श्री स्वामी षंकाराचार्य जी ने वेदान्त दर्षन का जो भाश्य किया है उसके आरम्भ के भाग को चतुःसूत्री कहते है। क्योंकि यह पहले चार सूत्रों के भाश्य के अन्र्तगत है। इस चतुःसूत्री में भाश्यकार ने अपने मत की मुख्य रूप से रूपरेखा दी है। इसलिये चतुःसूत्री को समस्त षांकर-भाश्य का सार कहना चाहिये। वादराय-कृत चार सूत्रों के षब्दों से तो षांकर-मत का पता नहीं चलता। वे सूत्र ये हैंः-
(1) अथातो ब्रह्मजिज्ञासा-अब इसलिये ब्रह्म जानने की इच्छा है।
(2) जन्माद्यस्य यतः-ब्रह्म वह है जिससे जगत् का जन्म, स्थिति तथा प्रलय होती है।
(3) षास्त्रायोत्विात्-वह ब्रह्म षास्त्र की योनि है अर्थात् वेद ब्रह्म से ही आविर्भूत हुये है।
(4) तत्तु समन्वयात्-ब्रह्म-कृत जगत् और ब्रह्म-प्रदत्त वेद में परस्पर समन्वय है। अर्थात् षास्त्र में कोई चीज नही जो सृश्टि-क्रम के विरूद्ध हो। सृश्टि से षास्त्र का और षास्त्र से सृश्टि का बोध होता है। दोनों को ब्रह्म की रचना कहना चाहिये। षास्त्र को षब्द-रचना और जगत् को अर्थ-रचना।
षांकर-चतुःसूत्री को षांकर वेदान्त की भूमिका या नींव कहना चाहिये। श्री षंकराचार्य जी ने पहले इस भूमिका को दृढ़ किया है। फिर अपने मत का विषाल भवन बनाया है। इसलिये जो कोई षांकर-वेदान्त की मीमांसा करना चाहे पहले उसे चतुःसूत्री की भली भाँति मीमांसा करनी चाहिये। प्रष्न तीन हैं।
(1) क्या चतुःसूत्री मे जो प्रतिपत्तियाँ स्थापित की गई हैं वे निर्दोश हैं?
(2) क्या उनकी सिद्धि उपनिशदों से होती है?
(3) क्या वादरायण के उन चार सूत्रों के षब्दों से यह प्रतिपत्तियाँ निकलती हैं?
ये प्रतिपत्तियाँ क्या है? उन्ही के षब्दों मे पहली प्रतिपत्ति सुनियेः-
1-पहली प्रपिपत्ति
अस्मत् प्रत्ययगोचरे विशयिणि चिदात्मके युश्मत्प्रत्यय गोचरस्यविशयस्य तद्धर्माणां चाध्यासः। तद् विपर्ययेण विशयिणस्तद्धर्माणं च विशयेऽध्यासों मिथ्येति भवितुं युक्तम्। तथाप्यन्तोन्यस्मिन्न न्योन्यात्मकतामन्योन्यधर्माष्चध्यस्तेरेतराविवेकेन, अत्यन्त विविक्तयोर्धर्मधर्मिणोर्मिथ्याज्ञानानमित्तः सत्यानृते मिथुनीकृत्य, अहमिदं ममेदमिर्ति नैसर्गिकोऽयं लोकव्यवहारः।
(उपोद्घात पृश्ठ 1)
अहंभाव के द्योतक चेतन विशयी मे तुम भाव के द्योतक विशय का तथा उसके धर्मो का अध्यास मिथ्या है। और विशय मे विशयी तथा उसके धर्मो का भी अध्यास मिथ्या है। परन्तु लोक में ऐसा नैसर्गिक व्यवहार है कि विवके-षून्यता के कारण मिथ्या द्वारा एक दूसरे में एक दूसरे के धर्माे का अध्यास करके ही ‘मैं यह हूँ’, ‘यह मेरा है’ आदि आदि का प्रयोग किया जाता है। इस प्रतिपत्ति को स्पश्ट करने की आवष्यकता है। संसार में दो चीजें है। एक विशयी और दूसरा विशय। ‘मैं सूर्य को देखता हूँ।’ इस व्यापार में ‘सूर्य’ विशय है और ‘मैं’ विशयी। मैं ‘अस्मत् प्रत्ययगोचर’ हूँ। ओर सूर्य ‘युश्मत्-प्रत्ययगोचर’ इसी प्रकार अन्य पदार्थो को लेना चाहिये। एक ज्ञाता और दूसरा ज्ञेय। श्री षंकराचार्य जी का कहना है कि विशयी और विशय अलग-अलग हैं। वे ‘अत्यन्त विविक्त’ है। उनमें तथा उनके धर्मो में कोई समानता नहीं। परन्तु अज्ञानवष लोग विशय में विशयी का और विशयी में विशय का अध्यास अर्थात् मिथ्या कल्पना कर लेते है। ‘मैं सूर्य को देखता हूँ’ भिन्न है। मैं सूर्य नही, सूर्य मैं नहीं। सूर्य के धर्म मेरे नहीं। मेरे धर्म सूर्य धर्म नहीं। फिर मुझमें और सूर्य में ऐसा सम्बन्ध ही कैसे हो सकता हे कि मैं सूर्य को देखता हूँ। अब यदि मंै यह कहता हूँ कि मैं सूर्य को देखता हूँ तो मानों मैं अपने में सूर्य का अध्यास (मिथ्या कल्पना) कर रहा हूँ।
इस प्रतिपत्ति के अनुसार जगत् का मिथ्यात्व सिद्ध है।
श्री षंकराचार्य जी ने गौड़पादीय निम्नकारिका का इस प्रकार स्पश्टीकरण किया हैः-
अन्तः स्थानात्तु भेदानां तस्माज्जागरिते स्मृतम्।
यथा तत्र तथा स्वप्ने संवृतत्वेन मिद्यते।।
जाग्रद् दृष्यानां भावानां वैतथ्यमिवि प्रतिज्ञा। दृष्यत्वादिति हेतुः। स्वप्न दृष्य भाववदिति दृश्टान्तः।
अर्थात् जागते में जो दृष्य देखते है वे मिथ्या हैं। हेतु यह है कि वे दिखाई पड़ते है। जैसे स्वप्ने में देखी हुई चीजे मिथ्या होती हैं इस प्रकार जागते में भी जो दृष्य दिखाई पड़ते हैॅं, वे मिथ्या है।
इससे क्या परिणाम निकला? सुनियेः-
(1) तमेतमेवं लक्षणामध्यासं पण्डिता अविद्येति मन्यन्ते।
(पृश्ठ 2)
(2) न चानध्यस्तात्मभावेन देहेन कष्चिद् व्याप्रियते।
(पृश्ठ 3)
(3) तस्मादविद्यावद् विशयण्येव प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि षास्त्राणि च।
(पृश्ठ 4)
अर्थात् (1) इस अध्यास को ही पण्डित लोग अविद्या कहते है।
(2) जब तक देह में आत्माभाव का अध्यास न किया जाय कोई व्यापार नहीं हो सकता।
(3) इसलिये प्रत्यक्ष आदि प्रमाण तथा षस्त्रा अविद्यावत् विशय ही हैं।
(4) एवमयमनादिरनन्तो नैसर्गिकोऽध्यासों मिथ्याप्रत्ययरूपः कर्तृत्वभोक्ृतत्व प्रवर्तकः सर्वलोक प्रत्यक्षः।
(पृश्ठ 4)
यह अध्यास मिथ्या है परन्तु अनादि अनन्त और नैसर्गिक है। इसी से मनुश्य की कर्तृत्व और भोक्ृतत्व में प्रवृत्ति है। यह सब लोक में प्रत्यक्ष है।
यह तो स्पश्ट ही है कि वादरायण के सूत्रों के किसी षब्द से इस प्रतिपत्ति की झलक तक नहीं मिलती। परन्तु हमारा कहना है कि इस प्रतिपत्ति की स्थापना में जो हेतु दिये है वे सब अयुक्त (गलत) है।
श्री षंकराचार्य इस हेतु से आरम्भ करते हैः-
युश्मदस्मत् प्रत्ययगोचर योर्विशय विशयिणोस्तमः प्रकाशवद् विरूद्ध स्वभावयोरितरेतभावानुपपत्तैत्तौ सिद्धायां तद्धर्माणामपि सुतरामितरेतरभावानुपपत्तिरिति।
अर्थात् जैसे अँधेरे और उजाले में परस्पर विरोध है। उसी प्रकार विशय और विशयी में भी विरोध है और उनके धर्माें में भी विरोध है। इसलिये एक दूसरे के भावों की अनुपपत्ति है।
यहाँ सब से भारी भूल है दृश्टान्त चुनने में। अन्धकार और उजाला परस्पर विरोधी हैं परन्तु विशय परस्पर विशयी नही। भिन्नता और विरोध है ऐसा ही विशय और विशयी में भी विरोध है। उजाला ओर प्रकाष मिल नहीं सकते। प्रकाश आते ही उजाला भाग जाता है परन्तु विशय आते ही विशयी नहीं भाग जाता। यह ठीक है कि मैं सूर्य नहीं। परन्तु मेरा और सूर्य का परस्पर विरोध भी नहीं है। यदि प्रकाष न हो तो अँधेरा होगा। यदि अँधेरा न हो तो उजाला होगा। अधेरा और उजाला साथ नहीं रह सकते परन्तु यदि विशयी न हो तो विशय न रहेगा और यदि विशय न हो तो विशयी न रहेगा। विशय और विशयी का परस्पर सम्बन्ध है। वह सम्बन्ध अँधेरे और उजाले में नहीं हॅै। सम्बन्ध दो भिन्न वस्तुओं में ही हो सकता है। एक ही वस्तु हो तो सम्बन्ध कैसा? सम्बन्ध न अध्यास है अध्यास जन्य।
जब भूमिका की सबसे पहली ईंट ही निर्बल है तो आगे दीवार कैसे ठहरेगी?
