ओम् का माहात्म्य
सभी हिन्दू ’ओम्’ पद का अत्यधिक सम्मान करते हैं । जहां एक ओर वैदिक पाठों में तो इसका उच्चारण होता ही है, परन्तु अन्य अवैदिक स्तुतियों, भजनों, पूजाओं में भी इसका विशेष स्थान पाया जाता है । यहां तक कि अन्य धर्मों में भी इसका बोलबाला है । ईसाइयों का ’आमैन्’ और मुसलमानों का ’आमीन्’ स्पष्ट रूप से ओम् के अपभ्रंश हैं । हर प्रार्थना के बाद इसे जोड़ा जाता है । इनके धर्म-ज्ञाताओं से इन शब्दों के अर्थ पूछे जाएं, या उनके महत्त्व पर प्रकाश डालने को कहा जाए, तो वे कोई भी सन्तोषजनक उत्तर न दे पायेंगे । वस्तुतः, कब ओम् उन देशों में पहुंचा, इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है । बौद्ध धर्म तो हिन्दू-धर्म के बहुत निकट है । सो, वहां ओम् जैसा का तैसा पाया जाता है – “ओम् मनि पद्मे हुम्’ । वैदिक संस्कृति में, जबकि परमात्मा के नाम असंख्य हैं, ओम् का स्थान शिखर पर है । ऐसा क्यों है ? इस प्रश्न पर इस लेख में विचार किया गया है।
पहले हम देखते हैं कि किसने हमें बताया कि ओम् परमात्मा का मुख्य नाम है । एक ओर जहां ब्राह्मण-ग्रन्थों ने उसके माहात्म्य का वर्णन किया है, वहीं प्रायः सभी उपनिषदों ने इसकी स्तुति में कसर नहीं छोड़ी है । कुछ ऐसे ही श्लोक नीचे दिये हैं –
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति
तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीमि – ओमित्येतत् ॥ कठ० १।२।१५ ॥
यहां यमराज नचिकेता को परम सत्य बताते हुए कहते हैं कि, “जिस प्राप्तव्य को सब वेद बार-बार कहते हैं, जिस के लिए सभी तप बताये गये हैं, जिसकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्य जैसे कठिन व्रत का आचरण किया जाता है, वह संक्षेप में ’ओम्’ – यह पद है ।
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ॥ मुण्डक० २।२।४ ॥
उस ब्रह्म को जब लक्ष्य करो, तब प्रणव का धनुष बनाओ, अर्थात् ओंकार का जप करो, और आत्मा को बाण बना कर उसपर चढ़ जाओ, और अपने लक्ष्य को बींध दो, प्राप्त कर लो । ओम् के सहारे से ब्रह्म जितनी शीघ्रता से मिलता है, उतना किसी और शब्द से नहीं मिलता । यही बात एक अन्य श्लोक कहता है –
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम् ।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते ॥ कठ० १।२।१७ ॥
इस ओम् का ही आलम्बन श्रेष्ठ है, सबसे ऊंचा है । जो इस आश्रय को जान गया, वह ब्रह्म के लोक में महत्त्व पाता है, अर्थात् ब्रह्म को पा जाता है, मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
इस प्रकार हम पाते हैं कि पुनः पुनः आध्यात्मिक शास्त्र हमें बता रहे हैं कि ओम् को अपने मार्ग का दीपक बनाओ, क्योंकि यही सब से शक्तिशाली और प्रभावात्मक आलम्बन है ।
फिर भी, यह स्पष्ट नही हुआ कि ओम् में वह कौन सी विशेषता है जिसके कारण सब ऋषि-मुनि हमें यह बता रहे हैं ! इसको समझने के लिए थोड़ा और अन्वेषण करते हैं ।
ओम् की एक व्युत्पत्ति ’अव’ धातु से मन् प्रत्यय लगाकर बताई गई है । इस धातु को पाणिनि के धातु-पाठ में इस प्रकार पढ़ा गया है – अव रक्षण-गति-कान्ति-प्रीति-तृप्ति-अवगम-प्रवेश-श्रवण-स्वामी-अर्थ-याचन- क्रिया-इच्छा-दीप्ति-अवाप्ति-आलिङ्गन-हिंसा-दान-भाग-वृद्धिषु । उपर्युक्त प्रकार से सन्धि-विच्छेद करने से २० अर्थ बनते हैं; ’स्वामी+अर्थ’ को एक पद मानने से, और ’दान’ के बदले ’आदान’ पढ़ने से दो अर्थ और बनते हैं । इस प्रकार यहां कुल २२ अर्थों का योग है । इतने अधिक अर्थ पाणिनि ने किसी और धातु के नहीं लिखे ! इसीसे इस धातु की विशेषता ज्ञात होती है । फिर, ये सभी अर्थ कर्ता या कर्म या दोनों के रूप में परमात्मा में घटाए जा सकते हैं । यथा –
प्रवेश – जो सब में प्रवेश करे अर्थात् सर्वव्यापक है (कर्ता)
याचन – जिसे या जिससे सब मांगें (कर्म)
अवाप्ति – जिसको सब प्राप्त है (कर्ता), और जो सब वस्तुओं में प्राप्त होता है (कर्म)
इसीलिए स्वामी दयानन्द ने लिखा है कि इस नाम में परमात्मा के अन्य सभी नाम समाहित हो जाते हैं । इस विशेषता के कारण ही केवल यही पद परमात्मा का निज नाम होने योग्य है; अन्य किसी का भी यह नाम नहीं हो सकता – तस्य वाचकः प्रणवः (योगदर्शनम् १।२५) । जहां इन्द्र, आदि, शब्द विभिन्न प्रकरणों में जीवात्मा, मेघ, विद्युत्, आदि के द्योतक हो सकते हैं, वहां ओम् शब्द किसी और का वाचक सम्भव ही नहीं है । अपितु इस शब्द का अपने वाच्य से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इसको परमात्मा की तरह अक्षर = अकाट्य, नाश-रहित ही कहा गया है, जबकि यह २ अक्षरों का बना हुआ है –
एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म ॥ कठ० १।२।१६ ॥ – यह ’ओम्’ अक्षर ही ब्रह्म है ।
ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं । भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव । यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥ माण्डूक्य० १ ॥ – ओम् यह अक्षर (ब्रह्म) है । इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ दिख रहा है, वह इसका उपव्याख्यान – इसको कुछ अंश में कहने वाला है । (उदाहरण के लिए -) जो भूत, वर्तमान और भविष्य में हुआ, है और होगा, वे सभी ओंकार ही हैं । और जो इन तीनों कालों से परे है, वह भी ओंकार ही है । कितनी सुन्दरता से ऋषि ने ओम् का व्याख्यान किया है !
