स्वाहा सुन्दर आहुति हैं । वह आहुति जिस ऋतु अनुसार इस समय के रोगों को नाश करने के लिये डाली जाय । बुखार के दिनों में चिरायता, गिलोय इत्यादि ज्वर नाशक पदार्थ हो । अन्य व्यधियों में उन्हीं के लिये उपयोगी सामग्री हो यह स्वाहा हैं।
सामग्री में मिष्ट, पुष्टि प्रद, रोग नाशक तथा सुगन्धि युक्त सभी प्रकार पदार्थ हों।
सौषधि सेवन तीन रूपों में होता है । एक तो ठोस वस्तुओं को पीस कर कूट कर, पाक बना कर दूसरा द्रव रूप अर्थात् जोशादा तथा अर्क अथवा शर्वत की अवस्था में, तीसरे वायु में मिलाके, बाष्प तथा धूम के रूपमें।
पहिला प्रकार अतीव स्थूल है। इस से लाभ तो हैं परन्तु मल अधिक बनता है । इस विधि से सूक्ष्म विधि जला कार है। फोग निकाल कर औषधि का सार पानी में हल कर देते हैं इस के प्रयोग से मल बनता है परन्तु थोड़ा । इस विधि से भी सूक्ष्म वायु रूप है। वावु का प्रवेश उन अङ्गों में हो सकता है यहां जल तथा पाक न जा सकें। यह लाभ भी हो जाय और मल भी न बने । रोग नाश का यह विधि उत्तम विधि है।
उदाहरण सौफों का सेवन ही ले लीजीये । सौफों के फाकने से उदर शुद्ध होता है । सौकों के अरक से भी यह काम निकल आता है परन्तु सुभीता अधिक रहता है । कहीं यह विधि न चल सके तो वैद्य रोगी के शरीर को कपड़े के अन्दर लपेट कर अन्य प्रकार के वायु को रोक कर सौफों की धूनी देते हैं । पसीने में मल निकल जाता है।
एमेरिका में बुखार के दिनों में उबला हुवा क्वीनीन नालियों में वहा छोड़ते हैं जिससे ज्वर नाशक वाष्प वायु में फैल जायें और रोग नष्ट हो ।
पाठक इस तत्त्व को स्वयं जानता होगा कि ठोस से द्रव और द्रव से मारूत रूप अग्नि द्वारा प्राप्त होता है । अग्नि पर भट्ठी चढ़ा कर अरक निकालते हैं और अग्नि का अधिक प्रयोग करके वाष्प बनाते हैं । यही यज्ञ है।
___ “हु” धातु का अर्थ दान है । सुन्दर आहुति सुन्दर दान है। जिस प्रकार संसार का उपकार यज्ञ द्वारा होता है वैसा किसी और प्रकार ले नहीं होता । आहुति मारुत रूप में जगत् भर में फैल जाती है।
__”हु” धातु का अर्थ खाना भी होता है । सो सुन्दर आहुति सुन्दर खाना भी है । ठोस तथा द्रव खाने से मारुत खाना अच्छा है । क्योंकि एक तो सूक्ष्म होने से सुगमतया ग्राह्य है । न बालक ही इससे नाक मुंह सिकोड़ता है न वृद्ध । दूसरा मल रहित है । पहुंच भी नाड़ी नाड़ी नस नस में जाता है।
___ स्वाहा का तीसरा अर्थ है अच्छा कहा हुवा । स्वामी जी यज्ञ में स्वाहा शब्द के प्रयोग का प्रयोजन यह बताते हैं कि जो मन में हो वह वाणी में आए और जो वाणी में आये वह शरीर द्वारा अनुष्ठान किया जाये।
हवन में वेद मंत्र पढ़ने का विधान इस लिये है। अग्नि होत्र का चिन्ह मात्र तो अब भी आर्य जाति में शेष रह गया है । कच्ची ईट पर जो शुद्ध मट्टी की बनी हुई हो, जंडी की दों शाखायें जला कर उस पर थोड़ा सा सुगन्धित पदार्थ डाल लेते हैं । वृद्धो यह क्रीड़ा क्यों करते हो । कहेंगे देवताओं की प्रसन्नता के लिए । अर्थ न देवों का आता है न प्रसन्नता का । वास्तव में अग्नि जल आदि ही देव हैं और इनकी शुद्धि प्रसन्नता कहाती है । संस्कृत में प्रसन्नता का अर्थ मल शून्यता है। शकुन मात्र शेष रहने का कारण यही है कि वास्तविक अग्निहोत्र के पूरे निधान तथा प्रयोजन का पता नहीं । स्वाहा सार्थक नहीं रहा।
___ अग्निहोत्र में जो मंत्र पढ़े जाते हैं उन मंत्रों में से एक एक में अग्निहोत्र का माहात्म्य, उसके लाभ विधि तथा फल को कविता के तत्त्वद्योतक प्रकार से दर्शाया गया है।
___ इन मंत्रों का रटन मात्र पर्याप्त नहीं । स्वाहा तो उस मंत्र के पीछे यथार्थ होगा जिसका अर्थ मन में स्फुरित हो
और डच्चारण जिह्वा से कियाजाय । तत्पश्चात् शारीरिक व्वव हार उसके प्रतिकूल न हो, अनुकूल हो। मन वाणी तथा काया के एक स्वर, एक ताल में आजाने को स्वाहा कहते हैं।
