राजपुरुषों का दायित्व -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः वसिष्ठः । देवता बृहस्पतिः। छन्दः भुरिक् पङ्किः।
शन्नो भवन्तु वाजिनो हवेषु देवतता मितद्रवः स्वः । जम्भयन्तोऽहिं वृकुरक्षासि सनेम्यस्मद्युयवन्नमवाः ॥
यजु० ९ । १६
हे बृहस्पति राजन् ! ( मितद्रव:१) मपी-तुली गतिवाले, (स्वक:२) शुभ अर्चिवाले (वाजिनः ) वीर राजपुरुष ( देवताता ) यज्ञ में, और ( हवेषु ) संग्रामों में ( नः ) हमारे लिए ( शं भवन्तु ) सुखशान्तिकारी हों। वे ( अहिं ) साँपको, ( वृकं ) भेड़िये को, और (रक्षांसि ) राक्षसों को ( जम्भयन्तः५) विनष्ट करते हुए ( अस्मद् ) हमसे ( सनेमि६ ) शीघ्र ही ( अमीवाः ) रोगों को ( युयवन्) दूर कर देवें । |
राजपुरुषों की नियुक्ति उनके पदों पर उन्हें सम्मान देने के लिए या प्रजा पर रोबदाब जमाने के लिए नहीं होती है, अपितु प्रजा की सेवा के लिए होती है। ‘वाज’ शब्द बलवाचक है, अतः ‘वाजी’ का अर्थ है बली। ‘वाजिनः’ उसका बहुवचन है। यहाँ ‘वाजिनः’ का अर्थ है बली राजपुरुष। मन्त्र में ‘वाजिनः’ के दो विशेषण दिये गये हैं ‘मितद्रवः’ और ‘स्वर्का:’ । ‘मितद्रव:’ का अर्थ है मपी-तुली गतिवाले । जिस-जिस अधिकार या पद पर उन्हें नियुक्त किया गया है, उसकी जो सीमा है, वहीं तक गति करना उनका कार्य होता है। परन्तु गति करनी अवश्य है, अपने क्षेत्र में पूरा सक्रिय होना है, उदासीन होकर नहीं बैठना है। ‘स्वर्का:’ का निरुक्त में एक अर्थ ‘स्वर्चिषः’ दिया गया है, अर्थात् उत्कृष्ट ज्योतिवाले। प्रत्येक राजपुरुष को ज्योतिष्मान् अर्थात् अन्यों पर अपना प्रभाव छोड़नेवाला होना चाहिए। ढीला-ढाला या गलत बात पर समझौता कर लेनेवाला नहीं। इनके विषय में एक बात यह कही गयी है कि ये यज्ञ में और संग्रामों में हमारे लिए सुखकारी हों। जिस राजपुरुष को जो कार्य सौंपा गया है, वही उसके लिए यज्ञ है। उसे पवित्र यज्ञ मानकर ही करना है। जब कभी अपने राष्ट्र को किसी दूसरे राष्ट्र से युद्ध करना पड़ जाता है, तब उसमें भी क्षत्रियभिन्न राजपुरुषों को भी सेना की सहायता के लिए भेजना पड़ जाता है, क्योंकि वेद की दृष्टि में प्रत्येक राष्ट्रवासी को सैनिक शिक्षा देना अनिवार्य है। जैसे नियुक्त स्थल पर राजपुरुषों को प्रजाहित करना है, वैसे ही संग्रामों में भी राष्ट्रहित या प्रजाहित करना होता है। जो क्षत्रिय राजपुरुष होते हैं, उनसे तो संग्रामों में प्रजाहित अपेक्षित होता ही है।
राजपुरुषों का यह भी कर्तव्य है कि वे अहि, वृक और राक्षसों को विनष्ट करें । अहि, वृक और राक्षस राष्ट्रवासियों में भी हो सकते हैं और शत्रुओं में भी। जो साँप की तरह कुटिल चाल चलते हैं और विषैले हैं, वे ‘अहि’ होते हैं। हिंसा, मार काट मचानेवाले लोग ‘वृक’ या भेड़िये हैं। जिनसे अपनी रक्षा करनी पड़ती है ऐसे नरपिशाच राक्षस या रक्षस् हैं। इन्हें विनष्ट करके ही तो राजपुरुष प्रजा को सुख पहुँचा सकेंगे। अन्त में कहा गया है कि वे राजपुरुष इन सबका विध्वंस करते हुए हमारे रोगों या अस्वास्थ्य को भी दूर करें, अर्थात् हमें चिन्ताओं से मुक्त करें। रोग शारीरिक व्याधियाँ ही नहीं, मानसिक चिन्ताएँ भी रोग कहाती हैं। | हे राजपुरुषो! तुम हम प्रजाओं को सर्वभाव से सुखी रखो, हम तुम्हारा धन्यवाद करेंगे।
पाद-टिप्पणियाँ
१. (मितद्रवः) ये परिमितं द्रवन्ति गच्छन्ति ते-द० ।।
२. स्वर्का: स्वञ्चना इति वा, स्वर्चना इति वा, स्वर्चिष इति वा-निरु०१२.३० । ।
३. देवताता=यज्ञे । निघं० ३.१७। देव-तातिल् प्रत्यय, सप्तमी विभक्ति कोडा=आ आदेश ।।
४. ह्वयन्ते स्पर्धन्ते योद्धारो यत्र स हवः संग्रामः । ह्वञ् स्पर्धायां शब्दे च,भ्वादिः ।।
५. जभि नाशने, चुरादिः ।।
६. सनेमि=क्षिप्रम्, निरु० १२.३० ।।
७. युयवन् पृथक् कुर्वन्तु। अत्र लेटि शपः श्लु:-द० । यु मिश्रणेअमिश्रणे च, अदादिः ।
राजपुरुषों का दायित्व -रामनाथ विद्यालंकार