विद्वान् की क्षमता-रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः दीर्घतमाः । देवता विद्वान् । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।
स्वराडेसि सपत्नहा संत्ररार्डस्यभिमातिहा जनराडसि रक्षोहा सर्वरार्डस्यमित्रहा ॥
-यजु० ५। २४
हे विद्वन् ! आप ( स्वराङ् असि ) स्वकीय पाण्डित्य से जगमगानेवाले हो, ( सपत्नहा ) जो एक साथ मिलकर आपसे शास्त्रार्थ करने आते हैं, उन्हें पराजित कर देनेवाले हो। आप ( सत्रराड् असि ) यज्ञ में ज्योति से ज्योतिष्मान् होनेवाले हो, ( अभिमातिहा ) अभिमानियों को परास्त कर देनेवाले हो। आप ( जनराड् असि ) धार्मिक विद्वज्जनों में चमकनेवाले हो ( रक्षोहा ) राक्षसों का, दुष्टों का हनन या पराजय कर देनेवाले हो। आप (सर्वराड् असि ) सबके बीच अपनी विद्या से प्रकाशमान होनेवाले हो, आप (अमित्रहा ) शत्रुओं को हनन कर देनेवाले हो।
हे विद्वन्! हम आपके वैदुष्य पर गर्व करते हैं। आपने चारों वेद संहिताएँ शाखाओं सहित आत्मसात् की हुई हैं। ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषदें, शिक्षा-कल्प-व्याकरण निरुक्त-छन्द-ज्योतिष नामक षड् वेदाङ्ग, प्राच्य और पाश्चात्त्य दर्शनशास्त्र, भौतिक विज्ञान, रसायनशास्त्र, शिल्पविज्ञान आदि सकल विज्ञान भी आपको हस्तामलकवत् उपस्थित है। आप सृष्टिविज्ञान में भी पारङ्गत हैं। समस्त सैद्धान्तिक और क्रियात्मक ज्ञान के आप महारथी हैं। आप अपने स्वकीय पाण्डित्य से सूर्य के समान जगमगा रहे हो। जो अधकचरे पाण्डित्यवाले अज्ञानी लोग इकट्टे होकर आपसे किन्हीं विषयों पर शास्त्रार्थ या ज्ञानचर्चा करने आते हैं, उनके गर्व का आप हनन कर देते हो, उन्हें पराजित कर देते हो। हे विद्वद्वर! आप यज्ञ के भी अपूर्व ज्ञाता हो, अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेधपर्यन्त यज्ञों के सैद्धान्तिक और क्रियात्मक ज्ञान में आप पारंगत हो। अतः यज्ञों के विषय में कोई शङ्काएँ या अपसिद्धान्त लेकर आपसे वितण्डा करने कोई अपण्डित आते हैं, तो आप उनके अभिमान को चूर कर देते हो, जैसे शतपथब्राह्मण एवं बृहदारण्यक उपनिषद् में अनेक अभिमानी प्रश्नकर्ता विद्वान् और विदुषियों का याज्ञवल्क्य महर्षि ने उनके प्रश्नों के सही उत्तर देकर अभिमान खण्डित कर दिया था।
हे विद्वच्छिरोमणि! आप ‘जनराट्’ भी हो, धार्मिक विद्वज्जनों में अपनी ज्ञानज्योति से चमकनेवाले हो। यदि कोई ज्ञान का दम्भ करनेवाले अज्ञानी दुष्ट राक्षस लोग आपसे वाक्छल करने के लिए आते हैं और आपको भरी सभा में हरा कर लज्जित करना चाहते हैं, उनका आप मुंहतोड़ उत्तर देकर हनन कर देते हो।
हे विद्वज्जनों के भी विद्वान् गुरुवर! आप ‘सर्वराट्’ हो, सभी विद्वन्मण्डली में सूर्य के समान चमकते हो। जैसे सूर्य अन्धकाररूप शत्रु की दुर्गति कर देता है, ऐसे ही जो आपके अमित्र होकर, अस्नेही शत्रु बनकर आपको पराजित करने के मनसूवे बाँधकर आपसे शास्त्रचर्चा करने आते हैं, उनकी आप अपकीर्तिरूप हत्या कर देते हो। शास्त्रार्थ में वे आपके सम्मुख टिकने नहीं पाते हैं और उनकी वही दशा होती है जो धक्का खाकर पहाड़ के ऊँचे शिखर से नीचे गिरनेवाले की होती है।
हे विद्वानों के अधिराज ! हम भी आपसे शिक्षा लेकर आप सदृश विद्वान् बनें और अपण्डितों के कुतर्को को खण्डित करके संसार में सद्धर्म की स्थापना करें।
पाद-टिप्पणियाँ
१. ये सह पतन्ति शास्त्रार्थाय सह आगच्छन्ति ते सपत्नाः, तान् हन्तिपराजयते यः स सपत्नहा।
२. अभिमिमते इत्यभिमातयः तान् हन्ति स:-द० |
३. यो जनेषु धार्मिकेषु विद्वत्सु राजते स:-द० ।।
विद्वान् की क्षमता-रामनाथ विद्यालंकार