योगी का वचन निष्फल कहीं होता । जिस वाक्य की पुष्टि में, मानसिक दृढ़ता हो, वह अमोघ है । आधे से अधिक जगत् पर हमारे मन की शक्ति का राज्य है । प्रार्थना और सङ्कल्प वल शाली यत्न है । स्वामी दयानन्द समाधि में हैं। एक वैश्या उनकी पवित्रता नष्ट करने की इच्छा से जाती है। साहस नहीं होता कि योगी के व्रत का अनिष्ट चाहे । दूसरी वार वलात् भेजी जाती है तो वैश्यावृत्ति को ही छोड़ बैठती
सामूहिक सङ्कल्प संसार भर का तख्ता पलटने वाली, सेना से बढ़ कर है । जहां अनेक मन एक सूत्र में पिरोये जाकर एक माला के दाने बन गये हों उनका एक जप, एक तप, एक समाधि तथा संयम हो वहां सो सिद्धि मनोरथ की परिचा रिका होगी।
__ आज संसार मलिन है। अशुभ विचार, अशुभ आचार, अशुभ व्यवहार का राज्य है । इसका और क्या कारण है ? पही कि संसार की सामूहिक कामना शुभ नहीं । आर्य यत्न करे तो वेदों के पठन पाठन वेदों के मनन निधिध्यासन से भौर नहीं तो अपनी २ गली से गाली गलोच, कलह कोलाहल सेठनियां दोहे दूर कर सकते हैं।
गुरुकुल में बालक आता है । गन्दी गलियों का आवारा गर्द बच्चा गालियां बकता है । कोई स्पष्टतया इनका निषेध नहीं करता । समय बीतने यह स्वयं ही बकवाद छोड़ वेदभाषी हो जाता है । कारण कि वहां का वायु–मण्डल पवित्र है, आकाश वेदमय है।
मनुष्य का कहा वाक्य व्यर्थ नहीं जा सकता । बिना तार के और तार सहित शब्दों के एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने तथा ग्रामोफोन आदि यन्त्रों में सुरक्षित रहने से स्पष्ट है कि शब्द नष्ट नहीं होते हैं, वायु में अटक जाते हैं। और जो अन्तःकरण उस वायु में आता है उस पर प्रभाव डालते हैं।
एक महाशय एक स्थान का वर्णन करते हैं कि वहां बैठे हुवे मनुष्य के शिर पर से गुजरते हुवे कव्वे, चीलें तथा ऐसे और अबोध पक्षी तक “सोऽहम्” का उच्चारण करते थे। उस स्थान से पृथक् हुवे सो वहीं कांय २ चूँ चूँ परन्तु वहां फिर आये तो सोऽहम् ।
उन्हों ने इसको निदान जानना चाहा ! उन्हें बताया गया कि वहां तपस्वियों ने निरन्तर सोऽहम् का जाप किया है। किसी पाप के कारण पक्षी योनि प्राप्त होगई है । उनका साधारण आलाप तो उसी योनि विशेष का आलाप है । जब इस स्थान पर आए हैं तो पिछला अभ्यास स्मरण आता है और विवश सोऽहम् कह उठते हैं।
इस समाधान से उनका सन्तोष न हुवा । अन्त में किसी योगी उसने उनकी शङ्काएँ निवृत्त की कि कथित स्थान किसी योगी की कुटी था । सदैव के जापसे सोऽहम् शब्द वहां के वायु में जम गया है जैसे ग्रामोफोन के रिकार्ड पर कोई भी सुई चलावो! वही शब्द निकलेगा जो रिकार्ड की रेखाओं में रक्षित हैं। ऐसे ही इस स्थान पर जो भी शब्दोत्णदक कला लाई जावेगी ध्वनि वही सोऽहम् ही निकलेगी।
सन्ध्या का समीचीन स्थान एकान्त है। आदि में जबकि अभ्यास नहीं सन्ध्या समूह सहित करनी चाहिये । जब चित्त वृत्ति एकाग्र हो जाए, और अकेले आंखें मूंदने पर संकल्प विकल्प व्याकुल न करें तो सन्ध्या मन में ही करनी उचित है। इसके विपरीत हवन सदैव समूह सहित करने का यज्ञ है। योगी भी हवन करें तो औरों में बैठ कर, और ऊंची स्वर से मंत्रों का पाठ करके । यदि आर्यसमाजी गली गली में यज्ञशाला निर्माण कराएं और उसमें नित्यं प्रति देव यज्ञ का अनुष्ठान करें तो उनकी सम्मिलित स्वर इकडे वेद मन्त्रोच्चारण, एक साथ आहुति प्रक्षेपण, एकीकृत संकल्प, एक क्रिया से जाति तो जाति, संसार भर का कितना भूला हो । अणु २ में वेद छा जाएँ घर २ में वेदों का नाद हो । भवन वेदमय हो जिह्वा वेदमय हो । देह वेदमय हो। आत्मा वेदमय हो।