महर्षी दयानन्द सरस्वती ने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में वेदों का भाष्य, सत्यार्थ प्रकाश जैसे कालजयी ग्रंथों की रचना के साथ साथ आर्य समाज की स्थापना करके देश को एक नई दिशा दी. ऋषी के दीवानों ने ऋषी की इस वाटिका को अपने रक्त से सींच कर नई उचाईयों पर पहुँचाया. ऋषी के आकस्मिक निधन की स्तिथी में इन ऋषी भक्तों ने बलिवेदी पर अपने प्राणों को न्योंछावर कर न केवल देश की स्वतन्त्रता संग्राम में अग्रिम भूमिका का निर्वाह किया अपितु सामाजिक सुधारों के लिए देश को जागृत करके इन सामाजिक सुधारों को देशभर में लागू करने के लिए बलिदान देकर एक नई परम्परा का आगाज किया . उस काल में प्रचलित और स्थापित हुए और किसी संगठन में समाज सुधारों के लिए बलिदान देने के एक भी प्रमाण सामने नहीं आते चाहे वो विवेकानन्द द्वारा पोषित रामकृष्ण मिशन हो या ब्रह्म समाज.
वह समाज ऋषि दयानन्द की एक दूरगामी सोच का परिणाम था जो न केवल उस समय देश की पराधीनता से मुक्ति व देश की संस्कृति सभ्यता को अपने पुराने गौरव प्रदान करने के लिए संघर्षरत था बल्कि देश में औद्योगीकरण व विदेशों में व्यापार करने एवं इसके लिए विदेशी भाषाओँ को सीखने का भी पक्षधर रहा .
वह ऋषी दयानन्द की दूरगामी सोच ही थी जिसने विश्व का ध्यान ऋषी दयानन्द की तरफ खींचा और विश्व भर के अनेकों लोग ऋषी दयानन्द के मुरीद हो गए . यह हमारे लिए दुर्भाग्य का ही विषय रहा की वह नेतृत्वकारी पथ प्रदर्शित करने वाली ज्योती अल्प समय में ही अदृश्य हो गयी. वह भी उस समय में जब संगठन अपनी शैशव अवस्था में ही था .
ऋषी दयानन्द के बाद की पीढी ने ऋषी दयानन्द की विचारधारा को न केवल पोषित किया बल्कि इसे अपने रक्त से सींचकर इसे प्रज्वलित रखने और इसको प्रभावी बनाए रखने के हरसंभव प्रयास किये . ऋषी के ये अनुयायियों ने एक के बाद एक इसके लिए प्राणों को न्योंछावर करने की रीति की परिपाटी रख दी जो अपने आप में एक नई परंपरा का निर्माण थी
उसी आर्य समाज की स्तिथि आज कितनी दयनीय है. कोई एक सर्वमान्य नेत्रित्व नहीं है. सर्वमान्य संस्था नहीं है. एक कम्युनिस्ट भी आर्य समाज के प्रतिनिधित्व की बात करता हैं, अनैतिक आरोपों से घिरे हुए व्यक्ति भी, वैदिक सिद्धांतों के खिलाफ बोलने वाला भी समाज और संस्था कर प्रधान होता है और शराब पीने वाला भी . आइये ऐसे ही कुछ अन्य बिन्दुओं पर विचार करते हैं :
- लेकिन उसी ऋषी दयानन्द द्वारा स्थापित आर्य समाज की वर्तमान स्तिथी का क्या ?उसका वर्तमान समय में देश और संस्कृति या किसी और क्षेत्र में क्या योगदान है?
- देश और संस्कृति के उत्थान के लिए वह किस योजना पर कार्य कर रहा है यह किसे विदित है ? आर्य समाज के किस समाज सुधार को देश के मुखपत्रों पर जगह मिली ?
- आज स्तिथी यह है कि लोग स्वामी दयानन्द को नहीं स्वामी विवेकानन्द को अधिक जानते हैं . आर्य समाजों में ऋषी दयानन्द के साथ साथ मांस भक्षक वेद निंदक स्वामी विवेकानन्द के चित्र लगे हुए हैं . ऋषी के सच्चे भक्तों के ये वाक्य कटु लगें लेकिन सत्यता यही है.
- आर्य समाज की अग्रिम संस्था होने का दावा करने वाली संस्थाओं के मंच से स्वामी दयानन्द के निर्वाण दिवस पर मुख्य अतिथी जनरल वी के सिंह स्वामी विवेकानन्द के ऊपर व्याख्यान देकर निकल जाते हैं और श्रोता तालियाँ बजाते हैं और मंच संचालक और अन्य समाजियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. किसी के खून में ये सुन कर उबाल नहीं आता की स्वामी दयानन्द का इस देश के लिए योगदान विवेकानन्द के बाद आता है .ऐसा प्रतीत हुआ वहां लोगों की रगों में खून नहीं पानी दौड़ रहा था . किसी में इतनी हिम्मत भी नहीं हुयी कि वक्ता की बात का शालीनता से प्रतिउत्तर तो दे सकें .
आर्य समाज के कभी ऐसे भी दुर्बल प्रतिनिधि होंगे शायद ही किसी ने सोचा हो. - आर्य समाजों के इतिहास भी पुस्तकों में हवस के पोषक ओशो नास्तिक दलाई लामा के विचारों को स्थान मिलने लगा है और वो भी आर्य समाज के मंत्री आदि की प्रेरणा से लिखी जाती हैं और उन्हीं हो समर्पित की जाती हैं.
