राजपत्नी के प्रति -रामनाथ विद्यालंकार

राजपत्नी के प्रति -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वामदेवः। देवता राजपत्नी। छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

स्योनासि सुषदसि क्षेत्रस्य योर्निरसि स्यनामासद सुषदमासीद क्षत्रस्य योनिमासीद॥

-यजु० १० । २६

हे राजपत्नी! तू वेद की दृष्टि में (स्योना असि) सुखदायिनी है, ( सुषदा असि ) शोभन व्यवहार में स्थित है, ( क्षत्रस्य योनिः असि ) क्षात्रबल, राजन्याय तथा राजनीति का केन्द्र है, अत: (स्योनाम् ) सुखदान की विद्या को ( आसीद ) प्राप्त कर, ( सुषदाम् ) शोभन व्यवहार की विद्या को ( आसीद) प्राप्त कर, ( क्षत्रस्य योनिम् ) क्षात्रबल, राजन्याय तथा राजनीति की विद्या को ( आसीद) प्राप्त कर ।

हे राजपत्नी! आज आपके पति को प्रजा ने राजा के रूप में निर्वाचित किया है। राज्यसञ्चालन में राजपत्नी के भी कुछ कर्तव्य होते हैं। वेद की दृष्टि में राजपत्नी को प्रजा के लिए सुखकारिणी होना चाहिए। उसे व्यावहारिक विद्या में भी निपुण होना चाहिए, जिससे जब जिसके साथ जैसा व्यवहार या लोकाचार करना उचित हो, वैसा कर सके। उसे ‘क्षत्र की योनि’ भी होना चाहिए। क्षेत्र का अर्थ है। क्षात्रबल, क्षत्रिय धर्म, राजन्याय और राजनीति। यदि आपने पहले से ही ये विद्याएँ सीखी हुई हैं, तब तो आपका स्वागत है, आप अपनी इन विद्याओं से राष्ट्र को अपने पति के साथ मिलकर लाभान्वित करें। परन्तु यदि आप इन विद्याओं में निष्णात नहीं हैं, तो इनकी सुशिक्षा प्राप्त कर लेनी चाहिए। दयानन्द स्वामी अपने भाष्य में इस मन्त्र के भावार्थ में लिखते हैं कि ‘‘राजपत्नी को यजुर्वेद ज्योति चाहिए कि संब स्त्रियों का न्याय और उनकी सुशिक्षा वह करे। स्त्रियों के न्याय और सुशिक्षा पुरुषों से नहीं कराने चाहिये, क्योंकि पुरुषों के समीप स्त्रियाँ लज्जित और भययुक्त होकर यथावत् बोलकर अपनी बात नहीं कह सकतीं और न ही अध्ययन कर सकती हैं।” इससे ज्ञात होता है कि राजपत्नी स्त्रियों के न्यायविभाग और शिक्षाविभाग की अधिकारिणी होगी। उसके नीचे स्त्रियों को न्याय करनेवाली तथा कन्याओं को अध्यापन करनेवाली अन्य स्त्रियाँ होंगी। स्वामीजी का यह सुदृढ़ विचार है कि लड़कों की पाठशालाओं में सब पुरुष अध्यापक हों तथा कन्याओं की पाठशालाओं में सब स्त्रियाँ अध्यापिकाएँ हों।

राजनीति के अन्य कार्यों का उत्तरदायित्व भी राजपत्नी पर होगा तथा आवश्यकता पड़ने पर वह शत्रुओं के प्रति संग्राम का नेतृत्व भी करेगी। स्वामीजी लिखते हैं  संग्राम में राजा के अभाव में रानी सेनापति हो और जैसे राजा युद्ध कराने के लिए वीरों को प्रेरणा दे और उत्साहित करे, वैसे ही वह भी आचरण करे।”२

पादटिप्पणियाँ

१. कर्मकाण्डक व्याख्यानुसार इस कण्डका द्वारा खदिर की लकड़ी सेबना तथा रस्सी से बुनी आसन्दी (पीठिका) लाकर उस पर यजमान राजा को बैठाया जाता है। हमने दयानन्दभाष्य से दिशानिर्देश लेकर राजपत्नीपरक व्याख्या की है। २. ऋग्भाष्य ६.७५.१३ के संस्कृत भावार्थ का अस्मत्कृत अनुवाद ।

राजपत्नी के प्रति -रामनाथ विद्यालंकार