अब अध्यास को लीजिये। अध्यास के जो लक्षण श्री षंकराचार्य जी ने किये है उन सब को हम माने लेते है, क्योंकि उनके कथनानुसार
सर्वथापि व्वन्यस्यान्यधर्मावभासतां न व्यभिचरति। (पृश्ठ 2)
अर्थात् अध्यास के विशय में कोई सिद्धान्त क्यों न ठीक हों एक बात तो सब लक्षणों में समान है अर्थात् अन्य में अन्य के धर्माे की प्रतीति। जैसे सीपी में चाँदी की प्रतीति।
परन्तु मुख्य प्रष्न तो यह है कि क्या अध्यास ‘अनादि,’ ‘अनन्त’ और ‘नैसर्गि’ है जैसे श्री षंकर स्वामी ने माना है। हमको सीपी में चाँदी की भी प्रतीति होती और सीपी की भी। सांप हमको सांप भी प्रतीत होता है और रस्सी भी। रस्सी कभी रस्सी ही दृश्ट पड़ती है और कभी सांप भी। ऐसा व्यवहार अनादि, अनन्त और नैसर्गिक क्यों माना जावे? यदि यह व्यवहार अनादि और अनन्त है तो इसका अन्त न हो सकेगा और श्री षंकराचार्य जी का यह कथन सर्वथा अनुपयुक्त होगा कि
अस्यानर्थहेतोः प्रहाणाय आत्मैकत्वविद्या प्रतिपत्तये सवेैवेदान्ता आरभ्यन्ते।
(पृश्ठ 4)
‘अनन्त’ का ‘प्रहाण’ कौन कर सकता है और वह भी नैसर्गिक का। अग्नि की उश्णता अनादि, अनन्त और नैसर्गिक है। इसका तिरोभाव तो हो सकता है परन्तु ‘प्रहाण’ कैसे होगा? दूसरी बात यह है कि अनादि, अनन्त और नेैसर्गिक व्यवहार मे अध्यास की सिद्धि कैसे होगी? यह रस्सी में सांप की प्रतीति अनादि, अनन्त और नैसर्गिक व्यवहार हो तो यह कैसे सिद्ध होगा कि वस्तुतः रस्सी है साँप प्रतीत हो रही है। क्योंकि जब देखा उसको साँप ही देखा। संदेह तो तब होता जब वही चीज कभी रस्सी दृश्ट पड़ती और कभी साँप। यदि एक वस्तु सदा ही साँप दिखाई पड़ती है तो न तो संदेह के लिये कोई स्थल है न कौनसी ख्याति है इसकी खोज की आवष्यकता।
श्री षंकराचार्य जी ने ‘अध्यास’ विशय में लोक के दो अनुभव दिये है। एकः
‘षुक्तिका हि रजतवदवभसते।’ (पृश्ठ 2)
सीपी चाँदी मालूम होती है। दूसरा
‘एकष्चन्द्रः सद्वितीयवत्’। (पृश्ठ 2)
एक चाँदी के दो चाँद दिखाई पड़ते है।
क्या यह दोनों अनादि अनन्त और नैसर्गिक अध्यास के उदाहरण है? प्रायः तो सीपी सीपी ही मालूम होती है। यदि ऐसा न होता तो यह कह ही नहीं सकते थे कि वस्तुतः यह सीपी है चाँदी प्रतीत होती है। यदि चाँदी सदा दो दिखाई देते तो कौन कहता कि वस्तुतः एक है दो प्रतीत होते है। ‘सम्यक् ज्ञान’ और ‘प्रतीति’ में क्या भेद है? अनादि, अनन्त और नैसर्गिक तो सम्यक् ज्ञान ही हो सकता है अध्यास नही।
इस पर षंकर स्वामी ने बड़ा प्रबल पूर्णपक्ष उठाया है।
”कथं पुनः प्रत्यगात्मन्यविशयेऽध्यासो विशयतद्धर्माणाम्। सर्वो हि पुरोऽवस्थिते विशये विशयान्तरमध्यस्यति, युश्मत् प्रत्ययापेतस्य च प्रत्यगात्मनोऽविशयत्वं ब्रवीशि“ इति।
(पृश्ठ 2)
प्रष्न करते है कि ”अविशय में विशय का अध्यास कैसे हो सकता है? एक विशय में दूसरे विशय का अध्यास तो सभ मानते है। तुमने पहले ही कह दिया कि विशयी विशय सेे विरूद्ध है। अविशय है।“
प्रभु बड़ा स्पश्ट है और प्रबल है, इसका उत्तर सर्वथा असंगत और निर्बल है, सुनिये।
(1) पहला उत्तर –
न तावदयमेंकान्तेनाविशयः। अस्मत्प्रत्ययविशयत्वात्, अपररोक्षत्वाच्च प्रत्यगात्मप्रसिद्धेः।
(पृश्ठ 2)
आत्मा एकान्तेन (पूरा पूरा) अधिशय नहीं है ‘मैं हूँ’ यह ज्ञान भी तो विशय और विशयी हो गया। ‘मैं हूँ’ यह ज्ञान तो प्रत्यक्ष ही है। यदि यह बात है तो विशय और विशयी का अँधेरे उजाले का विरोध कहाँ रहा? वही विशयी भी है और विशय भी। ‘मैं हूँ’ इस बात का ज्ञान मुझको है। अर्थात् मैं ही विशय हूँ और मै ही विशयी। क्या मुझमें ‘अपनत्व’ का ज्ञान भी अध्यास कहा जायगा? यदि ऐसा हो तो अध्यास के लक्षण ”अतस्मिंस्तद्बुद्धिः“ न घट सकेंगे।
(2) दूसरा उत्तर और विचित्र है-
न चायमस्ति नियमः पुरोऽवस्थित एव विशयेविशयान्तरमध्यसितव्यमिति। अप्रत्यक्षेऽपि ह्याकाषे बालास्तलमलिनताद्यध्यस्यन्ति। (पृश्ठ 2)
”यह नियम नही है कि जो विशय उपस्थित हो उसी में दूसरे विशय का अध्यास किया जाय। आकाष अप्रत्यज्ञ है फिर भी मूर्ख लोग उसमें रंग का अध्यास कर लेते हैं“ै।
यह दृश्टान्त सर्वथा दूशित है। जिस आकाष को मूर्ख लोग नीला नीला कहते है वह दार्षनिक आकाष तत्व व्यापक है उसको तो लोग जानते भी नहीं। और न उसका रंग नीला है। जो ‘आकाष’ तत्व व्यापक हे उसको तो लोग जानते भी नहीं। वह तो प्रत्यक्ष आकाष को ही नीला या मैला कहते हैं। एक षब्द के कई अर्थ होते है, दार्षनिक ‘आकाष’ और बोलचाल के ‘आकाष’ षब्द को एक दूसरे के अर्थ मे लेना और उसको दृश्टान्त बना कर उससे एक प्रपत्ति की स्थापना करना सर्वथा असंगत है।
यदि यह कहा जाय कि अनादित्व, अनन्त और नैसर्गिकत्व अध्यस्त उदाहरणों के लिये नहीं किन्तु आत्मा के अध्यासरूपी व्यापार के सामान्य स्वभाव के लिये है। जैसे आँख का काम है देखना। यह है नैसर्गिक। परन्तु किस विषेश वस्तु को देखना। यह दूसरी बात है। तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि यदि अध्यास आत्मा का अनादि, अनन्त ओर नैसर्गिक व्यापार हो तो उसका ‘प्रहाण’ कैसे हो सकेगा?
विशयी और विशय या ज्ञाता और ज्ञेय के सम्बन्ध मात्र को अन्धकार और प्रकाष से तुलना करना पहली मौलिक भूल है और उस सब को ‘अध्यास’ मानना दूसरी। वस्तुतः अन्धकार में कोई कभी प्रकाष में अन्धकार का।
श्री षंकराचार्य जी ने अध्यास के लक्षण किये हैः-
स्मृतिरूपः परत्र पूर्वदृश्टावभासः। (पृश्ठ 1)
इस लक्षण को युश्मत् प्रत्यय और अस्मत् प्रत्यय में कैसे घटा सकते हैं। पूर्वदृश्ट (पहले देखा हुआ) क्या है और ‘परत्र’ क्या? अध्यास के लिये तीन चीजें चाहिये। (1) पूर्वदृश्ट (2) उसकी स्मृति (3) परत्र। मैंने पहले वास्तविक साँप देखा-यह हुआ पूर्वदृश्ट। मुझमें उसको स्मृति रही। दूसरा रस्सी ‘परत्र’ है जिसमें पूर्व दृश्ट स्मृति के कारण साँप का अध्यास हुआ। वर्तमान जगत् को मिथ्या सिद्ध करने के लिए आवष्यक है कि पहले कभी वास्तविक देखा गया हो। फिर उसकी स्मृति रही हो और उसके लिए ‘परत्र’ भी चाहिए। यदि वास्तविक जगत् पहले देखा था तो उस जगत् को सत्य मानना पड़ेगा। या आगे चलते जाओ तो अनवस्था दोश आयेगा। सारांष यह है कि यदि ”सत्य“ और ”अनृत“ का ”मिथुनीकरण“ नैसर्गिक लोकव्यवहार है तो इसके नैसर्गिकत्व का कोई कारण होना चाहिये। यदि कहो कि नैसर्गिक तो नैसर्गिक ही हेै। इसका कारण कैस? तो इससे छुटकारे का क्या अर्थ? और नैसर्गिक व्यवहार को मिथ्या कहने का क्या अर्थ ? यदि नैसर्गिक है तो ‘सत्यानृत’ का मिथुनीकरण नहीं। और यदि मिथुनिकरण है तो नैसर्गिक नहीं। यदि जल का जलतव नैसर्गिक है तो इसमें सत्य और अनृत का मेल कैसा?
प्रबल आक्षेपों का निर्बल उत्तर देखना हो तो षांकर चतुःसूत्री में मिलेगा। प्रष्न करते है-
”कथं पुनरविद्यावद्विशयाणि प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि षास्त्राणि चेति“। (पृश्ठ 2)
अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाण और षास्त्र अविद्यावत् कैसे?
बड़ा कठिन प्रष्न है। यदि प्रत्यक्ष है तो अविद्यावत् नहीं और यदि अविद्यावत् है तो प्रत्यक्ष नहीं।
इसका उत्तर सुनियेः-
(1) देहेन्द्रियादिश्वहंममाभिमानरहितस्य प्रमातृत्वानुपपत्तौ प्रमाण प्रवृत्त्यनुपपत्तेः। (पृश्ठ 2)
(2) नहीन्द्रियाण्यनुपादाय प्रत्यक्षादिव्यवहारः संभवति। (पृश्ठ 2)
(3) नचाधिश्ठानमन्तनरेणोन्द्रियाणां व्यवहारत् संभवति। (पृश्ठ 2)
(4) नचानध्यस्तात्मभावेन देहेन कष्चिद्व्याप्रियते। पृश्ठ 3)
(5) न चैतस्मिन् सर्वस्मिन्नप्तति असंगत्यात्मनः प्रमातृत्वमुपपद्यते। (पृश्ठ 3)
(6) न च प्रमातृत्वमन्तरेण प्रमाणप्रवृत्तिरस्ति। (पृश्ठ 3)
अर्थः-
(1) देह, इन्द्रिय आदि में ‘अहं’ ‘मम’ भाव नहीं है। इसलिये वह प्रमाता नहीे, जो प्रमाता नही उसकी प्रमाण में प्रवत्ति नहीं।
(2) बिना इन्द्र्रियो के प्रत्यक्षादि व्यवहार नहीं होते।
(3) बिना अधिश्ठान के इन्द्रियो का व्यवहार संभव नहीं।
(4) जिस देह में आत्मा का अध्यास न हो वह देह व्यापार नहीं कर सकती।
(5) और यदि यह सब न हो तो असंगत आत्मा प्रमाता कैसे होगा?
(6) प्रमाता के बिना प्रमाण की प्रवृत्ति कैसे होगी?
पहली तीन बाते ठीक हैं, परन्तु चैथी ठीक नहीें, और उसके द्वारा जो उत्तर दिया गया है वह भी ठीक नहीं।
यह ठीक है कि देह और इन्द्रियाँ प्रमाता नहीं हो सकतीं। परन्तु प्रमाता का साधन तो हो सकती है। इसलिये तो कहा है कि बिना इन्द्रियों के प्रत्यक्ष आदि व्यवहार नहीं हो सकते। उपकरण का अध्यास कहना भूल है। अध्यास के किसी लक्षण से इन्द्रियों का उपकरण होना अध्यास नहीं कहा जा सकता। ‘स्मृतिरूपः परत्र पूर्वदृश्टावभासः’ पर विचार किजिये, और फिर उसे प्रत्यक्ष पर घटाइये। ‘पूर्वदृश्ट’ क्या है? उसकी स्मृति क्या है? और परत्र क्या है? थोड़े से विचार से पता चल जायगा कि यह कहना नितान्त अयुक्त है कि ”न चानध्यस्तात्मभावेन देहेन कष्चिद् व्याप्रियते“। यह तो कह सकते है कि बिना इन्द्रियों की सहायता के आत्मा को प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। अर्थात् इन्द्रियाँ उपकरण है।
यदि ‘अतस्मिस्तद्बुद्धिः’ पर विचार करें तो प्रष्न यह है कि प्रत्यक्षादि व्यवहार में क्या इन्द्रियाँ अपने को आत्मा समझती है? या आत्मा अपने को इन्द्रिय समझता है? यह तो स्पश्ट है कि इन्द्रियाँ अपने को आत्मा नहीं समझतीं। उनमें स्वयं बुद्धि ही नहीं जो अपने में किसी अन्य वस्तु की बुद्धि कर सकें। आत्मा भी अपने को इन्द्रिय नहीं समझता। यदि ऐसा होता तो अन्धे को भी रूप का अवभास होता क्योंकि आँखें न होते हुए भी वह अपने में आँखों की बुद्धि कर सकता। वस्तुतः बात यह है कि जिसको षंकर स्वामी अध्यास बताते हैं वह आत्मा द्वारा आँख का प्रयोग है। दूसरे अध्याय के दूसरे पाद के दूसरे सूत्र ‘प्रवृत्तेष्च’ का भाश्य करते हुए षंकर स्वामी ने जो वर्णन किया है वह अधिक ठीक है। वह लिखते हैंः-
”न ब्रमो यस्मिन्नचेतने प्रवृत्तिर्दृष्यते न तस्य सेति। भवतु तस्यैव सा। सातु चेतनाभ्दवतीति ब्रमः। तभ्दावे भावात्तदभावे चाभावात्। (पृश्ठ 222)
यहाँ यह बताया गया है कि आत्मा ‘प्रवत्र्तक’ है, देह आदि इन्द्रियाँ ‘प्रवत्र्य’ हैं। और उनमें ‘प्रवृत्ति’ आत्मा द्वारा आती है। परन्तु यहाँ अध्यास नहीं है। इस सम्बन्ध में षंकराचार्यजी ने एक प्रबल पूर्वपक्ष खड़ा किया है ”एकत्वात् प्रवत्र्याभावे प्रवर्तकत्वानुपपत्तिरिति।“ अर्थात् षांकर मत में सब जगत् मिथ्या और केवल आत्मा ही सत्य है तो बिना ‘प्रवत्र्य’ के प्रवर्तकत्व कैसा और प्रवृत्ति कैसी? यह ऐसा प्रष्न है कि उससे अध्यासवाद का समस्त प्रासाद धराषयी हो गया है। षंकराचार्यजी ने इसका जो उत्तर दिया है वह सर्वथा खोखला है। वे कहते हैंः-
‘न। अविद्याप्रत्युपस्थापितनामरूपमायावेषवषेनासकृत् प्रत्युक्तवात्। (पृश्ठ 223)
अर्थात् अविद्या के कारण नामरूप का मायाजाल बन जाता है।
यह प्रष्न का उत्तर नहीं है अपितु प्रष्न को और जटिल बना दिया है। यहाँ अविद्या और माया दोनों षब्द मिले-जुले प्रयुक्त किये गये है। यह उत्तर नहीं किन्तु उत्तराभास है। ऐसे उत्तर तो किसी प्रष्न के दिये जा सकते हैं। पूर्वपक्ष जैसा का तैसा उपस्थित रहता है।
अब षंकर स्वामी-प्रदत्त अध्यास के कुछ उदाहरणों की विवेचना कीजिये।
पुत्रभार्यादिशु विकलेशु सबलेशु वा अहमेव विकलःसकलो वेति वाह्यधर्मानात्मन्यध्यस्यति।
(पृश्ठ 3)
अर्थात् पुत्र भाई आदि के सुख-दुखः से आत्मा स्वंय अपने को सुखी या दुःखी मान लेता है यह अपने मे बाह्य धर्मों का अध्यास है।
(2) तथा देहधर्मान्-स्थूलोऽहं, गौरोऽहं, तिश्ठामि, गच्छामि, लघयानि चेति। (पृश्ठ 3)
अर्थात् देह स्थूल है, गोरी है। आत्मा न स्थूल है न कृष न गौर। परन्तु जब आत्मा कहता है कि मैं स्थूल हूँ तो देह के स्थूलता धर्म का अपने में अध्यास करता है। इसी प्रकार देह चलती है न कि आत्मा।
(3) तथेन्द्रियधर्मान्-मूकः, काणः, लकीबः, बधिरः, अन्धोहमिति।
अर्थात् आत्मा काना नहीं, आँख कानी है परन्तु आत्मा कानेपन का अपने में अध्यास करता है।
(4) तथाऽन्तःकरणधर्मान् कामसंकल्पविचिकित्साध्यवसायादीन्।
अर्थात् काम संकल्प आदि अन्तःकरण के धर्म है। आत्मा अपने में उनका अध्यास करता है।
यहाँ चार उदाहरण दिये गये है। पहले उदाहरण में कुछ-कुछ अध्यास की झलक है, परन्तु यह दुःख सम्बन्ध के कारण है। यदि पुत्र के पेट में पीड़ा का अपने पेट में अध्यास कभी नहीं करता। उसको दुःख भिन्न है और पिता भिन्न। यह ”अतस्मिंस्तद्बुद्धि“ का लँगड़ा दृश्टान्त है।
‘मैं स्थूल हूँ’ का स्पश्ट अर्थ यह है कि मेरा षरीर स्थूल है। किसी को षरीर की स्थूलता में अपनी स्थूलता की बुद्धि नहीं होती। ‘मैं जाता हूँ’ यह उदाहरण तो सर्वथा अनुपयुक्त है। यदि रेल में बैठा हुआ मैं प्रयाग से काषी गया तो यह कहना कि वास्ताव में रेल मैं प्रयाग में ही बैठा रहा मैंने रेल के जाने का अपने में अध्यास कर लिया स्पश्ट तथा हास्यप्रद है। इसी प्रकार ‘अन्धोहम्’ का अर्थ यही है कि मेरे आँख नहीं। नेत्र तो अन्धे नहीं होते। जब नेत्र नश्ट हो जाते हैं तो मनुश्य अन्धे नहीं होते। जब नेत्र नश्ट हो जाते हैं तो मनुश्य अन्धा हो जाता है।
यहाँ षायद आप पूछेंगे कि यदि अध्यास कोई चीज ही नही ंतो भिन्न-भिन्न ख्यातियों का प्रष्न क्यों उठा ?
