(लेखक आर्य जगत् के प्रतिष्ठित विद्वान् थे। सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास के सन्दर्भ में उनके विचार आज भी उतने ही समीचीन हैं। यह लेख लगभग 5 दशक पूर्व का है।) – सपादक
सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में ऋषि ने इतनी बात कही है-
(1) सच्चा आभूषण विद्या है, वे ही सच्चे माता-पिता और आचार्य हैं, जो इन आाूषणों से सन्तान को सजाते हैं।
(2) आठ वर्ष के हों, तब ही लड़के-लड़कियों को पाठशाला में भेज देना चाहिए।
(3) द्विज अपने घर में लड़के-लड़कियों का यज्ञोपवीत और कन्याओं का भी यथायोग्य संस्कार करके आचार्य कुल में भेज दें।
(4) लड़के-लड़कियों की पाठशाला एक दूसरे से दूर हो तथा लड़कों की पाठशाला में लड़के अध्यापक हों, लड़कियों की पाठशाला में सब स्त्री अध्यापिका हों, पाठशाला नगर से दूर हो।
(5) सबके तुल्य वस्त्र, खान-पान, आसन हों।
(6) सन्तान माता-पिता से तथा माता-पिता सन्तान से न मिलें, जिससे संसारी चिन्ता से रहित होकर केवल विद्या पढ़ने की चिन्ता रक्खें।
(7) राजनियम तथा जातिनियम होना चाहिए कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़के-लड़कियों को घर में न रख सके।
(8) प्रथम लड़के का यज्ञोपवीत घर पर हो, दूसरा पाठशाला में आचार्य कुल में हो।
(9) इस प्रकार गायत्री मंत्र का उपदेश करके सन्ध्योपासन की जो स्नान, आचमन, प्राणायामादि क्रिया है, सिखावें।
(10) प्राणायाम सिखावें, जिससे बल, पराक्रम जितेन्द्रियता व सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझ कर उपस्थित कर लेगा, स्त्री भी इसी प्रकार योगायास करें।
(11) भोजन, छादन, बैठने, उठने, बोलने-चालने, छोटे से व्यवहार करने का उपदेश करें।
(12) गायत्री मन्त्र का उच्चारण,अर्थ-ज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल-चलन को करें, परन्तु यह जप मन से करना उचित है।
(13) सन्ध्योपासन जिसको ब्रह्मयज्ञ कहते हैं, दूसरा देवयज्ञ जो अग्निहोत्र और विद्वानों के संग, सेवादि से होता है। संध्या और अग्निहोत्र सायं-प्रातः दो ही काल में करें। ब्रह्मचर्य में केवल ब्रह्मयज्ञ और अग्निहोत्र ही करना होता है।
(14) ब्राह्मण, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य का उपनयन करे, क्षत्रिय दो का, वैश्य एक का, शूद्र पढ़े, किन्तु उसका उपनयन न करें, यह मत अनेक आचार्यों का है।
(15) पुरुष न्यून से न्यून 25 वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रहे, मध्यम ब्रह्मचर्य 44 वर्ष पर्यन्त तथा उत्कृष्ट 48 वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य रक्खे।
जो (स्त्री-पुरुष) मरण पर्यन्त विवाह करना ही न चाहे तथा वे मरण पर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकते हों तो भले ही रहें, परन्तु यह बड़ा कठिन काम है।
(16) ब्राह्मण भी अपना कल्याण चाहें तो क्षत्रियादि को वेदादि सत्यशास्त्रों का अयास अधिक प्रयत्न से करावें।
क्योंकि –
क्षत्रियादि को नियम में चलाने वाले ब्राह्मण और संन्यासी तथा ब्राह्मण और संन्यासी को सुनियम में चलाने वाले क्षत्रियादि होते हैं।
