखनेहारा एक मानने योग्य
नियम उत्पन्न होता है । ( ततः
+ मध्यात्+ वसिष्ठम् + ऋषिम् + जातम् + आहुः ) और उसी के
मध्य से वसिष्ठ ऋषि
को उत्पन्न कहते है ॥ १३
॥ इसका आशय विस्पष्ट है अब आगे
उपदेश देते हैं कि प्रजामात्र को
उचित है इस वसिष्ठ
का सत्कार करे । ( प्रतृदः ) हे अत्यन्त हिंसक
पुरुषो! हे प्रजाओं में
उपद्रवकारी नरो ! (वः + वसिष्ठः + आगच्छति) तुम्हारे निकट राष्ट्र नियम आता है। (सुमनस्यमानाः ) प्रसन्न मन होकर तुम
(एनम् ) इस धर्म नियम
को ( उप+आध्वम्) अपने
में देववत् आदर करो। वह वसिष्ठ कैसा
है (उक्थभृतम् + सामभृतम्) उक्थभृत्=ऋग्वेदीय होता । सामभृत = उद्भाता
। (विभर्ति ) इन दोनों को
धारण किये हुए हैं और (ग्रावाणम्+ बिभ्रत्) उग्र प्रस्तर अर्थात् दण्ड को लिए हुए
है। यजुर्वेदी अध्वर्यु को भी साथ
में रखे हुए है (अग्रे + प्रवदति) और वह आगे-आगे निज प्रभाव को कह रहा
है । १४ ॥
जैसा धर्म शास्त्रों में लिखा है कि ” व्यवराचापि
वृत्तस्था” न्यून से न्यून ॠग्वेदी,
यजुर्वेदी और सामवेदी तीन
मिलकर जिस धर्म को नियत करें
उसको कोई भी विचलित न
करने पावे । इसी ऋचा
से यह नियम बना
है । प्रतृद – उतृदिर्
हिंसानादरयोः । हिंसा और
अनादर अर्थ में तृद् धातु आता है, अर्थात् जो राष्ट्रीय नियमों
को हिंसित और अनादर करते
हैं, वही यहाँ प्रतृद हैं। अब और भी
अर्थ विस्पष्ट हो जाता है
। धर्म नियम किसके लिए बनाए जाते हैं । निःसन्देह उन
दुष्ट पुरुषों को नियम में
लाने के लिए ही
धर्म की स्थापना होती
है, अतः वेद भगवान् यहाँ कहते हैं कि हे दुष्ट
हिंसको और निरादरकारी जीवो!
देखो तुम्हारे निकट धर्म आ रहे हैं
। इनका प्रतिपालन करो । यह नियम
तीनों वेदों की आज्ञानुसार स्थापित
हुआ है, यदि इसका निरादर तुमने किया तो तुम्हारे ऊपर
महादण्ड पतित होगा। इससे यह भी विस्पष्ट
होता है कि वसिष्ठ
नाम धर्म नियम का ही है,
जो ब्रह्मक्षत्र सभा से सर्वदा सिक्त
होता रहता है ।
त
इन्निण्यं हृदयस्य प्रकेतैः सहस्रवल्शमभि सं चरन्ति ।
यमेन ततं परिधिं वयन्तोऽप्सरस उपसेदुर्वसिष्ठा ॥
७।३३।९
वसिष्ठाः
= यहाँ वसिष्ठ शब्द बहुवचन है। इस मण्डल में
बहुवचनान्त वसिष्ठ शब्द कई एक स्थान
में प्रयुक्त हुआ है । (ते
वसिष्ठाः ) वे – वे धर्म नियम
( इत्) ही (निण्यम्) अज्ञानों से तिरोहित = ढँके
हुए (सहस्रवल्शम्) सहस्र शाखायुक्त उस-उस स्थान
में (हृदयस्य+प्रकेतैः ) हृदय के ज्ञान-विज्ञानरूप
महाप्रकाश के साथ ( संचरन्ति
) विचरण कर रहे हैं
। (यमेन + ततम् + परिधिम् ) दण्ड की सहायता से
व्यापक परिधि रूप वस्त्र को ( वयन्तः ) बुनते हुए ( अप्सरसः +उपसेदुः ) उस- उस संस्था के
निकट पहुँचते हैं ।।
+
अब
मैंने यहाँ कई ऋचाएँ उधृत
की हैं। विद्वद्गण विचार करें कि वसिष्ठ शब्द
के सत्यार्थ क्या हैं ? इन्हीं ऋचाओं को लेकर सर्वानुक्रमणी
वृहद्देवता और निरुक्त आदि
में जो-जो आख्यायिकाएँ
प्रचलित हुई हैं, उनसे भी यही अर्थ
निःसृत होते हैं। तद्यथा वृहद्देवता–
उतासि
मैत्रावरुणः । ऋ० ।
७ । ३३ ।
११
ऋचा
की सायण व्याख्या में वृहद्देवता की आख्यायिका उद्धृत
है, वह यह है-
तयोरादित्ययोः
सत्रे दृष्ट्वाप्सरस मुर्वशीम् । रेतश्चस्कन्द तत्कुम्भे
न्यपतद्वासतीवरे । तेनैव तु
मुहूर्त्तेन वीर्य्यवन्तो तपस्विनौ । अगस्त्यश्च वसिष्ठश्च
तत्रर्षी संबभूवतुः । बहुधा पतितं
रेतः कलशेच जले स्थले । स्थले वसिष्ठस्तु
मुनिः संभूत ऋषिसत्तमः । कुम्भे त्वगस्त्यः
संभूतो जले मत्स्यो महाद्युतिः । उदियाय ततोऽगस्त्यः
शम्यामात्रो महातपः । मानेन संमितोयस्मात्
तस्मात् मान इहो च्यते । इत्यादि ॥
अदिति
के पुत्र मित्र और वरुण हुए।
वे दोनों किसी यज्ञ में गये । वहाँ उर्वशी
को देख साथ ही दोनों का
रेत गिर गया । वह रेत
कुछ घड़े में और कुछ स्थल
में जा गिरा। स्थल
में जो गिरा उससे
वसिष्ठ और कलश में
जो गिरा उससे अगस्त्य उत्पन्न हुए । अतएव इन
दोनों को मैत्रावरुण कहते
हैं, क्योंकि ये दोनों मित्र
और वरुण के पुत्र हैं
। अगस्त्य जिस कारण घट से उत्पन्न
हुए, अतः इनके घटयोनि, कलशज आदि भी नाम हैं
।