हम कहते हैं कि हम अध्यास का खण्डन नहीं करते। अध्यास होता है। परन्तु वह उत्सर्ग नहीं उपवाद मात्र है। हम प्रायः रस्सी को रस्सी ही देखते हैं। कभी-कभी रस्सी में साँप की प्रतीति हो जाती है। इस प्रतीति का कारण ढूँढने के लिये ही ख्यातियों की षरण ली जाती है। इस प्रतीतियों को अपवाद मानने से समस्त जगत् मिथ्या सिद्ध नहीं होता। और यदि इनको उत्सर्ग माना जावे तो अध्यास के लक्षण नहीं बनते जैसा हम ऊपर कह चुके हैं। यदि कभी साँप का सत्यज्ञान हुआ ही नही हो रस्सी में साँप की प्रतीति भी नहीं हो सकती।
षंकराचार्यजी जगत् में समस्त व्यवहार को अध्यास परक कहते हैं यही भूल है। उन्होनें मनुश्यो के व्यापार की पषुओं के व्यापार से तुलना करके मनुश्यों को पषुओं के समान अविवेकी बताया है। परन्तु दृश्टान्त के लिये पषुओं का वह व्यवहार चुना हैं जिसको अविवेक नहीं विवके ही कहना पड़ेगा। वे लिखते हैंः-
”पष्चादिमिष्चाविषेशात्। यथा हि पष्वादयः षब्दादिभिः श्रोत्रादीनां सम्बन्धे सति षब्दादिविज्ञाने प्रतिकूले जाते ततो निवर्तनतं अनुकूले च प्रवतन्ते यथा दण्डोद्यतकृरं पुरूशमभिमुखमुपलभ्य मां हन्तुमयमिच्छतीति पलायितुमारभन्ते, हरिततृण्पूर्णपाणिमुपलभ्य तं प्रत्यभिमुखीभवन्ति, एवं पुरूशा अपि व्युत्पन्नचित्ताः क्रूरदृश्ट नाक्रोषतः खड्गोद्यतकरान् बलवत उपलभ्य ततो निवर्तन्ते, तद्विपरीतान् प्रति प्रवर्तन्ते, अतः समानः पष्चादिभिः पुरूशाणां प्रमाणप्रमेयव्यवहारः। पष्चादीनां च प्रसिद्धोऽविवेक पुरःसरः प्रत्यक्षादिव्यवहारः। तत्सामान्यदर्षनाद्व्युत्पत्तिमतामपि पुरूशाणां प्रत्यक्षादिव्यवहारस्तत्कालत् समान इति निष्चीयत।“ (पृश्ठ 3)
यहाँ श्री षंकराचार्यजी को सिद्ध करना है कि जैसे पषु मूर्ख होते हैं उसी के समान पुरूश भी मूर्ख होते है। इनकी युक्ति सुनिये। बड़ी विचित्र है। पषु यदि किसी को लकड़ी हाथ में लिये देखे तो उसकी और आता है कि कहीं मार न दे। और हरी घास हाथ में देखे तो उसकी ओर आता है। ऐसा ही व्यवहार पुरूश करते है। पषु अविवेकी है अतः पुरूश भी उसके समान व्यवहार करके अविवेकी हो गये। यहाँ पषुओं की अविवेकता दिखाने के लिये जो व्यापार चुना गया वह सर्वथा विवके सूचक है। लकड़ी से डरना और घास से प्रेम करना पषुओं के विवके सूचक द्योतक हे अविवेक का नहीं। यह तो पषुओं को बड़े अनुभव से प्राप्त हुआ है। और यदि पुरूश भी इसका अनुकरण करते है। तो विवेकी हैं अविवेकी नहीं। हाँ, यदि पषुओं के किसी विवेकषून्य व्यवहार का दृश्टान्त दिया जाता तो ठीक था। पषु भी किसी-किसी बात में भ्रान्त हो जाते हैं ओर मनुश्य भी। इससे उनके समस्त व्यवहारों को भ्रम-युक्त कहकर समस्त संसार को अविद्यावत कहना ठीक नहीं।
फिर षास्त्र को अविद्यावत् कहना तो और भी बड़ी भूल है। इन्द्र-जाल की पुस्तक और षांकर-भाश्य को किसी प्रकार भी एक कोटि में नहीं रख सके। पहली चीज नितान्त धोखा है। दूसरी में तो कहीं-कहीं भूल हो सकती है। इसी प्रकार उपनिशद् आदि भी षास्त्र है ओर उनकी कथा या व्याख्या जगत् के व्यापार के अन्तर्गत हैं। वे अविद्यावत् कैसे हो सकती है!
इस सम्बन्ध में एक बात विचारणीय है। रस्सी में साँप की ही प्रतीति क्यों होती है? हाथी की प्रतीति क्यों नहीं होती? मृगतृश्णिका में जल की ही प्रतीति क्यों होती है रेलगाड़ी की प्रतीति क्यों नहीं होती? जिस प्रकार रस्सी में साँप का अभाव है उसी प्रकार हाथी का भी अभाव है। ठूँठ को भ्रम से चोर तो समझ सकते हैं परन्तु सूरज नहीं समझ सकते।
हम यह नहीं कहते कि संसार में धोखा नहीं है। धोखा है। परन्तु उस धोखे की बुनियाद भी सत्य पर है। लोग दुध में पानी मिला देते हैं जिससे लेने वालों को पानी में दूध-बुद्धि हो जाय, परन्तु दूध में मक्खी डाल कर कोई धोखा नहीं दे सकता। क्या कारण है कि मनुश्य पानी में तो दूध-बुद्धि कर लेता है और मक्खी में नहीं। संसार की समस्त प्रकार की भ्रान्तियों को इकट्ठा करके उनके कारण का विचार कीजिये। और जता चल जायगा कि सभी प्रत्याक्षादि व्यापार अध्यास नहीं हैं और न यह ‘अविद्यावत्’ हैं। अविद्या के दो कारण होते हैंः-
इन्द्रियदोशात्संस्कारदोशाच्चाविद्या।
पहला दन्द्रिय-दोश, दूसरा संस्कार-दोश। यदि ब्रह्म ही केवल सत्य है और समस्त जगत् मिथ्या, तो न इन्द्रिय-दोश का प्रष्न उठता है न संस्कार-दोश का। न उपनिशदों के किसी वाक्य से इसकी सिद्धि होती है।
ब्रह्म की जिज्ञासा का आरम्भ अध्यास से करके श्री षंकराचार्यजी ने बादरायण के साथ न्याय नहीं किया। और न और लोगों के साथ। यदि बादरायण के जगत् और षास्त्र दानों को अविद्या मानतेे तो ब्रह्म की जिज्ञासा का उन्हीं से आरम्भ न करते जैसा कि उन्होंने दूसरे और तीसरे सूत्रों में किया है। सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म के लिये यह कोई प्रषंसा की बात नहीं है कि उससे अविद्यावत् जगत् का जन्म, स्थिति अथवा प्रलय हो और उसको अविद्यावत् षास्त्र की योनि कहा जाय। षंकर स्वामी स्वयं भी तो कहतेे हैंः-
”तद्ब्रह्म सर्वज्ञं सर्वषक्ति जगदुपत्तिस्थितिलयकारणं वेदान्तषास्त्रादेवावगम्यते।“
(षां॰ भा॰ 1।1।4 आरम्भिक वाक्य)
सर्वज्ञ ब्रह्म अविद्यावत् जगत् का कारण कैसा? और अविद्यावत् षास्त्र से (चाहे वह वेद हो या वेदान्त) उसकी प्राप्ति कैसी?