- आर्य समाज के मन्दिर आज शादी कराने के अड्डे बन चुके हैं जहाँ ५००० रूपए आदि लेकर किसी की भी शादी कर दी जाती है चाहे वो आर्य समाज की विचार धारा से परिचित हो या न हो .इन्टरनेट पर आर्यसमाज खोजने पर आर्य समाज मैरिज ही लिखा सबसे पहले दिखाई देता है . मात्र २ ३ घंटे में शादी का प्रमाण पत्र देने वाले अनेकों विज्ञापन दिखाई देते हैं या यही ऋषी का सपनों का आर्य समाज है.
बिग बॉस -९ की प्रतिभागी मंदाना करीमी की शादी कर प्रमाण पत्र ही इन ऋषी भक्त होने के दम्भ भरने वाली आर्य समाज साकेत नामक संस्था से प्रकाशित हुयी हैं. “कुछ दुष्ट लोगों द्वारा ये धंधा किये जाने का नाम लेकर” इस मुद्दे से हाथ झाड़ने वाले संस्थाओं के अधिकारी क्या यह बताएँगे की आर्य समाज साकेत जहाँ से यह सर्टिफिकेट जारी हुआ क्या उन्ही फर्जी संस्थाओं की सूची में शामिल है . यह सर्टिफिकेट पर डॉ. डबास के हस्थाक्षर हैं जिन्होंने आर्य समाज साकेत का इतिहास विनय आर्य की प्रेरणा से लिखा और उन्ही को समर्पित किया . यह वही पुस्तक है जिसमें ऋषी की सूक्तियों के स्थान पर ओशो और नास्तिक दलाई लामा की सूक्तियाँ दी गयी हैं . ये लोग जरा बताएं तो सही की आर्य समाज में की जा रही इन शादियों का आधार क्या होता है . ऋषी दयानन्द द्वारा बताये गए विवाहों के प्रकारों में से किस प्रकार के विवाह कराने में ये आर्य संस्थाएं संलग्न हैं . - आर्य समाज के मंचों पर नर्तकियों द्वारा फ़िल्मी गानों पर नाच: जिस आर्य समाज के मंचों से वैदिक गान गुंजा करता था जहाँ वेद मन्त्रों की व्याख्याएँ और शाश्त्रार्थ हुआ करते थे उन्ही आर्य समाज के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में आज आर्य समाज के वर्तमान विद्वानों और तथाकथित नेत्रित्व्य की उपस्तिथी में नर्तकियों द्वारा “पीतल की तोरी गागरी और श्याम रंग बोमरो आदि गानों पर थिरकना आर्य समाज के पतन के साक्षात उदाहरण हैं.
- नैतिक पतन : किसी प्रभावशाली नेतृत्व के अभाव का ही परिणाम है की आज इस संगठन के कई लोगों पर चारित्रिक हनन के मुकदमें चल रहे हैं. किन्चित जेल की हवा खा चुके और कुछ खा रहे हैं . कहाँ गया वह ऋषी द्वारा प्रतिपादित ब्रह्मचर्य का सिद्धांत और स्वामी स्वतान्त्रतानंद जी, स्वामी दर्शानानानंद जी जैसे ऋषी के परम भक्त जिन्होंने ऋषी के सिद्धांतों पर चलते ही अपनी जीवन की हवि दे दी.
- गुरुकुलों और विद्वानों की दयनीय हालात : आजादी के इतने वर्षों बाद आज हालात ये है की ऋषी दयानन्द की पद्धिति को सरकारी माध्यम में प्रचलित करवाने के बजाय स्वयं आर्य समाज के गुरुकुलों ने सीबीएसई आदि के पाठ्यक्रमों को अपनाना आरम्भ कर दिया . ऋषी दयानन्द की शिक्षा पद्धिति से अध्यन अध्यापन करवाने वाले गुरुकुलों के संख्या २ अंकों में भी नहीं. क्या यही वो पद्धिती है जिससे हम विश्व को आर्य बनायेंगे . जिस गुरुकुल की स्थापना के लिए स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी संपत्ति और जीवन कुर्बान कर दिया उस गुरुकुल की हालत आज सर्व विदित है.
आर्य समाज के विद्वान की हालत किसी पौराणिक अध् पढ़े पुजारी से भी गई गुज़री है . वह ऋषि दयानन्द का अनुयायी अपने निर्वाह के लिए दर दर की ठोकरें खाता है उसे जीवन निर्वाह के लिए वह पौरानिकों के यहाँ पर पौराणिक कर्मकाण्ड कराने के लिए विवश है या उस वर्ग की कृपा का पात्र बनने के लिए निर्भर होना पढता है जिसे ऋषी के सिद्धांत भी नहीं पता.
आज देश में ऐसे गुरुकुलों का अभाव है जो क्षत्रियों का निर्माण करते हों जो कर्मकारों का निर्माण करते हो जो व्यवसायियों का निर्माण करते हों . समाज की व्यवस्था चारों वर्णों के अधीन है क्या अन्य वर्गों का निर्माण करने के लिए कोई व्यवस्था की गयी ? - खाली पड़े समाज : आर्य समाज के नीरस होने के प्रत्यक्ष प्रमाण उसके खाली पढ़े भवन हैं . जिनमें रविवार के दिन कुछ वृध्द लोग दिख जाते हैं जो जीवन के अंतिम पढाव में हैं . पौराणिक पण्डित अपने मन्दिर में मूर्ति के पास बैठा मिल जाता है लेकिन आर्य समाज मन्दिर में जाने पर अधिकतर या तो ताले लगे मिलते हैं या फिर संचालक/पुरोहित मन्दिर में अपने कमरे में.