माण्डूक्य ने इसका एक अन्य प्रकार से विवरण दिया है । वहां ओम् को ३ मात्राओं में विभक्त किया गया है – अ, उ और म् । फिर अकार को ब्रह्म का जागरित रूप बताया है, जिस प्रकार प्राणी की जागरित-अवस्था होती है । इस रूप में परमात्मा इस विराट् ब्रह्माण्ड की रचना करके वैश्वानर अग्नि के समान सब में व्याप्त होता है, और सब प्राणियों के ज्ञान और व्यवहार के लिए प्रकट होता है । इसलिए मोटी टाइप में दिये शब्द भी इस अकार के अन्तर्गत अर्थ हैं ।
उकार से परमात्मा का स्वप्नस्थान अभिप्रेत है, जो कि जागरित और सुषुप्ति के बीच की अवस्था है । उस समय मन अन्दर ही अन्दर काम करता है, बाहरी विषयों से दूर । इसी प्रकार ब्रह्माण्ड के रचन में सूक्ष्मावस्था को प्राप्त प्रकृति का रूप, उत्पन्न होते हुए भी, अप्रकट होता है । वहां परमात्मा तैजस और हिरण्यगर्भ के रूप में स्थित होता है । उस सूक्ष्मावस्था को वायु से भी सम्बोधित किया जाता है ।
मकार में शब्द के उच्चारण के अन्त के साथ-साथ जैसे परमात्मा भी सुषुप्ति में चले जाते हैं ! सुषुप्ति प्रलयावस्था या कारण जगत् की द्योतक है । इस अवस्था में केवल एक ईश्वर ही प्राज्ञ रहता है, जबकि अन्य सब सुषुप्ति में पहुंच जाते हैं । इस रूप को आदित्य = न नष्ट होने वाला भी कहा गया है ।
माण्डूक्य ने एक चौथी मात्रा भी बताई है, जो सबसे गूढ़ है । ओम् के उच्चारण का अन्त होने पर जो नीरवता है, उसे ऋषि ने अव्यवहार्य मात्रा बताया है, जो परमात्मा के निराकार रूप की द्योतक है, जो कि इस प्रपञ्च से अतीत है । इस अवस्था को वेदों ने इस प्रकार कहा है –
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ यजु० ३१।३ ॥
अर्थात् परमात्मा के एक पाद में तो यह समूचा विश्व है, और उसके शेष तीन पादों में वह अपने अमिश्रित, अमृत, प्रकाशमय रूप में स्थित है । सो, जो ओम् की चार मात्राओं में से यह अन्तिम मात्रा है, वही वास्तव में तीन मात्राओं के बराबर है, जबकि अन्य तीन मात्राएं महत्त्व में एक मात्रा के बराबर हैं !
मनु इस विषय में कहते हैं –
अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः ।
वेदत्रयान्निरदुहद् भूर्भुवः स्वरितीति च ॥ मनुस्मृतिः २।७६ ॥
तीनों वेदों से प्रजापति ने एक-एक मात्रा – अ, उ और म् – दुह कर निकाली, और उसी प्रकार तीन व्याहृतियां – भूः, भुवः, स्वः – भी वेदों का निचोड़ हैं ।
इस प्रकार ओम् पद को ऋषियों ने सदा से परमात्मा का समीपतम नाम माना है, बल्कि उसको सही रूप में व्यक्त करने वाला बताया है । ओम् के विभिन्न अर्थों से भी ज्ञात होता है कि ओम् में अर्थों का सागर समाया हुआ है । जिस प्रकार ईश्वर अनन्त गुण-कर्म-स्वभाव वाला है, उसी प्रकार यह छोटा-सा नाम उन सभी को प्रकाशित करने का सामर्थ्य रखता है । उसकी सरलता में भी परमात्मा का एक गुण सन्निहित है । परमात्मा भी सरल स्वभाव वाले हैं, उनमें कोई धोखा या दिखावा नहीं है । और ऐसे ही मनुष्य उसे प्रिय भी हैं !
For canada acharya rahul dev it was nice
Is me geeta ka ullekh nahi hua….. OMITEKAKSHRAMBRAHM…….ye sabhi VEDON ka Saar Mantre hai . A U M akshar Hai Parmatma ka nij naam hai