हदय को स्वास्थ्य -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः सिन्धुद्वीपः । देवता वायुः । छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।
सं ते वायुर्मातरिश्वा दधातूत्तानाय हृदयं यद्विकस्तम्। यो देवानां चरसि प्राणथेन कस्मै देव वर्षडस्तु तुभ्यम् ॥
-यजु० ११ । ३९ |
हे नारी! ( उत्तानायाः) चित्त लेटनेवाली ( ते ) तेरा ( हृदयं ) हृदयं ( यद् विकस्तम् ) जो बढ़ गया है, या किसी अन्य विकार को प्राप्त हो गया है, उसे ( मातरिश्वा वायुः ) अन्तरिक्ष में चलनेवाला वायु ( सं दधातु ) स्वस्थ कर देवे । ( यः ) जो हे मातरिश्वा वायु ! तू ( देवानां ) विद्वानों के ( प्राणथेन) प्राणरूप में ( चरसि ) चलता है, ( कस्मै ) उस सुखदायक ( तुभ्यं ) तेरे लिए ( वषट् अस्तु) स्वाहा हो, अर्थात् अग्नि में घृत तथा ओषधियों की आहुति हो।
शरीर में रक्तसंस्थान का केन्द्र हृदय है। शरीर का अशुद्ध रक्त शिराओं द्वारा हृदय के दक्षिण प्रदेश में आता है। हृदय शुद्ध होने के लिए उसे फुप्फुस में सूक्ष्म रक्त-केशिकाओं में भेज देता है। जब शुद्ध वायुमण्डल से श्वास द्वारा शुद्ध वायु फुप्फुस में पहुँचता है, तब वह शुद्ध वायु अशुद्ध रक्त से सम्पर्क करके उसकी मलिनता को अपने अन्दर ले लेता है। और शुद्ध प्राणवायु (ऑक्सिजन) रक्त में भेज देता है, जिससे रक्त शुद्ध होकर हृदय के वामप्रकोष्ठ में चला जाता है। वहाँ से बृहद् धमनि द्वारा छोटी धमनियों में होता हुआ सारे शरीर में पहुँच जाता है। पुनः शरीर की मलिनता को ग्रहण करके अशुद्ध होकर शुद्ध होने के लिए हृदय में आता है। इस प्रकार हृदय समस्त रक्त-संस्थान को नियन्त्रण में रखता है। यदि यजुर्वेद ज्योति हृदय किसी कारण घट-बढ़ जाए, उसके कलेवर में शोथ आ जाए, उच्च रक्तचाप या निम्न रक्तचाप हो जाए, या किसी अन्य प्रकार का हृदयरोग हो जाए, तो उसे स्वस्थ करने का उपाय मन्त्र में प्राणायाम बताया गया है। मन्त्र नारी के हृदयरोग के विषय में है। हृदयरोग का कारण अधिक उत्तान या चित लेटना या शयन करना भी हो सकता है, यह मन्त्र से सूचित होता है। आकाशवर्ती स्वच्छ वायु को ‘मातरिश्वा वायु’ कहा गया है। निरुक्तकार कहते हैं कि वायु को मातरिश्वा कहने का कारण यह है कि वह निर्माता आकाश में गति करता है। अथवा निर्माता अन्तरिक्ष में शीघ्र-शीघ्र प्राण देने की क्रिया करता है। हे नारी! उत्तान सोने के कारण जो तेरा हृदय बढ़ गया है, उसमें सूजन आ गयी है, धड़कने की गति कम या अधिक हो गयी है, तो प्राणवायु उचित प्राणायाम के द्वारा उसे स्वस्थ कर सकता है, हृदय के किस रोग में कौन सा प्राणायाम अपेक्षित है, यह योगक्रिया-विशेषज्ञ लोग बतलायेंगे। उनके निर्देश के अनुसार तू प्राणायाम कर।।
मन्त्र के उत्तरार्ध में हृदयरोगनिवारण के लिए किन्हीं विशेष ओषधियों की अग्नि में आहुति डालना अर्थात् यज्ञचिकित्सा करना उपाय बताया गया है। हे मातरिश्वा वायु ! तू प्राणदाता के रूप में प्रसिद्ध है, तेरे लिए हम ‘स्वाहा’ या ‘वषट्’ उच्चारण करते हुए आहुति डालते हैं। ओषधियों की सुगन्ध से सुवासित होकर तू हृदयरोग से ग्रस्त महिला के फुप्फुसों में जाकर रक्त से सम्पर्क करके रक्त का शोधन कर। इस प्रकार रोगिणी को हृदयरोग से मुक्त कर दे। यद्यपि मन्त्र हृदयरोगिणी महिला के विषय में है, तथापि हृदयरोगा पुरुष के लिए भी ये दोनों उपचार करना लाभदायक हो सकता है।
पाद टिप्पणियाँ
१. कस गतौ, भ्वादिः । विकस्तं=विकसितम्।।
२. मातरिश्वा वायुः, मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति, मातरि आशु अनितीतिवा। निरु० ७.३, मातरिश्वस्, अथवा मातरि-शु-अन् (अन प्राणने) ।।
हदय को स्वास्थ्य -रामनाथ विद्यालंकार