(17) पाठविधि व्याकरण को पढ़ के यास्कमुनिकृत निघण्टु और निरुक्त छः वा आठ महीने में सार्थक पढ़ें, इत्यादि।
(18) ब्राह्मणी और क्षत्रिया को सब विद्या, वैश्या को व्यवहार-क्रिया और शूद्रा को पाकादि सेवा की विद्या पढ़नी चाहिए। जैसे पुरुषों को व्याकरण, धर्म और व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य पढ़नी चाहिये, वैसे स्त्रियों कोाी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प-विद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिये।
इन 18 सूत्रों को मैं तृतीय समुल्लास के 18 अंग कहूँगा और अति संक्षेप से इसमें दिये हुए बीजों को अंकुरित करने का प्रयास ही किया जा सकता है और वही किया जायगा।
प्रथम यदि इन पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो इनका विभाग इस प्रकार है-
प्रथम दो अंग माता-पिता के प्रति उपदेश हैं। तीसरा जाति-नियम द्वारा गुरु शिष्य के सामीप्य का समर्थक है। चौथा शिक्षा-शास्त्र-सबन्धी नियम है जो ब्रह्मचर्य की रक्षार्थ है। पाँचवाँ बच्चों में समानता तथा सरल जीवन का आधार है। छठा शिक्षा-शास्त्र-सबन्धी नियम है जो निश्चितता उत्पन्न करके गुरु-शिष्य की सामीप्य की पुष्टि करता है। सातवाँ राजनियम तथा जातिनियम द्वारा मोह का निराकरण तथा गुरु-शिष्य के सामीप्य का स्तभ रूप है। आठवाँ सामाजिक नियम द्वारा गुरु-शिष्य के सामीप्य का पोषक है। नवाँ संध्योपासन द्वारा ईश्वराधीनता का अर्थात् सच्ची स्वाधीनता का शिक्षा में प्रवेश कराना है। दसवाँ तथा 11वाँ बच्चों को सच्ची दिनचर्या द्वारा संयम सिखाना है। 12वाँ विनीत भाव सिखा कर संयम की पुष्टि करता है। 13वाँ 14वाँ भी संकल्प अथवा व्रत द्वारा संयम का सच्चा रूप उपस्थित करता है। 15वाँाी ब्रह्मचर्य न्यून से न्यून कितना हो यह बता कर संयम को व्यावहारिक रूप देता है। 16वें सूत्र में ब्राह्मण तथा क्षत्रियादि का परस्पर नियन्त्रण है। 17वें सूत्र में व्रतचर्या के लिए समय कैसे मिले, इसलिए आनुपूर्वी नाम का शिक्षा शास्त्र का महान् रहस्य दिया गया है, यथा 18वें में चारों वेदों के अध्ययन की लबी पाठविधि को यथायोग्य रूप से हर ब्रह्मचारी के बलाबल को देखकर पाठविधि कैसे बनाई जाय- इसकी कुञ्जी दी गई है।
शिक्षा का उद्देश्य
इस प्रकार इन अठारह अङ्गों के परस्पर सबन्ध की रूपरेखा देकर हम इन पर दार्शनिक विवेचन आरभ करते हैं। सबसे प्रथम यह देखना है कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है। ऋषि ने शिक्षा का उद्देश्य भर्तृहरि महाराज के ‘‘विद्याविलासमनसो धृतशीलशिक्षाः’’ इस श्लोक का उद्धरण देकर किया है। श्लोक का अनुवाद ऋषि के ही शदों में इस प्रकार है-
जिन पुरुषों का मन विद्या के विलास में मग्न रहता, सुन्दरशील स्वभावयुक्त सत्यभाषणादि नियम पालन युक्त और जो अभिमान अपवित्रता से रहित अन्य की मलिनता के नाशक सत्योपदेश और विद्या दान से संसारी जनों के दुःखों को दूर करने वाले वेदविहित कर्मों से पराये उपकार करने में लगे रहते हैं, वे नर और नारी धन्य हैं।
बस इस प्रकार के धन्य पुरुष उत्पन्न करना शिक्षा का उद्देश्य है।
भर्तृहरि की खान, ऋषि दयानन्द-सा जौहरी, क्या रत्न ढूँढकर निकाला है!
