वेदमंत्र हमारे फटे हृदयों को सीकर स्नेह्बद्ध कर दें-रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः प्रजापतिः । देवता छन्दांसि। छन्दः आर्षी उष्णिक् ।
गायत्री त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप्पङ्क्त्या सह। बृहृत्युष्णिहा ककुप्सूचीभिः शम्यन्तु त्वा॥
-यजु० २३.३३
हे मानव ! ( गायत्री) गायत्री छन्द, (त्रिष्टुप् ) त्रिष्टुप् छन्द, ( जगती ) जगती छन्द, (पढ्या सह अनुष्टुप् ) पक्कि छन्द के साथ अनुष्टुप् छन्द, ( उष्णिहा बृहती ) उष्णिक् छन्द के साथ बृहती छन्द तथा (ककुप् ) ककुप् छन्द (सूचीभिः ) सुइयों से जैसे वस्त्र सिला जाता है वैसे ( त्वी शम्यन्तु ) तेरे फटे हृदय को सिल कर शान्त कर दें।
अपने देश के तथा दूसरे देशों के वासी हम सब एक जगदीश्वर के पुत्र होने के कारण परस्पर भाई-भाई हैं। इसी प्रकार सब देशों की नारियाँ परस्पर बहिनें हैं। नर और नारियाँ भी आपस में भाई-बहन हैं। इस कारण एक-दूसरे के प्रति प्रगाढ़ प्रेम होना चाहिए। परन्तु देखा यह जाता है कि प्रेम तो विरलों में ही है, अधिकतर एक-दूसरे के वैरी हो रहे हैं। ईष्र्या, द्वेष और वैरभाव देखने में आते हैं। कलह, मार-काट, हत्या, आतङ्कवाद को संत्रास ही सर्वत्र व्याप रहा है। एक देश दूसरे देश के विमानों को नष्ट कर रहा है, विषैली गैस से नर संहार कर रहा है, संहारक शस्त्रास्त्रों से भीषण युद्ध हो रहे हैं। अणुबम छोड़े जा रहे हैं। किन्तु विभिन्न छन्दों में आबद्ध वेदमन्त्र तो परस्पर मैत्री और सौहार्द का पाठ पढ़ाते हैं, एक दिल दो-तन होने का सन्देश देते हैं। वेद के छन्द सात हैं गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पङ्कि, त्रिष्टुप्, जगती। ये आर्षी, दैवी, आसुरी, प्राजापत्या, याजुषी, साम्नी, आर्ची, ब्राह्मी के भेद से आठ प्रकार के होते हैं। नियत अक्षरसंख्या से एक अक्षर कम या अधिक होने पर वह छन्द क्रमशः निवृद् और भुरिक् कहलाता है। दो अक्षर कम या अधिक होने पर वह छन्द क्रमशः विराट् और स्वराट् माना जाता है। ककुप् इन्हीं छन्दों का वह भेद होता है, जिसमें मध्य का पाद अधिक अक्षरोंवाला हो, जैसे क्रमशः ८, १२, ८ अक्षरों के तीन पाद होने पर ककुप् उष्णिक् छन्द होता है। मन्त्र का आशय है कि इन सब छन्दों में आबद्ध वेदमन्त्र अपने मैत्री-सन्देश के द्वारा हमारे फटे हृदयों को ऐसे ही सिल दें, जैसे सुइयों से वस्त्र सिला जाता है। ऋग्वेद का जगती छन्द का एक मन्त्र कहता है कि–”युद्ध में कुछ भी प्रिय नहीं होता है’१ । यजुर्वेद में अनुष्टुप् छन्द की वाणी है कि-* *तेरे हाथ में जो बाण या शस्त्रास्त्र हैं, उन्हें दूर फेंक दे”२ । अथर्ववेद का अनुष्टुप् छन्द का एक मन्त्र कहता है कि -** आप सब लोगों को मैं सहृदयता, सांमनस्य और अविद्वेष का पाठ पढ़ाता हूँ। एक दूसरे से ऐसे ही प्यार करो, जैसे गाय नवजात बछड़े से प्यार करती है। इस प्रकार विविध छन्दों के वेद-मन्त्र हमारे हृदयों में पारस्परिक प्रेम की भावना उत्पन्न करें।
महीधर के वेदभाष्य के अनुसार इस मन्त्र द्वारा राजपत्नियाँ अश्वमेध के मारे हुए घोड़े के अङ्गों को लोहे, चाँदी और सोने की सुइयों से छेद-छेद कर इस हेतु जर्जर करती हैं कि उसके अङ्गों को काटने के लिए तलवार उनमें आसानी से घुस सके। बाद में कटे हुए अङ्गों का होम होगा। हमारे अर्थ की दिशा स्वामी दयानन्द सरस्वती के भाष्य से ली गयी है।
पाद-टिप्पणियाँ
१. ऋग्० ७.८३.२
२. यजु० १६.९
३. अथर्व० ३.३०.१
वेदमंत्र हमारे फटे हृदयों को सीकर स्नेह्बद्ध कर दें-रामनाथ विद्यालंकार