वैदिक धर्म में सप्तर्षि की बहुत प्रतिष्ठा है। पुराण कथाओ में सप्तर्षि शब्द विविध ऋषिओं के साथ जोडा गया है।
आकाश में भी तारामंडल को सप्तर्षि नाम मिला है।
यह सप्तर्षि का वैदिक स्वरूप क्या है? चलीये देखते है।
बृहदारण्यकोपनिषद् २.२.४ में राजर्षि काश्यराज अजातशत्रु, बालाकी गार्ग्य को सप्तर्षि का अर्थ समझा रहे है।
इस उपनिषद् के अनुसार सप्तर्षि हमारे सिरमें रहनोवाली सात इन्द्रिय का समूह है। इस नाम के ऋषि इतिहासमें अवश्य हुए है, लेकिन सप्तर्षि का कंसेप्ट इन्द्रिय के अर्थमें है।
बृहदारण्क अनुसार
गौतम और भरद्वाज – दोनों कान
विश्वामित्र और जमदग्नि – दोनों नेत्र
वशिष्ठ और कश्यप – नाक के दो छिद्र
अत्रि – वाणी
इस प्रकार इन गौतम आदि नाम विविध इन्द्रिय के है। इन अर्थमें वह वेदमें भी आये है।
बादमें इसी नामके विविध ऋषि भी हुए जिससे यह भ्रम हुआ की वेदोमें यह जो नाम है, वह इन ऋषिओ के नाम है।
लेकिन वेदमें किसी मनुष्य का नाम नहीं। बृहदारण्यक के प्रमाण से वह सिद्ध होता है की वेदमें आये इन सब नामो के योगिक अर्थ है, लौकिक नहीं।