पहला ही शद ले लीजिये- विद्याविलासमनसः। हमें छात्रों को ब्रह्मचारी बनाना है। ब्रह्चारी के दो ही भोजन हैं, एक विद्या, दूसरा परमात्मा। इस भोजन को कभी-कभी खा लेने से वह ब्रह्मचारी नहीं बन सकता। जिस प्रकार विलासी मनुष्य यदि वह भोजन का विलासी है, तो उसमें नए से नए रुचिकर व्यञ्जनों का आविष्कार करता रहता है, यदि रूप का विलासी है तो नए से नए शृङ्गारों का आविष्कार करने में ही उसका मन लगा रहता है, उसी प्रकार जब विद्या उसके लिए एक विलास की वस्तु बन जाय, तब ही तो वह ब्रह्मचारी बन सकेगा। परन्तु यह विद्या में रति बिना शील शिक्षा के नहीं प्राप्त हो सकती। शील शिक्षा भी वह जो पूर्णतया धारण कर ली गई हो, अडिग हो, अविचल हो। इसके लिए उसका व्रत धारण करना आवश्यक है। परन्तु ब्राह्मण व क्षत्रियादि के व्रत निश्चल तब ही हो सकते हैं, जब वह सत्य व्रत हों, यह व्रतपरायणता बिना अभिमान दूर किये नहीं हो सकती और अभिमान की परम चिकित्सा है प्रभुाक्ति, वह अािमान ही नहीं और सब मलों को भी दूर करने वाली है। इस भक्ति का आरभ होता है- संसार के दुःख दूर करने में ही गौरव मानने से। दुःख दूर करने से तो भक्ति का मार्ग आरभ होता है, परन्तु उसका पूर्ण चमत्कार तो दुःख दूर करके सच्चा सुख प्राप्त कराने से होता है । यही सबसे बड़ा परोपकार है।
परन्तु दुःखों का निराकरण तथा सच्चे सुख की प्राप्ति का उपाय जाना जाता है वेद से। उसी ने इसका विधान किया है। वेदविहित कर्मों का ठीक ज्ञान न होने से अज्ञानी मनुष्य परोपकार की भावना से प्रेरित होकर भी अपकार ही तो करेगा, इसलिये विहित कर्मों से ही परोपकार होता है। चलो इन विहित कर्मों के ज्ञान के लिए वेद-वेदाङ्ग का ज्ञान प्राप्त करें। यही शिक्षा का आरा है, इसीलिए कहा-
विद्याविलासमनसो धृतशीलशिक्षाः,
सत्यव्रता रहितमानमलापहाराः,
संसारदुःखदलनेन सुभुषिता ये,
धन्या नरा विहितकर्मपरोपकाराः।।
इस प्रकार के धन्य मनुष्य इस प्रकार के गुरु के पास पहुँचे बिना कैसे प्राप्त हो सकते हैं! इसलिए माता-पिता को उपदेश दिया (1) सांसारिक आभूषणों के मोह को तथा उसके मूल सन्तान के मोह को छोड़ो, सन्तान से प्रेम करना सीखो। यहाँ सबसे पहले मोह और प्रेम में भेद करना सीखना है। अनुराग के दो अङ्ग हैं- हितसन्निकर्षयो-रिच्छानुरागः। इनमें सन्निकर्ष अर्थात् प्रेमपात्र के वियोग को न सहन करना तथा समीप होने की इच्छा जितनी प्रबल होती जायगी, उतना ही अनुराग प्र्रेम की ओर उठता जायगा। यदि सन्निकर्षेच्छा न हो तो माता बच्चे के लिए रातों जाग नहीं सकती, परन्तु हितेच्छा न हो तो गुरुकुल नहीं भेज सकती। इसीलिए कहा कि पाँचवें वर्ष तक सन्निकर्षेच्छा समाप्त हो ही जानी चाहिए। यदि सन्तान की दुर्बलता आदि किसी अन्य कारण से सन्तान का माता-पिता के पास रहना आवश्यक भी हो तो 8 वें वर्ष तक तो राजनियम से बच्चे को माता-पिता से पृथक् कर ही देना चाहिए। यही नहीं, गुरु के पा जाने पर मोहवृद्धि कारक माता-पिता का मिलना तथा पत्र-व्यवहार आदि भी बन्द हों, जिससे गुरु शिष्य में वह सामीप्य उत्पन्न हो जाय, जिसका वेद ने इन शदों में वर्णन किया है-
आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणाम् कृणुते र्गामन्तः।
– अथर्व. 11काण्ड
हमें विद्यार्थियों को न्याय सिखाना है, इसलिये सबसे पहले उनके साथ न्याय होना चाहिये। न्याय के दो सिरे हैं, निर्णय के पूर्व समान व्यवहार, निर्णय के पश्चात् यथायोग्य व्यवहार । शिक्षा के आरभ-काल में निर्णय नहीं हो सकता। इसलिए उस काल में सबको तुल्य वस्त्र, खान-पान, आसन दिये जावें। इस प्रकार सच्ची समानता उत्पन्न की गई है।
यह समानता दो प्रकार से उत्पन्न की जा सकती है। एक नाना प्रकार के ऐश्वर्य की सामग्री सबको देकर, दूसरे सबको तपस्वी बनाकर । राजा के पुत्र को अपरिग्रही के समान रखकर अथवा परिग्रही को राज-तुल्य वैभव देकर। परन्तु ब्रह्मचर्य जिनकी शिक्षा का आधार है, वे सरलता द्वारा ही समानता उत्पन्न करेंगे, इसलिये तप तथा अपरिग्रह की शिक्षा दी गई है।
शिक्षा का तीसरा आधार स्वाधीनता है, परन्तु स्वाधीनता वस्तुतः ईश्वराधीनता से प्राप्त होती है। जो अपने-आपको ईश्वर के अधीन कर देता है, वह फिर न प्रकृति के अधीन होता है न विषयों के। जिस प्रकार स्वेच्छापूर्वक स्वयं चुने हुए विमान पर चढ़ने से मनुष्य की गति में तीव्रता तो अवश्य आ जाती है। इसी प्रकार स्वेच्छापूर्वक प्रभु समर्पण द्वारा मनुष्य अनन्त शक्ति का स्वामी तो हो जाता है, परन्तु पराधीन नहीं होता, इसीलिये ऋषि दयानन्द ने इस समुल्लास में शिक्षा का आरभ सन्ध्योपासन से किया है। इसी प्रकार देवयज्ञ की व्याया में उन्होंने देवयज्ञ के दो रूप दिये हैं- एक अग्निहोत्र, दूसरा विद्वानों का संगसेवादि। गुरु के तथा विद्वानों के संग-सेवादि से मनुष्य स्व को पहिचानता है। जिसने स्व को ही नहीं पहिचाना, वह स्वाधीन क्या होगा? स्वाधीन शद का दूसरा अर्थ आत्मीयों की अधीनता है। जीव का सबसे बड़ा आत्मीय उस वात्सल्य सागर प्रभु से बढ़ कर कौन हो सकता है, सो सन्ध्योपासन तथा अग्निहोत्र दोनों ही मनुष्य को सच्चे अर्थों में स्वाधीनता दिलाने वाले हैं। अब हम संयम की ओर आते हैं, यह ब्रह्मचर्याश्रम है, हमें शक्ति के महास्रोत तक पहुँचना है, वहीं सुख है, वहीं शान्ति है, वहीं नित्यानन्द है। नित्य कैसे? मनुष्य का सुख दो प्रकार समाप्त हो जाता है। भोग्य पदार्थ की समाप्ति से या भोक्ता की रसास्वादन शक्ति की समाप्ति से, परन्तु जब जीव प्रकृति के माध्यम बिना सीधा प्रभु से रस लेने लगता है तो न भोग्य सामग्री समाप्त होती है, न भोक्ता की रसास्वादन शक्ति, बस इस अवस्था तक प्राणिमात्र को पहुँचाने के लिए मनुष्य मात्र को जीव और ईश्वर के बीच जाने वाले व्यवधानों से पूर्णतयामुक्त करके कैवल्य (ह्रठ्ठद्यब्ठ्ठद्गह्यह्य)तक पहुँचाना ही शिक्षा का उद्देश्य है। यह उद्देश्य इस समुल्लास में किस प्रकार पूरा किया गया है, अब हमें यह देखना है।
