राजा से प्रजजनों की प्रार्थना
ऋषिः अत्रिः । देवता इन्द्रः । छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् ।
समिन्द्र णो मनसा नेषि गोभिः ससुरभिर्मघवन्त्सस्वस्त्या। सं ब्रह्मणा देवकृतं यदस्ति सं देवानासुमतौ य॒ज्ञियानास्वाहा।
-यजु० ८।१५
( इन्द्र) हे परमैश्वर्यवान् राजन् ! आप ( नः ) हम प्रजाओं को ( मनसा ) मनोबल से और ( गोभिः) भूमि तथा गौओं से ( सं नेषि ) संयुक्त करते हो। ( मघवन् ) हे विद्याधनाधीश ! ( सूरिभिः ) विद्वानों से ( सं ) संयुक्त करते हो, ( स्वस्त्या ) स्वस्ति से (सं ) संयुक्त करते हो। ( सं ब्रह्मणा ) संयुक्त करते हो उस ज्ञान से ( यत् ) जो (ब्रह्मकृतम् अस्ति ) ईश्वरकृत तथा विद्वज्जनों से कृत है। ( सम्) संयुक्त हों हम (यज्ञियानां देवानां ) पूजनीय विद्वानों की ( सुमतौ ) सुमति में, (स्वाहा ) हमारी यह कामना पूर्ण हो।
हे ऐश्वर्यशाली राजन् ! हम प्रजाजनों ने मिलकर आपको राजा के पद पर आसीन किया है। हमारे उत्थान के लिए आप जो अनेक प्रशंसास्पद कार्य कर रहे हो, उनके लिए हम आपके प्रति कृतज्ञताप्रकाशन करते हैं। प्रथम कार्य तो आपने यह किया है कि हमें मनोबल से अनुप्राणित कर दिया है। हम समझ गये हैं कि जिस कठिन से कठिन कार्य का भी शुभारम्भ करेंगे, वह अवश्य पूर्ण होकर रहेगा। फिर आपने हमें निवासभवन, सार्वजनिक भवन तथा कृषि के लिए भूमि आबंटित की है और आपने अपनी राजकीय गोशाला से उत्तम जाति की गौएँ गोपालकों को दिलवायी हैं। तीसरा कार्य आपने हमारे लिए यह किया है कि राष्ट्र में उच्चकोटि के विद्वान् उत्पन्न किये हैं, जो राष्ट्र के गौरव हैं। प्राथमिक कक्षाओं से लेकर उच्च शिक्षा तक की सम्पूर्ण व्यवस्था आपने देश के होनहार बालकों और युवकों को दिलवायी है। शिक्षा पर होनेवाला अधिकांश व्यय आपने राजकीय कोष से कराया है। आपने नगर नगर में विद्यालय, माध्यमिक विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्थापित किये हैं। चौथा कार्य आपने हमारे लिए यह किया है कि प्रत्येक प्रजाजन को *स्वस्ति’ से युक्त किया है। सब प्रजाओं का अपना विशेष अस्तित्व हो गया है, प्रत्येक मनुष्य विपुल धन-धान्य, समृद्धि, सुविधा, सद्गुण, वर्चस्व, देहबल, मनोबल, आत्मबल आदि से परिपूर्ण हो गया है। पाँचवा लाभ आपने हमें यह पहुँचाया है कि आपने हमें ‘ब्रह्मकृत’ ज्ञान से संयुक्त कर दिया है। ‘ब्रह्म’ नाम परमेश्वर का भी है और विद्वानों का भी। जो परमेश्वरकृत वेद हैं उनका ज्ञान भी आपने राष्ट्रवासियों को ग्रहण करने का अवसर दिया है और विद्वत्कृत ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद्, धर्मशास्त्र भौतिक विज्ञान, शिल्पशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, खगोलशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद आदि की शिक्षा की भी व्यवस्था की है।
हमारा आपसे निवेदन है कि सदा ही पूजनीय विद्वानों की सुमति हमें प्राप्त होती रहे। हमारी यह कामना पूर्ण हो। मनुष्य को सदा सरसता-सफलता प्राप्त कराता रहेगा। अत: जीवात्मा के लिए आवश्यक है कि वह मन की सदा रक्षा करता रहे। परन्तु जीवात्मा मन की रक्षा तभी कर सकता है, जब वह स्वयं काम, क्रोध आदि रिपुओं से अपराजित रहे । अत: जीवात्मा को भी सावधान किया गया है कि याद रख, तुझे कोई शत्रु दबा न सके। आगे मन रूप चन्द्र को कहते हैं-हे दिव्य मन-रूप चन्द्र! दृढ़ सङ्कल्पों की दीप्ति से जगमगाता हुआ तू सब प्रजाजनों को प्राप्त हुआ है, वैसा ही बना रह। यदि तू जीवात्मा का प्रकाश अपने ऊपर नहीं पड़ने देगा और निस्तेज हो जायेगा, तो तू मनुष्यों का कुछ भी उपकार नहीं कर सकेगा, अपितु उनके पतन का ही कारण बनेगा।
अब मन उत्तर देता है कि मुझे तुम्हारी बात स्वीकार है। मैं तुम पूज्यजनों को सर्वविध पुष्टि के साथ प्राप्त होता हूँ। अपने सङ्कल्प-बल से तुम्हारे अन्दर प्राण फूकता रहूँगा तथा सारथि जैसे लगाम द्वारा रथ के घोड़ों को नियन्त्रण में रखता है, वैसे ही मैं तुम्हारे इन्द्रिय-रूप अश्वों को नियन्त्रित करता रहूँगा, एवं अन्धाधुन्ध विषयों की ओर भागने नहीं दूंगा। परिणामत: तुम्हें सबल आध्यात्मिक और भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त होते रहेंगे। परन्तु मुझसे लाभ पाने के लिए आवश्यक यह है कि तुम भी मुझे ‘स्वाहा’ कहो, मेरा स्वागत करो। मैं मन भी यदि जीवात्मा के नियन्त्रण से बाहर होकर कुराह पर चलने चलाने लगूंगा, तो वरुण’ प्रभु के पाशों से बाँधा जाऊँगा। अतः मैं सावधान रहता हुआ ‘वरुण’ के पाशों से छूटा रहता हूँ। हे मानवो! तुम मुझसे जो आशा करते हो, उसे मैं पूर्ण करता रहूँगा और निरन्तर तुम्हारी उन्नति में संलग्न रहूँगा।
पाद–टिप्पणी
१. (दभन्) हिंस्युः । अत्र लिङर्थे लङ् अडभावश्व-द० ।
दभु दम्भे, दम्नोति, स्वादिः । दम्नोति वधकर्मा, निघं० २.१९।।
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