दूसरी प्रतिपत्ति
(1) न च तेशां कर्तृस्वरूप प्रतिपादन परतावसीयते, ‘तत्केन कं पष्येत्’ इत्यादि क्रियाकारकफलनिराकरणश्रुतेः। (1।1।4 पृश्ठ 11)
श्रुति के वाक्यों से कत्र्ता के स्वरूप का प्रतिपादन नहीं होता। अर्थात् ब्रह्म को कत्र्ता नहीं माना। वृहदारण्यक 2।4।13 में कहा है कि ‘किसको कौन देखे’। उससे क्रिया, कारक और फल तीनों का खण्डन होता है।
(2) यत् तु हेयोपादेयरहितत्वादुपदेषानर्थक्यमिति, नैप दोशः, हेयोपादेयषून्य ब्रह्मात्मतावगमादेव सर्वक्लेषग्रहाणात् पुरूशार्थसिद्धेः। (1।1।4 पृश्ठ 11)
यदी कहो कि हेय और उपादेय के बिना उपदेष का कुछ अर्थ नही तो यह ठीक नहीं क्योंकि यदि यह ज्ञान हो जाय कि ब्रह्मात्मा न हेय है न उपादेय है तो इसी ज्ञान से सब क्लेष दूर हो जाते हैं और यही पुरूशार्थ की सिद्धि है।
अर्थात् श्रुति में यह उपदेष नहीं है कि यह छोड़ो और यह करो। केवल यह ज्ञान हो जाना चाहिये कि ब्रह्म न हेय है न उपादेय।
(3) न तु तथा ब्रह्मण उपासनाविविधषेशत्वंु संभवति एकत्वे हेयोपादेयषून्यतया क्रियाकारकादिद्वैतविज्ञानोपमर्दोपपत्तेः। न ह्येकत्वविज्ञानेनोन्मथितस्य द्वैतविज्ञानस्य पुनः संभवोऽस्ति, येनोपासनाविधिषेशत्वं ब्रह्मणः प्रतिपद्येत। (1।1।4 पृश्ठ 11)
जब द्वैत ज्ञान नश्ट हो गया तो हेय उपादेय, क्रिया, कारक आदि का प्रष्न ही नहीं रहता। उस समय ब्रह्म की उपासना भी सम्भव नही रहती। जब एक बार एकत्व का ज्ञान हो गया और द्वैत-ज्ञान नश्ट हो गया तो ब्रह्म की उपासना के लिये कोई स्थान ही नहीं रहता। इससे कर्म और उपासना दोनों का खण्डन हो गया।
(4) ‘अषरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृषतः’। (छा॰ 8।12।1) इति प्रियाप्रियस्पर्षनप्रतिशाधाच्चोदनालक्षणधर्मेकार्यत्वं मोक्षाख्यस्याषरीरत्वस्य प्रतिशिध्यत इति गम्यते। (1।1।4 पृश्ठ 14)
षरीर रहने पर प्रिय और अप्रिय भी स्पर्ष नहीं करते। ऐसा छान्दोग्य में लिखा है। इससे सिद्ध होता है कि षरीर रहित मोक्ष के लिये वेदोक्त कर्म का प्रतिशेध है।
यहाँ वेदोक्त कर्म की अवहेलना की गई है।
(5) अषरीरत्वभेव धर्मकार्यमितिचेत्र, तस्य स्वाभाविकत्वात्। (1।1।4 पृश्ठ 14)
यदि कोई ऊपर के आक्षेप का समाधान करता हुआ कहे कि धर्म के कारण ही षरीर से छुटकारा मिलता है तो स्वाभाविक है।
(6) अतएववानुश्ठेयकर्मफलविलक्षणं मोक्षाख्यमषरीरत्वं नित्यमिति सिद्धम्। (1।1।4 पृश्ठ 14)
इसलिये सिद्ध है कि षरीर से छुटकारा पाकर जो मोक्ष मिलता है वह अनुश्ठेय कर्म के फल से सर्वथा विलक्षण है।
(7) अब कहते हैं कि ब्रह्म की मोक्ष हैः-
इदं तु पारमार्थिकं कूटस्थनित्यं, व्योमवत्सर्वव्यापि, सर्वविक्रियारहितं, नित्यतृप्तं, निरवयवं, स्वयंज्योतिः स्वभावम्। यत्र धर्माधर्मौ सह कार्येण कालत्रयं च नोपवर्तेते। तदेतद् अषरीरत्वं मोक्षाख्यम्। (1।1।4 पृश्ठ 14)
”यह जो पारमार्थिक कूटस्थ नित्य, आकाषवत् सर्वव्यापी, सर्वविकार रहित, नित्यतृप्त, अवयवषून्य, स्वयं ज्योति स्वभाव है जहाँ धर्म अधर्म कार्य के साथ तीनों कालों में स्पर्ष नहीं करते वही यह अषरीरत्व मोक्ष है।
यहाँ मोक्ष को नित्य और अनादि माना है क्योंकि कालत्रय अर्थात् तीनों कालों का संस्पर्ष वहाँ होता। यह स्वभाव है। यह मान कर ही षंकराचार्य जी मोक्ष के लिये कर्म का निशेध करते है।
(8) यह युक्ति (युक्ति-आभास) विचारणीय है।
अतस्तद्ब्रह्म यस्येयं जिज्ञासा प्रस्तुता, तद् यदिकत्र्तव्यषेशत्वे नोपदिष्येत, तेन च कर्तव्येन साध्यष्चेनमोक्षोऽभ्युपगम्येत, अनित्य एव स्यात्।
जिस ब्रह्म की जिज्ञासा वेदान्त दर्षन में की गई हैं। वह यदि किसी कर्तव्य विषेश का फल हो और उसी के द्वारा उसकी प्राप्ति मानी जावे तो वह ब्रह्म अनित्य हो जावे।
इस युक्ति का स्पश्टीकरण आवष्यक है। षंकरजी पहले सिद्ध कर चुके हैं कि धर्म करने से सुख होता है। सुख अनित्य होता है। मोक्ष नित्य है इसलिये उसके लिये धर्मानुश्ठान की आवष्यकता नही। यदि ब्रह्म भी कर्मानुश्ठान का फल हो तो वह अनित्य हो जायगा। अब तक तो हमने आठ उद्धरण किये है वे सब इसी बात को सिद्ध करने के लिये हैं कि पूर्व मीमांसा में जो कर्म का विधान बताया गया और वेद का सार्थत्व इसी पर आधारित किया गया वह ठीक नहीं है।
इस युक्ति में दोश निकालना कठिन भी हो तो भी किसी मनुश्य को यह युक्ति ठीक प्रतीत नहीं होती। प्रथम तो मोक्ष में और ब्रह्म में भेद है। मोक्ष जीव की अवस्था विषेश है ब्रह्म जीव नहीं। चैथे अध्याय में कई स्थानों पर मुक्त जीवों का वर्णन षंकरजी ने भी इस प्रकार किया है मानो वह मोक्ष और ब्रह्म में भेद करते हैं ‘अभाव बाहरिराह ह्येवम्’ (4।4।10) पर भाश्य करते हुए षंकरजी लिखते हैंः-
यदि मनसा षरारन्द्रियैष्च विहरेन् मनसेति विषेशणं न स्यात् तस्मादभावः षरीरेन्द्रियाणां मोक्षे। (पृश्ठ 508)
‘मनसैतान् कामान् पष्यन् रमते’
अर्थात् मुक्त पुरूश ‘मन से’ मनोरथों को देखता हुआ रमण करता है। इस पर षंकरजी कहते हैं कि यदि षरीर और इन्द्रियों का भी साथ अभीश्ट होता तो ‘मनसा’ ऐसा न कहते। इससे सिद्ध है कि मोक्ष में षरीर और इन्द्रियों का अभाव है। इससे सिद्ध है कि मोक्ष में षरीर और इन्द्रियों का अभाव है। इससे सिद्ध है कि मुक्त जीव ब्रह्म नहीं। वह तो
”मनसा एतान् कामान् पष्यन् रमते।“
इस सूत्र की संगति चतुःसूत्री से नहीं लगती।
परन्तु युक्ति में दोश भी है। वह स्पश्ट है।
यह ठीक है कि धर्मानुश्ठान से जो सुख जीव को होता है वह नित्य नहीं। परन्तु जिस ब्रह्म के ज्ञान से वह सुख होता है उसकी नित्यता का बोध कैसे हो सकता है। धर्मानुश्ठान से ज्ञान होगा। वह ज्ञान होता ब्रह्म का। यदि ज्ञान अनित्य हो तो ज्ञेय भी अनित्य हो ऐसा तो नियम नहीं है। ज्ञान ज्ञेय के आश्रित है ज्ञेय ज्ञान के अश्रित नहीं। ‘ब्रह्म जिज्ञासा’ में जिज्ञासु जीव है। ज्ञान अनित्य हो सकता है परन्तु जिज्ञासा अर्थात् ज्ञेय तो ब्रह्म है वह अनित्य कैसे होगा? 24 का 8 गुणा 192 होता है। यह नित्य सचाई एक बालक जो इस सचाई को याद करता है कई बार भूल जाता है। वह ज्ञान अनित्य हुआ। परन्तु ज्ञान के अनित्य होने से ज्ञेय का अनित्य होना तो ठीक नहीं। यह युक्ति तो सर्वथा दोशयुक्त है। परन्तु इसको इतने वाक्यों के झुण्ड में डाल दिया गया है कि साधारणतया पढ़ने से वह दोश प्रतीत नहीं होता है। एक प्रकार की भूलभुलय्याँ हैं। जो बिना थोड़े परिश्रम के स्पश्ट नहीं हो सकती।
(9) इत्येवमाद्याः श्रुतयो ब्रह्मविद्यानन्तंर मोक्षं दर्षनन्तयो मध्ये कार्यान्तरं वारयन्ति।
(1।1।4 पृश्ठ 15)
यहाँ कुछ श्रुतियाँ देकर कहते है कि ब्रह्मविद्या की प्राप्ति पर ही मोक्ष हो जाती है। बीच में कुछ और कार्य की आवष्यकता नही पड़ती ।
यह वाक्य अकेला तो कुछ हानि नहीं करता परन्तु जिस प्रसंग में इसका प्रयोग हुआ है वह अवष्य ही आपत्ति-जनक है। श्री षंकराचार्यजी का मुख्य अभिप्राय हैं धर्मानुश्ठान अर्थात् कर्माें की निःसारता दिखाना। प्रष्न यह है कि क्या धर्मानुश्ठान ब्रह्मविद्या प्राप्ति के लिये आवष्यक नहीं? फिर यदि ब्रह्मविद्या की प्राप्ति हो गई तो क्या उसी क्षण से कत्र्तव्यों का अन्त हो गया? फिर जीव-मुक्ति सम्बनधी सूत्रों का क्या बनेगा? क्योंकि ज्ञान होते ही मोक्ष और अषरीरत्व प्राप्त हो जायगा। इनके मत में ब्रह्मविद्या प्राप्ति का अर्थ ही यह है कि जीव में जीव-बुद्धि न रहकर ब्रह्म-बुद्धि प्राप्त हो हो जावे। तृतीय अध्यास के तृतीय पाद है 9वें सूत्र ”व्याप्तरेष्च समंजसम्“ का भाश्य करते हुए श्री षंकराचार्य ने स्वयं हमारे आक्षेप की पुश्टि की है और अपने मत का विरोध। वे लिखते हैं
”मिथ्याज्ञाननिवृत्तिः पलमिति चेत्। न । पुरूशार्थाेंपयोगानवगम त्“।
(पृश्ठ 383)
अर्थात् यदि मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति ही फल हो तो पुरूशार्थ का क्या उपयोग होगा? अर्थात् मनुश्य को जब तक षरीर है अवष्य ही धर्मानुश्ठान करते रहना चाहिये।
षंकराचार्यजी का एक और हेत्वाभास सुनियेः-
न च तद्विज्ञानं कमणां प्रवर्तक भवति प्रत्युत्त कर्माण्युच्छिनत्तीत वक्ष्यति ‘उपमर्दं चं ’
(ब्र॰ सू॰ 3।4।16)
(देखो षां॰ भा॰ 6।4।8, पृश्ठ 435)
षंकराचार्यजी कहते हैं कि ब्रह्म का ज्ञान कर्मो का प्रवर्तक नहीं, किन्तु उच्छेदक है। अतः ज्ञान कर्म का साधक नहीं। यहाँ ‘कर्म’ को दो अर्थों में लिया गया है। जब हम कहते हैं कि अमुक वस्तु कर्म का प्रवर्तक है तो इसका अर्थ होता है कि वह कर्म करने में प्रवृत्ति कराती है। इस अर्थ में ब्रह्मज्ञान कर्म का उच्छेदक नहीं। ब्रह्मज्ञानी संसार के उपकार में रत रहता है। निश्काम कर्म करता है। परन्तु जब हम कहते हैं कि ब्रह्मज्ञान कर्म का उच्छेदक है तो वहाँ कर्म करने से तात्पर्य नहीं किन्तु कर्म का फल भोगने से है। ”क्षीयन्ते चास्यकर्माणि के फलभोग का बोधक है। और ”कुर्वन्नेवेह कर्माणि“ में कर्म से तात्पर्य है निश्काम कर्म करने से। इसलिये इस प्रकार की भूल भुलैयों से यह नहीं समझना चाहिये कि धर्मानुश्ठान श्रुति को अभीश्ट नहीं या धर्मानुश्ठान से ब्रह्मज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं।
(10) न चेदं ब्रह्मात्मैकत्वविज्ञानं संपद्रूपम्।
न चाध्यास रूपम्।
नापि विषिश्टक्रियायोगनिमित्तम्।
नाप्याज्यावेक्षणादिकमवत् कर्मांगसंस्काररूपम्।
संपदादिरूपे हि ब्रह्मात्मैकत्वविज्ञानेऽभ्युपगभ्यमाने ‘तत्त्वमसि’
(छा॰, 6।8।7)
‘अहं ब्रह्मास्मि’ (बृ॰ 14।10)
‘अयमात्मा ब्रह्म’ (बृ॰ 2।5।19)
इत्येवमादीनां वाक्यानां ब्रह्मात्मैकत्ववस्तुप्रतिपादनपरः पदसमन्वयः पीड्येत।
तस्मान्न संपदादिरूपं ब्रह्मात्मैकत्व विज्ञानम्। (1।1।4। पृश्ठ 15,16)
षंराचार्यजी कहते है कि ”ब्रह्म और आत्मा के एक होने का ज्ञान“ जिसको मोक्ष कहते है न तो सम्पत है अर्थात् यह किसी धर्म आदि कर्माे से प्राप्त नहीं होती। न अध्यास है। न विषिश्ट क्रियायोग से प्राप्त होती है। न किसी कर्मांग का संस्कार है। क्योंकि यदि इसको सम्पत् आदि माना जाय तो ‘मैं ब्रह्म हूँ’ आदि आदि श्रुतियों का समन्वय न हो सकेगा।
(11)अतोे न पुरूश व्यापारतत्रा ब्रह्मविद्या। कि वर्हि प्रत्यक्षादि-प्रमाणविशयवस्तुज्ञानवद्वस्तुतन्त्रा। एवभुतस्य ब्रह्माणस्यज्ज्ञानस्य च न कयाचिक्ष्युक्त्या षक्याः काय्र्यानुप्रवेषः कल्र्पायतुम्।
इसलिये ब्रह्मविद्या पुरूश के व्यापार के आश्रित नहीं हैं। अपितु वस्तु-आश्रित है जैसे प्रत्यक्षादि विशय होते है। इसलिये इस प्रकार के ब्रह्म या उसके ज्ञान का किसी युक्ति से भी कार्य के साथ सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकता।
श्री षंकराचार्यजी ने विभिन्न युक्तियों द्वारा यह सिद्ध किया है कि ब्रह्म का ”ब्रह्मज्ञान“ का कार्य से कोई सम्बन्ध नहीं, और इससे वह धर्मानुश्ठान का खण्डन करते हैं। यह सब परिश्रम पूर्वमीमांसा के कर्मवाद के विरोध में है। परन्तु यह प्रतिपत्ति न तो वेदान्त के इन चार सूत्रों से सिद्ध होती हॅै न उपनिशद् वाक्यों से।
”ब्रह्म का कार्य से सम्बन्ध नहीं“ इसका क्या अर्थ? यदि कहो कि ब्रह्म कोई ऐसा कार्य नहीं करता कि जिससे उसे सुख दुःख हो तो ठीक है। परन्तु इसका प्रसंग नहीं। पुरूश क्रियाओं द्वारा ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त करते हैं। जितना धर्मानुश्ठान है वह जीव मे मल, विक्षेप और आवरणों को दूर करने के लिये हैं। इसलिये षंकराचार्यजी का प्रयत्न या तो निरर्थक है या प्रसंग-विरूद्ध।
श्री षंकराचार्य जी को ‘कार्य’ या ‘कर्म’ से कहाँ तक द्वेश है इसका उदाहरण नीचे के पदों से सुनियेः-
न च विदिक्रियाकर्मत्वेन काय्र्यानुप्रयवेषो ब्रह्मणः, ‘अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि’। (केन॰ 1।3)
इति विदिक्रियाकर्मत्वप्रतिशेधात्। (1।1।4, पृश्ठ 16)
”ब्रह्म विदि क्रिया का कर्म नहीं हो सकता क्योंकि केन उपनिशद् में लिखा है कि ब्रह्म विदित और अविदित दोनों से अलग है।“ क्या अच्छी युक्ति है। यदि विदि क्रिया का कर्म न हुआ तो ‘ज्ञा’ क्रिया का हुआ। बात क्या हुई। स्वयं षंकराचार्य जी पहले सूत्र की व्याख्या में लिखते हैं।
”तच्च कर्मणि शश्ठी परिग्रहे सूत्रेणानुगतं भवति।“
जो समाधान ‘ज्ञा’ का दिया जा सकता है वही ‘विदि’ का भी हो सकता है। विदितात्’ ‘अविदितात्’ के स्थान में ‘ज्ञातात्’ और ‘अज्ञातातत्’ कह सकते है। उपनिशद् में तो ‘पूर्ण अज्ञान’ से तात्पर्य था। परन्तु श्री षंकराचार्यजी ने उसको खींच कर अपनी युद्ध-स्थली में ला डाला। क्योंकि वे पूर्वमीमांसा का विरोध करने पर तुले हुए है।
(12) तथोपास्तिक्रियाकमत्वप्रतिशेधोऽपि भवति। ‘यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते’ इत्यविशयत्वं ब्रह्मण उपन्यस्य ”तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते“ इति। (केन॰ 1।4)
भविशयत्वे ब्रह्मणः षास्त्रयोनित्वानुपपत्तिरितिचेत्।
न। अविद्याकल्पितभेदनिवृत्तिपरत्वाच्छास्त्रस्य।।
”इसी प्रकार उपासना-विधि का कर्मत्व भी ब्रह्म में नहीं, क्योंकि लिखा है कि वह वाणी का विशय नहीं। वाणी उससे कार्य करती है। इस प्रकार ब्रह्म को अविशय बता कर कहा गया है कि ‘उसी को तुम ब्रह्म जानो’ न कि उसको जिसकी जगत् उपासना करता है।“
इस पर आक्षेप उठाते है कि यदि ब्रह्म उपासना का भी विशय नही तो षास्त्र से उसकी प्राप्ति कैसी? इसका उत्तर देते है कि षास्त्र का काम तो यह है कि अविद्या के द्वारा हुए भेद-भाव को मिटा दे। वह प्रतिपत्ति भी न तो सूत्र से सिद्ध है न उपनिशद् के वचनों से। माना कि ब्रह्म के कल्पित स्वरूप का निराकरण ही षास्त्र का उद्देष्य हुआ, तो भी ब्रह्म की उपासना का खण्डन कहाँ हुआ?