शिक्षा का केन्द्रः आचार
सबसे प्रथम जो बात समझने की है वह यह है कि वैदिक शिक्षा-पद्धति में शिक्षा का केन्द्र आचार शक्ति है, विचार शक्ति नहीं, इसीलिये वैदिक भाषा में गुरु को आचार्य कहते हैं , विचार्य नहीं। विचार साधन हैं, आचार साध्य है, क्योंकि इसके द्वारा ही मनुष्य ब्रह्म में विचरता-विचरता पूर्णतया ब्रह्मचारी हो जाता है और जब तक वह इस ध्येय तक नहीं पहुँच जाता है, तब तक के लिए उसे एक ही आज्ञा है ‘‘चरैवेति चरैवेति’’।
परन्तु विचार का क्षेत्र उसका चरने का क्षेत्र है। वह नाना प्रकार के विषयों में इन्द्रियों द्वारा विचरता हुआ विषयरूपी घास से ज्ञानरूपी दूध बनाता रहता है, परन्तु व्रत के खूँटे से बँधा होने के कारण कभी गोष्ठ-भ्रष्ट अथवा देवयूथ-भ्रष्ट नहीं होने पाता। इन्द्रियों का क्षेत्र उसके चरने का क्षेत्र है, परन्तु व्रत उसके बँधने का स्थान है। वह व्रत का खूँटा भगवान में गड़ा रहता है, इसलिए वह कभी भ्रष्ट नहीं होने पाता। इस शिक्षा-पद्धति में उसका दो बार यज्ञोपवीत किया जाता है, एक माता-पिता के घर में, दूसरा आचार्य कुल में। ब्राह्मण को संसार में अविद्या के नाश तथा सत्य के प्रकाश का व्रत धारण करना है।
क्षत्रिय को अन्याय के नाश तथा न्याय की रक्षा का व्रत धारण करना है। वैश्य को दारिद्र्य के नाश तथा प्रजा की समृद्धि की रक्षा का व्रत धारण करना है। इस यज्ञ अर्थात् लोकहित के व्रत के खूँटे के साथ बँधना है, इसीलिए इस बंधन का नाम यज्ञोपवीत है, अर्थात् वह रस्सा जो मनुष्य को लोकहित के व्रत के खूँटे के साथ बाँधने के लिए बनाया गया हो, प्रथम यज्ञोपवीत में माता-पिता उसे किस खूँटे के साथ बाँधना चाहते हैं, उनकी इस इच्छा का प्रकाश है।
परन्तु यह व्रत है, स्वेच्छापूर्वक चुना जाने वाला व्रत है, इसलिए आचार्य की अनुमति से ब्रह्मचारी इसे बदल भी सकता है, इसलिए आचार्य कुल में दूसरी बार यज्ञोपवीत किया जाता है। इस व्रत का मूल्य चुकाने मनुष्य को समाज में, सेना में तथा गृहस्थाश्रम में तो जाना है। संसार का हर सैनिक किसी न किसी रूप में झण्डे के सामने शपथ लेता है और हर दपती किसी न किसी रूप में एक दूसरे के साथ बँधे रहने की शपथ लेते हैं, परन्तु इस शपथ का लाभ शिक्षा -शास्त्र में लेना यह केवल वैदिक लोगों को ही सूझा। इसके बिना शिक्षा लक्ष्यहीन तीर चलाने के समान है। कोई तीर अचानक लक्ष्य पर भी जा लगता है।
विद्यायास कै से ?
