हे माँ -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः मधुच्छन्दाः । देवता अम्बा। छन्दः आर्षी उष्णिक्।
प्रागपागुर्दगधराक्सर्वतस्त्व दिशऽआधावन्तु।अम्ब निष्पर समरीर्विदाम्
-यजु० ६ । ३६
( अम्ब ) हे माता ! (प्राक् ) पूर्व से, ( अपाक् ) पश्चिम से, (उदक् ) उत्तर से, (अधराक्) दक्षिण से, ( सर्वतः दिशः) सब दिशाओं से, प्रजाएँ ( त्वा आधावन्तु ) तेरे पास दौड़कर आयें। तू ( अरी:१) प्रजाओं को ( निष्पर ) पालित पूरित कर। वे प्रजाएँ तुझे (संविदाम्) प्रीतिपूर्वक जानें।
हम सामाजिक मनुष्यों के परस्पर कई प्रकार के सगे या कृत्रिम सम्बन्ध होते हैं। माँ और सन्तानों का बड़ा ही प्यारा मधुर सगा सम्बन्ध है। जब तक पुत्र-पुत्री अल्पवयस्क होते ।। हैं, तब तक माता-पिता के ही आश्रित रहते हैं, किन्तु युवक युवती होकर तथा पढ़-लिख कर योग्य बनकर विवाहोपरान्त वे अपना पृथक् संसार बना लेते हैं और अपना-अपना कार्य करने के लिए कोई पूर्व में, कोई पश्चिम में, कोई उत्तर में, कोई दक्षिण में चला जाता है। किन्तु माँ उनसे छूटती नहीं है, न वे माँ को भुला पाते हैं। जिस किसी भी दिशा में पुत्र-पुत्री बसे होते हैं, समय निकाल कर वहाँ से वे माता-पिता से मिलने आते हैं। माँ भी उनका दुलार करती है। उनकी कोई कठिनाई या समस्या होती है, तो उसका समाधान करती है। और उन्हें आशीर्वाद देती है। वे कितने ही बड़े हो गये हों, किन्तु माँ के लिए तो पुत्र-पुत्रियाँ ही हैं। मन्त्र कह रहा है। कि हे माँ! सन्ताने सब दिशाओं से तेरे पास दौड़ती चली आये और तू उनका पालन-पूरण कर, उन्हें प्यार और आशीष दे, उन्हें किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता है, तो वह भी उन्हें भरपूर प्रदान कर। किन्तु सन्तानों का भी कुछ कर्तव्य है। वे भी माँ के प्रति सद्भाव प्रकट करें, उसके प्रति प्रेम और आदर प्रदर्शित करें तथा वे भी उसका पालन-पूरण करें। ऋषि अपने भाष्य में लिखते हैं-“माता-पिता को योग्य है कि अपने सन्तानों को विद्या आदि सद्गुणों में प्रवृत्त करके निरन्तर उनकी रक्षा करें और सन्तानों को योग्य है कि माता-पिता की सब प्रकार से सेवा करें।”
हे राजरानी ! तुम भी राष्ट्र की प्रजाओं की माँ हो, सब दिशाओं में तुम्हारी प्रजाएँ फैली हुई हैं। वे तुम्हारा आशीष पाने के लिए तुम्हारे पास दौड़कर आयेंगी, तुम उनका निवेदन सुनो, उन्हें न्याय दो, उनके कष्ट दूर करो, उन पर अपना आशीर्वाद बरसाओ। वे भी तुम्हें आदर देंगी, तुम पर विश्वास प्रकट करेंगी और तुम्हारे प्रति अपनी राजभक्ति प्रदर्शित करेंगी।
हे जगदीश्वरी ! तुम भी हमारी माँ हो, हम सब तुम्हारी सन्तानें हैं। हम बालक-बालिकाओं के समान दौड़कर तुम्हारी गोदी में आ रहे हैं, स्तुति-प्रार्थना-उपासना से तुम्हें रिझा रहे हैं। हमें किस वस्तु की आवश्यकता है, यह तुम स्वयं देखो और माँ की मुस्कराहट के साथ हमारी ओर निहार कर हमें गद्गद करो।
पाद-टिप्पणियाँ
१. प्रजा वा अरी: । श० ३.९.४.२१
२. पृ पालनपूरणयोः, जुहोत्यादिः । पर=पिपृहि।विकरणव्यत्यय, लोट् ।।
३. संविदाम् संविदताम् । विद ज्ञाने, लोपस्त आत्मनेपदेषु, पा० ७.१.४१से तकार-लोप।
हे माँ -रामनाथ विद्यालंकार