आर्य समाज और इस्लाम: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

आर्य समाज इस्लाम नही है और इस्लाम भी आर्य समाज नहीं है किन्तु फिर भी दोनों में काफी समानता है। 

  • इस्लाम के आगमन के पूर्व लाखों वर्ष व्यतीत हो चुके थे | अरब ने भी मोहम्मद,जो इस्लाम के महान पैगम्बर थे, उनके
    वहाँ अवतार लेने के पूर्व मनुष्य की सहस्त्रों पीढियों को देखा था । कुरान का मनुष्य के पास अवतरण होने से पहले क्या ये दीर्घकाल
    बिना रौशनी के था ? कम से कम इस्लाम के समर्थक ऐसा कहते हैं। वे पूर्व इस्लामिक काल को जमाना-ए-जहालत अर्थात् अज्ञानता
    वाला काल कहते हैं । यह कल्पना से परे है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा ने जो प्रकाशों का प्रकाश है संसार को इतने दीर्घकाल तक
    अंधकार में रहने दिया होगा । हमारी सृष्टि के बहुपूर्व पृथ्वी पर दो महान प्रकाश पुँज प्रदान किये गये थे सूर्य एवं चन्द्र, एक वह
    जिसके चारों और हमारी पृथ्वी चक्कर काटती थी, और दूसरा वह जो पृथ्वी के चक्कर काटता था । यदि सूर्य अथवा चन्द्र नहीं होते, तो
    हमारी भौतिक दृष्टि व्यर्थ होती या यूँ कहें कि अस्तित्व में ही नही होती । प्राकृतिक सूर्य एवं चन्द्र के विषय में जो सत्य है वही
    आध्यात्मिक प्रकाशपुंजों के समान ही सत्य है। 

भौतिक जगत आध्यात्मिक जगत का ही प्रतिरूप है । क्या आप यह सोचते हैं कि ईश्वर जो यह सहन नहीं कर सका
कि हमारी प्राकृतिक आँखें सूर्य के प्रकाश के बिना एक पल भी रह सकें, उसने चाहा होगा कि करोडों वर्षों तक मनुष्य की
करोडों पीढियां आयें और जाएं,जन्म लें और मरे बिना किसी आध्यात्मिक अथवा नैतिक प्रकाश के। किस प्रकार के पुरूष एवं
स्त्रियां वे थीं जो पूरा अध्यात्मिक अथवा नैतिक अंधकार में विचरण करती रही । और किस प्रकार का वह ईश्वर, था जो उन्हें
प्रकाश दे सकता था पर दिया नहीं ? क्यों वह इतनी देर उपेक्षा करता रहा? क्यों उसने करोडों वर्षों को व्यतीत होने दिया
इसके पहले कि वह मानवता को प्रकाश का उपहार प्रदान कर सके ? 

  • इस्लाम इन प्रश्नों का उत्तर नही दे सकता है पर आर्य समाज दे सकता है|आर्य समाज एक शताब्दी पुरानी
    संस्था है । परन्तु वे सिद्धान्त जिन्हे यह मन में बैठाती है किसी भी प्रकार नये नही हैं। यह मौलिकता का कोई दावा नही पेश
    करती है । यह कहती है कि संसार में प्रारम्भ से ही ईश्वर ने मानव जाति को वेदों के नाम से पुकारे जाने वाले अपने ज्ञान का
    प्रकाश प्रदान किया है । वैदिक शिक्षायें हमारी पीढियों को सीधी अथवा माध्यम द्वारा, दृश्य अथवा अदृश्य व्यक्त अथवा
    समाविष्ट रूप से अनेको मार्गो से प्राप्त हुई हैं । बहुधा हम उपलब्ध प्रकाश के उदगम स्थान को खोज पाने में असमर्थ होते हैं और
    अधिकतर ऐसा ही होता है । पर फिर भी हम बिना प्रकाश के कभी भी नही छोड दिये जाते हैं। 