आर्य समाज के भवनों पर ताले, उन पर किये गए कब्जे और दान के पैसे का उन मुकदमों पर खर्च सर्व विदित है . काश इन नेताओं ने विद्वानों का निर्माण किया होता जो अपने जीवन को आर्य सिद्धांतों के प्रचार प्रसार में लगाते. - विधर्मियों को पुरजोर जवाब देने की परम्परा: ऋषि दयानन्द के नाम पर करोड़ों का दान डकारने वाली संस्थाएं आज धर्म पर होने वाले आक्षेपों का जवाब देने तक में अपनी रूचि नहीं रखतीं. ऋषी दयानन्द के नाम पर भवनों का निर्माण और दान इकठ्ठा करना ही इनका परम ध्येय है लेकिन जिस वैदिक धर्म के लिए महर्षि दयानन्द ने अपने प्राणों का त्याग कर दिया उसी ऋषी दयानन्द और उसके वैदिक धर्म पर आक्षेप होने पर ऋषी दयानन्द के नाम पर ये दान इकट्ठे करने वाले और ऋषि भक्त होने का दावा करने वाले उनके ये अनुचर पता नहीं किन बिलों में चुप जाते हैं पता नहीं कौनसा सांप इन्हें सूंघ जाता है .
इनकी नाक के नीचे जब ऋषी दयानन्द पर आक्षेप होते हैं ऋषी दयानन्द पर आक्षेप करती हुयी पुस्तकों का प्रकाशन होता है लेकिन इन आर्य समाजी नेताओं के काना पर जूं तक नहीं रेगती .
सम्पूर्ण आर्य जगत में केवल ऋषी दयानन्द की स्थानापन्न परोपकारिणी सभा ही इस परंपरा को जिन्दा रखे हुए हैं . उनका यह कदम अत्यंत ही सराहनीय है . कभी भी किसी भी पुस्तक, पत्रिका या किसी भी मंच से वैदिक धर्म या ऋषी दयानन्द पर आक्षेप हो तो ऋषी द्वारा स्थापित ये संस्था जवाब देने में कभी पीछे नहीं रहती . चाहे खुशवन्त सिंह द्वारा धर्म पर आक्षेप हो या जनरल वी के सिंह द्वारा ऋषी के योगदान को कम आंकने की कोशिश या हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ऋषी दयानन्द पर आक्षेप यही एक संस्था है जो आक्षेपों का न केवल जवाब देती है अपितु यह भी सुनिश्चित करती है कि वो जवाब आक्षेप करने वाले तक पहुंचे . - कुकुरमुत्ते की तरह उगते तथाकथित विद्वान और आर्य समाजी हदीसों की रचना :
आर्य समाज में पुरोहितों/विद्वानों की दयनीय स्तिथी का एक कारण कुकुरमुत्ते की तरह उगते स्वघोषित विद्वान भी हैं. जो कार्य विद्वानों को करने चाहिए वो कार्य में ये स्वघोषित अपनी दक्षता प्रदर्शित कर न केवल पुरोहितों /विद्वानों के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करते हैं, उनकी आजीविका के माध्यम पर चोट करते हैं अपितु वैदिक सिद्धांतों के खिलाफ भी बोलते हैं. पण्डित राम चन्द्र देहलवी ,शाश्त्रार्थ महारथी शांती प्रकाश जी ने जीवन लगा कर वह योग्यता प्राप्त की थीं लेकिन ये बिना परिश्रम किये वह चाहते हैं>
यही कारण है की विधर्मियों से वार्तालाप में इनके ईश्वर को अनुमान भी हो जाता है.
इन स्वघोषितों की पत्नी माता पौराणिक तीर्थों की यात्रा में जाती हैं और ये विश्व को आर्य बनाने और शाश्त्रार्थ महारथी बनने का दम्भ भरते हैं.
आर्य समाज में इन अध् कचरे विद्वानों की वजह से अनेक हदीसों की रचना होने लगी है जो ऋषी के भक्तों जिनको तथ्यों का ज्ञान नहीं होता है बड़ी आसानी से प्रचारित हो जाती है.
यथा मंगल पांडे का ऋषी दयानन्द का भक्त होना, खुदी राम बोस के फांसी से पहले सत्यार्थ प्रकाश के दर्शन, सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर तांगे वाले के आर्य समाजी बनाना हो या लाठियां खाने के समय लाला लाजपत राय के हाथों में सत्यार्थ प्रकाश का होना हो ये हदीसें इन तथाकथित स्वघोषित विद्वानों की ही देन हैं जो समाज की जड़ों में मट्ठा डालने का कार्य कर रहे हैं
- अवैदिक कार्यों का आर्य समाज में प्रचलन
जिन कार्यों का आर्य समाजी विद्वान विरोध करते हुए चले आये आज उन्हीं अवैदिक कर्मों को आर्य समाज में स्थान मिलने लगा है. चाहे वह एक आर्य संस्था के प्रधान द्वारा कौशाम्बी आर्य समाज के कार्यकर्म में करवा चौथ को वैदिक सिध्ध करना हो या सर्व मनोंकामना पूर्ण करने जैसे कार्यक्रम करना या फिर समाजों में बलि प्रथा के सांकेतिक प्रचलन के तहत यज्ञ की समाप्ति पर गोले को काट कर उसमें मखाने आदि भर उसके मुहं को बंद कर हवि के रूप में डालना.