अब आइये विद्यायास की ओर। इस क्षेत्र में सबसे प्रथम तो मनुष्य को प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा परीक्षा करने का ज्ञान होना चाहिए, फिर भाषा का, फिर अन्य शास्त्रों का; यही क्रम यहाँ रक्खा गया है। परन्तु सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस क्रम में आनुपूर्वी है। पहले व्याकरण पढ़े, फिर निरुक्त छन्द आदि-यह आनुपूर्वी क्यों रक्खी गई है? आजकल की शिक्षा पद्धति में एक विद्यार्थी प्रतिदिन 8 या 10 विषय तक पढ़ता है। इस प्रणाली में उसे गुरु-सेवा, आश्रम-सेवा, चरित्र-निर्माण आदि के लिये कोई समय ही नहीं मिलता, इसलिये प्रतिदिन मुय रूप से लगातार कुछ समय तक-एक समय तक एक विषय को पढ़ कर समाप्त करे, फिर दूसरा विषय आरभ करे। इस क्रम से पढ़ने से उसे गुरु-सेवा, पशु-पालन, चरित्र-निर्माण इन सबके लिए पूरा समय मिलता है और इस प्रकार शिक्षा के मुय अंग आचार-निर्माण की पूर्णता होती है; जिससे आचार्य (आचारं ग्राहयति) को आचार्यत्व प्राप्त होता है।
यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है। ऋषि ने लिखा है कि पुरुषों को व्याकरण, धर्म और एक व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य सीखनी चाहिये।
इस अत्यन्त मूल्यवान पंक्ति की ओर ध्यान न देने से आज आर्ष पद्धति के नाम पर सहस्रों विद्यार्थियों के जीवन नष्ट हो रहे हैं।
ऋषि ने चारों वेदों की पाठविधि तो दी है, परन्तु चारों वेदों का पण्डित होना हर एक विद्यार्थी के लिये आवश्यक नहीं ठहराया, उलटा मनु का प्रमाण देकर लिखा है-
षट्त्रिंशदादिके चर्यं गुरौ त्रैवेदिक व्रतम्।
तदर्धम् पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा।।
ब्रह्मचर्य 36 वर्ष, 18वर्ष अथवा 9 वर्ष का अथवा जितने में विद्या ग्रहण हो जाये, उतना रक्खे।
इसको पुरुषों को व्याकरण, धर्म तथा एक व्यवहार की विद्या के साथ मिला कर पढ़िये। इसका भाव यह है कि व्याकरण तथा धर्म-शास्त्र पढ़ना सब के लिए आवश्यक है। धर्म-ज्ञान के लिए जितना व्याकरण पढ़ना आवश्यक है, सो तो सब पढ़ें; इससे विशेष व्याकरण उस विद्या को दृष्टि में रख कर पढ़ें जो उनकी व्यवहार की विद्या है। इसलिए जिसे विद्युत शास्त्र अथवा भौतिक विज्ञान अथवा इतिहास पढ़ना है, उसे महाभाष्य पर्यन्त व्याकरण पढ़ना क्यों आवश्यक है- यह बिल्कुल समझ में नहीं आता, परन्तु आजकल आर्ष पद्धति के नाम पर जो सब बालकों को जबरदस्ती महाभाष्य पढ़ाया जाता है, इससे उन विद्यार्थियों में से बहुतों का जीवन नष्ट होता है और आर्ष पद्धति व्यर्थ बदनाम होती है। ऋषि ने अधिकतम और न्यूनतम दोनों पाठविधि दे दी है, विद्यार्थी की उचित शक्ति के अनुसार हर विद्यार्थी का पृथक् -पृथक् पाठ्यक्रम होना चाहिये । इसीलिए गुरु-शिष्य का सदा एक साथ रहना आवश्यक समझा गया है, जिससे गुरु-शिष्य की रुचि तथा शक्ति दोनों की ठीक परीक्षा करके यथायोग्य पाठविधि बना सके। यहाँ यथायोग्यवाद के स्थान में सायवाद का प्रयोग अत्यन्त हानिकारक सिद्ध हो रहा है।
अन्त में हम इस बात की ओर फिर ध्यान दिलाना चाहते हैं कि वैदिक शिक्षा-पद्धति में संयम अर्थात् ब्रह्मचर्य का स्थान विद्या से ऊँचा माना गया है। संयमहीन शिक्षा कुशिक्षा है, इसलिए संध्योपासन, आनुपूर्वी का पाठ्य-क्रम तथा यज्ञोपवीत संस्कार तीनों ही विद्यार्थी को परमात्मा का भक्ति-दान करके ब्रह्मचारी बना देते हैं। इस संयम की जितनी महिमा गाई जाय, सो थोड़ी है। इस प्रकार यह 18 के 18 अंग जो इस समुल्लास में पाँच सकारों में परिणत हो जाते हैं, उन पाँच सकारों के नामोल्लेख के साथ ही इस लेख को समाप्त करते हैं-
समानता सरलता सामीप्यम् गुरुशिष्ययोः।
स्वाधीन्यं संयमञ्चैव सकाराः पञ्च सिद्धिदाः।।
OUM..
