सोम में सुर का मिश्रम-रामनाथ विद्यालंकार

सोम में सुर का मिश्रम-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः प्रजापतिः । देवता सोमः । छन्दः निवृत् शक्वरी ।

स्वाद्वीं त्वा स्वादुना तीव्रां तीव्रणामृतममृतेन मधुमतीं मधुमता सृजामि सश्सोमेन सोमोऽस्यश्विभ्यो पच्यस्व सरस्वत्यै पच्यूस्वेन्द्रय सुत्राणे पच्यस्व ॥

-यजु० १९ । १

हे सुरा! ( स्वाद्वीं) स्वादु, ( तीव्रां ) तीव्र, ( अमृतां ) अमृततुल्य ( मधुमतीं) मधुर ( त्वा ) तुझे ( स्वादुना ) स्वादु, | ( तीव्रण ) तीव्र (अमृतेन ) अमृततुल्य ( मधुमता) मधुर (सोमेन) सोम के साथ ( संसृजामि) संयुक्त करता हूँ, मिलाता हूँ। सोम के साथ मिलकर हे सुरा! ( सोमः असि ) तू सोम हो गयी है। (अश्विभ्यां पच्यस्व) प्राण और अपान के लिए तू परिपक्व हो। ( सरस्वत्यै पच्यस्व) विद्या के लिए परिपक्व हो, (सुत्राणे इन्द्राय पच्यस्व) सुत्राणकर्ता विश्वसम्राट् तथा राष्ट्रसम्राट् के लिए परिपक्व हो । |

आओ, सुरा को सोम के साथ मिलायें। किन्तु सुरा को मदिरा समझने की भूल मत कर बैठना। स्वादी, तीव्रा, अमृता, मधुमती सुरा को स्वादु, तीव्र, अमृत, मधुपान् सोम के साथ मिलायें। ‘सुरा’ है वाक् और ‘सोम’ है मन। शब्दार्थक ‘स्वृ’ धातु से ‘स्वरा’ और व् को उ करके वाणीवाची ‘सुरा’ शब्द बना है। सोम का अर्थ मन प्रसिद्ध ही है, क्योंकि ईश्वरीय मन से ही सोम (चन्द्रमा) की उत्पत्ति हुई है। वाणी स्वादु भी हो सकती है और बेस्वाद भी, तीव्र भी हो सकती है और हल्की भी, अमृतरूप भी हो सकती है और मृत भी, मधुर भी हो सकती है और कटु भी। इसी प्रकार मन भी स्वादु, तीव्र, अमृत और मधुमय भी हो सकता है और बेस्वाद, हल्का, मृत और कटु भी। वाणी को मन में मिलाने का तात्पर्य है मौन हो जाना। जब मनुष्य बोलता है, तब मन वाणी में समाहित हो जाता है और जब मौन होता है, तब वाणी मन में समाविष्ट हो जाती है। मन पहले ही स्वादु, तीव्र, अमृत और मधुर है, वाणी का स्वादुत्व, तीव्रत्व अमृतत्व और मधुरत्व भी उसमें मिलकर मन को और भी अधिक स्वादु, तीव्र, अमृत और मधुर बना देता है। वाणी भी सोम में मिलकर सोम हो जाती है, अर्थात मन में मिलकर मन हो जाती है। मन स्वादता के साथ विचार करता है, तीव्रता के साथ करता है, अमृत अर्थात् सजीवता के साथ करता है, मधुरता के साथ करता है। परन्तु मनुष्य रहता मौन ही है। जितना ही मन किसी विषय में विचार करेगा, उतने ही उस विषय में उसके विचार परिपक्व होंगे। प्राणापान अर्थात् योगाभ्यास के विषय में विचार परिपक्व होते हैं, सरस्वती अर्थात् विद्या के विषय में विचार परिपक्व होते हैं, सुत्रामा इन्द्र अर्थात् सुत्राणकर्ता विश्वसम्राट् तथा राष्ट्रसम्राट् के विषय में विचार परिपक्व होते हैं। इस प्रकार योगाभ्यास, विभिन्न विद्याओं तथा ईश्वरविज्ञान एवं राजनीति विज्ञान के विषय में मन पूर्ण चिन्तन कर लेता है। तब मन में समाविष्ट वाणी मन से बाहर आ जाती है और मन द्वारा चिन्तित ज्ञान-विज्ञान का प्रचार करती है। यह है सुरा को सोम में मिलाने का रहस्य ।।

आओ, हम भी सुरा को सोम में मिलायें, वाणी को मन में संनिहित करके, मौन होकर गम्भीर चिन्तन करें और परिपक्व विचार बनाकर मौन तोड़े तथा वाणी को पुनः प्रवृत्त करके परिपक्व विचारों का प्रचार करें।

पादटिप्पणी

१. चन्द्रमा मनसो जातः । य० ३१.१२

सोम में सुर का मिश्रम-रामनाथ विद्यालंकार  

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