ऋषी दयानन्द और वैदिक धर्म के अनुयायियों को चाहिए की समाज की वर्तमान स्तिथी और समाज के गौरवशाली अतीत का अवलोकन करें . आवश्यकता है कि पतन की वर्तमान स्तिथी का अध्ययन कर इससे उबरने के प्रयासों का निर्धारण कर समयबद्ध तरीके से उनको पूर्ण किया जाये. उन संस्थाओं को चिन्हित किया जाये जो ऋषि के सपनों के समाज और सिध्धातों का पालन करती हैं और उनके नेत्रित्व में अपने गौरवशाली अतीत के स्तर को प्राप्त कर ऋषी के कार्य को आगे बढ़ाने के मार्ग पर प्रशस्त किया जाये .
निर्वाणोत्सव में मंच से वी के सिंह के मुह से विवेकानंद सुनकर मुझे भी बहुत चुभा, वीडियो में देखा मैने| ऐसे लोगो को नहीं बुलाना चाहिए सभा के लोग किसी को भी मंच पर बैठा के पुरूस्कार दे देते है पौरणिको को भी
नमस्ते प्रवीण जी,
क्या यह संज्योजकों का दायित्य्व नहीं थे की वो शालीन भाषा में स्पष्टीकरण देते ?
Dear sir,
Your article is very good focussing on the wide issues yes we agree but you dint suggest the measures to be taken to avoid
these and what are the steps to uplift the status of the present
arya samaj you may on your behalf guide the samaj to follow the
guide lines to maintain the tranquility instead of cursing we should always be a part of the solution not be a part of the problem, hoping for the best suggestion for the wellbeing of arya samaj
Danyavad, Vijayendra
Namste Vijayendra Ji,
IN the last para of the article I have mentioed the measures to be taken to come out of this situations.
We need to identify, promote organization who is really working towards the aim of Rishi Daynand.
We need to focus for creating “Scholars” instead of making buildings
Arya Samaj is the best faith in the world but weakest knitting. Arya Samajis could not even knit their current generations to Arya Samaj what to say about “knitting” of others.
Interaction between members and with family members is limited.
– Make new members
– Cultutivate family members,
– Cultutivate neighbous, friends and collegues
– Develop activities among students with emphasis on professional students.
Anil Agarwal
Namste Anil Ji,
I do agree with you, All this has happen because of leadership failure.
MOtto of most of the Arya samajisth organisations are limited to collection of donation only.
who is concern about making new members or put forward any action plan to fulfill the objectives for which this organization was created.
कुकुरमुत्ते ….. 😛 😀 😀 😀
Superb Article
” कुकुरमुत्ते ”
नए “अनार्य समाजी ” अब इसी पदवी और सम्बोधन के योग्य रह गए हैं। अन्यथा एक समय था जब पौराणिक भी स्वामी दयानन्द का सम्मान करते थे।
खैर …
अब आर्य समाज को चाहिए कि अपने संगठन में व्याप्त हो चुकी बुराइयो को खत्म कर जिस उद्देश्य से आर्यसमाज का निर्माण किया गया था वो समाज हेतु कुछ कार्य करे।
अवस्था चाहे कैसी भी हो, निराश न होकर उद्यमशील बने रहना चाहिए । अपना और अन्यों का सतत सुधार करते रहना चाहिए । आर्यसमाज के पास स्वामी दयानन्द जैसा महान् प्रवर्त्तक है, वेद और सत्यार्थ प्रकाश जैसे दिव्य महान ग्रन्थ हैं, यथार्थवादी दर्शन है, प्रेरणादायी परम्परा है – निराश होना ठीक नहीं । संघर्ष और साधना ही एकमेव मार्ग है ।
लेख निराश होने के लिए नहीं, अपितु वर्तमान स्तिथि को पहचान कर उसे सुधरने के लिए प्रेतिर करने के उद्देश्य से लिखा है
मेरी बहन विद्या जी, आर्य तो इस कार्य में लगे हैं, अपनी बुराई को तो हम निश्चित ही परदे में नहीं रखते, लेकिन क्या आप पुराणो में वर्णित बुराइयो का खुद बहिष्कार करेंगी ?
यदि आपमें यह समर्थ मौजूद नहीं है, तो किसी को “कुकुरमुत्ते” “अनार्य नमाजी” आदि विशुद्ध अलंकार भी आप देने योग्य नहीं।
बेहतर है पहले अपनी बुराई की और देखे, दूसरे पर कीचड उछालने से स्वयं साफ़ नहीं रहता कोई।
नमस्ते
अप्रिय भ्राता Rajneesh Bansal जी पुराणों पर वर्णित आपके अनेको कुतर्को का अनेको बार प्रतिउत्तर दिया जा चूका है।
किन्तु हमारे प्रश्नो का उत्तर कभी नही दिया आपने और आपके गैंग ने।
हर बार यह कर पल्ला झाड़ दिया कि वो आर्यसमाज का हिस्सा नही।
तो भाई साहब कितनों को आप आर्यमसाज का हिस्सा कहने से इंकार करेंगे ?
स्वयं यह पोस्ट भी तो चिल्ला चिल्ला कर यही कह रही है जो हमने अनेको बार कहा है। इसके अलावा भी अनेको प्रश्न दाग रखे हैं हमने । उनका कभी आज तक जवाब नही आया भ्राता श्री।
रही कुकुरमुत्ते वाली बात तो वो तो इस पोस्ट में ही अनार्य समाजियों को सम्बोधित किया गया है।
कमाल है आप पूरी पोस्ट भी नही पढ़ते ???