ARYAVAR, NAMASTE..
MERI EK SAMSHAYA HAI, ASHAA KARTAAHOON AVASHYA DUR KIJIEGAA..
VAIDIK VARNA VYAVASTHAA JANMANAA NAHIN, KARMANAA HAI…FIR VIDHYAA ADHYAYAN KE PAHALE HI KAISE GHOSHIT KAR SAKTE HAIN KI YAH BRAHMAN HAI, YAH KSHETRIYA, YAH VAISHYA AUR YAH SUDRA HAI..? YAH SAB TO USKI VIDHYAA SAMAAPT HONE KE PASCHAAT UNKI GUNA-KARM-SWABHAAV ANUSAAR ACHARYA AUR GURU BRAHMAN-KSHETRI-VAISHYA-SUDRA GHOSHIT KAR DETAA HAI…
MERI TO SAMAJH ME MAHIN AAYAA..KRIPAYAA VISTAAR SE SAMJHAAYEN…
DHANYAVAAD..
NAMASTE..
prem arya ji
प्रत्येक मनुष्य जनम से शुद्र होता होता है फिर वे आपने कर्म से क्षत्रिय वैश्य शुद्र ब्राह्मण बनते हैं | आप हमारे वर्ण वयवस्था पर लेख पढ़े आपको विस्तृत जानकारी मिलेगी | धन्यवाद |
ओउम् ..
आर्यावर, नमस्ते…
आपका कहना ठीक है , लेकिन मेरा प्रश्न और संशय इस में नहीं हैं ,
इसमें है :
“14) ब्राह्मण, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य का उपनयन करे, क्षत्रिय दो का, वैश्य एक का, शूद्र पढ़े, किन्तु उसका उपनयन न करें, यह मत अनेक आचार्यों का है।”
इसका मतलब समझा नहीं …
मनु कहते हैं- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते। अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं।
फिर इस लेख में उपनयन करने से पहले ही कैसे मानलिया ?
अर्थात कर्म से पहले ही ओह सूद्र कैसे ?और सूद्र को उपनयन नकरने की बात कहाँ से आई ?
कृपया मेरा यह संशय दूर कीजिएगा बहुत आभारी रहूंगा .
धन्तावाद
नमस्ते..
ओउम्..
प्रेम आर्य जी
जैसा आपको शंका है
“14) ब्राह्मण, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य का उपनयन करे, क्षत्रिय दो का, वैश्य एक का, शूद्र पढ़े, किन्तु उसका उपनयन न करें, यह मत अनेक आचार्यों का है।”
इसका मतलब समझा नहीं …
इसका अर्थ मेरे हिसाब से यह है की ब्राह्मण ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य का उपनयन कर सकते हैं , क्षत्रिय क्षत्रिय और वैश्य का उपनयन कर सकते हैं , वैश्य वैश्य का उपनयन कर सकते हैं |
मनु कहते हैं- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते। अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं।
फिर इस लेख में उपनयन करने से पहले ही कैसे मानलिया ?
अर्थात कर्म से पहले ही ओह सूद्र कैसे ?और सूद्र को उपनयन नकरने की बात कहाँ से आई ?
कृपया मेरा यह संशय दूर कीजिएगा बहुत आभारी रहूंगा .
अब इसका जवाब आपको मैं अपने हिसाब से देने का कोशिश कर रहा हु | पहले आप यह समझे की किसी भी बच्चे का उपनयन जनम के साथ नहीं कर दिया जाता है उसे ८ साल कम से कम बात किया जाता है उतने समय में बच्चे में कुछ गुण प्रकट हो जाते हैं जिसके बाद यह निर्णय लेते हैं | जैसे बच्चा को ८ साल से पहले उसकी माँ बाप जो सिखाते हैं उसे वे बच्चा ग्रहण कर सकते हैं या नहीं | इन सभी गुणों के आधार पर उपनयन किया जाता है |
मैं अपने हिसाब से संक्षित रूप में समझाने की कोशिश की है |
धन्यवाद |
नमस्ते|
ओउम |