यज्ञ से विविध अन्नों की प्रचुरता-रामनाथ विद्यालंकार
ऋषयः देवा: । देवता धान्यदः आत्मा। छन्दः भुरिग् अतिशक्चरी।
व्रीहर्यश्च मे यवाश्च मे माषाश्च मे तिलाश्च मे मुद्गाश्च मे खल्वाश्च मे प्रियङ्गवश्च मेऽणवश्च मे श्यामाकाश्च मे नीवाराश्च मे गोधूमश्च मे मसूराश्च मे युज्ञेन कल्पन्ताम्॥
-यजु० १८ । १२ |
( व्रीहयः च मे ) मेरे धान, ( यवः च मे ) और मेरे जो, ( माषाः च मे ) और मेरे उड़द, (तिलाः च मे ) और मेरे तिल, ( मुगाः च मे ) और मेरे मुँग, ( खल्वाः च मे ) और मेरे चने, ( प्रियङ्गवः च मे ) और मेरे अँगुनी चावल, ( अणवः च मे ) और मेरे किनकी चावल, ( श्यामाकाः च मे ) और मेरे साँवक चावल, (नीवाराः च मे ) और मेरे पसाई के चावल, जो बिना बोये उत्पन्न होते हैं, ( गोधूमाः च मे ) और मेरे गेहूँ (मसूराः च मे ) और मेरे मसूर ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) यज्ञ से प्रचुर तथा पुष्ट होवें।
मैं चाहता हूँ कि मेरे देश में धान, जौ, उड़द, तिल, मूंग, चने, कँगुनी चावल, किनकी चावल, सांवक चावल, जङ्गली धान, गेहूँ और मसूर इन धान्यों की खेती प्रचुरता के साथ हो। इन धान्यों में कुल मिलाकर खाद्योपयोगी सब तत्त्व आ जाते हैं। इनके लिए हमें दूसरे देशों पर निर्भर न रहना पड़े। ये सब अन्न यज्ञ द्वारा बहुत मात्रा में और पोषक गुणवाले होकर उपजें । यज्ञ से यहाँ एक तो कृषियज्ञ अभिप्रेत है और दूसरा अग्निहोत्र । कृषियज्ञ में उपजाऊ भूमि, अच्छी जुताई, अच्छा । खाद, अच्छा बीज, उसे उपयुक्त समय पर बोना, समय पर सिंचाई, समय पर फसल काटना, भूसी अलग करना, खलिहानों में भरना, बिक्री करना आदि सब बातें अभिप्रेत हैं। किसी भी बात में लापरवाही होने पर उपज पर प्रभाव पड़ सकता है। खाद रासायनिक खादों की अपेक्षा गोमूत्र और गाय के गोबर का अच्छा रहता है। ये कृषियज्ञसम्बन्धी सावधानियाँ हैं। अग्निहोत्र का प्रयोग इस रूप में किया जा सकता है कि गोघृत तथा धान, जौ, तिल और गूगल की सामग्री से एवं आम और पीपल दोनों की समिधाओं से यज्ञ करके उसकी राख खेतों में बखेरी जाए।
‘यज्ञेन कल्पन्ताम्’ का एक अर्थ यह भी है कि ये सब अन्न भोग-यज्ञ द्वारा आरोग्य प्रदान करने में समर्थ हों। यज्ञ शब्द देवपूजा, सङ्गतिकरण और दान अर्थवाली यज धातु से बनता है। जिस क्रिया में ये तीनों तत्त्व सन्तुलनपूर्वक विद्यमान हैं, वह ‘यज्ञ’ है। अन्न के भोग में प्रथम तो दाता परमेश्वर की पूजा है, फिर अपने उदर के साथ अन्न का सङ्गतिकरण है, फिर अन्न का भक्षण अकेले नहीं, दानपूर्वक होता है, क्योंकि स्वयं खाने के अतिरिक्त अतिथियज्ञ और बलिवैश्वदेवयज्ञ भी करना होता है। भोजन में अन्नों के चयन में सन्तुलन भी होना चाहिए कि उसमें स्टार्च, प्रोटीन, वसा, चीनी, तन्तु आदि सब ठीक अनुपात में रहें। इस प्रकार भोग करेंगे तो उससे हमारा मन, मस्तिष्क और शरीर स्वस्थ होंगे और परोपकार भी होगा।
आओ, यज्ञ द्वारा ही हम इन तथा अन्य उपयोगी अन्नों को प्रचुर मात्रा में उत्पन्न करें और यज्ञ द्वारा ही इनका भोग करें।
पाद–टिप्पणी
१. कल्पन्ताम्-क्लुपु सामर्थ्य, लोट् लकार।
यज्ञ से विविध अन्नों की प्रचुरता-रामनाथ विद्यालंकार