हे मानव! तू ऐसा बन-रामनाथ विद्यालंकार
ऋषयः सप्त ऋषयः । देवता मरुतः । छन्दः आर्षी उष्णिक।
शुक्रज्योतिश्च चित्रज्योतिश्च सत्यज्योतिश्च ज्योतिष्माँश्च।। शुक्रश्चंऽऋतुपाश्चात्यहाः
-यजु० १७।८० |
हे मनुष्य! तू (शुक्रज्योतिः च ) दीप्त ज्योतिवाला हो, (चित्रज्योतिः च ) चित्र-विचित्र ज्योतिवाला हो, ( सत्यज्योतिः च ) सत्य ज्योतिवाला हो, (ज्योतिष्मान् च ) प्रशस्त ज्योतिवाला हो, ( शुक्रः च ) शुद्ध-पवित्र हो, ( ऋतपाः च ) ऋत का पालक हो, (अत्यंहाः ) पाप या अपराध को अतिक्रान्त करनेवाला हो।
हे मानव! क्या तू जानता है कि इस संसार में तू किसलिए आया है? तुझे अपना कुछ लक्ष्य निर्धारित करना है और उसे पूर्ण करने के लिए प्राणपण से जुट जाना है। किन्तु लक्ष्य तक पहुँचने का सामर्थ्य प्रत्येक में नहीं होता है। वे ही प्रशस्त जन लक्ष्य तक पहुँच पाते हैं, जो स्वयं को गुणी और समर्थ बना लेते हैं। अत: तू भी स्वयं को गुणवान् बनाने में तत्पर हो जा। तू ‘शुक्रज्योति’ बन, प्रज्वलित ज्योतिवाला हो । तेरी ज्योति राख से ढकी नहीं होनी चाहिए। ऐसा न हो कि तेरे अन्दर ज्योति तो रहे, किन्तु तू उसके प्रति उदासीन रहता हो, उससे सिद्ध होनेवाले महान् कार्य करने की उमङ्ग तेरे अन्दर न उठती हो। यदि ऐसा है, तो उस ज्योति को सजग कर ले। तेरी ज्योति प्रदीप्त होकर हिमालय से भी ऊँची हो जानी चाहिए। यह मैं आलङ्कारिक भाषा बोल रहा हूँ, क्योंकि वह ज्योति भौतिक नहीं, प्रत्युत मानसिक है। वह उत्साह की ज्योति है, महत्त्वाकांक्षा की ज्योति है, अग्रगामिता की ज्योति है।
तू ‘चित्रज्योति’ भी बन । तेरी ज्योति चित्र-विचित्र कई प्रकार की होनी चाहिए। अग्नि की ज्वालाएँ जैसे काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, सुधूम्रवर्णा, विस्फुलिङ्गिनी, विश्वरुची ये सात प्रकार की होती हैं, वैसे ही तेरी ज्वालाएँ भी पाँच ज्ञानेन्द्रिय, मन और बुद्धि इन सात ऋषियों से संबद्ध सात प्रकार की होनी चाहिएँ।
चक्षु, श्रोत्र आदि प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय से ज्वालाएँ उठाकर ज्ञान का विकास तुझे करना चाहिए। यह भी ध्यान रखें कि तुझे सत्यज्योति’ भी बनना चाहिए। सत्य को ही ज्योति मान कर चलेगा, तो भ्रान्ति के जाल में न उलझकर सत्य पथ पर आगे ही आगे बढ़ता चला जाएगा। फिर तुझे ज्योतिष्मान्’ भी होना चाहिए। यहाँ मतुप् प्रत्यय प्रशस्त अर्थ में है। तात्पर्य यह है कि तू प्रशस्त ज्योतिवाला बन। छोटे-छोटे लक्ष्य न बना कर महान् लक्ष्य निर्धारित कर।।
तुझे ‘शुक्र’ भी बनना है। यहाँ पवित्रार्थक ‘शुचिर्’ पूतीभावे धातु से रन् प्रत्यय करने पर शुक्र शब्द बना है। तुझे पूर्णत: मन, वचन, कर्म से पवित्र होना चाहिए। साथ ही तुझे ‘ऋतपाः’ अर्थात् सत्याचरण का पालक भी बनना चाहिए। सत्य है सत्य ज्ञान और ऋत है सत्याचरण । अकेला सत्य ज्ञान पर्याप्त नहीं है, जब तक वह आचरण में न लाया जाए। अन्त में एक गुण और समझ ले, तू अत्यंहाः’ भी बन। ‘अंहस्’ कहते हैं पाप को, उसे जिसने अतिक्रान्त कर दिया है, ऐसा निष्पाप तू बन। पाप विचार को न मन में ला, न क्रिया में परिणत कर।।
हे मरुतो ! हे मानवो! इन सब गुणों से युक्त यदि तुम हो जाओगे, तो सफलता की डोर सदा तुम्हारे हाथ में रहेगी।
पाद-टिप्पणियाँ
१. शुक्रं प्रज्वलितं ज्योतिर्यस्य स शुक्रज्योतिः । शुच धातु ज्वलनार्थक,निघं० १.१६
२. काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा । विस्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वा: । मु०उप० १.२.४!
३. भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगे ऽ तिशायने। संसर्गे ऽ स्ति विवक्षायांभवन्ति मतुबादयः ।। पा० ५.२.९४ पर काशिका।
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