हे विद्वन् – रामनाथ विद्यालंकार

हे विद्वन् – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः  अङ्गिरसः ।  देवता  अग्निः ।  छन्दः  विराट् आर्षी अनुष्टुप् ।

अग्ने त्वः सु जागृहि वय सु मन्दिषीमहि। रक्षा णोऽअप्रयुच्छन् प्रबुधे नः पुनस्कृधि॥

-यजु० ४।१४

(अग्ने) हे विद्वन् ! (त्वं) आप (सु जागृहि) अच्छे प्रकार जागरूक रहें, (वयं) हम (सु मन्दिषीमहि) सम्यक् प्रकार आनन्दित रहें। (रक्ष नः) रक्षा करते रहिए हमारी (अप्रयुच्छन्) बिना प्रमाद के। (नः) हमें (पुनः) फिर फिर (प्रबुधे कृधि) प्रबोध के लिए पात्र बनाते रहिए।

हे विद्वन् ! आप अग्नि हैं, ज्ञान की ज्योति आपके अन्दर जल रही है, विविध विद्याओं की ज्वालाएँ आपके मानस में उठ रही हैं। आपसे हमारा निवेदन है कि जागरूक रहकर आप हमारे अन्दर भी ज्ञान-विज्ञानों की ऊँची ऊँची ज्वालाएँ उठा कर हमें उद्भट विद्वान् बना दीजिए, जिससे हम भी विद्या के प्रसार करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकें और अपने कर्तव्य का पालन कर प्रगाढ रूप से आनन्दित होते रहें। हे। ज्ञानाग्नि के सूर्य ! आप हमें अद्भुत विद्या की लपटों से प्रकाशित कर ऐसा पण्डित-प्रकाण्ड बना दीजिए कि किसी भी विषय पर ज्ञानचर्चा या शास्त्रार्थ होने पर हम किसी से पराजित न हो सकें, कोई पण्डितम्मन्य कहकर हमारा उपहास न कर सके, आपके शिष्य हम आपके पाण्डित्य की भी धाक रख सकें। ऐसा ज्ञानी बना कर निरन्तर आप हमारी रक्षा करते रहिए।

भगवन् ! ज्ञान की कोई सीमा नहीं है, ज्ञानोदधि बहुत विशाल है। हम कितने भी विद्वान् हो जायेंगे, तो भी हमारा ज्ञान समुद्र में बिन्दुवत् ही रहेगा। जब-जब हमें और अधिक ज्ञान ग्रहण करने की इच्छा हो, तब-तब आप हमें अपनी शरण में लेकर ज्ञानवर्षा से आह्लादित-पुलकित करते रहिए। पुनः पुनः हमें प्रबोध देते रहिए, हमारी ज्ञानगङ्गा को ऐसा बना दीजिए कि वह सदा उफनती हुई प्रवाहित होती रहे तथा सत्पात्रों को अपनी ज्ञानधारा से तृप्त करती रहे और यदि कोई चट्टान बन कर उसके प्रवाह को रोकना चाहें, तो उन्हें चूर करती रहे।

हे विद्वद्वर! हम आपका अभिनन्दन करते हैं और प्रतिज्ञा करते हैं कि आपकी कीर्तिकौमुदी को कभी मलिन नहीं होने देंगे। गुरुदक्षिणा में आपने जो विद्याप्रचार की दक्षिणा का आदेश दिया है, उसका सदा पालन करते रहेंगे। आपका चरणस्पर्श कर और आपका आशीर्वाद लेकर आपसे विदा लेते हैं।

हे विद्वन् – रामनाथ विद्यालंकार

पाद-टिप्पणियाँ

१. मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु, भ्वादिः । आशीर्लिङ्।

२. रक्षा=रक्ष। ‘यचो ऽ तस्तिङ’ पा० ६.३.१३२ से संहिता में दीर्घ।।

३. प्र-युछ प्रमादे, भ्वादिः, शतृ, नञ्समास।

४. प्रबुधे कृधि=प्रबोधाय कुरु।

हे विद्वन् – रामनाथ विद्यालंकार

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