अल्लाह का इलाज
बरेली में मुसलमान भाइयों का उत्सव था। धर्मवार्ता-शास्त्रार्थ के लिए देहलवीजी को भी बुला लिया गया। देहलवीजी ने वहाँ दर्शनों के नामी पण्डित स्वामी दर्शनानन्दजी की युक्ति दी कि अल्लाह तौरेत में कौन-सी बात भूल गया था, जो ज़बूर में ठीक कर दी?
और फिर ज़बूर के बाद इंजील आई तो ज़बूर में कौन-सी चूक रह गई थी, जो कुरआन में ठीक की है? और यह क्रम कहाँ तक चलेगा?
आगे अब कौन-सी पुस्तक आएगी, यदि कुरआन में भी कमी रह गई हो?
पण्डितजी के इस प्रश्न पर एक मौलाना मुस्कराते हुए खड़े हुए और कहा कि पण्डितजी प्रतीत होता है आपको कभी किसी हकीम (वैद्य) से काम नहीं पड़ा। पण्डितजी ने कहा कि मेरा ज़्या काम वैद्य से? रोगी को वैद्यों-डाज़्टरों से पाला पड़ता है, न कि स्वस्थ मनुष्य को। चलो, कहो ज़्या कहना चाहते हो? मौलाना बोले कि हकीम लोग पेट के रोगी को पहले ऐसी ओषधि देता है जिससे मेदा (आमाशय) नर्म हो जाता है, फिर कोई ऐसी ओषधि देता है जिससे जुलाब लगें और सारा मल निकल जाए। अल्लाह ने ये पुस्तकें (तौरेत, ज़बूर, इंजील आदि) देकर उन पुराने मनुष्यों में सत्य के, एकेश्वरवाद के विरुद्ध जितना मल था उसे नर्म कर दिया और जब क़ुरान मजीद आया तो जुलाब से सबको कतई निकालकर बाहर फेंक दिया।
पण्डितजी ने उज़र दिया कि वे लोग (तौरेत, जबूर, इंजीलवाले) जिनका आमाशय तो नर्म कर दिया गया परन्तु जुलाब नहीं दिया गया, चिल्ला रहे हैं और वे भी शोर कर रहे हैं जिनको जुलाब तो दे दिया, परन्तु मेदा नर्म नहीं किया गया। यह ज़्या ढंग है कि पेट में गड़बड़ एक के हो, आमाशय दूसरे का नर्म किया और जुलाब तीसरे को दिया जाता है।