जिस प्रकार इस्लाम के संस्थापक मोहम्मद साहब थे ठीक उसी प्रकार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी
दयानन्द थे । परन्तु जबकि अगले ने मानव जाति के श्रेष्ठों में विशिष्ट स्थान पर होने का ईश्वर का पैगम्बर होने का जिसके समान
न कोई हुआ और न कोई होगा, का दावा पेश किया परन्तु पिछले ने ऐसा कोई भी दावा प्रस्तुत नहीं किया। उन्होने केवल पुराने
वैदिक सिद्धान्तों को पुनर्जिवित करना चाहा जिन्हें कुछ समय पूर्व से भूला दिया गया था। जबकि मोहम्मद ने ईश्वर एवं मनुष्य के
बीच मध्यस्थ होने का दावा किया,स्वामी दयानन्द ने उपदेश दिया कि मनुष्य को किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नही है। 
मोहम्मद की महानता कहाँ पायी जाती है ? निश्चित रूप से वे महान थे, क्योकि यही वे थे जिन्होने असभ्य एवं बर्बर अरबियों
को नियन्त्रित किया तथा उन्हें विश्व प्रसिद्ध शक्ति के रूप में परिणित किया । इस्लाम की लहर एक बार इतनी शक्तिशाली थी कि
इसने पूरब अथवा पश्चिम में इसके मार्ग में आने वाली सभी वस्तुओं को बहा दिया । यह सम्पूर्ण दक्षिणी यूरोप उत्तरी अफ्रिका
तथा एशिया के बृहत भाग में प्रसार पाया इसने भारत पर भी आक्रमण किया इसे अनेकों शताब्दियों तक अपनी दासता में रखा ।
पर भारतीय सभ्यता की विशेषता ने भारत को तोड़ने मे एक कठोर शिला बना दिया । निसन्देह इसने भारत की दुर्बलता का
अत्याधिक शोषण किया । परन्तु हिन्दु समाज तथा हिन्दु सभ्यता में अन्तर्भूत शक्तियां हैं जो इसे सभी 
आँधी-तूफानों को झेल पाने में समर्थ बनाती हैं। जबकि अफगानिस्तान फारस, अरब एवं मिश्र देश शत-प्रतिशत
इस्लामिक है। केवल एक चौथाई भारतीयों ने इसे अपनाया । और अभी उनमें वृद्धि की सम्भावना कमतर होती जा रही है ।
किस वस्तु ने इस्लाम को अरब में सफल बनाया ? वह तीन वस्तुएं हैं। 
१. उस विशाल रेतीले प्रायद्वीप के वासियों की घोर अज्ञानता।
२. अरबी समाज कीअत्याधिक अव्यवस्थित अवस्था ।
३. मोहम्मद की युद्धरत जातियों को प्रभावित तथा नियंत्रित करने की असाधारण योग्यता।