(13) अब षंकराचार्यजी ‘मुक्ति की नित्यता’ को हेतु बना कर कर्म का विरोध करते हैंः-
अतऽविद्याकल्पितसंसारित्वनिवर्तनेन नित्यमुक्तात्मस्वरूप-समर्पणान्न मोक्षस्यानित्यत्वदोशः।
अर्थात् षास्त्र का उपदेष अविद्या-कल्पित संसार की निवृत्ति है। आत्मा नित्यमुक्त है ही। अतः मोक्ष भी नित्य ही हुआ। इसमें कोई दोश नहीं।
(14) यस्त तूत्पाद्यो मोक्षस्तस्य मानसं, वाचिकं, कायिकं वा कार्यमपेक्षत इति युक्तम्। तथा विकार्यत्वे च तयोः पक्षयोर्मोक्षस्य नित्यं दृश्टं लोके। नचाप्यत्वेनापि काय्र्यापेक्षा, स्वात्मस्वरूपत्वे सत्यनाप्यत्वात्। स्वरूपव्यतिरिक्तत्वेऽपि ब्रह्मणो नाप्यत्वं, सवगतत्येन निव्याप्तस्वरूपत्वात् सर्वेणब्रह्मणः, आकाषस्येव। नापि संस्कार्यो मोक्षः, येन व्यापारनयनेन वा। न तावद्गुणाधानेन संभवति, अनाधेयातिषयब्रह्मस्वरूपत्वान्मोक्षस्य। नापि दोशपनयनेन, नित्यषुद्धब्रह्मस्वरूपत्वान्मोक्षस्य।
(1।1।4, पृश्ठ 16-17)
यहाँ पाँच विकल्प उठाये गये।
(अ) यदि मोक्ष उत्पाद्य (पैदा की हुई) वस्तु है तो मानसिक, वाचिक या कायिक कार्य की आवष्यकता होगी। और मोक्ष अनित्य हो जायगा। जैसे घड़ा।
(आ) यदि विकार्य वस्तु है जैसे दही दूध का विकृत रूप है, तो भी मोक्ष अनित्य होगा।
(इ) यदि मोक्ष आप्य (प्राप्त होने वाली) वस्तु है तो भी कार्य की आवष्यकता नहीं क्योंकि ब्रह्म तो स्वात्मस्वरूप है। क्यों? स्वयं अपने ही को प्राप्त करने का क्या अर्थ?
(ई) यदि जीव-ब्रह्म में भेद भी हो तो भी कर्म की जरूरत नहीं क्योंकि जैसे आकाष सर्वत्र व्याप्त है और उसकी प्राप्ति का प्रष्न नहीं उठता। इसी प्रकार ब्रह्म भी सर्वत्र व्याप्त है। व्याप्त की ‘आप्यता’ का क्या प्रष्न?
(उ) यदि मोक्ष संस्कार्य है तब भी व्यापार की आवष्यकता नहीं क्योंकि संसार में या तो कोई गुण बढ़ाते हैं या कोई दोश दूर करते हैं। ब्रह्म के साथ यह दोनों नहीं हो सकते। ब्रह्म नित्य है। इसलिये मोक्ष भी नित्य है।
इन हेतुओं में कितनी भूल भुलैयाँ हैं! श्री षंकराचार्यजी को अभीश्ट है कर्म का विरोध। इसके लिये पहले तो यह मान लिया कि मोक्ष नित्य (अनादि और अनन्त) है। इसके लिये लिख दिया।
‘नित्यष्च मोक्षः सर्वैर्मोक्ष वादिभिरम्युपगम्यते’
अर्थात् सभी मोक्षवादी मोक्ष को नित्य मानते है। यह कल्पना भी गलत थी। मोक्ष को चाहे लोग अनन्त भले ही मानें, अनादि मानने वाले तो बहुत कम होंगे। नित्य वस्तु अनादि और अनन्त दोनों होती है। केवल अनन्त को नित्य नहीं कह सकते। मोक्ष को अनन्त मानना उत्पाद्य, विकार्य या संस्कार्य तीनों विकल्पों से नहीं टकराता। रही ‘आप्य’ की बात। सो जो ब्रह्म को जीव मानते हैं उनका विरोध ‘आप्य’ से भले ही होता हो, भेद मानने वालों के लिये ‘आप्य’ का क्या विरोध है? क्योेंकि आप्य न केवल देष या काल की अपेक्षा से होता है किन्तु ज्ञान की अपेक्षा से भी। यद्यपि देष और काल की अपेक्षा से आकाष सब को आप्य है परन्तु ज्ञान की अपेक्षा से नहीं। यदि जीव और ब्रह्म भिन्न हैं तो ब्रह्म ज्ञान की अपेक्षा से आप्य है। प्राप्ति के लिये कार्य की अपेक्षा स्पश्ट ही है। ज्ञान बिना कर्म के संभव नहीं, यदि षांकर भाश्य को अविद्या के निराकरण और ज्ञान की प्राप्ति का साधन मान लिया जाय तो षांकर भाश्य की प्राप्ति और पढ़ने तथा समझने की योग्यता पाने तक कितने व्यापारों की अपेक्षा होगी? फिर कर्म का तिरस्कार कैसा?
(15) स्वात्मधर्म एव संस्तिरोभूतो मोक्षः क्रिययात्मनि संस्क्रियमाणोऽमिव्यज्यते, यथाऽऽदर्षे निधर्शणाक्रियय संस्क्रियमाणो भास्वरत्वं धर्म इति चेत्। न, क्रियाश्रयत्वानुपपत्तेरात्मनः।
(1,1,4, पृश्ठ 17)
अब कार्य-वाद कार पोशक पूर्वपक्षी धर्म का दूसरा अर्थ करके कार्य के लिये स्थान तलाष करना चाहता है परन्तु षंकराचार्यजी उसको तिल भर स्थान देने को राजी नहीं। वह कहता है कि माना कि मोक्ष आत्मा का स्वात्मधर्म है जैसे दर्पण का सफाई धर्म है। परन्तु जैसे दर्पण पर मैल आ जाता है तो उसे कपड़े से रगड़ते है। इसी प्रकार आत्मा का मैल रगड़ने के लिये तो व्यापार की आवष्यकता है।
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यन्नित्यं कर्म वैदिकमग्रिहोत्रादि तत् तत् कार्यायैव भवति, ज्ञानस्य यत् कार्यं तदेवास्यापि कार्यमित्यर्थः।
(षां॰ भा॰ 4।1 16 पृश्ठ 475)
यहाँ अग्निहोत्रादि नित्यकार्म का वही फल माना है जो ज्ञान का। यह मुख्य प्रतिपत्ति के विरूद्ध है। इसी स्थल पर षंका उठाकर इसका समाधान करते हैंः-
षंका–ज्ञान कर्मणोर्विलक्षणकार्यत्वान् कार्यैकत्वानुपपत्तिः।
ज्ञान और कर्म के फलों में भेद हैं फिर दोनों का एक सा फल क्यों कहा?