ये तो वही बात हो गई जो गुटका सिगरेट बेचता हो वही केंसर का अस्पताल खोल के बैठा है :-
Swami vivekanda ji ved nindak nahi the.
Dear you may read our detailed artilce on vivekanand
http://aryamantavya.in/swami-vivekanand/
you may get other articles on vivekanand and can enhance your knowledge
He was not having any knowledge about ved
When i think about all this it hurts.BUT i have confidence on swami Ramdev.that arya will do something for it.i know him for more than four years.i have seen how he invite youths to his gurukul to make them yogis that will again light vedas.he will do……….he will do…….he will…….i know him……he will
I consider his contribution
we should also try our best to achieve target given by Rishi Dayanand 🙂
O site owner please tell when human beings were formed(year) it is 1 arab 96 crore ……. or other.
Please refer Satyarth prakash & Rigvedadibhashya bhumika in this regard
sahi hai ! par mitra kya hamara netrutva badalana nahi chahiye ? ya phir koi thos yojana nahi honi chahiye ? kya ham sab sirf yahi prashna pratiprashna karate rahenge ?
Ek samaya tha jab rushi dayanandji ne desh ki sabhi buraiyo ke khilaf yuddha cheda tha, aaj vahi buraiya aarya samaj main bhari padi hai.
Mera kahane ka matalab sirf itana hi hai ki aarya samaj aapane bhitar jhake, kisi ko chahe vo koi bhi ho usaka anusaran kare aur samaj ko sudrudh banane ka sankalp le.
Ye hamara sabaka param kartvya hai.
aapne satya kaha
isake liye youjana banani chahiye
youjanaa badhdh rup menkary bhee hona chahiye
kyon n aap ye jimmedari lek karya karna aarambh karen
Namaste Ji !
Ji ha yah karya sirf kisi ek goan, ek shahar, ya ek jile nahi apitu sabhi jagah eaise aarya hai jo yah vyavastha badalana chahate hai yah unsabhi vyaktiyo ki aur meribhi jimmedari hai !
Aur main meri puri koshish karunga.
I really am amazed that arya samaj officials are not subject to rigorous examination before during and after taking up their posts. As many are not very well educated in vedic dharma wouldn’t it be better to have regular dharmik examinations both practical and theory for them? Only the paropkarini sabha ajmer which runs examinable courses on darshana and ved can achieve this. But is there enough will to make the Arya Samaj a meritocratic institution consisting of people of the highest moral character and intellect as it was when it was founded by maharishi dayanand ? I hope so.
Namaste,
I agree your comnent
Yes, we should be a strong system as- Leading- person, place etc.
And I think many proble do not solve withour massive role of arya samaj in our nation
वाह मेरे नियोग समाजी शानदार लेख, सनातनधर्मीयो का बौद्धिक खतना करने को अच्छा गप्प मारा है, अब एक नजर दयानंद के कुकर्मो पर भी डाल लो
http://hindumantavya.blogspot.in/2017/03/pashuhinsak-jihadi-dayanand.html
नियोग से जो पैदा हुए हैं और जो आपके पूर्वज हैं उनके बारे में आपका क्या विचार है
॥जिहादी दयानंद॥
दयानंद यजुर्वेदभाष्य, अध्याय १३ मंत्र ४८, ४९,
इमं मा हिँ सीर् एकशफं पशुं कनिक्रदं वाजिनं वाजिनेषु। गौरम् आरण्यम् अनु ते दिशामि तेन चिन्वानस् तन्वो नि षीद। गौरं ते शुग् ऋच्छतु यं द्विष्मस् तं ते शुग् ऋच्छतु॥ ~यजुर्वेद {१३/४८}
इम्ँ साहस्र्ँ शतधारम् उत्सं व्यच्यमान्ँ सरिरस्य मध्ये। घृतं दुहानाम् अदितिं जनायाग्ने मा हि्ँ सीः परमे व्योमन्। गवयम् आरण्यम् अनु ते दिशामि तेन चिन्वानस् तन्वो नि षीद। गवयं ते शुग् ऋच्छतु यं द्विष्मस् तं ते शुग् ऋच्छतु॥
~यजुर्वेद {१३/४९}
दयानंद अपने यजुर्वेदभाष्य में इसका यह अर्थ लिखते हैं कि–
“मनुष्यों को उचित है कि जिनके मारने से जगत् की हानि और न मारने से सबका उपकार होता है, उनका सदैव पालन पोषण करें, और जो पशु तुम्हारे लिए लाभकारी न हों उनको मारें”॥४८॥