एक बार अरब में सफल होकर मोहम्मद के अनुयायियों ने पडोसी देशों पर आक्रमण किया और
आक्रमणकारियों का प्रहार इतना शक्तिशाली था और आक्रामित लोग इतने असंगठित थे कि वे इस्लामिक प्रभावों के आगे
तुरन्त झुक गये। पर भारत में इस्लाम आंशिक रूप में सफलीभूत था । भारत पूर्णतया असंगठित था जब इस्लामिक आक्रमण
हुए थे । यद्यपि शारीरिक रूप में अधिक दुर्बल नहीं वरन कुछ विषयों में निश्चित रूप से सबल,भारतीय शासकों तथा भारतीय
जनता ने उस वैधानिक शक्ति को खो दिया था जो एक मात्र इस्लामिक लहर को झेल सकता था । परन्तु भारत को एक स्पष्ट
लाभ था । वह था भारत का उच्च स्तरीय दर्शन एवं नैतिकता जिसने बाहरी दुर्बलता का विरोध न कर अपना वर्चस्व बनाये
रखा । ऐसे बहुधा होता है कि अति सुसंस्कृत लोग कुछ दुर्बलताओं को समय के साथ समाहित कर लेते हैं और इस प्रकार अल्प
सभ्य पर शारीरिक रूप से दृढ, शत्रु के हाथों पराभव स्वीकार करते है । भारत के साथ ठीक ऐसी ही स्थिति थी । इसका दर्शन
तथा धर्म यद्यपि प्रत्येक अत्युत्कृष्ट होकर भी निहित शक्ति को खो चुके थे। पुरोहित समाज अत्यन्त बलशाली था । अन्धविश्वास,
मूर्तिपूजा एवं जाति गर्व ने भारतीय सभ्यता के मूल तत्वों को ग्रास बना लिया था । मुसलमानों का धर्म नया था । इस्लामी
खलीफों ने अफगान आक्रमणकारियों की गृद्ध दृष्टि भारत की सम्पदा पर पाकर इसे एक वरदान के रूप में देखा और इसलिए
एक पत्थर से दो शिकार करने के उद्देश्य से उन्होने उन पर धर्म के रक्षक का सम्मान प्रदान किया। 
अब यही मोहम्मद-बिन-कासिम तथा गजनी के महमूद जैसे धर्मरक्षकों ने भारत पर आक्रमण किया, हिन्दु मन्दिरों को धूल-
धुसरित किया, भारतीय सम्पदा को उड़ा ले गये और बदले में यहाँ इस्लाम को छोड गये । भारतीय राजकुमार एवं जनता इस
प्रकार असंगठित थे और उन दिनों का हिन्दू धर्म इस प्रकार स्वांगी कर्मकाण्डपरक था कि वनिस्पत कि अनेकों शताब्दियों तक
अविराम संघर्ष चले, इस्लामिक लहर के थपेड़ों को रोक भी नहीं सका । इस सम्बन्ध में दो वस्तुएं विचारणीय हैं – 
प्रथम -कि हिन्दु धर्म इस्लाम का विरोध नहीं कर सका । 
द्वितीय-कि इस्लाम, हिन्दु धर्म को समूल नष्ट नहीं कर सका, दोनों तथ्यों की अपनी व्याख्या है और इसी के प्रकाश में आर्य समाज
एवं इस्लाम के सम्बन्ध की गवेषणा करनी है । भारत पर इस्लामी आक्रमण अपने प्रकार के प्रथम नहीं थे । उनसे अनेकों शताब्दियों
पूर्व ग्रीकों, हूणों तथा अन्य विदेशियों ने हिन्दुओं के साथ अपनी शक्ति का प्रयास किया था । महान ग्रीक मेसिडोनिया के
अलेक्जेन्डर ने १२ अथवा १३ वीं शताब्दी पूर्व हिन्दु राजकुमार पोरस को परास्त किया था । यह पराभव हिन्दु राजकुमारों के
ईर्ष्या तथा असंगठित होने के कारण था । पर हिन्दुधर्म स्वयं में इतना ठोस था कि एक विजय ग्रीकों के लिए कुछ विशेष स्थान नहीं
बना सका और बिना समय व्यर्थ किए हिन्दु सभ्यता ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया । हूण आए तथा भारत में बस गये, पर शीघ्र
ही हिन्दु राष्ट्रीयता के अपने में आत्मसात कर लेने के गुण के कारण उन्होने अपनी पहचान विलय कर दी । हिन्दु धर्म एवं हिन्दु
दर्शन, हिन्दु आदर्श एवं हिन्दु समाजशास्त्र इतने शक्तिशाली थे कि विदेशियों को अपना मस्तक उनके समक्ष सम्मानपूर्वक झुकाना
ही पड़ा और उनके गले-लगाने वाले प्रभाव के आधीन होना ही पडा। 

