योगी बनकर आनन्दमग्न हों -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः प्रजापतिः । देवता सविता । छन्दः शंकुमती गायत्री ।
युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सवे। स्वग्र्याय शक्त्या।
-यजु० ११।२
( युक्तेन मनसा ) योगयुक्त मन से ( वयम् ) हम योगी लोग ( देवस्य ) देदीप्यमान तथा प्रकाशक ( सवितुः३) प्रेरक सविता प्रभु की ( सवे ) प्रेरणा में रहते हुए (शक्त्या ) शक्ति से ( स्वग्र्याय ) ब्रह्मानन्द के अधिकारी हों ।।
यदि हम योगमार्ग का अवलम्बन करके यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान द्वारा सविकल्प तथा निर्विकल्पक समाधि को प्राप्त कर लेते हैं, तब तो हम योग के राही हैं ही। परन्तु यदि इस मार्ग को सूक्ष्मता से अपनाये बिना भी किसी विषय में मन को चिरकाल तक केन्द्रित किये रखने की क्षमता हमारे अन्दर है, तो भी हम कुछ अंशों में योगी कहला सकते हैं। कोई साहित्यस्रष्टा लेखक है और चार-पाँच-छह घण्टे तक लगातार उसका मन लेखन में केन्द्रित रहता है, तो वह भी योगी है। एक श्रोता किसी विद्वान् के भाषण को निरन्तर घण्टे भर दत्रचित्त होकर सुनता है और बाद में भाषण वैसा का वैसा सुना देता है, तो वह भी योगी है। अपने मन को किसी विषय में निरन्तर केन्द्रित रख सकना योग की सबसे पहली निशानी है। वह विषय सांसारिक भी हो सकता है और पारमार्थिक भी। वह विषय किसी की सेवा में मन लगाना भी हो सकता है और परमेश्वर में मन लगाना भी। परन्तु किसी दुर्व्यसन में मन लगाना योग की श्रेणी में नहीं आता, भले ही छह-सात घण्टे यजुर्वेद- ज्योति उस दुर्व्यसन में मन लगाने की क्षमता हमारे अन्दर हो । दुर्व्यसनी के मन का आराध्य बदलकर उसे योगी बनाया जा सकता है।
आओ, हम योग रचायें, ‘सविता’ प्रभु में अपने मन को केन्द्रित करें। ‘सविता’ प्रभु में अपने मन को जो रमाते हैं, उन्हें वह उत्कृष्ट प्रेरणाएँ ही करता है, उनके मन में शक्ति भरता है। जैसे किसी यन्त्र में बिजली द्वारा असीम कार्य करने की शक्ति भर दी जाती है, वैसे ही प्रभु का संस्पर्श साधक के अन्दर अपार शक्ति भर देता है। प्रभु से प्राप्त यह चुम्बकीय शक्ति साधक में इतनी कार्यक्षमता उत्पन्न कर देती है कि वह शुभ कार्यों को करते कभी थकता नहीं। साथ ही वह शक्ति साधक को आनन्द की दिव्य धारा में स्नान करा देती है, ब्रह्मानन्द की तरङ्गों से तरङ्गित कर देती है। आओ, हम भी योगी बनकर ‘सविता’ प्रभु में अपने मन को केन्द्रित करके अथक शक्ति तथा दिव्य आनन्द के भागी बनें।
पाद–टिप्पणियाँ
१. (युक्तेन) कृतयोगाभ्यासेन ।
२. (वयम्) योगिनः-२० ।
३. सुवति प्रेरयति शुभकर्मसु यः स सविता । षु प्रेरणे, तुदादिः ।
४. स्व: दिव्यं ज्योतिः गम्यते प्राप्यते यत्र स स्वर्गः। तत्र भवः स्वर्यः दिव्यानन्दः ।
योगी बनकर आनन्दमग्न हों -रामनाथ विद्यालंकार