समाधान-नैशदोश। ज्वरमरणकाय्र्ययोरपि दधिविशयो र्गुडमन्त्रसंयुक्तयोस्तृप्ति पृश्टि कार्य दर्षनात्, तद्वत् कर्मणोऽपि ज्ञान संयुक्तस्य मोक्ष कार्योपपत्तेः।
यह दोश नहीं। दही खाने से ज्वर हो जाता है और विशखाने से मृत्यु। परन्तु दही में गुड़ मिला दिया जाय तो तृप्ति हो जाती है। और
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(16) ननु देहाश्रयया स्नानाचमन यज्ञोपवीतादिकया क्रिययादेही संस्क्रियमाणो दृश्टाः। न। देहादि संहतस्यैवाविद्यागृहीतस्यात्मनः संस्क्रियमाणत्वात्। प्रत्यक्ष हि स्नानाचमनादेर्देह समवायित्वम्। तया देहाश्रवयया तत्संहत एव कष्चिदविद्ययात्मत्वेन परिगृहीतः संस्क्रियत इति युक्तिम्।
प्रष्न है कि स्नान आचमन, यज्ञोपवीत आदि क्रिया भी तो देही की षुद्धि के लिये होती हे। षंकरजी कहते है कि वह तो केवल देह की षुद्धि के लिये हैं और इनसे वही देही षुद्ध होता है जिसने अविद्या के कारण अपने को देह से संयुक्त समझ रक्खा है। औशध खाकर एक मनुश्य कहता है कि मैं अब अच्छा हो गया। यह अध्यास अविद्या के कारण है आगे का वाक्य और भी प्रबल हैः-
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विश को मन्त्र के साथ (विषेश विधि के साथ) खाया जाय तो पुश्टि होती है। इसी प्रकार कर्म और ज्ञान के संयोग से मुक्ति हो सकती है। यहाँ कर्म की उपयोगिता बताई है। परन्तु चतुःसूत्री के कर्म का खण्डन किया है। वहां तो केवल ज्ञान को ही मोक्ष का साधन माना है। यदि केवल गुड़ से ही तृप्ति हो जाय तो दही में गुड़ कौन मिलावे? यदि बिना अग्निहोत्रादि के केवल ज्ञान से ही मुक्ति हो जाय तो अग्निहोत्रादि की आवष्यकता नहीं। परन्तु ‘अग्निहोत्र’ तो व्यास सूत्र में दिया हुआ है। उसका निराकरण कैसे हो सकता था? यदि षंकर स्वामी आरम्भ से ही ज्ञान और कर्म का सहयोग मान लेते तो षारीरिक भाश्य तथा उपनिशद्-भाश्यों में कई स्थानों पर जो उन्होंने कर्म का खण्डन किया है वह न करते।
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(17) तस्माज्ज्ञानमेकं मुक्त्वा क्रियया गन्धे मात्रस्याप्यनु प्रवेष इह नोपपद्यते।
अर्थात् ज्ञान को छोड़ कर क्रिया की गन्ध मात्र भी इस विशय में प्रवेष नहीं पा सकती।
कैसा गजब का विरोध है। ‘गन्ध’ षब्द को नोट कीजिए।
(18) अब क्रिया का पक्षपाती कहता है।
ननु ज्ञानं नाम मानसी क्रिया (1।1।4 पृश्ठ 18)
अरे ज्ञान भी तो क्रिया ही है। षरीर की न सही, मन की।
इसका उत्तर षंकर स्वामी देते है।
न, वैलक्षण्यात्। (1।1।4 पृश्ठ 18)
नहीं। बड़ा भेद है।
क्या भेद है? सुनिये।
(19) ध्यानं चिन्तनं यद्यपि मानसं तथापि पुरूशेण कर्तुमकर्तुमन्यथा वा कर्तु षक्यं, पुरूशतन्त्रत्वात्। ज्ञानं तु प्रमाणजन्यम् प्रमाणं च यथाभूतवस्तुविशयमतो ज्ञानं कर्तुमकर्तुमन्यथावा कर्तुमषक्यं केवलं वस्तुतन्त्रमेव तत्। न चोहनातन्त्रम्। नापि पुरूशतन्त्रम्। तस्मान्मानसत्वेऽपि ज्ञानस्य महद्वैलक्षण्यम्। (पृश्ठ 18)
ध्यान और ज्ञान में भेद है। यद्यपि ध्यान मानसिक है परन्तु पुरूश के अधिकार में है करे, न करे। अन्यथा करे, ज्ञान प्रमाण जन्य है। ज्ञान वस्तु के आधीन है। उसमें पुरूश का करने, न करने अथवा अन्यथा करने का अधिकार नहीं। ज्ञान व्यापार के आधीन नहीं। न पुरूश के आधीन है। इसलिये मानसतव होने पर भी ज्ञान ध्यान से सर्वथा विलक्षण है।
ज्ञान और ध्यान के भेद का स्पश्टीकरण बड़ी सुन्दरता से किया गया है। परन्तु इसका प्रयोग जिस उद्देष्य से किया गया है वह ठीक नहीं, ज्ञान का क्रिया से इतना विरोध नहीं। क्योंकि विरोध नहीं। क्योंकि क्रिया ज्ञान का साधन है, और कर्म और ज्ञान सहयोगी है।
एक विचित्र बात है। यहाँ तो षंकर जी ”ज्ञानं तु प्रमाणजन्य“ बताते हैं। यह ‘चोदनातन्त्रम्’ है ‘न पुरूशतन्त्रम्’। परन्तु अध्यास की मीमांसा करते हुये प्रमाण को अविद्यावत् बताते हैंः-
” तमेतमविद्याख्यमात्मानात्मनोरितराध्यासं पुरस्कृत्य सर्वेप्रमाण प्रमेय व्यवहारा लौकिका वैदिकाष्च प्रवृत्तः। सर्वाणि च षास्त्राणि विधि प्रतिशेध मोक्षपराणि। (1।1।1। पृश्ठ 2)
जब प्रमाणों को अविद्यावत् सिद्ध कर चुके तो वह ज्ञान के जनक कैसे होंगे? यह प्रष्न है।
(20) या तु प्रसिद्धेऽग्नावग्निबुद्धिर्न सा चोदहनातन्त्रा। नापि पुरूशतन्त्रा। किं तर्हि प्रत्यक्ष विशय वस्तुतन्त्रैवेति ज्ञानमेवैतन्न क्रिया। (पृश्ठ 18)
अग्नि में जो अग्नि बुद्धि है वह न तो क्रिया के आधीन है न पुरूश के किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण के।
यदि यह ठीक है तो ऊपर कहे अनुसार यह अध्यास और अविद्या का परिणाम होगा।
(21) अब प्रष्न होता है कि वेद में ‘लिङ्’ लकार का प्रयोग क्यों है जब विधि या निशेध का प्रष्न ही नहीं उठता।
इसका उत्तर विलक्षण हैः-
तद्विशये लिङादयः श्रूयमाणा अप्यनियोज्यविशयत्वात् कुण्ठी भवन्ति, उपलादिशु प्रयुक्तक्षुरतैक्षण्यादिवत्। (पृश्ठ 19)
अर्थात् जैसे पत्थर पर चलाने से क्षुरे की धार कुंठित हो जाती है ऐसे ही लिङ् लकार आदि प्रयुक्त होकर भी ब्रह्म के विशय में कुण्ठिन हो जाते हैं।
उपमा कितनी अच्छी है। परन्तु यह लागू कैसे हो सकती है? क्षुरे की धार को कुण्ठित करने के लिये पत्थर पर चलाना मूर्खता ही तो है। क्या लिङ् लकार का प्रयोग उसको कुण्ठित करने के लिये किया गया है? क्या यह उपनिशत् कारों की प्रषंसा है। या बुराई?
(22) किमर्थानि तर्हि ‘आत्मा वाऽरे द्रश्टव्यः श्रोतव्यः’ इत्यादीनि विधिच्छायानि वचनानि।
स्वाभाविक प्रवृत्तिविशय विमुखी करणार्थानीति ब्रूमः।
(पृश्ठ 19 )
अच्छा विधि के तुल्य प्रतीत होने वाले उन विधि वाक्यों का क्या अर्थ होगा जिनमें कहा है कि आत्मा को ही देखना या सुनना चाहिये?
हमारा (षंकाराचार्यजी का) उत्तर है कि विशयों में जो स्वाभाविक प्रवृत्ति है उसको विमुखी करने के लिये यह वाक्य कहे गये हैं?
पाठक थोड़ा सा विचार करें। इसी को तो द्राविड़ी प्राणायाम कहते हैं, नाक सीधी न पकड़ी सिर के पीछे हाथ करके पकड़ी, स्वाभाविक प्रवृत्ति से विमुख करना भी तो निशेध है। और निशेध चोदना तंत्र हुआ। और पुरूश तंत्र भी। फिर यह कहना कि श्रुति में क्रिया का गन्ध मात्रा भी नहीं; देखते हुये न देखने के समान है। दूसरे सर्व साधारण में तो यह उपदेष लोगों को अकर्मण्य ही बनाते हैं जैसा कि षांकर-वेदान्त ने भारतवर्श को बना दिया है।
(23) अब पूर्वमीमांसा का स्पश्ट खण्डन करते हैं।
यदपि केचिदाहुः प्रवृत्ति निवृत्ति विधि तच्छेशव्यतिरेकेण केवल वस्तुवादी वेदामार्गो नास्ति’ इति तन्न औपनिशदस्य पुरूशस्यानन्यषेशतवात्। (पृश्ठ 19)
जो कहते है कि वेद केवल वस्तु वादी नहीं है उसमें प्रवत्ति और निवृत्ति की विधि है। तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि उपनिशदों का पुरूश किसी विधि या निशेध का साधन नहीं।
यहाँ ‘केवल’ षब्द पर ध्यान दीजिये और क्रिया के गन्ध मात्र न होने पर ध्यान दीजिये।
आगे के प्रष्नोत्तर से स्पश्ट हो जायगा कि ऊपर जिस बात का खण्डन किया गया है उसी को माना है।
(24) पूर्व मीमांसा का सिद्धान्त है कि
”अ म्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानाम्।“
अर्थात् वेद का मुख्य प्रयोजन है क्रिया। इसलिए जो श्रुति इस प्रयोजन को सिद्ध न करे वह निरर्थक होगी।
इस सूत्र का स्वाभाविक अर्थ यह है कि वेद-षास्त्र षासन का पुस्तक है। उसमें जो ज्ञान की बातें दी हुई हैं वह इसलिये कि मनुश्य कर्तव्य अकर्तव्य समझ सके। और उसी का अनुश्ठान करे। यजुर्वेद के 40 अध्याय के दूसरे मंत्र में भी कहा है किः-
कुवन्नेवेह कर्माणि जिजीविशेच्छत समाः।
अर्थात् मनुश्य को चाहिये कि सौ वर्श तक वैदिक कर्म करते हुये जीने की इच्छा करे। इसका यह तात्पर्य नहीं कि किसी वस्तु का ज्ञान ही षास्त्र में नहीं है। ज्ञान है तो परन्तु है इसीलिये कि उसकी उपलब्धि से मनुश्य कर्तव्य का पालन और अकर्तव्य का त्याग करे।
परन्तु षंकराचार्य जी को षास्त्र की यह पोजीषन प्रिय नहीं। वह जैमिनि के इस सूत्र का खण्डन करते हैं।
(25) पहले तो उन्होंने कहाः-
एतदेकान्तनाभ्युपगच्छतां भूतोपदेषानर्थक्य प्रसंगः। (1।1।3 पृश्ठ 20)
अर्थात् इस सूत्र का पूरा-पूरा षाब्दिक अर्थ लेने से तो वह भाग जिसमें वस्तुज्ञान (भूत-उपदेष) दिया है निरर्थक हो जायगा।
(26) परन्तु जब उनसे कहा गया कि महाराज!