यही इस्लाम की पूर्वकाल की कहानी है । पर उस समय तक जबकि इस्लाम ने उत्थान किया, हिन्दु
समाज विखण्डित हो गया था। हिन्दु धर्म कुछ चयनित व्यक्तियों का एकाधिकार बनकर रह गया । हिन्दुओं का आत्मसात कर लेने
का गुण दुर्बल हो गया। हिन्दु समाज की ठोस दीवारों में दरारें पड गयी । हिन्दुओं के अधिसंख्य भाग को मुख्य अधिकारों से वंचित
कर दिया गया । उच्च वर्णो एवं दलित वर्णो ने आपस में सम्बन्ध विच्छेद कर लिया । सम्बन्धों में आये ढीलेपन ने पूरी हिन्दु समाज
की रचना को ही क्षीण बना दिया । मुसलमानों में इतनी कुरीतियां नहीं थीं बल्कि वे अधिक दृढ थे और शक्तिशाली थे। उनका
भ्रातृत्व अधिक ठोस था और इसी कारण उन्होने जब हिन्दुओ पर आक्रमण किया तो वे पिछले आक्रमण का सफलता पूर्वक विरोध
नही कर सके और इस्लाम किसी प्रकार भारत में प्रवेश कर ही गया। पर इस्लाम ने विजय को सहज नही पाया यद्यपि शारीरिक
रूप से और कुछ स्थितियों में समाजिक रूप से दृढतर उनकी नैतिकता तथा धर्म एवं दर्शन अत्यन्त दुर्बल थे । इसी कारण यद्यपि
अस्थायी रूप में विजयी होकर भी वे डुबते हुए हिन्दु धर्म के बीच भी अधिक प्रगति नहीं कर सके । जहाँ कही भी एवं जब कभी भी
मुस्लिम वशंज उदार एवं संयत हुए हिन्दुधर्म ने उन्हे प्रभावित करना प्रारम्भ किया । एवं जब कभी भी एक मुस्लिम राजकुमार
कट्टर हुआ तभी आत्मोत्सर्ग का हिन्दु आदर्श ने प्रतिक्रिया प्रस्तुत की, एवं हिन्दु धर्म की ज्वाला को प्रज्वलित रहने दिया । यह
हिन्दुओं के त्रुटिपूर्ण समाजिक रीति-रिवाज ही थे जिन्होनें अकबर महान एवं दारा को खुले तौर पर हिन्दु बनने से रोका । पर यह
हिन्दु धर्म के आन्तरिक गुण थे जिन्होनें विचारवान एवं उदार मुस्लिमों को आकर्षित होने से नहीं रोक सके । यदि रिवाजों की
अपार खाडी नही होती जैसा कि ग्रीको एवं हूणों के दिनों में नही था भारत में एक भी मुसलमान नहीं रहा होता तथा यवन विजेता जो अफगानिस्तान, फारस,अरब अथवा तुर्की से यहां आये थे वे स्पष्टतया हिन्दुओं में मिल गये होते। पर इस प्रकार की
घटनायें नियति में नही थीं । और भारत आज जो है सो है। हिन्दु उच्च आदर्शों एवं उच्च दर्शनशास्त्र परन्तु भयानक दुर्बलताओं के
पोशक हैं । कुछ मुसलमान अनेकों समाजिक सुविधाओं सहित पर अगणित आध्यात्मिक वरदानों से रहित हैं । ये दो महान
सम्प्रदाय एक दूसरे के नजदीकी तथा सहयोगी बन सकती थी। परन्तु इनमें से प्रत्येक की अपनी-अपनी भिन्न मानसिकता है जो इस
खाई को पटने नहीं देता । प्रत्येक अपने को देवताओं का प्रिय, कुलीनतम तथा भव्यतम तथा दूसरों से अधिक उच्चकोटि का सोचता
है। हिन्दु मुस्लिमों को निरर्थक धर्म त्यागी समझते है जिनमें से किसी के भी पास सदगुण नही रह गया हो और उनके पुनः अवतार
के पश्चात ही उद्धार की सम्भावना रह गयी हो मुसलमान हिन्दुओं को केवल जो काफिर अथवा विधर्मी समझते हैं शीघ्र अथवा
विलम्ब से धर्मान्तरण के ही योग्य हैं। आर्य समाज मध्य में स्थित रहकर खाई को पाटने का प्रयास करती है । प्रथमतः आर्य समाज
ने हिन्दु समाज में ऐसे परिवर्तन लाये है जिसने मुसलमानों के अवगुणों को या तो 
आंशिक रूप से अथवा पूर्णरूप से दूर कर दिया है । पहले कोई भी हिन्दु अपने पवित्र ग्रन्थों, विशेषकर वेदों को, अहिन्दुओं को
पढने की अनुमति नहीं देते थे । आर्यसमाज प्रत्येक पवित्र पुस्तकों का सभी मुसलमानों अथवा अन्यों को स्वछन्दभाव से शिक्षा
देती है।। 
द्वितीयतः कोई भी मुसलमान किसी भी परिस्थिति में हिन्दु धर्म को गले नही लगा सकता था । आर्य समाज ने सभी बन्धनों को
तोड दिया और वैदिक आस्था का दरवाजा सभी के लिए खुला छोड दिया। 