“हे (अग्ने) दया को प्राप्त हुए परोपकार राजन्, (ते) तेरे राज्य में, (आरण्यम्)- वन में रहने वाली, (गवयम्)- गौ जाति की नीलगाय से खेती की हानि होती है इस कारण, (तेन)- उसके मारने को, (अनुदिशामि)- उपदेश करता हूँ”
इसके भावार्थ में स्वामी जी लिखते हैं कि– और गौ जाति से सम्बन्ध रखने वाली, गौ के समान दिखने वाली नीलगाय आदि जो जंगल में रहती है, उससे खेती की हानि होती है इसलिए वह मारने योग्य है,
समीक्षक– धन्य है ऐसा भाष्य करने वाला मंद बुद्धि दयानंद और धन्य है इन भाष्यों को मानने वाले अक्ल से पैदल समाजी, यह स्वामी जी को क्या सुझी की धर्म कर्म छोड़ हिंसा का मार्ग पकड़ लिया, यह शिक्षा वेद में देखने को तो नहीं मिलती, यह तो वेद के नाम पर आपने अपने शिष्यों को खुली छूट दे दी, कि नीलगाय आदि जो पशु तुम्हारे लिए लाभकारी नहीं उन्हें मारें, शोक हे! ऐसी बुद्धि पर, देखिये इसका यह अर्थ नहीं है जैसा तुमने लिखा है यह वेद श्रुति प्रार्थना के अर्थ है इस श्रुति में यह प्रार्थना है कि–
“हे अग्ने! यह गौ श्रेष्ठ स्थान में रहने वाली सहस्रों उपकार करने वाली, दुग्धादि की सैकड़ों धारा वाली, लोकों में विविध व्यवहार को प्राप्त और मनुष्यों का हित करने को घृत, दुग्ध को देने वाली है, अदिति रूपा यह गौ आपके इस स्वरूप को देख पीडित न हो इसके विपरीत आरण्य में रहने वाले गवय आदि पशुओं (जिनसे खेती की हानि होती है) को आपसे भय प्राप्त हो”
इसी कारण लोग वनीय पशुओं से अपनी फसल आदि की रक्षा करने के अर्थ मसाल आदि जलाकर रखते हैं जिस कारण वन में रहने वाले पशु उनसे दूर ही रहते हैं क्योंकि सब ही प्रकार के वन में रहने वाले पशु अग्नि से भय खाते हैं और उनसे दूर ही भागते है, यह इस श्रुति का आशय है इसमें कहीं भी किसी भी जीव को मारना कथन नहीं किया है, क्योकि किसी भी प्रकार की हिंसा अधर्म होने से वेद विरुद्ध है, यह बात दयानंदीयों को भी समझनी चाहिए, जबकि दयानंद ने अपने वेदभाष्य में अपने लाडले शिष्यों को खुली छूट दे दी कि जो पशु तुम्हारे लिए लाभकारी नहीं है उन्हें मार दो, और यह अर्थ स्वामी जी से किसी भूलवश नहीं हुआ, स्वामी जी अपने अन्य लेखों में भी पशुहिंसा का समर्थन कर चुके हैं देखिये जैसे सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण के पृष्ठ १४६ में लिखा है कि “मांस के पिण्ड देने में तो कुछ पाप नहीं”
पृष्ठ संख्या १७२ में लिखा है कि “यज्ञ के वास्ते जो पशुओं की हिंसा है सो विधिपूर्वक हनन है”
पृष्ठ संख्या ३०२ में है कि “कोई भी मांस न खाएँ तो जानवर, पक्षि, मत्स्य और जल इतने है, की उनसे शत सहस्र गुने हो जाएं, फिर मनुष्यों को मारने लगें और खेतों में धान्य ही न होने पावे फिर सब मनुष्यों की आजीविका नष्ट होने से सब मनुष्य नष्ट हो जाएं”
पृष्ठ ३०३ में लिखा है कि “जहाँ जहाँ गोमेधादिक लिखे हैं वहाँ वहाँ पशुओं में नरों का मारना लिखा है और एक बैल से हजारों गैया गर्भवती होती है, इससे हानि भी नहीं होती और जो बन्ध्या गाय होती है उसको भी योमेघ में मारना क्योकि बन्ध्या गाय से दुग्ध और वत्सादिको की उत्पत्ति होती नहीं”
पृष्ठ ३६६ में लिखा है कि “पशुओं को मारने में थोड़ा सा दु:ख होता हैं परन्तु यश में चराचर का अत्यन्त उपकार होता है”
यह सब बातें सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण में स्वामी जी ने ही लिखी है जिसे बाद में सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय संस्करण में संशोधन कर यह कहकर हटा दिया गया, कि यह बातें लिखने व छापने वालों की गलती से छप गई थी,
निम्न लेख को पढ़कर विद्वान लोग सम्यक् समझ सकते हैं कि दयानंद जी धर्म के फैलाने वाले थे या फिर अधर्म के, और सुनिये आगे अध्याय १५ मंत्र १५ में दयानंद लिखते हैं कि–
अयं पुरो हरिकेशः सूर्यरश्मिस् तस्य रथगृत्सश् च रथौजाश् च सेनानीग्रामण्यौ। पुञ्जिकस्थला च क्रतुस्थला चाप्सरसौ दङ्क्ष्णवः पशवो हेतिः पौरुषेयो वधः प्रहेतिस् तेभ्यो नमो ऽ अस्तु ते नो ऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्
धूर्त धूर्तता ही करता है
जैसे पूर्वज झूठ बोलते रहे और धर्म के दुश्मन बने रहे आप उन्हीं के नक़्शे कदम पर चल रहे हो
