एक स्वाध्याय प्रेमी युवक ने लाला लाजपत राय जी के आर्यसमाज पर चोट करने वाले एक लेख की सूचना देकर उसका समाधान चाहा। दूसरे ने श्री घनश्यामदास बिड़ला के नाम उनके उस पत्र के बारे में पूछा जिसमें लाला जी ने अपने नास्तिक होने की चर्चा की है। मैंने अपने लेखों व पुस्तकों में इनका स्पष्टीकरण दे दिया है। लाला जी पर मेरी पुस्तक में सप्रमाण पढ़ा जा सकता है। जब उनके मित्रों ने, कॉलेज पार्टी ने उनसे द्रोह करके सरकार की उपासना को श्रेयस्कर मान लिया तो लाला जी के घायल हृदय का हिलना, डोलना स्वाभाविक था। उधर महात्मा मुंशीराम की शूरता, अपार प्यार और हुँकार ने उनका हृदय जीत लिया। घायल हृदय को शान्ति मिली। स्वामी जी के बलिदान पर दिल्ली की विराट सभा में बोलते समय उनके नयनों से अश्रुकण टप-टप गिर रहे थे। तब उस केसरी की दहाड़ यह थी, ‘‘श्रद्धानन्द तुम्हारे जीवन पर भी मैंने सदा रश्क (स्पर्धा) किया और मौत पर भी रश्क करता हूँ। भगवान् मुझे भी ऐसी ही मौत दे तो मैं इतना समझूँगा कि मैं तुमसे आगे न बढ़ सका तो पीछे भी न रहा।’’
यह तो है नास्तिकता विषयक उनके उस पत्र का उन्हीं के द्वारा अन्तिम वेला में प्रतिवाद। वह योग भी सीखते रहे। उनके साथ जो छल किया गया, जो अन्याय किया गया, उसकी प्रतिक्रिया में क्रोध में आकर यदा-कदा बहुत कुछ कहा परन्तु पटियाला राजद्रोह अभियोग में वे महात्मा मुंशीराम के साथ आर्यसमाज की रक्षा के लिये खड़े थे। श्रीयुत अमरनाथ कालिया की पुस्तक के प्राक्कथन को पढिय़े, आर्यसमाज के लिये उनके उद्गार क्या हैं? उनकी हुँकार की रंगत पं. लेखराम समान थी। शेष कभी फिर लिखा जायेगा।