सूर्य सदृस्य कान्ति से हमें रोचिष्णु करो -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः शुनःशेपः। देवता अग्निः। छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।
यास्तेऽअग्ने सूर्ये रुच दिवसातुन्वन्ति रश्मिभिः। ताभिर्नोऽअद्य सर्वभी रुचे जनाय नस्कृधि॥
-यजु० १८ । ४६
( याः ते ) जो तेरी (अग्ने ) हे अग्नि! ( सूर्ये रुचः१ ) सूर्य में कान्तियाँ हैं, जो ( रश्मिभिः ) किरणों से ( दिवम् आतन्वन्ति ) द्युलोक को विस्तीर्ण करती हैं, ( ताभिः सर्वाभिः ) उन सब कान्तियों से ( अद्य) आज (नः रुचे कृधि ) हमें कान्तिमान् कर दो, (जनायरुचे कृधि) राष्ट्र के अन्य सब जनों को भी कान्तिमान् कर दो।
हे अग्नि! तेरी महिमा अपार है। तू पृथिवी पर पार्थिव अग्नि के रूप में विराजमान है। पृथिवी की सतह पर भी तेरी ज्वाला जल रही है और भूगर्भ में भी तू अनन्त ताप को सुरक्षित किये हुए है। अन्तरिक्ष में तू विद्युत् के रूप में प्रकाशमान है और द्युलोक में सूर्य, नक्षत्रों, तारामण्डलों तथा उल्कापिण्डों आदि के रूप में भासमान है। हे अग्नि! तेरी जो कान्तियाँ द्युलोक में रश्मियों के रूप में फैली हुई हैं और जिनसे तू सकल ब्रह्माण्ड को कान्तिमान् किये हुए है, उन कान्तियों से हमें भी कान्तिमान् कर दे। हमारे अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय सारे शरीर कान्ति से तेजस्वी हो उठे। हमारा मन ऐसा तेजोमय, प्रभामय एवं प्रतापवान् हो जाए कि उसके सब सङ्कल्प-विकल्प आभान्वित हो उठे, न कि निस्तेज, उदासीन एवं निष्क्रिय रहें। हमारी बुद्धि ऐसी प्रखर हो जाए कि गूढ़ से गूढ़ रहस्यों को प्रस्फुटित कर सकें। हमारा आत्मा ऐसा सबल, तेजस्वी, प्रभावी और वैद्युत ज्योति से ज्योतिष्मान् हो जाए कि उसका अध्यात्म प्रकाश सकल दैहिक शक्तियों को प्रोज्ज्वल कर दे। हम आध्यात्मिक पुरुष कहलाने के पात्र हो जाएँ। हमारी योगशक्तियाँ प्राञ्जल, दैवी सम्पदा से युक्त, सक्रिय और प्रदीप्त हो उठे। हे अग्नि! हम भी अध्यात्म सम्पत्ति से देदीप्यमान हो जाएँ और हमारे राष्ट्र के अन्य सब जन भी रोचना से रोचिष्मान् बन जाएँ।
हे अग्नि! अपनी द्युलोक की रश्मियों से हम सब राष्ट्रवासियों को रोचिष्णु कर दो।
पाद–टिप्पणियाँ १. रुचः कान्तयः । रुच दीप्तौ अभिप्रीतौ च, भ्वादिः ।।
२. आ-तनु विस्तारे, तनादिः ।
३. रुग्, रुचौ, रुचः । रुचे, चतुर्थी एकवचन ।
४. कृधि कुरु, छान्दस रूप । श्रुशृणुपृकृवृभ्यश्छन्दसि पा० ६.४, १०२ से| कृ धातु से परे लेट् के हि को धि।
सूर्य सदृस्य कान्ति से हमें रोचिष्णु करो -रामनाथ विद्यालंकार