हमने ज्ञान-कर्म-भक्ति की त्रिवेणी बहायी हैं-रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः विदर्भि: । देवता अश्विसरस्वतीन्द्राः । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।
समिद्धोऽअग्निरश्विना तृप्तो घर्मो विराट् सुतः। दुहे धेनुः सरस्वती सोमेशुक्रमिहेन्द्रियम् ॥
-यजु० २०५५
( अश्विना ) हे व्यापक गुणोंवाले वानप्रस्थी-संन्यासी ! हमने ( समिद्धः अग्निः ) प्रदीप्त कर लिया है ज्ञानाग्नि को, ( तप्तः घर्मः ) तपा लिया है कर्मयोगरूप यज्ञकुण्ड को, (विराट् सुतः ) विशाल रूप में भक्तिरस प्रवाहित कर लिया है। ( दुहे’ ) दुह रही है (इह ) इस जीवन में ( सरस्वती धेनुः ) वेदमातारूप गाय ( सोमम्) शान्ति को, (शुक्रम् ) पवित्र यश को, और ( इन्द्रियम् ) आत्मबल को।।
क्या तुम हमें पहचान रहे हो कि हम कौन हैं? नहीं पहचान सकोगे। किसी समय तुमने हमें महा अज्ञानी, अकर्मण्य और नास्तिक देखा था। आज हम प्रभुकृपा से और सन्तों के संग से कुछ और ही हो गये हैं। हमने अपने जीवन में ज्ञान की अग्नि प्रदीप्त कर ली है। विद्वानों के पास बैठकर वेद वेदाङ्गों का अध्ययन किया है, उपवेद पढ़े हैं, षड्दर्शनों का रहस्य पता लगाया है, चौंसठ कलाओं में से भी कुछ कलाएँ सीखी हैं, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के ग्रन्थों का भी अवलोकन किया है। फिर भी हम जानते हैं कि हमारा यह ज्ञान समुद्र में बूंद के समान है। अत: अपने ज्ञान का हमें अभिमान नहीं है। हम अब भी विद्यार्थी बने हुए हैं। ज्ञानाग्नि के संग्रह के साथ-साथ हमने कर्मयोगरूप यज्ञ का चूल्हा भी तपाया है, कर्मकाण्ड की शिक्षा भी प्राप्त की है। मनुष्य के जो कर्तव्य कर्म हैं, उनका भी पालन किया है। धर्म के धृति क्षमा आदि दसों अङ्गों को अपने जीवन में क्रियान्वित किया है। फिर ज्ञान और कर्म के साथ भक्तिरस भी प्रवाहित किया है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि योगाङ्गों का अभ्यास करके प्रभुभक्ति में लीन होकर प्रभु का प्रसाद प्राप्त किया है। ब्रह्मानन्द की सरिता अपने अन्तरात्मा में बहायी है। प्रभु के सखा बनकर उनके साथ अध्यात्म-झूले में झूलने का प्रयास किया है। प्रभु के साथ आनन्द-तरंगिणी में तैरने का सौभाग्य अधिगत किया है। इस प्रकार हमारे जीवन में अब ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिवेणी बह रही है।
हमें सरस्वतीरूपा कामधेनु का दुग्धामृत भी प्राप्त हो रहा है। वेदमाता सरस्वती ने हमें जीवन में सोमरस दिया है, शान्ति दी है, शुक्र’ अर्थात् पवित्र यश प्रदान किया है। ‘इन्द्रिय अर्थात् आत्मबल दिया है। इस शान्ति, पावन यश और आत्मबलरूप दूध के आस्वादन से हम कृतकृत्य हो गये हैं, धन्य हो गये हैं। |
हे व्यापक गुणोंवाले वानप्रस्थ और संन्यासीरूप अश्विनी कुमारो! हमारी इस उपलब्धि में तुम्हारा उपदेश और तुम्हारी कृपा भी कारण है। अतः हम तुम्हें नमन करते हैं।
पाद-टिप्पणियाँ
१. दुह प्रपूरणे। दुहे=दुग्धे। ‘लोपस्त आत्मनेपदेषु’ पा० ७.१.४१ से त | का लोप।।
२. शुक्रम्, शुचिर पूतीभावे, औणादिक रन् प्रत्यय ।।
३. इन्द्रेण आत्मना जुष्टम् इन्द्रियम् आत्मबलम्।
हमने ज्ञान-कर्म-भक्ति की त्रिवेणी बहायी हैं-रामनाथ विद्यालंकार