योगमार्ग के विघ्नों को प्रकम्पित कर आगे बढ़े -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः मयोभूः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।
आगत्य वन्यध्वनिश्सर्वा मृध विधूनुते । अग्निसुधस्थे महुति चक्षुषा निर्चिकीषते ॥
-यजु० ११ । १८
(वाजी ) बलवान् जीवात्मा (अध्वानम् आगत्य ) योगमार्ग में आकर ( सर्वाः मृधः ) सब हिंसक विप्नों को ( विधूनुते ) प्रकम्पित कर देता है। फिर वह ( महति सधस्थे ) महान् हृदय-सदन में (अग्निम् ) प्रकाशमय प्रभु को ( चक्षुषा )अन्त:चक्षु से (निचिकीषते ) देख लेता है।
आओ, तुम्हें वाजी की बात सुनायें । किन्तु ‘वाजी’ का तात्पर्य घोड़ा मत समझ लेना। ‘वाज’ का अर्थ होता है बल, अतः ‘बलवान्’ को वाजी कहते हैं । घोड़ा भी बलवान् होने के कारण ही वाजी कहलाता है। हम यहाँ जिस ‘वाजी’ की बात करने लगे हैं, वह है बलवान् जीवात्मा । हमारे अन्दर सबसे अधिक बलवान् जीवात्मा ही है। जब तक वह सोया रहता है, तब तक तो काम, क्रोध आदि चूहे उस पर कूदते रहते हैं। पर ज्यों ही वह जाग कर हंकार भरता है, त्यों ही सब विषयविकारों की सेना भाग खड़ी होती है।
उस ‘वाजी’ अर्थात् बलवान् जीवात्मा के विषय में मन्त्र कहता है कि जब वह योगमार्ग में पदार्पण करता है, तब इस मार्ग में बाधा डालनेवाले सब विघ्नों को प्रकम्पित कर देता है। ये विघ्न हैं व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व, अनवस्थितत्व रूप चित्तविक्षेप। इन चित्तविक्षेपों के सहवर्ती होते हैं, दुःख, दौर्मनस्य अङ्गमेजयत्व एवं श्वास प्रश्वास। योगमार्ग में इनकी प्रतिषेध करने के लिए एकतत्त्वाभ्यास करना आवश्यक होता है। सुखी जनों के प्रति मैत्री, दु:खी जनों के प्रति करुणा, पुण्यात्माओं को देख कर मुदित होना, अपुण्यात्माओं के प्रति उपेक्षावृत्ति धारण करना इन चारों वृत्तियों की भावना अपने अन्दर धारण करने से चित्त का प्रसाद प्राप्त होता है। विषयवती प्रवृत्ति भी उत्पन्न होकर मन के स्थितिलाभ का कारण बनती है। अथवा विशोका ज्योतिष्मती प्रज्ञा भी मन को विघ्नों से हटा कर निर्मल कर देती है। |
इस प्रकार योगविघ्नों को पराजित करके ‘वाजी’ जीवात्मा महान् हृदय-सदन में प्रकाशमय ‘ अग्नि’ नामक परम प्रभु का दर्शन कर लेता है। अग्निप्रभु के दर्शन उसे चर्म-चक्षुओं से नहीं, किन्तु अन्तश्चक्षु से होते हैं। आओ, हम भी योगमार्ग के यात्री बनकर योगविघ्नों का अपसारण कर परम प्रभु के दर्शन करें।
पाद-टिप्पणियाँ
१. निचिकीषते पश्यति। यह दर्शनार्थक छान्दस धातु है।
२. योगदर्शन, समाधिपाद, सूत्र ३०-३६ ।।
योगमार्ग के विघ्नों को प्रकम्पित कर आगे बढ़े -रामनाथ विद्यालंकार