वास्तविक भाष्य नीचे लिक पर है
http://www.onlineved.com/yajur-ved/?language=2&adhyay=13&mantra=49
दयानंद यजुर्वेदभाष्य, अध्याय १५ मंत्र १५
अयं पुरो हरिकेशः सूर्यरश्मिस् तस्य रथगृत्सश् च रथौजाश् च सेनानीग्रामण्यौ। पुञ्जिकस्थला च क्रतुस्थला चाप्सरसौ दङ्क्ष्णवः पशवो हेतिः पौरुषेयो वधः प्रहेतिस् तेभ्यो नमो ऽ अस्तु ते नो ऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश् च नो द्वेष्टि तम् एषां जम्भे दध्मः॥ ~यजुर्वेद {१५/१५}
“जो (अयम्)- यह, (दङ्क्ष्णवः)- मांस और घास आदि पदार्थों को खानेवाले पशु आदि उनके ऊपर, (हेति:)- बिजुली गिरे,,,,, (य:)- जो, (न:)- हमसे, (द्वेष्टि)- विरोध करें, (तम्)- उसको हम लोग, (एषाम्)- इन व्याघ्रादि पशुओं के, (जम्भे)- मुख में, (दध्म:)- स्थापन करें”
समीक्षक– दयानंद की हिंसक बुद्धि देखें दयानंद लिखते हैं कि (दङ्क्ष्णवः)- मांस और घास आदि पदार्थों को खानेवाले पशु आदि उनके ऊपर, (हेति:)- बिजुली गिरे, दयानंद ने यहाँ पशुहिंसा को भी धर्म का अंग बना दिया, धन्य है स्वामी जी तुम्हारी बुद्धि, अब दयानंदी हमें ये बताए भला इन जीवों पर बिजुली क्यों गिरनी चाहिए, और भला ईश्वर इन जीवों पर बिजुली क्यों गिराने लगे? जिनकी सृष्टि उसी के द्वारा की गई है, यदि ये जीव संसार के लाभकारी न होते तो भला ईश्वर उनकी सृष्टि क्यों करता? और दयानंद तो घास खाने वाले अहिंसक जीवों तक को मारना लिखते है, दयानंदी बताए, भला घास खाने वाले जीवों से संसार की क्या हानि है? उनके ऊपर बिजुली क्यों गिरनी चाहिए? मुझे तो नहीं लगता कि इस संसार में कोई भी ऐसा जीव है जो संसार के लिए हानिकारक है, यदि ऐसा होता तो ईश्वर उसकी सृष्टि ही नहीं करता, इस जगत् में प्रत्येक जीव एक दूसरे पर निर्भर है, और ऐसे में यदि एक जीव की नस्ल भी खत्म हो जाए तो पुरा जीवन क्रम ही बिगड जाए यही नही, इसी श्रुति में फिर आगे लिखा है कि–
(य:)- जो, (न:)- हमसे, (द्वेष्टि)- विरोध करें, (तम्)- उसको हम लोग, (एषाम्)- इन व्याघ्रादि पशुओं के, (जम्भे)- मुख में, (दध्म:)- स्थापन करें,
धन्य हे! स्वामी जी बुद्धि, स्वामी जी को तो अपने लिखें लेख भी स्मरण नहीं रहते देखिये सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में पृष्ठ १३७ पर स्वामी जी यह लिखते हैं कि “ऐसी प्रार्थना कभी न करनी चाहिये और न परमेश्वर उस को स्वीकार करता है कि जैसे हे परमेश्वर! आप मेरे शत्रुओं का नाश, मुझ को सब से बड़ा, मेरी ही प्रतिष्ठा और मेरे आधीन सब हो जाये इत्यादि,
स्वामी जी के इस भाष्य से तो स्वामी जी का ही मत खंडित होता है, अब यदि ईश्वर ऐसी प्रार्थना को स्वीकार नहीं करता तो इससे यही सिद्ध होता है कि दयानंद का यह भाष्य अशुद्ध है, अब दयानंदी स्वयं इस बात का निर्णय करें कि इसमें से कौन सी बात सही है, दयानंद का यह वेदभाष्य या फिर सत्यार्थ प्रकाश में लिखा यह लेख!
धूर्त धूर्तता ही करता है
जैसे पूर्वज झूठ बोलते रहे और धर्म के दुश्मन बने रहे आप उन्हीं के नक़्शे कदम पर चल रहे हो
वास्तविक भाष्य नीचे लिक पर है
http://www.onlineved.com/yajur-ved/?language=2&adhyay=15&mantra=15
सज्जन स्वयं निर्णय करेंगे
दयानंद स्वयं मांसभक्षण का समर्थक था, यहां तक की दयायन्द ने अपने वेद भाष्यों में भी पशुहिंसा का समर्थन किया है, दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश को दुबारा छापने का कारण यह लिखा की प्रथम सत्यार्थ प्रकाश हिन्दी भाषा का सही ज्ञान ने होने से अशुद्ध हो गई थी, लेकिन प्रथम संस्करण में ऐसी कोण सी गलती हुई थी यह दयानंद ने कंही नहीं बताया, कोई बात नहीं, जो लोग सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण की अशुद्धि का कारण नहीं जानते, उन्हें यह पता होना चाहिए कि सत्यार्थ प्रकाश की अशुद्धि का कारण क्या था? क्यों उसमें संशोधन कर सत्यार्थ प्रकाश दोबारा छपवाया गया, देखिये—
सत्यार्थ प्रकाश प्रथम संस्करण पृष्ठ संख्या ४५, में प्रात: साय मांसादि से होम करना लिखा है,
पृष्ठ १४८ में गाय की गधि से तुलना करते हुए लिखा है कि गाय तो पशु है सो पशु की क्या पुजा करना उचित है ? कभी नहीं किन्तु उसकी तो यही पुजा है कि घास जल इत्यादि से उसकी रक्षा करना सो भी दुग्धादिक प्रयोजन के वास्ते अन्यथा नहीं,
