यज्ञ से जो भोज्य पदार्थ बचे उसको यज्ञ शेष करते हैं। इसे शास्त्रों में अत्युत्तम भोजन कहा है। हव्य देवताओं का भोज्य है। अपने से उत्तम भोज्य देवताओं के अर्पण करना होता है। यह नहीं कि आप तो खोर खाई और खाली पिच के पिंड बनाकर देवों के गाल में डाल दिया।
यहां न ब्राह्मणों के कल्पित देव हैं न पितरों के पिंड ही उन का आहार है। यज्ञ संसार चक्र है। जाति तथा समाज का हित साधन ही वास्तविक यज्ञार्थ कर्म है। यही वस्तुतः देव ताओं का अर्चन है ।। ३३ करोड़ देवता भारत की ३३ करोढ़ प्रजा है। मानुषीय जीवन का प्रथम साध्य जातीय हित है। तभी तो स्वामी जी कहते हैं-संसार का उपकार करना आर्य समाज का मुख्योद्देश्य है । इससे जो बच जाय वह व्यक्तित्त्व है । जाति पहिले, व्यक्ति पीछे।
रामायण में लक्ष्मण ने अकेला मिष्टान्न खाना पातक गिना है । वेद में आता है-केवलायो भवति केवलादी। अर्थात् अकेला भोजन करनेवाला केवल पापान्न खाता हैं। मनुस्मृति तथा गीता इस सिद्धान्त की पुष्टि करती हैं । कमाई वही सफल हैं जिस में औरों का हिस्सा हो।
वाइसराय की कौंसिल में भारतीय प्रतिनिधियों को यह उलाहना मिला कि क्या तुम स्वराज्य इस लिये चाहते हो कि जिन अब्राह्मणों को तुम अपने कुए का पानी पीने नहीं देते, अपनी दरी छूने नहीं देते, अपने देवता पूजने नहीं देते उन पर और अत्याचारों का अवसर पाओ ? अब वह यथा तथा जीते तो हैं । फिर उनका जीना भी वाधित करना चाहते हो ? यज्ञ शेषभोजी मालवीय उठे और कहा कि ब्राह्मणों की ओर से मैं वकील होता हूं । पहिले अब्राह्मणों को स्वराज्य दे लो। जो बचेगा हम खा लेंगे। यही यज्ञ – शेष है। जाति तथा समाज का अङ्ग होता हुआ भी मनुष्य अपने व्यक्तित्व के आगे आंखें नहीं मूंद सकता । अहंकार को कितना विशाल रूप दो। सारे जगत् को ‘अहम्’ दृष्टि से देखो । एक विन्दु अवश्य ऐसा रह जाएगा जो व्यष्टि को समष्टि से अलग दिखाएगा । क्या उस बिन्दु की उपेक्षा करलें । सम्पूर्णवृत्त, संपूर्ण चक्र के घुमाव में विन्दु का प्रभाव अलग है। सूर्य सौर ब्रह्माण्ड को घुमाता है। परन्तु उसकी अपनी केन्द्रानुवर्तिनी गति भिन्न है । ऐसे ही जातीय तथा मानुषीय उन्नति पर अलग भी ध्यान देना होता है । जाति के पेट के साथ २ अपना पेट भी भरना है। अपने हित को रोकना नहीं किन्तु जातीय हित से अपना हित गौण रखना है ? पढ़ाने वाला पढ़ाता तो जाय परन्तु अपनी पाठोन्नति न रोके । धन दे पर साथ २ कमाए भी । सूर्य स्वयं न फिरे तो जगत् को भी फिरा न सके।
राष्ट्रीयता तथा जातीयता का प्रादुर्भाव तब होगा जब उदर देव से पहले रुद्र देव को अपने लहू से तृप्त किया जाये गा। आक्षेप करने वाले कहते हैं, पुरातन आर्य यज्ञों में गौ की, वकरी की, पुरुषों की, अश्वों की, और अपनी आहुति देते थे। आर्य सहम जाते हैं और कह उठते हैं ‘नहीं । हम तो अहिंसक हैं। हमारी दृष्टि में यज्ञ में अर्थात् जाति की रक्षार्थ पशु, पक्षी, बालक, बालिका, मित्र, अमित्र सब की बलि हमारे पूर्व पुरुष देते थे और हमें देनी चाहिये । सबसे उत्तम, सबसे प्रबल, सबसे प्रभूत तर शक्तियां जाति के पहिये में लगादो। जो बल बच जाय, वह अपनी ऋद्धि सिद्धि में प्रयुक्त करो। देवताओं का दिया हुआ खाओ वह उत्तम प्रसाद है।
७ सर्व वै पूर्ण यज्ञ समाप्त हुआ । अब पूर्ण आहुति दिया चाहता है। देखले अग्नि बुझ तो नहीं गई ? मन्त्रों का ठीक उच्चारण हुआ ? स्वाहा सार्थक है ? आहुतियों में इदन्नमम का भाव रहा ? यज्ञ शेष खाने से पहले यज्ञार्थ कृत्य पूर्ण कर ।