हे बली! वायुवेग से चल -रामनाथ विद्यालंकार

हे बली! वायुवेग से चल -रामनाथ विद्यालंकार 

 ऋषिः बृहस्पतिः । देवता वाजी । छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् ।

वातरम्हा भव वाजिन् युज्यमानऽइन्द्रस्येव दक्षिणः श्रियैधि। युञ्जन्तु त्वा मरुतो विश्ववेदसऽआ ते त्वष्टा पत्सु जवं दधातु ॥

-यजु० ९।८

हे ( वाजिन्) बली मनुष्य ! तू (नियुज्यमानः ) कर्म में नियुक्त होता हुआ (वातरंहाःभव ) वायु के समान वेगवाला हो। ( इन्द्रस्य इव ) राजा की तरह ( श्रिया) लक्ष्मी से ( दक्षिणः ) सम्पन्न ( एधि ) हो। ( युञ्जन्तु ) कार्यों में प्रेरित करें ( त्वा ) तुझे (विश्ववेदसः ) सकल विद्याओं के वेत्ता ( मरुतः ) विद्वान् जन । ( त्वष्टा ) जगत् का शिल्पी परमेश्वर ( ते पत्सु ) तेरे पैरों में (जवं ) वेग ( आ दधातु ) ला देवे ।

हे वीर ! संसार तुझे बली कहता है और तू भी स्वयं को बली मानता है। तो फिर मरियल चाल से क्यों चल रहा है? क्या इस उदासी- भरे मन और निष्क्रिय चाल से तुझे सङ्कोच नहीं होता? तू यह भी नहीं सोचता कि जग क्या कहेगा। तेरे बल को धिक्कारेगा या सराहेगा। | हे बली ! उड़, वायुवेग से उड़। बैलगाड़ी का युग नहीं रहा, वायुयान से यात्रा कर। जलपोत में बैठकर जहाँ तू चार दिन-रात में पहुँचेगा, वहाँ वायुयान से पाँच घण्टे में पहुँच जाएगा। करने को बहुत कुछ है, समय कम है। अत: प्रत्येक कार्य तीव्र गति से कर। आज के वैज्ञानिक आविष्कारों का भी लाभ उठा। वायुवेग से भी नहीं, मनोवेग से उड़। मन एक सेकेण्ड में अमरीका पहुँच जाता है। तू बेलगाड़ी से भूमि पर चलेगा, नाव से समुद्र पार करेगा, तो हिसाब तो लगा कि अमरीका कितने महीनों में पहुँचेगा। केवल यात्रा में ही तेजी लाने के लिए मैं तुझे नहीं प्रेरणा दे रहा हूँ। यात्रा तो उपलक्षण है, उदाहरण है, सब कार्यों में तुझे तेजी लानी होगी। परन्तु एक बात याद रख। कार्य में अन्धाधुन्धी भी नहीं करनी है। सोच-विचार कर पहले निर्णय कर ले कि किस कार्य को करना है, कैसे करना है, कितने समय में करना है, यह कार्य व्यर्थ तो सिद्ध नहीं होगा या यह कार्य सामूहिक जगत् में उपहसनीय अथवा निन्दनीय तो नहीं होगा। ‘इन्द्र’ की प्रेरणा में चल, ‘वृत्र’ की प्रेरणा में नहीं। इन्द्र ऐश्वर्य, वीरता, सत्य शिव-सुन्दर सबका प्रतिनिधित्व करता है, वृत्र प्रतिनिधि है। अन्धकार, पर-पीड़ा, आच्छादन, संहार, आतङ्क का। इन्द्र की प्रेरणा से कार्य-तत्पर होगा, तो यश मिलेगा, अभिनन्दन होंगे, जयकार होगा। वृत्र की प्रेरणा से चलेगा, तो अपयश हाथ लगेगा, मनीषियों के बीच हास्यास्पद होगा। इसलिए तेजी से तो चल, किन्तु ऐसी तेजी मत ला कि यह भी न सोचे कि चलना किधर है। इन्द्र की प्रेरणा में चलकर इन्द्र के समानश्री-सम्पन्न बन। |

कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व सब विद्याओं के विज्ञानी विद्वान् लोगों से भी परामर्श कर ले कि यह कार्य किस सीमा तक लाभ या हानि पहुँचा सकता है। उन अनुभवी विद्वानों से सहमति प्राप्त करके ही कार्य आरम्भ कर । यदि वे तेरी योजना में कुछ संशोधन करना चाहें, तो संशोधन कर ले। यदि वे उस योजना को रद्द करके तुझे कोई अन्य योजना बनाने की राय दें, तो उस पर विचार कर ले।

त्वष्टा’ प्रभु अखिल ब्रह्माण्ड का शिल्पी है। वही सुविचारित कार्यों को सफल करता है। उसका भी आशीर्वाद ग्रहण कर ले। त्वष्टा प्रभु तेरे पैरों में वेग ला देवे। पैर सभी इन्द्रियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। त्वष्टा प्रभु तेरे शरीर की प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय

और कर्मेन्द्रिय में बल और वेग उत्पन्न कर दे, जिससे तू प्रत्येक कार्य त्वरित गति से कर सके। ‘त्वष्टा’ का अर्थ सूर्य भी होता है, सूर्य के पैर उसकी किरणें हैं। सूर्य-किरणों या सूर्य-प्रकाश की गति प्रति सेकेण्ड ३ लाख कि० मीटर है। उससे भी शिक्षा लेकर सब कार्य द्रुत गति से कर। अन्यथा मृत्यु के समय तू पछतायेगा कि इस जीवन में ये- ये कर्म हो सकते थे, मैंने तो कुछ भी नहीं किया। जा, कार्यक्षेत्र में उतर, वायुवेग से चल, मनोवेग से चल, सफलता तेरे चरण चूमेगी।

हे बली! वायुवेग से चल -रामनाथ विद्यालंकार 

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