पृष्ठ १४६ में लिखा है कि मांस के पिण्ड देने में तो कुछ पाप नहीं,
पृष्ठ संख्या १७२ में लिखा है कि यज्ञ के वास्ते जो पशुओं की हिंसा है सो विधिपूर्वक हनन है,
पृष्ठ संख्या ३०२ में है कि कोई भी मांस न खाएँ तो जानवर, पक्षि, मत्स्य और जल इतने है, की उनसे शत सहस्र गुने हो जाएं, फिर मनुष्यों को मारने लगें और खेतों में धान्य ही न होने पावे फिर सब मनुष्यों की आजीविका नष्ट होने से सब मनुष्य नष्ट हो जाएं,
पृष्ठ ३०३ में लिखा है कि जहाँ जहाँ गोमेधादिक लिखे हैं वहाँ वहाँ पशुओं में नरों का मारना लिखा है और एक बैल से हजारों गैया गर्भवती होती है, इससे हानि भी नहीं होती और जो बन्ध्या गाय होती है उसको भी योमेघ में मारना क्योकि बन्ध्या गाय से दुग्ध और वत्सादिको की उत्पत्ति होती नहीं,
पृष्ठ ३६६ में लिखा है कि पशुओं को मारने में थोड़ा सा दु:ख होता हैं परन्तु यश में चराचर का अत्यन्त उपकार होता है,
निम्न लेख को पढ़कर विद्वान लोग सम्यक् समझ सकते हैं कि दयानंद जी धर्म के फैलाने वाले थे या फिर अधर्म के…
और उसी सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ ४२ और ४३ में स्पष्ट मृतकों का श्राद्ध करना लिखा है
पृष्ठ ४७ और ४८ पर मृतकों के श्राद्ध करने के लाभ विस्तार पूर्वक लिखें हैं,
इसके उपरांत जब दयानंद मृतकों के श्राद्ध का खंडन करने लगे तो लोगों ने उनपर आक्षेप किया कि आप ही न सत्यार्थ प्रकाश में मृतकों का श्राद्ध लिखा और अब अपने ही विरुद्ध खंडन करते हैं ऐसे पुरुष का क्या प्रमाण?
उसके पश्चात दयानंद ने वेदभाष्य के दूसरे अंक में यह विज्ञापन दिया कि सत्यार्थ प्रकाश में मृतकों का श्राद्ध और पशुयज्ञ लिखने और शोधने वालों की गलती से छप गया है इसलिए अब यह दुसरा सत्यार्थ प्रकाश तैयार किया जा रहा है, इसमें जो कुछ कहा है वह बहुत कुछ समझकर वेदानुसार ही कहा है
अब बुद्धिमान लोग स्वयं विचार करें, क्या दर्जनों पृष्ठ का लेख लिखने और शोधने वालों के भूल से हो सकता है? कदापि नहीं!
पूरा लेख यहाँ से पढ़े
http://hindumantavya.blogspot.in/2017/02/satyarth-prakash-bhumika.html
ऋषि दयानंद से गलती क्या होनी थी गलतियों के निमित्त तो वो थे जिनके आप वंशज हो
भीमसेन शर्मा इत्यादि जो ऋषी के पास नौकर रहते थे और लिखने में धूर्तता करते थे
जिस मांस भक्षण आदि कि आपने बात कि है वो आपके वंशजों के ही कुकृत्य हिएँ
जिससे खाते थे उसी के साथ धोका करते हो
और आप उनके कार्य को पूर्णतया आगे बाधा रहे हैं
और आर्य समाजियों को यह भी तो बताओ की दयानंद, ईसाई मिसनरी सभा “थियोसोफिकल सोसाइटी” के खास एजेंट थे।
और इस ईसाई मिसनरी सभा को पत्र लिखकर भारत मे बुलाने वाले आपके स्वामी जी थे,
http://hindumantavya.blogspot.in/2017/02/theosophical-society-of-arya-samaj.html
यह यहाँ विषय नहीं है न ही आप इस लेख से सम्बंधित हैं
अपितु आपकी वक्रता आपको यहाँ खींच लाई है .
थियोसोफिकल सोसाइटी और ऋषि दयानंद के सम्बन्ध सभी को पता है कैसे प्रारम्भ में थे और कैसे बाद में थे .
ऋषि ने उनसे सम्बन्ध विच्छेद कर लिया था उनकी धृष्टता के प्रदर्शित करने पर
हाँ थियोसोफिकल सोसाइटी कि प्रवृति भी आपके पूर्वज भीमसेन शर्मा इत्यादि कि तरह ही थी जो खाते तो ऋषी से थे लेकिन काम दृष्टता का करते थे
मेरा आप दोनो आर्यसमाजियो और सनातनियो से निवेदन है कि क्रपया बताइये मुझे कि क्या हम कभी अपने साझे शत्रुओ को देख पायेगे . हम सब एक है ,धर्म- सभ्यता हर तरह स, क्या हम कभी ये समझ पायेगे और क्या कभी हम लोग धर्मोत्त्हान के लिये एक साथ प्रयासरत होंगे ,
हमे ये बात याद रखनी चाहिये कि अगर हम साथ नही होंगे तो हम मै से आगे कोई नही बचेगा.
satya ko sweekarne men sadaiv tatpar rahna chahiye
मेरा आप दोनो आर्यसमाजियो और सनातनियो से निवेदन है कि क्रपया बताइये मुझे कि क्या हम कभी अपने साझे शत्रुओ को देख पायेगे . हम सब एक है ,धर्म- सभ्यता हर तरह स, क्या हम कभी ये समझ पायेगे और क्या कभी हम लोग धर्मोत्त्हान के लिये एक साथ प्रयासरत होंगे ,
हमे ये बात याद रखनी चाहिये कि अगर हम साथ नही होंगे तो हम मै से आगे कोई नही बचेगा.
satya ko sweekarne men sadaiv tatpar rahna chahiye