समुद्र में जा, अन्तरिक्ष में जा-रामनाथ विद्यालंकार

समुद्र में जा, अन्तरिक्ष में जा-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः-दीर्घतमाः । देवता-मनुष्यः । छन्दः-क. साम्नी उष्णिक, ख. स्वराड् ब्राह्मी उष्णिक्, र. भुरिग् आर्षी उष्णिक्,| उ. आर्षी उष्णिक्।।

के समुद्रं गच्छु स्वाहाऽन्तरिक्षं गच्छ स्वाहा ख देवसवितार गच्छ स्वाहा मित्रावरुणौ गच्छ स्वाहाऽहोरात्रे गच्छ स्वाहा छन्दांसि गच्छ स्वाहा द्यावापृथिवी गच्छ स्वाहा’यज्ञं गच्छ स्वाहा सोमै गच्छ स्वाहा दिव्यं नभो गच्छ स्वाहाग्निं वैश्वानरं गच्छ स्वाहामनों में हार्दि यच्छदिवे ते धूमो गच्छतु स्वयॊतिः पृथिवीं भस्मनापृ स्वाहा ।।

-यजु० ६। २१ |

हे मनुष्य ! तू (समुद्रं गच्छ) समुद्र में जा ( स्वाहा ) जलयान रचने की विद्या से सिद्ध समुद्रयान द्वारा। ( अन्तरिक्षं गच्छ ) अन्तरिक्ष में जा ( स्वाहा ) खगोल विद्या से रचित विमान द्वारा। ( देवं सवितारं गच्छ) द्योतमान सर्वोत्पादक परमेश्वर को प्राप्त कर (स्वाहा ) वेदवाणी द्वारा।( मित्रावरुण गच्छ ) प्राण और उदान को सिद्ध कर (स्वाहा) प्राणायामाभ्याससहित योगयुक्त वाणीद्वारा। (अहोरात्रे गच्छ) दिन-रात्रि को जान (स्वाहा ) कालविद्या एवं ज्योतिषशास्त्र की वाणी द्वारा। (छन्दांसि गच्छ) ऋग्यजुः साम-अथर्व चारों वेदों को अध्ययन-अध्यापनपूर्वक श्रवण-मनन निदिध्यासन-साक्षात्कार द्वारा ज्ञान का विषय बना (स्वाहा ) वेदाङ्गादि विज्ञानसहित वाणी द्वारा। ( द्यावापृथिवी गच्छ ) सूर्य और पृथिवी को अर्थात् सब देशदेशान्तरों को ज्ञान का विषय बना ( स्वाहा ) भूमियान-अन्तरिक्षयान-भूगोल- भूगर्भ खगोलविद्या द्वारा। ( यज्ञं गच्छ ) अग्निहोत्र, शिल्प, राजनीति आदि यज्ञ को प्राप्त कर ( स्वाहा ) यज्ञविद्या की वाणी द्वारा। यजुर्वेद ज्योति ( सोमं गच्छ ) सोमलता आदि ओषधि समूह को जान और प्रयुक्त कर ( स्वाहा ) वैद्यकशास्त्र की वाणी द्वारा । ( दिव्यं नभःगच्छ) आकाशस्थ वृष्टिजल को प्राप्त कर ( स्वाहा ) विद्युविद्या की वाणी द्वारा । ( मे मनः )   मेरे मन को ( हार्दि यच्छ ) प्रेम प्रदान कर । ( ते धूमः ) तेरी यन्त्रकलाओं की अग्नि का धुआँ और ( स्वः ज्योतिः ) चमकीली ज्योति (दिवं गच्छतु ) आकाश में पहुँचे। तू (पृथिवीं भस्मना आपृण ) भूमि को भस्म से भर दे (स्वाहा ) कल-कारखानों की विद्या द्वारा ।।

हे मानव ! सङ्कल्प करने के लिए तुझे मन मिला है, निश्चयात्पक ज्ञान करने के लिए बुद्धि मिली है, ज्ञान की साधन ज्ञानेन्द्रियाँ तेरे पास हैं, कर्म करने के लिए कर्मेन्द्रियाँ और अङ्ग-प्रत्यङ्ग हैं। तुझ जैसा मूल्यवान् प्राणी ब्रह्माण्ड के किसी कोने में अन्य कोई नहीं है। तू इन साधनों का उपयोग करके उत्कर्ष को प्राप्त कर । प्रकृति की अद्भुत देन अग्नि, जल, वायु, भूमि, खुला आकाश, ओषधि, वनस्पति, पर्वत, समुद्र तुझे परमेश्वर की ओर से बिना मूल्य प्राप्त है। तू अपनी बुद्धि का प्रयोग करके नवीन-नवीन आविष्कार कर, अपने और समाज के लिए नये-नये सुखसाधन जुटा । तू आध्यात्मिक उन्नति भी कर और भौतिक क्षेत्र में भी उन्नति के शिखर पर पहुँच जा । तू योगाभ्यास कर, प्राणायाम की साधना कर, प्राण को ऊपर-ऊपर के चक्रों में ले जाता हुआ ऊर्ध्वारोहण कर। धारणा, ध्यान से समाधि तक पहुँच, अपने प्राण और उदान को सिद्ध कर। प्रणव को धनुष और अपने आत्मा को शर बनाकर ब्रह्मरूप लक्ष्य पर छोड़। द्योतमान, सर्वोत्पादक सविता प्रभु का साक्षात्कार कर। चारों वेद, वेदाङ्ग, दर्शनशास्त्र, भूगोल खगोलशास्त्र, वैद्यकशास्त्र आदि का अध्ययन कर । दिन रात्रि-मास-त्-अयन- संवत्सर आदि की कालविद्या को जान । अग्नि-यज्ञ, शिल्प-यज्ञ, वृष्टि-यज्ञ, राजनीति यज्ञ आदि की यज्ञविद्या को जान । वृष्टि-विज्ञान को सीख, अनावृष्टि होने पर  बिना बादलों के वर्षा करा, अतिवृष्टि होने पर वृष्टि को रोकने की कला भी सीख। तू भूयान, जलयान और अन्तरिक्षयान बना। जलपोतों से समुद्र पार कर, अन्तरिक्ष में विमानों की उड़ान भर । प्रकृति के पदार्थों से विद्युत् उत्पन्न करके उसके प्रकाश से रात्रि को भी दिन में बदल दे, विद्युत् से कलायन्त्रों को भी चला। तेरे कारखानों का धूम आकाश में छा जाए। भूमि को यज्ञभस्म से और शिल्पशालाओं की भस्म से भर दे। तू इतनी वैज्ञानिक उन्नति कर कि परमात्मा की सृष्टि को भी चार चाँद लगा दे।

पाद-टिप्पणी

१. मन्त्रार्थ दयानन्दभाष्य से गृहीत । स्वाहा=वाक्, निघं० १.११ ।

वाक्-वाणा, वाङ्मय, विद्या । गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च ।।

समुद्र में जा, अन्तरिक्ष में जा-रामनाथ विद्यालंकार 

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