(क) हवन (अग्निहोत्र/ होम) में दो आघाराहुतियाँ दी जाती हैं, पहली ‘ओ3म् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के उत्तर भाग में तथा दूसरी ‘ओ3म् सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के दक्षिण भाग में दी जाती है। जिज्ञासा यह है कि ये आहुतियाँ पूर्व या पश्चिम दिशा में अथवा यज्ञ कुण्ड के मध्य भाग में क्यों नहीं देनी चाहिये?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआदरणीय आचार्य जी, नमस्ते। निवेदन है कि आपके स्तर से परोपकारी पत्रिका के माध्यम से जिज्ञासा समाधान के अन्तर्गत समाज के विभिन्न जागरूक सदस्यों की जटिल जिज्ञासाओं का सटीक एवं सन्तुष्टि कारक समाधान किया जाता है, जिसके लिये हम आपके आभारी है। कृपया, पत्रिका के माध्यम से हमारी निमनांकित जिज्ञासाओं का युक्ति युक्त समाधान देने की कृपा करें-

(क) हवन (अग्निहोत्र/ होम) में दो आघाराहुतियाँ दी जाती हैं, पहली ‘ओ3म् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के उत्तर भाग में तथा दूसरी ‘ओ3म् सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के दक्षिण भाग में दी जाती है।

जिज्ञासा यह है कि ये आहुतियाँ पूर्व या पश्चिम दिशा में अथवा यज्ञ कुण्ड के मध्य भाग में क्यों नहीं देनी चाहिये?

– आर.पी. शर्मा, मन्त्री, आर्यसमाजनईमण्डी, दयानन्दमार्ग, मुजफरनगर, उ.प्र.

समाधान– (क) यज्ञ कर्म कर्मकाण्ड का विषय है। यज्ञ कर्म में अनेक क्रियाएँ ऐसी हैं, जिनका सीधा-सीधा प्रयोजन हमें ज्ञात नहीं हो पाता। इस विषय में महर्षि दयानन्द का भी कोई उल्लेख नहीं मिलता। हाँ, सूत्रात्मक रूप से संक्षेप में ब्राह्मण ग्रन्थों में मिलता है, उसको हम कितना समझ पाते हैं, यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है।

आपके प्रश्न भी इसी विषय को लेकर हैं। हमने यहाँ जो विद्वानों ने संगति लगाने का प्रयास किया है, उसको लिखते हैं। पहला जो प्रश्न आपका है, उसके विषय में महर्षि दयानन्द ने दिशानिर्देश नहीं किया है, वहाँ तो यज्ञ कुण्ड के उत्तर भाग, दक्षिण भाग का निर्देश है। यजमान के बैठने के दो स्थान कहे हैं, यजमान या तो पश्चिम में पूर्वाभिमुख बैठे अथवा दक्षिण में बैठ  उत्तराभिमुख रहे। पहली स्थिति में तो यदि सूर्य आधार वाली दिशा लेंगे तो उत्तर-दक्षिण ठीक बनता है, किन्तु यदि दूसरी स्थिति दक्षिण में बैठ उत्तराभिमुख है, तो उत्तर-दक्षिण न होकर पश्चिम-पूर्व बनेगा। इन दिशाओं का निरूपण तो हमने कर लिया है, पर महर्षि ने तो यज्ञ कुण्ड का उत्तर-दक्षिण भाग कहा है।

महर्षि दयानन्द ने जो यजमान के बैठने का विधान किया है, शास्त्र के आधार पर किया है। यज्ञ कर्म में जो अभिधारण क्रिया की जाती है, वह पश्चिम से पूर्व मुख वा उत्तराभिमुख होने पर ही हो पाती है। आपने जो पूछा कि इन दो आहुतियों को मध्य भाग में क्यों नहीं दे देते, तो इसका सामान्य-सा उत्तर तो यह है कि इसका निर्देश मध्य में न करके उत्तर-दक्षिण भाग में किया है, इसलिए मध्य भाग में नहीं देते।

अब जो कुछ अन्य विद्वानों ने इस विषय में कहा, वह लिखते हैं- ‘‘प्रकाश देने वाली प्रधानतया चार वस्तुएँ संसार में हैं- अग्नि, सोम, प्रजापति और इन्द्र। अग्नि तत्त्व उत्तर में और सोम दक्षिण में है, अतः उत्तरायण में सूर्य अधिक प्रचण्ड और दक्षिणायन में अल्प तापवाला होता है। प्रजापति अर्थात् सुर्य और इन्द्र, अर्थात् विद्युत् के लिए कोई दिशा निर्दिष्ट नहीं की जा सकती, अतः यज्ञ कुण्ड के मध्य में आहुति दी जाती है।’