प्रवृत्तिनिवृत्ति विधितच्छेशव्यतिरेकेण भूतं चेद् वस्तूपदिषति भव्यार्थत्वेन। (1।1।4 पृश्ठ 20)
अर्थात् वस्तु का ज्ञान विधि और निशेध का साधक होगा। तो इस पर आक्षेप करते है।
कूटस्थनित्यं भूतं नोपदिषतीति को हेतुः। (1।1।4 पृश्ठ 20)
परन्तु इतने से यह तो नहीं कहा जा सकता कि वस्तु उपदिश्ट नहीं हैं।
क्रियाथत्नवेऽपि क्रियातिवर्तन षक्ति मद् वस्तूपदिश्टमेव। क्रियाथत्वं तु प्रयोजनं तस्य। (त॰ 1।4 पृश्ठ 20)
चाहे वह क्रिया के उद्देष्य से ही कही गई हो। परन्तु वस्तु का उपदेष तो हो गया।
ठीक! मेरा कहना यह है कि यदि यह सिद्धान्त पहले से ही स्वीकार होता तो श्री षंकराचार्य जी को इसके खण्डन की क्या आवष्यकता थी। वह तो ‘क्रिया’ का गन्धमात्र भी सहन नहीं कर सकते थे। यह तो कोई नहीं कहता कि वेद में कूटस्थनित्य ब्रह्म का ज्ञान नहीं। मन्त्र के मन्त्र भरे पड़े हैं। जैमिनी सूत्र का अभिप्राय तो केवल इतना है कि षास्त्र कर्तव्य अकर्तव्य के पालन के लिये हैं। मेरी समझ में तो श्री षंकराचार्यजी ने व्यर्थ का वाद खड़ा कर दिया। क्रिया का गन्घ मात्र तो मानना ही पड़ा। जैमिनी की ‘धर्म जिज्ञासा’ और वादरायण की ‘ब्रह्म जिज्ञासा’ एक दूसरे के विरूद्ध नहीं है। परन्तु श्री षंकराचार्य जी ने अपनी युक्ति-संतति के द्वारा इसको ऐसा बना दिया है।
समस्त वाद वेदान्त सूत्रों से सर्वथा असंगत है।
(27) जैमिनी जी के उसी सूत्र के विरोध में और युक्तियाँ देखियेः-
अपिच ‘ब्रह्मणो न हन्तव्यः’ इति चैवमाद्या निवृत्तिरूपदिष्यते। न च सा क्रिया। नापि क्रिया साधनम्।। अक्रियार्थानामुपदेषोऽनर्थकष्चेत् ”ब्रह्मणो न हन्तव्यः“ इत्यादिनिवृत्युप देषानामानर्थक्यं प्राप्तिम्। (पृश्ठ 21)
कहते हैं कि यदि क्रिया-षून्य श्रुतियाँ अनर्थक हों तो ब्राह्मण को न मारना चाहिये इत्यादि श्रुतियाँ भी निरर्थक हो जायेगी क्योंकि यहाँ ‘निवृत्युपदेष’ है। किसी काम का करना नहीं बताया गया किन्तु ”न करना“ बताया गया है। यह न तो क्रिया का साधन“
जैमिनी के पोशक कह सकते हैं कि ”स्वभावप्राप्तहन्तर्थानुरागेण न´ाः षक्यमप्राप्त क्रियार्थत्वम्।“ (1।4 पृश्ठ 21)
‘हन्तव्य’ इस क्रिया के साथ निशेधार्थक ‘न´ा्’ लगाने से ऐसी क्रिया का अर्थ आया जो अभी प्राप्त नहीं है। क्रिया का सम्बन्ध तो रहा ही। आनन्द गिरि ने इस युक्ति को इन षब्दों में प्रकाषित किया है।
”ननु ‘न हन्तव्यः’ इत्यत्र हननं न कुर्यादिति न वाक्यार्थः हि त्वहननं कुर्यादिति। ततो हननविरोधिनी संकल्पक्रिया हननं न कुर्यामित्येव रूपा कायतया विधीयते तेन निशेध वाक्यमपि नियोगनिश्ट मेव।“
अर्थात् जब कहते है कि ‘न मारना चाहिये’ तो केवल निशेध वाक्य नहीं है। नियोग-वाक्य भी है क्योंकि हत्या की विरोधिनी क्रिया का संकल्प करना होता है।
यह पूर्व पक्ष बड़ा प्रबल है। और जैमिनी के सूत्र की पुश्टि करता है परन्तु श्री षंकराचार्य जी ने इसके खण्डन में जो युक्ति दी है वह स्पश्टतया खींचातानी प्रतीत होती है। वे कहते हैं।
”न´ाष्चैश स्वभावो यत् स्वसंबन्धिनोऽभावं बोधयतीति। अभाब बुद्धिष्चैदासीन्यकारणम्। सा च दग्धेन्धनाग्रि वत् स्वयमेवोपषाम्यति।“ (1।1।4 पृश्ठ 21)
‘न´ा्’ का यह स्वभाव है कि जिस क्रिया के साथ जुड़ता है उसके अभाव को बताता है। जैसे ‘न मारो’। यहाँ ‘न कार’ ”मारो“ क्रिया के साथ लग कर ‘मारो’ क्रिया के अभाव को बतातो है। अभाव बुद्धि का अर्थ है ‘उदासीनता।’ उदासीनता क्रिया नहीं है। किन्तु क्रिया की अन्तक है। जैसे अग्नि ईंधन को पहले क्रिया के प्रति अभाव बुद्धि स्थापित करके स्वयं भी नश्ट हो जाता है। यह युक्ति श्रृखला सुदृढ़ नहीं है। इसकी एक कड़ी बड़ी कमजोर है। वह है यह ”अभाव बुद्धिष्चदासीन्यकारणम्।“ ‘अभाव बुद्धि उदासीनता का कारण है।’ यह ठीक नहीं। यदि ऐसा हो तो पतंजलि के ‘अ$हिंसा’, ‘अ$स्तेय’, अ$परिग्रह’ आदि षब्द अनर्थक हो जायगे । यही नहीं, यदि नहीं, यदि वस्तुतः देखा जाय तो ‘ब्रह्मचर्य’ का उपदेष भी निशेधात्मक है। अर्थात् अपने वीर्य का नाष मत करो। इनसे उदासीनता प्रकट नहीं होती।
(28) अब यह प्रष्न है कि क्या हमारा षरीर हमारे पूर्व जन्मकृत धर्म अधर्म के अनुकूल हैं? कर्म-सिद्धान्त की यह एक प्रसिद्ध प्रतिपत्ति है। षंकराचार्य जी इसका भी खण्डन करते हैंः-
”तत्कृतधर्माधर्मनिमित्त सषरीरत्वभिति चेन्न, षरीरसंबन्धनस्यासिद्धत्वाद् धर्माधर्मयोरात्मकृत्वा सिद्धेः। षरीरसंवन्धस्य धर्माधर्मयोस्तत्कृतत्वस्य चेतरेतराश्रयत्वप्रसंगदन्ध्परम्परैशाऽनादित्व कल्पना। (1।1।4 पृश्ठ 22)
यदि कहो कि सषरीरत्व आत्मकृत धर्म अधर्म के कारण है तो ठीक नहीं। क्योंकि जब षरीर का सम्बन्ध ही सिद्ध नही ंतो आत्मकृत धर्म और अधर्म कैसे सिद्ध होंगे? षरीर के सम्बन्ध और आत्मकृत धर्म-अधर्म के एक दूसरे के आश्रय होने से अन्ध-परम्परा चल कर अनादित्व की कल्पना हो जायेगी।
यह वही दलील है जो ईसाई और मुसलमान पुनर्जन्म के विरूद्ध दिया करते है कि कर्म पहले है या षरीर। परन्तु श्री षंकराचार्य जी तो पुनर्जन्म को मानते है। वे ईषोपनिशत् के तीसरे मन्त्र के भाश्य में लिखते हैः-,
”अन्धेनादर्षनात्मकेना ज्ञानेन तमसा ऽऽवृता आच्छादितास्तान् स्थावरान्तान् पे्रत्य त्यक्त्वेमंसेहहमभिगच्छन्ति यथाकम यथाकम यथाश्रुतम्।
अर्थात् ”कर्म और षास्त्र विधान के अनुकूल अन्धकार से आच्छादित स्थावर आदि योनियों को षरीर छोड़ने के पष्चात् प्राप्त होते है“ यहाँ स्थावर आदि योनि भी मानी और कर्म के अनुकूल मानी। जब कर्म के अनुकूल योनि मिलती है तो प्रष्न यह होता है कि किसके कर्म के अनुकूल? उत्तर स्पश्ट है ”जो करेगा वह पायेगा।“ यहाँ आत्मकृत धर्म-अधर्म का खण्डन तो नहीं होता। फिर दूसरे अध्याय के पहले पाद के 35वें सूत्र की व्याख्या में तो इसको स्पश्ट ही कर दिया। देखियेः-
सृश्टयुक्तकालं हि षरीरादिविभागापेक्षं कर्म, कर्मापेक्षष्च षरीरादिविभाग इतीतरेतराश्रयत्वं प्रसज्येत। अतो विभागादूध्र्वं कर्मापेक्ष ईष्वरः प्रवर्ततां नाम। प्राग्विभागद। वैचित्र्यनिमित्तस्य कर्मणोऽभावात् तुल्येैवाद्या सृश्टिः प्राप्नोतीति चेत्। नैश दोशः। अनादित्वात् संसारस्य। भवेदेश दोशो यद्यादिमान् संसारः स्यात्। अनादौतु संसारे बीजांकुरवद्धेतुमभ्दावेनकर्मणः संगवैशम्यस्य च प्रवृत्तिर्न विरूध्यते।ः
(षां॰ भा॰ 2।1।35 पृ॰ 218)
”प्रष्न करते हैं कि सृश्टि उत्पन्न होने के पष्चात् षरीर आदि। इसमें तो इतरेतराश्रय दोश आ गया। उत्तर देते है कि ”नहीं। यह दोश नहीं है। क्योंकि संसार अनादि है। यदि संसार आदिमान् होता तो यह दोश होता। संसार के अनादि होने पर बीज और अंकुर के तुल्य यह भी विरोध नहीं आता।“
क्या इसको परस्पर विरोध नहीं कहते? क्या यह अपने ही सिद्धान्त का खण्डन नहीं है? जिस ‘अनादित्व कल्पना’ को षंकर जी ने चतुः सूत्री में अन्ध परम्परा कहा उसी को दूसरे अध्याय में स्वयं माना। महद्वैचित्र्यम्।
(29) और चलियेः-
क्रिया समवायाच्चात्मः कर्तृत्वानुपपत्तेः।
आत्मा का कर्ता होना सिद्ध ही नहीं हो सकता। क्यों? क्रिया और आत्मा का समवाय-सम्बन्ध नहीं।
संनिधानमात्रेण राजप्रभृतीनां दृश्टं कर्तृत्वमिति चेन्न, धन-दानद्युपार्जित भृत्य संबधित्वात् तेशां कृर्तृत्वोपपत्तेः। न त्वान्मनो धनदानादिवच्छरीरादिभिः स्वस्वामिसंबन्धनिमित्तं किंचिच्छक्यं कल्पयितुम्। (1।1।4 पृश्ठ 22)
यदि कहो कि जैसे राजे आदि भृत्यों से काम करा लेते हैं इसी प्रकार आत्मा का कर्तृव्य है सो भी ठीक नहीं क्योंकि राजे आदि तो धन देकर भृत्यों से काम ले लेते हैं। आत्मा और षरीर आदि का एकसा सम्बन्ध कल्पना में नहीं आता।
श्री षंकराचार्य जी का यह सब प्रयास क्रिया के विरोध में है। परन्तु अध्याय 2, पाद 1 से सूत्र 34 के भाश्य में क्या कहंेगे?
प्रष्न था कि ईष्वर ने किसी को सुखी किसी को दुःखी बना कर विशमता क्यों कि ओर इससे ईष्वर निर्दयी क्यों नही, इसका विस्तृत वर्णन करके उत्तर देते है।
एवं प्राप्ते ब्रूमः-वेशम्यनैर्घृण्ये नेष्वरस्य प्रसज्येते। कस्मात्? सापेक्षत्वात्। यदि हि निरीपेक्षः केवल ईष्वरो विशमां सृश्टिं निर्मिमीते। स्यातामेतौ दोशौ वैशम्यं नैर्घृण्यं च। नतु निरपेक्षस्य निर्मातृत्वमस्ति। सापेक्षो हीष्वरो विशयां सृश्टिं निर्मिमीते। किमपेक्षत इति चेत्। धर्माधर्मावपेक्षतः इति वदामः। (पृश्ठ 217)
श्री षकंराचार्य जी कहते है कि हमारा उत्तर यह है कि ईष्वर मे विशमता या निर्दयता का दोश नहीं आता क्यों? अपेक्षा से। यदि ईष्वर निरपेक्ष भाव से सृश्टि बनाता तो ये दोनों दोश आते। परन्तु सृश्टि-उत्पत्ति निरपेक्ष तो नहीं है। अच्छा तो किसकी अपेक्षा है? धर्म और अधर्म की! अब कहिये। दोनों को मिला कर न्याय कीजिये। कौन ठीक है? वस्तुतः है तो यही ठीक। परन्तु दोश है उस प्रवृत्ति का जो चतुःसूत्री में ओतप्रोत है।
(30) अब प्रष्न करते है आत्मा और षरीर का सम्बन्ध गौण क्यों नही। मिथ्या क्यों है? यदि गौण मान लिया जाय तो क्रिया का खण्डन न हो। ”देहादावहं प्रत्ययो मिथ्यैव न गौणः“ परन्तु षरीर के मिथ्या होने के लिये कोई प्रबल हेतु नहीं दिया गया। यदि मान भी लिया जाय तो श्री षंकराचार्य जी के नीचे के वाक्य का क्या अर्थ होगा?