‘तृतीयतः आर्य समाज ने निःसन्देह यह सिद्ध कर दिया है कि मूर्तिपूजा जिससे इस्लाम इतनी घृणा करता
है वह वैदिक विचारधारा के अन्तर्गत नहीं है प्रत्युत विलम्बित उदगम का अन्ध विश्वास है और इसलिए त्याज्य है । पर इस्लाम
के लिए भी इसका एक सन्देश है । यह इस्लाम के साथ सहमत है कि मूर्तिपूजा अनुचित  है । परन्तु यह बल देती है कि इस्लाम
एकदम से मूर्ति पूजा ट्रा नहीं कर सकती है जब तक कि यह पैगम्बर को ईश्वर एवं मनुष्य के बीच मध्यस्थ के रूप में देखती है। 
यह शैक्षिक हित का प्रश्न है कि कौन सा स्थान इस्लाम में पैगम्बर को प्राप्त है ? पवित्र इस्लामिक
धर्मग्रन्थ के विद्यार्थी इस बिन्द पर विभिन्न मत के हो सकते हैं । सम्भवतया मुहम्मद ने पूजा की विषय वस्तु पर स्वयं को इतना
महत्वपूर्ण बनना पसन्द नहीं किया होता । सम्भवतया उनकी यह हार्दिक इच्छा रहती कि ईश्वर के सिवाय किसी अन्य की पूजा हो
परन्तु तथ्य यह है कि अनुयायियों तथा उत्तराधिकारियों ने अन्य महान पुरूषों के अनुयायियों तथा उत्तराधिकारियों की ही तरह
ईश्वर को पष्ठभमि में रखकर पैगम्बर को प्रधानता दी । यदि हम घटनाओं में इतिहास को जिन्होने महान पैगम्बर की मृत्यु का
अनुसरण आज तक किया, गम्भीरता से अध्ययन करें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी अर्थात पैगम्बर का नाम एवं महत्ता ने सभी
विचारों को ग्रहण लगा दिया होता । कलमा अथवा पूजा का प्रारूप अन्य कर्मकाण्डों के साथ जो धर्म के मुख्य तथ्यों का निर्माण
करता है । पैगम्बर को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान देता है । मुसलमानों द्वारा बहुधा उच्चारित की गयी आयत देखिये 
गर मौहम्मद की जलवा नुमाई न होती। तो हार्गिज खुदा की खुदाई न होती ॥ 

यदि मोहम्मद की महिमागान न हुई होती तो भले -मानव कभी भी प्रमुखता में नही आते यही एक
विशिष्ट मुस्लिम मस्तिष्क का सच्चे अर्थों में प्रतिनिधित्व है । तार्किक अथवा आध्यात्मिक रूप से मोहम्मद ने पैगम्बर शब्द का क्या
अर्थ निकाला यह एक प्रश्न है । पर पैगम्बर के विषय में आधुनिक इस्लामिक विचारधारा ने इस्लाम को व्यक्तिपूजक के रूप में
कमतर कर दिया है जो किसी भी तरह श्रेष्ठ नहीं है और अनेकों विषयों में मूर्ति पूजा से भी निम्नतर है । यह अवश्य स्मरण किया
जाना चाहिये कि व्यक्ति पूजा ही मूर्तिपूजा की पूष्ठ भूमि में रहा है । मूर्तिपूजा सर्वदा व्यक्ति पूजा का परिणाम रहा है। इसी कारण
मूर्तिपूजा के विरूद्ध भंयकर धर्मयुद्ध के बदले इस्लाम इसे मिटा नही सका और इसका अवतरण बार बार दस सहस्त्रों विभिन्न रूपों
में जैसे समाधि पूजा काला पत्थर पूजा, कागज पूजा (ताजियाओं) और इसी प्रकार अनेकों वस्तुओं की पूजा में हुआ। 