प्रजापति= पालन-पोषण करने वाला गृहस्थ बाहर से सामान लाकर घर के मध्य में डालता है। इन्द्र= राजा राष्ट्र का केन्द्र है, अतः ये दोनों आहुतियाँ मध्य में डाली जाती है। ’’ आचार्य विश्वश्रवा (यज्ञपद्धति मीमांसा)

‘‘यज्ञरूप यह जगत् ‘अग्निषोमात्मकं जगत्’ शतपथ ब्राह्मण के इस वचन के अनुसार अग्निषोमात्मक है, अर्थात् शुष्क और आर्द्र, इन दो भागों में बँटा हुआ है। हमारा यह यज्ञ इस विश्व ब्रह्माण्ड रूपयज्ञ की अनुकृति मात्र है। यह भी अग्नि तथा सोमात्मक है। इसमें भी आधा सूखा और आधा गीला है। समिधाएँ सामग्री सूखी हैं तो घृत तथा पायस आदि गीले हैं। सूखा सब आग्नेय है और गीला सब सोमात्मक है। इस प्रकार ये दोनों आहुतियाँ विश्व ब्रह्माण्ड में चल रहे ईश्वरीय यज्ञ और हमारे यज्ञ में अभिरूपता-एक रूपता समपादन के लिए दी जाती है।

…….नेत्र समबन्धी बात को यों कहा है कि ‘अग्निषोमायां यज्ञश्चक्षुमान्’ अर्थात् अग्नि और सोम से यज्ञ चक्षुमान् है । इसी प्रकार अग्निषोमयोरहं देवयज्यया चक्षुमान्  भूयासम्।। – तै.स. 1.6.2.3

अर्थात्- अग्नि और सोम इन दोनों के यजन से मैं चक्षुमान् हो जाऊँ। इस भाग में इन आहुतियों द्वारा यजमान् अग्नि और सोम के समान चक्षुष्मान् होने की कामना से ये दो आज्यभागाहुतियाँ देता है।

इस प्रकार (1) विश्व ब्रह्माण्ड में चल रहे यज्ञ के साथ अपने इस यज्ञ की अभिरूपता के लिए (2) मनुष्यों की आँखों की भाँति यज्ञ के दोनों नेत्रों के रूप में तथा (3) अग्नि और सोम के तुल्य तेज और सौमयतायुक्त नेत्रों की प्राप्ति की कामना से ये दो आज्यभागाहुतियाँ दी जाती हैं।

रही बात उत्तर और दक्षिण दिशा की। इसके लिए पहली बात आप यह ध्यान में रखें कि देव यज्ञ में प्रत्येक क्रिया प्रदक्षिणक्रम से की जाती है तथा यज्ञानुष्ठान के लिए यजमान् पुर्वाभिमुख बैठता है। इस अवस्था में प्रदक्षिणक्रम से यज्ञानुष्ठान करते समय यज्ञ की चक्षुस्थानीय पहली आहुति उत्तर में ही देनी होगी और दूसरी दक्षिण में। इन आहुतियों का उत्तर और दक्षिण दिशा से समबन्ध नहीं है, अपितु ये अग्नि और सोम की दो आहुतियाँ यज्ञ (कुण्ड) के वाम (उत्तर) और दक्षिण नेत्र के रूप में दी जाती हैं, क्योंकि नासिका सामने होती है और दोनों आँख-नाक उत्तर और दक्षिण दिशा में होते हैं। यज्ञ की नेत्रस्थानीय होने से ये दोनों आहुतियाँ कुण्ड के मध्य भाग से उत्तर और दक्षिण दिशा में दी जाती हैं। इन आहुतियों के उत्तर और दक्षिण दिशा में देने का यही एक मात्र कारण है।’’ – स्वामी मुनिश्वरानन्दजी (शंका-समाधान)

इस प्रसंग में जैसा स्वामी दयानन्द का कथन है कि यज्ञकुण्ड के उत्तर-दक्षिण भाग में आहुति दें, वैसा ही स्वामी मुनिश्वरानन्दजी ने माना और हमारा भी यही मानना है।

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