हे प्रभु, यजमान की पुकार सुनो -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः देववातः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।
अग्ने सर्हस्व पृतनाऽअभिमतीरपस्य। दुष्टरस्तरन्नरातीर्वचधा यज्ञवहसि ॥
-यजु० ९ । ३७ |
( अग्ने) हे अग्रनायक वर्चस्वी परमात्मन्! आप (पृतना: ) सेनाओं को ( सहस्व ) पराजित करो, ( अभिमाती: ) अभिमानवृत्तियों को ( अपास्य ) दूर करो। ( दुष्टर: ) दुरस्तर आप ( अरातीः३) अदानवृत्तियों को एवं अदानी रिपुओं को ( तरन्) तरते हुए, तिरस्कृत करते हुए ( यज्ञवाहसि) यज्ञवाहक यजमान के अन्दर ( वर्चः धाः५) वर्चस्विता को धारण करो।
हे परमेश्वर ! आप अग्रनायक और जलती आग के समान जाज्वल्यमान, तेजस्वी, वर्चस्वी होने के कारण ‘अग्नि’ कहलाते हो। आप अपनी ज्वाला से मुझे भी प्रज्वलित कर दो। मुझे ऐसा बना दो कि कितनी ही शत्रु-सेनाएँ मुझसे लोहा लेने के लिए आयें, सब मुझसे पराजित हो जाएँ। अध्यात्म में काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या, द्वेष, अनुत्साह, अकर्मण्यता आदि की सेनाएँ मझे दबोचना चाहती हैं और बाहर मुझे तथा मेर राष्ट्र को परास्त करके अपने अधीन करना चाहने वाली शत्रु सेनाएँ नीचा दिखाना चाहती हैं। आप मुझे ऐसी शक्ति दें कि मैं इन पर विजय प्राप्त कर सकें। अनेक अवसरों पर कठिनाइयों का पराजय तो मैं आपकी कृपा से करता हूँ, किन्तु अभिमान मुझे अपनी महत्ता का हो जाता है। इन अभिमातियों को, अभिमानवृत्तियों को भी आप चकनाचूर करके मुझमें विनय का बीजारोपण कीजिए। हे जगदीश्वर ! आप दुस्तर हैं, किसी से हारनेवाले नहीं हैं, अपितु जहाँ कहीं भी अमानवीयता दृष्टिगोचर होती है, उसे आप भस्मसात् करके राक्षस को मानव बना देते हो। अत: मेरे अन्दर भी जो अराति या अदान वृत्तियाँ पनप रही हैं, जिनके कारण मैं परोपकार में संलग्न नहीं होता हैं, उन्हें तिरस्कृत करके मुझे उद्भट दानी बना दीजिए। आप मुझे उदासीन, निस्तेज, बुझा हुआ भी मत रहने दीजिए, प्रत्युत मेरे अन्दर वर्चस्विता, उत्साह, अग्रगामिता, आशावादिता आदि उत्पन्न करके समाज में ऐसा उत्साही और तेजस्वी बना दीजिए कि जहाँ भी मैं अन्याय, अत्याचार आदि देखें, उसे कुचल डालँ।।
हे अन्तर्यामी ! मैं आज यजमान बना हूँ, यज्ञ का व्रती बना हूँ। यज्ञ शब्द देवपूजा, संङ्गतिकरण और दान अर्थवाली यज धातु से निष्पन्न होता है। अतः आप मुझे ऐसा आत्मबल दीजिए कि मैं देवपूजक बनूं, सत्कार्यों के सङ्गठन में भागीदार बनूं और अपने तन, मन, धन का दूसरों की भलाई के लिए दान कर सकें। हे प्रभु, मेरी इन सदिच्छाओं को पूर्ण कीजिए, मुझे सच्चे अर्थों में यज्ञवाहक बनाइये ।।
पाद-टिप्पणियाँ
१. अप-असु क्षेपणे, दिवादिः ।
२. दुष्टर: दुःखेन तर्तुं शक्यः ।
३. अराती:-न रा दाने, क्तिन्, अराति: ।
४. यज्ञवाहस् सप्तमी एकवचन।।
५. धाः अधाः । बहुलं छन्दस्यमायोगेऽपि पा० ५.४.७५ से अडागमका निषेध। लिङर्थ में लुड्।
हे प्रभु, यजमान की पुकार सुनो -रामनाथ विद्यालंकार