हे जननायक! विक्रम दिखा -रामनाथ विद्यालंकार

हे जननायक! विक्रम दिखा

ऋषिः अगस्त्यः । देवता विष्णुः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

उरु विष्णो विक्रमस्वरु क्षयाय नस्कृधि। घृतं घृतयोने पिब प्रम॑ य॒ज्ञपतिं तिर स्वाहा।

-यजु० ५। ३८

( विष्णो) हे व्यापक प्रभाववाले जननायक! तू ( उरु ) बहुत अधिक (विक्रमस्व) विक्रम दिखा, ( उरु) बहुत अधिक ( क्षयाय ) निवास के लिए ( नः कृधि ) हमें कर, पात्र बना। (घृतयोने ) हे घृत के भण्डार ! ( घृतं पिब ) घृत पी, पिला। ( यज्ञपतिं ) यज्ञपति को ( प्र प्र तिर) प्रकृष्टरूप से बढ़ा। (स्वाहा ) एतदर्थ हम देय कर की आहुति देते हैं। |

हे विष्णु ! हे व्यापक प्रभाववाले जननायक! तुम विक्रम दिखाओ। जब तक विक्रम नहीं दिखाओगे, तब तक रिपुदल तुम्हें अकर्मण्य, निष्प्रभाव, गौरवरहित, बाल भी बांका न कर सकनेवाला समझता रहेगा। शत्रुदल पर आक्रमण कर दो, उसके छक्के छुड़ा दो, उसे हमारे राष्ट्र के प्रति दुर्भावना रखने का स्वाद चखा दो, उसे विनाश के कगार पर पहुँचा दो। यदि तुम नीति के रूप में शत्रु को विनष्ट नहीं भी करना चाहते हो, तो कम से कम आतङ्कित तो कर ही दो। ऐसा तो कर दो कि वह तुम्हारा लोहा मानने लगे। फिर तो वह स्वयं ही सन्धिका प्रस्ताव लेकर तुम्हारे पास आयेगा। |

हे नेतृत्वकुशल, जनरंजक वीर ! जहाँ तुम शत्रुपराजय या रिपुदलभञ्जन का कार्य करोगे, वहाँ प्रजाओं के महान् निवासक भी बनो। सर्वजनोपकारी रचनात्मक कार्यों द्वारा हमारे लिए सुखकारी बनो। हमारा धर्म में निवास कराओ, धैर्य में निवा कराओ, ऐश्वर्य में निवास कराओ, वीरता में निवास कराओ, उच्चता में निवास कराओ, दिव्यता में निवास कराओ।

हे जननायक! तुम राष्ट्र में घृत की योनि हो, घृत के घर हो, भण्डार हो। घृत सब प्रकार की समृद्धि का प्रतीक है। जो भी राष्ट्र में दुग्ध, घृत, मधु, धनधान्य आदि की विपुल समृद्धि दृष्टिगोचर होती है, उसके कारण तुम ही हो। उस समद्धि का तम स्वयं भी उपभोग करो तथा प्रजाजनों को भी कराओ।

अन्त में एक बात पर हम तुम्हारा ध्यान और आकृष्ट करते हैं। राष्ट्र में दो प्रकार के व्यक्ति तुम्हें मिलेंगे। कुछ यज्ञपति हैं और कुछ कृपण हैं। जो यज्ञपति हैं, वे यज्ञभावना को अपने अन्दर धारण करते हुए सदा दूसरों का उपकार करते रहते हैं। दूसरे जो कृपण हैं, वे सारे धन-धान्य को अपने पास समेटने का यत्न करते रहते हैं, अन्य लोग जीते हैं या मरते हैं, इसकी उन्हें कुछ चिन्ता नहीं होती। हे जननायक! हमारा तुमसे निवेदन है कि तुम यज्ञपतियों को ही उत्साहित करो, बढ़ाओ, सरसाओ, इसके विपरीत जो स्वार्थी लोग हैं, उन्हें किसी प्रकार का बढ़ावा न देकर हतोत्साह करो।। |

हमारी उक्त सब प्रार्थनाएँ तुम पूर्ण कर सको, एतदर्थ हम ‘स्वाहा’ करते हैं, कर रूप में नियत अपना भाग स्वाहा की भावना से प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें अर्पित करते हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. विष्लू व्याप्तौ । वेवेष्टि व्याप्नोति स्वप्रभावेण सर्वत्र यः सः ।।

२. क्षि निवासगत्योः । क्षयो निवासे पा० ६.१.२०१, आद्युदात्त क्षय शब्द | निवासवाचक होता है, विनाशवाचक अन्तोदात्त होता है।

३. घृतं योनौ गृहे यस्य स घृतयोनिः । योनि-गृह, निघं० ३.४।

४. प्रतिरतिवर्द्धयति ।

हे जननायक! विक्रम दिखा

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