धर्म के क्षेत्र में व्यक्ति पूजा से अधिक विनाशकारी कुछ भी नहीं है । यह दासत्व तथा कट्टरपन की मानसिकता
उत्पन्न करती है जो सच्चे धर्म के प्रबल शत्र हैं । फिर भी श्रेष्ठ कितना भी महान हो उसके अच्छे गुण शीध्र ही पृष्ठभूमि में विलीन हो
जायेंगे और उसकी दुर्बलताएं उसके अनुयायियों के लिए पूजा की वस्तुएं हो जायेंगी । इस्लाम से सम्बन्ध के सिवा यह और कहीं
अधिक सत्य नहीं है । मोहम्मद एक महान पुरूष थे पर फिर भी एक व्यक्ति थे । उनके अपने दृढ अभिप्राय साथ ही दुर्बलता से
भरे हुए थे । ईश्वर के सिवा कोई भी पूर्ण नहीं है और चूंके मोहम्मद ईश्वर नहीं थे, उनमे अपूर्णतायें थी। उनके श्रेष्ठ गुणों की खोज
कोई बुद्धिमान व्यक्ति ही कर सकता है जबकि उनकी त्रुटियों का अनुकरण जन समुदाय द्वारा किया जाता है।

आर्य समाज के संस्थापक ने इस बन्धन से सुरक्षा के उपाय किये हैं । उनके उद्देश्य की श्रेष्ठता तथा जीवन की शुद्धता ने स्वामी
दयानन्द को अनुयायियों द्वारा आराध्य बनाया । परन्तु एक विषय पर उन्होने अधिक बल दिया कि वह उतने भले थे जितना कि
एक व्यक्ति हो सकता है फिर भी उनके विचार अन्धविश्वास की वस्तु न बनें । 
इन्ही शिक्षाओं के माध्यम से ईश्वर के अतिरिक्त अन्य उपासनाओं को समूल नष्ट किया जा सकता है । मनुष्य ईश्वर के अलावा अन्य
वस्तुओं की उपासना क्यों करता है ? मानवीय इतिहास तथा मानवीय दर्शन शास्त्र बताते हैं कि समय के अन्तराल में नायक अर्द्धदेव
तथा अर्द्धदेव देवता का रूप धारण कर लेते है । किसी भी पुराण विद्या से सम्बन्धित प्रतिभाये अर्द्धदेवों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो
अपने समय में अन्ध विश्वास से प्रतिपादित रहस्यों से घिरे हुए थे । यही अर्द्धदेवों ने , कुछ धर्मो में पैगम्बर के नाम से पुकारे गये ,
लोगो को सत्य ईश्वर के उपासना से भटकाया है । यद्यपि तथ्य यह है कि प्रारम्भ में उन्होने अपने को ईश्वर का सच्चा उपासक होने का
दावा पेश किया । इन्ही मुख्य विचारों पर इस्लाम एवं आर्य समाज के मध्य अपसरण है, देखिये 
१. आर्य समाज का मत है कि दैवी शक्तियाँ संसार के आरम्भ में ही प्रकट होती हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्य का अवतरण
सांसारिक प्रकाश का उदगम स्त्रोत । इस्लाम का विश्वास है कि दैवी प्रेरणा अन्य मानवीय संहिताओं की तरह निराकरण तथा
परिवर्तन के आधीन है । परन्तु उच्चतम असंगति जिसे इस्लाम परिवर्तन तथा प्रगति के समय अनुमति देता है वह है कि प्रेरणायें
कुरान में पूर्णता प्राप्त करती हैं और मोहम्मद अन्तिम पैगम्बर थे । ऐतिहासिक खोज साधारणतया सिद्ध करते हैं कि कुरान में
