स्वयं उन्नति के सोपान पर चढ़-रामनाथ विद्यालंकार

स्वयं उन्नति के सोपान पर चढ़-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः प्रजापतिः । देवता आत्मा। छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

स्वयं वार्जिंतुन्व कल्पयस्व स्वयं य॑जस्व स्वयं जुषस्व। हिमा तेऽन्येन सुन्नशे

-यजु० २३.१५

( स्वयं ) स्वयं ( वाजिन्) हे बली आत्मन् ! तू ( तन्वं कल्पयस्व ) शरीर को समर्थ बना, ( स्वयं यजस्व ) स्वयं यज्ञ कर, ( स्वयं जुषस्व ) स्वयं फल प्राप्त कर। ( ते महिमा ) तेरी महिमा ( अन्येन न सन्नशे४) दूसरे के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती। |

हे मेरे आत्मन् ! क्या तू इस बात की प्रतीक्षा कर रहा है। कि कोई तुझे सोते से जगाने आयेगा, उठाने आयेगा, कर्मतत्पर करने आयेगा, सफलता दिलाने आयेगा। यदि ऐसा है, तो तू भूल में पड़ा है। तू अपनी शक्ति को पहचान। तू तो ‘वाजी’ है, बलवान् और वेगवान् है। ‘वाज’ का अर्थ संग्राम भी होता है। तू संग्रामवान् भी है। रण उपस्थित होने पर तू उसमें वीरता दिखानेवाला है, आन्तरिक और बाह्य दोनों शत्रुओं से जूझनेवाला है। तुझे स्वयं जागना होगा। क्या शेर को कोई जगाने जाता है। जाग, उठ, शत्रु से लोहा ले, विजयी हो। स्वयं तू अपने शरीर को समर्थ बना, परिपुष्ट बना। यदि तू शरीर से निर्बल है, तो दूसरा कोई तेरे शरीर को बलवान् बनाने नहीं आयेगा, तुझमें प्राण फेंकने नहीं आयेगा। स्वयं उत्साह दिखा, स्वयं पुरुषार्थ कर, स्वयं उद्यमी हो, स्वयं शरीर में बल का सञ्चय कर। ‘‘बल से ही पृथिवी टिकी है, बल से ही अन्तरिक्ष टिका है, बले से ही द्युलोक टिका है। बले से ही पर्वत टिके हैं। बल से ही देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, तृण, वनस्पति स्थित हैं। बल के सहारे ही हिंस्र जन्तु स्थित हैं। बड़े से लेकर कीट पतङ्ग-चींटी तक सब बल की दुहाई दे रहे हैं। बल से ही सारा लोक स्थित है।

शरीर को सामर्थ्यवान् बनाकर निकम्मा मत बैठा रह, न ही दूसरों को सताने में या सुधरी बात को बिगाड़ने में सामर्थ्य का उपयोग कर। शरीर को समर्थ बनाकर यज्ञ में जुट जा, लोकहित के कार्यों में रुचि ले, परोपकार को अपना आदर्श बना। देवपूजा का यज्ञ रचा, सङ्गतिकरण का यज्ञ रचा, शुभ कार्य के लिए लोगों को सङ्गठित कर। यह विभिन्न प्रकार का यज्ञ भी तुझे स्वयं ही करना होगा। स्वयं ही प्रारम्भ किये यज्ञ को सफल कर।

याद रख, तू महान् है, महिमावान् है, शक्तिमान् है, सब कुछ कर सकने में समर्थ है। तेरी महिमा को कोई दूसरा प्राप्त नहीं कर सकता।

पाद टिप्पणियाँ

१. तनू, द्वितीया एकवचन= तनूम् । तनू-अम्, छान्दस यणादेश ।

२. यज देवपूजा-सङ्गतिकरण-दानेषु ।

३. जुषी प्रीतिसेवनयोः, तुदादिः, लोट् ।

४. सं-नशतिः आप्नोतिकर्मा । तुमुन् के अर्थ में शे=ए प्रत्यय ।

५. छा० उ०, प्रपाठक ७, खण्ड ८ ।।

स्वयं उन्नति के सोपान पर चढ़-रामनाथ विद्यालंकार  

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