तस्मान्मिथ्यांप्रत्यय निमित्तत्वात् सषरीरत्वस्य सिद्धं जीवतोऽपि विदुशोऽषरीरत्वम्। (पृश्ठ 22)
अर्थात् षरीर का भाव मिथ्या है। इसलिये जिसको ज्ञान हो गया (कि मैं ब्रह्म हूँ, षरीर मिथ्या है) उसका जीवन में भी अषरीरत्व सिद्ध है। ”जीवतोऽपि अषरीरत्वम्“ का क्या अर्थ है? षरीर या तो सत्य है या मिथ्या। यदि मिथ्या है तो मिथ्या ज्ञान के दूर होते ही जीवन का भी अन्त हो गया और षरीर का भी। यह नहीं हो सकता कि षरीर का अन्त हो और जीवन का न हो। यदि मैं मिथ्या मुकुट पहने हूँ अर्थात् मुकुट तो नहीं है परन्तु की प्रतीति होती है तो जिस समय वह मिथ्या ज्ञान दूर होगा मुकुट और राज-पन दोनों ही निवृत्त हो जायेंगे। यह कैसे होगा कि मुकुट न रहे और राजा बना रहूँ।
दूसरी बात यह है कि यदि षरीरादि मिथ्या हैं और जीव वस्तुतः ब्रह्म ही है और मिथ्याज्ञान के निवारण का नाम ही मुक्ति है तो ज्योंही जीव को ज्ञान होगा वह मुक्त हो जायगा अर्थात् वह ब्रह्म हो जायगा। फिर मुक्त जीवों की मुक्त अवस्था का अलग वर्णन कैसा? परन्तु ”संकल्पादेव तु तच्छृ ªतेः“ (4-4-8) के भाश्य में श्री षंकराचार्य जी लिखते हैंः-
एवं प्राप्ते ब्रूमः संकल्पादेव तु केवलात् तु केवलात् पित्रादि समुत्थानमिति।
कुतः? तच्छु ªतेः ‘संकल्पादेवास्य पितरः समुत्तिश्ठन्ति“।
(छा॰ 8।2।1) (4।4।8, पृ॰ 507)
अर्थात् मुक्त जीवों के पितर संकल्प से ही उठ बैठते हैं। यदि मुक्ति मे भी जीव ब्रह्म नहीं हो जाता तो भेद स्पश्टतया सिद्ध है और श्री षंकर जी की कोई युक्ति इसका खण्डन नहीं कर सकती। चतुः सूत्री में वृहदारण्यक का जो उदाहरण दिया गया है उससे भी षरीर का मिथ्यात्व नहीं होता:-
”तद् यथाऽहिनिल्र्वयनी वल्मीके मृताप्रत्यस्ता षयीतैवमेवेदं षरीरं षेते।“ (बृह॰ 4।4।7, पृश्ठ 23)
जैसे बांबी में साँप की केंचुली निर्जीव और तिरस्कृत पड़ी रहती है वैसे ही मुक्त आत्मा का षरीर पड़ा रहता है। इस उद्धरण से षरीर का आत्मा से इतर होना तो सिद्ध है परन्तु मिथ्या होना नहीं।
(31) अब प्रष्न करने वाला कहता है कि उपनिशद् कहती है कि आत्मा श्रोतव्य है, मन्तव्य है और निदिध्यासितव्य है। इससे सिद्ध होता है कि पहले सुनो, फिर मनन और निदिध्यासितव्य है। इससे तो ब्रह्म के साथ विधिवाक्य की संगति मिलती है।
इस स्थापना का निशेध तो हो नहीं सकता, ठीक ही है। ब्रह्म के विशय में उपनिशद् कहती है सुनों, फिर विचार और ध्यान करो। परन्तु षंकराचार्य जी इस कथन को निजषैली के अनुसार वर्णन करके कुछ का कुछ कर देते हैं। वे बीच में ‘विधिषेशत्व’ डाल कर पूर्वपक्ष के इस प्रकार वर्णन करते हैंः
”विधिषैशत्वं ब्रह्मणो न स्वरूप पर्यवसायित्वमिति।“ (पृश्ठ 23)
”इससे ब्रह्म का विधिषेशत्व तो सिद्ध होता है परन्तु ‘स्वरूपपर्यवसायित्व’ न सिद्ध हो सकेगा अर्थात् ब्रह्म विधि के आश्रित न होगा। स्वरूप से सिद्ध रहेगा। पूर्वपक्षी के मुख में एक ऐसा षब्द डाल देना जिससे उसका पक्ष हास्यजनक प्रतीत हो और फिर बलपूर्वक उसका निशेध करना तिनके का षत्रु बना कर फिर वीरता से उसका बध करने के समान है। कोई पूर्वमीमांसा का पक्षपाती यह न कहेगा कि इससे ब्रह्म का विधिषेशत्व है स्वरूपपर्यावसायित्व नहीं, सुनने वाला, मनन करने वाला और ध्यान करने वाला तो जीव है। जीव सुनेगा ब्रह्म के विशय में और उसी का मनन या ध्यान करेगा। जीव द्वारा ‘मनव्य’ या ‘निदिध्यासितव्य’ होने के कारण ब्रह्म की स्वरूप सिद्धि में क्या बाधा हो सकती है। दुखती हुई आँख सूर्य को देखने का यत्न करे तो इससे सूर्य में तो कोई दोश नहीं आता। विधिषेशत्व का क्या अर्थ है? भामती में लिखा है:
विधयो हि धर्मप्रमाणम्, ते च साध्यसाधनेतिकर्तव्यता भेदाधिश्ठाना धर्मोत्पादिनष्च तदधिश्ठाना न ब्रह्मात्मैक्ये सति प्रभवन्ति, विरोधादित्यर्थः।
”धर्म में विधियाँ प्रमाण हैं। क्योंकि उनमें साध्य, साधन, इति कर्तव्यता भेद होते हैं। जब ब्रह्म और जीव एक हैं तो उसमें विधि का क्या प्रभाव? वहाँ तो विरोध है, फिर कहा है:
अद्वैते हि विशयविशयिभावो नास्ति। न च कर्तृत्वं, कार्याभावात्। न च करणत्वम् अतएव।
अर्थात् अद्वैत में विशय-विशय तो हैं नहीं न कार्य है। अतः कर्तृव्य है न करणत्व।
यदि ऐसा है तो ‘जन्माद्यस्य यतः’ अर्थात् ईष्वर जगत् का कत्र्ता है इसका क्या अर्थ होगा?
वेदान्त कल्पतरू में इसी सम्बन्ध में कहा हैः-
त्र्यंषा भावना हि धर्मः। तद्विशय विधयः साध्यादिभेदाघिश्ठानास्तद्विशयाः। अपि चैतेऽनुश्ठेयं धममुपदिषन्तस्तदुत्पादिनः पुरूशेण तमनुश्ठापयन्तीति साध्यधर्माधिश्ठानास्तत्प्रमाणानीति यावत्। अतो नित्यसिद्धद्वैतब्रह्मावगमे तेशांविरोध इति।
अर्थात् विधि का सम्बन्ध धर्म से है ब्रह्म से नहीं। धर्म की भावना में तीन अंष होते हैं साध्य, साधन, इति कर्तव्यता। नित्यसिद्ध अद्वैज ब्रह्म में साध्य, साधन का प्रष्न ही नहीं उठतरा। ब्रह्म तो सिद्ध है, नित्य सिद्ध है, कभी साध्य की कोटि में नहीं आता। अतः षास्त्र में विधि वाक्यों की गुंजायष नहीं।
इस प्रकार बाल की खाल निकाल कर जैमिनि की ‘मीमांसा’ और कर्म का विरोध किया गया है। यह ठीक है कि ब्रह्मज्ञान के पष्चात् जीव को कुछ षेश नहीं रहता। परन्तु अल्प जीव को ब्रह्म-ज्ञानी होने और मुक्ति प्राप्त करनेक तक तो कर्म का आश्रय लेना ही पड़ेगा। अतः धर्मानुश्ठान और ज्ञान में सहयोग तो है परन्तु विरोध नहीं। श्री षंकराचार्य जी ने वेदान्त सूत्रों से पूर्व-मीमांसा की अनुपयोगिता दिखाई है यह ठीक नहीं हैं।
षंकर स्वामी ने वेदान्त 3, 2, 21 के भाश्य में बिना प्रसंग के ही इस प्रष्न को फिर छोड़ा है और बड़ी लम्बी चैड़ी व्याख्या करके बताया हैः-
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वेदान्त 3।3।33 सूत्र तथा उसके भाश्य से स्पश्ट है कि वादरायण जैमिनि के विरूद्ध न थे। उसमें पूर्वमीमां न थे। उसमें पूर्वमीमां 3।3।8 की ओर संकेत है।
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‘तस्मादवगतिनिश्ठान्येव ब्रह्म वाक्यानि न नियोगनिश्ठानि।’ (पृश्ठ 363)
अर्थात् ब्रह्मवाक्य ज्ञान-निश्ठ नहीं।
”द्रश्टव्यादिषब्दा अपि परविद्याधिकारपठितास्तत्वाभिमुखी करण प्रधाना न तत्वावबोधविधि प्रधाना भवन्ति।’ (पृश्ठ 362)
अर्थात् यहाँ कहा कि आत्मा को देखना चाहिये इत्यादि। वहाँ तत्व के ज्ञान की विधि नहीं बताई गई तत्व की ओर ध्यान दिला दिया गया है।
यह दलील भी विचित्र ही है। ‘विधि’ से न जाने क्यों चिढ़ है? ”ध्यान दिलाया गया है। ज्ञान प्राप्ति की विधि नहीं बताई गई।“ यह बात क्या हुई?
(32) अब लिखा हैः-
तस्मान्न प्रतिपत्तिविधि विशयतया षास्त्र प्रमाणकत्वं ब्रह्मणः संभवतीत्यतः स्वतन्त्रमेव ब्रह्म षास्त्रप्रमाणकं वेदान्तवाक्य समन्वतीत्सतः स्वतन्त्रेव ब्रह्म षास्त्रप्रमाणकं वेदान्तवाक्य समन्वयादिति सिद्धम्। एवं च सति ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ इति तद्विशयः पृथक षास्त्ररम्भः उपपद्यते। प्रतिपत्तिविधिपरत्वे हि ‘अथातो धर्मजिज्ञासे त्येवारब्धत्वात्र पृथक् षास्त्रमारभ्येत। आरभ्यमाणं चैवमारभ्येत-‘अथातः परिषिश्ट धर्मजिज्ञासेति’ ‘अथातः क्रत्वर्थपुरूशार्थयोर्जिज्ञसा“ (जै॰ 4।1।1) इतिवत्। (पृश्ठ 23)
यह तो ठीक है कि भिन्न-भिन्न विशयों का प्रतिपादन करते हैं। परन्तु वे विशय एक दूसरे के विरोधी नहीं होते। और न बादरायण का अभिप्राय जैमिनि-विरोध है। ‘ब्रह्म-जिज्ञासा’ लिखने से ‘धर्म-जिज्ञासा’ का विरोध नहीं, वस्तुतः ब्रह्म जिज्ञासा भी क्रत्वर्थ और पुरूशार्थ की जिज्ञासा ही है। क्योंकि जब अल्प जीव में ब्रह्म के जानने की इच्छा होती है तो उसको उन साधनों की भी इच्छा होती है जो ब्रह्म के जानने की इच्छा होती है तो उसको उन साधनों की भी इच्छा होती है जो ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति में सहायक हैं। ब्रह्म-ज्ञान छू मन्तर से तो हो नहीं जाता। श्री षंकराचार्य जी ने स्वयं ‘अतः’ षब्द की व्याख्या करते हुये ब्रह्मजिज्ञासा के लिये चार साधनों को आवष्यक बताया है (1) नित्यानित्य साधन विवेकः (2) इहामुत्रार्थ भोग विरागः (3) षमदमादि साधन संपत् (4) मुमुक्षत्व। (पृश्ठ 5)
हम पूछते है कि ये चारों चीजें ब्रह्म-ज्ञान के लिये आवष्यक हैं या ब्रह्म-जिज्ञासा के लिये। यदि नित्य अनित्य का विवेक हो गया तो षेश क्या रहा? यदि इस लोक और परलोक के भोगों से वैराग्य हो गया तो आगे क्या रह गया? षमदम आदि साधन क्या ब्रह्म जिज्ञासा, उपासना आदि के बिना ही प्राप्त हो जायँगे? और क्या इनकी प्राप्ति में धर्मानुश्ठान यज्ञ आदि का कोई उपयोग नहीं? यदि इन साधन चतुश्टय के पष्चात् ही ब्रह्मजिज्ञासा का अधिकार है तो वेदान्त के चार अध्यायों का क्या उपयोग होगा जिनमें क्रमानुसार समन्वय, विरोधपरिहार, साधन और फल की मीमांसा बताई गई है?
छान्दोग्य उपनिशद् में जो यह वाक्य है ”तद्यथेह कर्मचितोलोकः क्षीयते एवमेवामुत्रपुण्यचितो लोकः क्षीयते“ (छा॰, 8।16) इत्यादि इस वाक्य को षांकर मत में बहुत बढ़ा चढ़ा कर वर्णन किया है और इसके आधार पर कर्मानुश्ठान यज्ञ, इश्टियों, कर्मकाण्ड, उपासना आदि का बलपूर्वक खण्डन किया गया है। परन्तु है यह उपनिशद्-वाक्य का दुरूपयोग। उपनिशद् का यह वाक्य तो केवल इतना बताया है कि कर्म का फल नित्य या अनन्त नहीं है कभी न कभी क्षीण होगा। क्योंकि कर्म भी तो सान्त है। इसका अनन्त फल कैसे, परन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि कर्म की अवहेलना की जाय। हम जीवन में जितने कर्म करते हैं वे सब सान्त हैं और उनके फल भी सान्त है। परन्तु इन सान्त कर्मो को छोड़ भी तो नहीं सकते। उन सब सान्त कर्माें का उपयोग है। अपनी जीवन यात्रा में मैं जो पग उठाता हूँ वह सान्त अवष्य है परन्तु सान्त होते हुए भी वह मुझे अपने निर्दिश्ट स्थान के निकटत्तर पहुँचाता है। यही इसका उपयोग है।
बादरायण के सूत्रों का षांकर-भाश्य अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण है। षंकर स्वामी की विवरण षक्ति गजब की है। और उनकी मौलिकता भी उनके विरोध में लिखे गये उन सब पर उनकी छाप भीर वे उन्हीं का अनुकरण करते हैं। परन्तु षांकर-चतुःसूत्री में वेदान्ताध्ययन के आरम्भ में ही दो बड़ी हानिकारक मनोवृत्तियां उत्पन्न कर दी जाती है एक तो जगत् की वास्तविकता के विरोध में और दूसरी कर्म के विरोध में। ये दोनों मनोवृत्तियां बादरायण के सूत्रों की स्पिरिट के विरूद्ध हैं। चतुःसूत्री इन्हीं दो बातों से भरी है। यद्यपि वेदान्त के बहुत से सूत्रों की षंकर स्वामी ने इन मनोवृत्तियों क विरूद्ध व्याख्या की हैं क्यांेकि सब स्थानों पर इस विचित्र प्रतिपत्ति को निबाहना कठिन था। और कहीं व्यावहारिक और कहीं प्रातिभासिक व्याख्या करके किसी न किसी प्रकार छुटकारा पाने का यत्न किया है। तथापि जो विशैलास वातावरण उत्पन्न कर दिया गया है उसने समस्त आर्य जीवन पर बुरा प्रभाव डाला है।
हम यह मानते हैं कि बौद्धों के वेद-विरोधी-वातावरण को हटा कर आचार्य षंकर जी ने वेदों की स्थापना की। परन्तु उपनिशदों को वेद से हटा कर एक ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दिया जिसमें वेदाध्ययन सर्वथा छूट गया। और संसार कार्य क्षेत्र को छोड़ कर लोग एक मनों-निर्मित कल्पित जगत् की तलाष में संलग्न रहे जिसकी काल्पनिक सत्ता कितनी ही रोचक क्यों न हो, वह वास्तविकता से बहुत दूर है।
षांकर भाश्य में कई आपत्तिजनक प्रतिपत्तयां हैं परन्तु उनका वर्णन चतुःसूत्री में नही है अतः उनका वर्णन मिलेगा।