अनेकों गुण है केवल यह छोडकर कि यह नया है । इसकी शिक्षायें विद्युतीय प्रभावकारी हैं । पैगम्बर के व्यक्तित्व के अतिरिक्त कुछ
भी नही ऐसा है जिसका अन्य धार्मिक पौराणिक गाथाओं में चिन्ह भी नहीं पाया जा सकता । आर्य समाज कुरान के सभी उपदेशों
को अस्वीकृत नही करता है । ये बातें अधिक पुरानी पुस्तकों में भी उपलब्ध हैं यह उसका मानना है और अनेकों ऐसी बातें हैं जो
प्राचीन काल में अस्तित्व में थी पर उनका कुरान में अथवा कुरान की आधुनिक व्याख्या में स्थान नही है । 
२. इस्लाम में जीवात्मा का कोई महत्व नहीं है यहाँ तक कि स्वतंत्र आस्तित्व भी नही ईश्वर शून्य से आत्मा की सृष्टि करता है। क्यों
? ईश्वर जानता हैं । कैसे? ईश्वर जानता है । किस सीमा तक ? ईश्वर जानता है । आर्य समाज आत्मा को स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान
करता है । यह अनन्त है और जगत का केन्द्र बिन्दु है । आत्मा के हित में ही ईश्वर विश्व की रचना करता है यह दैवी हाथों की
कठपुतली नही है। 
यह हमारी नियति को साचें में ढालता है । यह उत्तरदायी है। इस्लाम आत्मा के अस्तित्व को केवल संयोग मानता है । परन्तु आर्य
समाज की धारणा है कि वर्तमान जीवन उस प्रारम्भहीन एवं अन्तहीन जीवन का केवल अंश मात्र है । कर्म विधान तथा पुनर्जन्म
का सिद्धान्त इसी तथ्य पर निर्भर है। 
३. आर्य समाज आस्था एवं तर्क में समन्वय करता है जबकि इस्लाम पहले को दूसरे से वर्चस्व देती है । इस्लाम का अर्थ आस्था
है जो धर्मान्धता की और अग्रसारित करता है । इस्लाम का दूसरे धर्मो के प्रति धारणा अथवा धार्मिकता इस तथ्य का ज्वलन्त
उदाहरण है। 

क्या आर्य समाज इस्लाम विरोधी है ? उतना नहीं जितना लगता है । प्रत्येक संस्था के कुछ उद्देश्य हैं।

यह सहयोगी के प्रति मित्रवत हैं और उनके प्रति विरोधी हैं जो इसके कार्यो में बाधा डालते 

यह केवल आर्य समाज के ही लिए सत्य नहीं है प्रत्यत इस्लाम ईसाईयत तथा औरों के लिए भी क्या
इस्लाम आर्य समाज का विरोधी है आर्य समाज स्वतंत्र अभिव्यक्ति स्वतंत्र कर्म का पोषक है । क्या इस्लाम भी इनका समर्थन
करता है ? तब कितना भी अन्य विषयों पर मतभेद हो, इस्लाम को आर्य समाज से अथवा एक दूसरे से भय नही है। 
परन्तु दुर्भाग्यवश इस्लाम इसका अनुसरण नहीं करता है । पिछले दिनों में इस्लाम के अनुयायियों ने पुस्तकालयों को इस आधार
पर जला डाला कि उनमें कान के विरूद्ध वस्तुएं हैं, वे अवांछित हैं और यदि कुरान से सम्बन्धित भी हैं तो अनावश्यक हैं। 
इस्लाम की यही धारणा अभी भी स्पष्ट है विशेष कर भारत में आर्य समाज वास्तव में उन सभी का विरोधी है जो
वैयक्तिक अन्तरात्मा को स्वतंत्र नहीं छोडते हैं । ॥ इति ।।

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