यज्ञ : पण्डित चमूपति जी

लोग पद्य से उतरते हैं, परन्तु कोरो गद्य से काम नहीं चलता आजका संसार गद्यमय है कवियो की कल्पना को सोतों का स्वप्न कहकर शुष्क विज्ञान में जागृति दंडने चले हैं परन्तु जो सच पूछो तो है बात बात में पद्य उपमा और रूपक के बिना एक वाक्य नहीं कहते भला संसार को संसार ही क्यों कहो ? इसमें सृति है। गति है यह कविता नहीं तो क्या है ? और सब गुण भुलाकर सृति मात्र से संसार का कहना कहां का सूधा विचार है। लो और उदाहरण लो काम चलता है ! भला काम भी चला करते है? जड़ में गति कैसी ? बात बात में कविता भरी है। 

संसार के लिये उपमाओं की दंड हुई। किसी ने कहा विवाह मन्दिर है। विवाह मन्दिरों में बराती निमन्त्रित होते हैं उनका काम दूसरों के व्यय से स्वयम् भोग विलास करना है। वह खाएंगे, पीयेंगे। यह चिंता औरों को होगी कि वृथा सैंकड़ों पर पानी फिरा जाता है। ऐसों की दृष्टि में संसार मोद का स्थान है खा, पी, और मौज मनाइस तत्व की व्यवस्था मात्र ही मनुष्य का जीवन है यूरोप वाले इसे  एपिक्यूरिमन सौर भारतीय इसे चारवाक सिद्धान्त कहते हैं। वस्तुतः प्रत्येक जाति तथा विचार के समुदाय में क्रिया त्मिक एपिक्यूरिमत और चारवाक खुले फिरते हैं। 

एक और कवि वैराग्य वान् था वह नित्य प्रति शव उठते देखता था उसने संसार का श्मशान कहा उसके विचार में जन्म हर्ष का अवसर है मरण का मनुष्य रोता हुआ उत्पन्न होता है और रोता हुआ यमदूतों की रखवाली मे कूच करता है इस कमी ने मानव जाती को रोने का पाठ पढ़ाया। कभी नरक का अग्नि से, कभी यमको यातना ओं से डरा डरा कर अधीर आत्माओं को और अधीर किया भय तथा त्रास के अश्रुओं को मानो मुक्ति और सद्गति के बीज ठहरादिया। 

कोई खिलाड़ी इन दोनों सिद्धान्तों पर हंस दिया । कहा संसार रोने की जगह है हंसने की। यहां का सुख भी उतना ही कड़वा है जितना कि दुःख विषयभोग मैं में अनजानों को क्षणिक मात्र आनन्द तो होता है पर पीछे की खिन्नता पहिले के स्वाद को किर किरा देती है। बहुत खाओ अजीर्ण होजावे स्वाद की अति होने से स्वाद स्वादु रहें तृप्ति का परिमाण नियत नहीं आज छटाङ्क से मस्त है, ता कल पाव चाहिये आखिर कहां तकऔर जो शोक ही मे दिन बिता दिये रोते प्रातः रोते सायं की तो इस से हर्ष का वृक्ष कहां सिंच सकता है। 

संसारमें तटस्थ रहना ही अच्छा भौतिक जगत् भोगने के लिये नहीं, देखने के लिये है संसार एक नाट्य शाला है इसका आनन्द दर्शक के भाग्य में है। क्रीड़ा पाज के लिये नहीं उपराम वृत्ति ही सात्विक वृत्ति है। मनुष्य से जितना हो सके अपनी वृत्तियों को सुकेड़े वाणी की सफलता मौन धारण में हैं अङ्गहीन होना अङ्गों का यथार्थ प्रयोग है। कान रखता हुंआ करण रहित हो जाये। इन्द्रियां विक्षोभ का कारण हैं प्रवृत्ति बन्धन की रस्सी है सुख चाहे शुभ हो चाहे अशुभ दोनों का परिणाम अशुभ है। सुख पूर्वक सुख का संग्रह नहीं होता। 

आखिर संसार क्या है ? वर बधू विवाह है ? श्मशान है नाटय शाला है ! क्याहैं ! युधिष्ठर से यक्ष ने यह प्रश्न किया तो उत्तर दिया कि मैं संसार को कटाह पाता हूं : यह भौतिक अग्नि द्वारा तपाया जारहा है। इसमें धन धान्य आदि भोज्य वस्तुएँ पकती हैं और अन्त को काल को गाल में ग्रास बन कर जाता है। 

___ संसार के वास्तविक रूप को कुछ कुछ युधिष्ठिर ने पहचान लिया। इस में अग्नि है। संसार साहस का स्थान है। कोई निवृत्त हो चाहे प्रवृत्ति, इस कटाह में तपोगे कर्म शील कर्जा हाथ में लेकर कटाह को चलाएगा और जलने से बच जाएगा, निष्कर्म भोज्य पदार्थ की न्याई बलात् कटाह में धकेला जायगा काम आओ अथवा काम करो पको अथवा पकाओ इसके अतिरिक्त और विकल्प नहीं। 

वेद में संसार को देवों का यज्ञ कहा है। यही संसार के लिये यथार्थ उपमा है और संसार वासियों के लिये यथोचित शिक्षा भी पुरुष सूक्त मे आया है: अश्म् यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्म शरद्धविः॥ य०१४। 

अर्थात् देवता जिस पुरुष के साथ मिल कर हवि से यज्ञ करते है उसका वसन्त ऋतु घृत है, ग्रीष्म लकड़ी है, शरद् ऋतु हवि है। 

इस मन्त्र मे ऋतुओं को यज्ञ की सामग्री कहा है ग्रीष्म यज्ञ को नपाता है, वसन्त रस देता है। यज्ञ में घृत हो तो यज्ञ शुष्क रहे शरद् वृक्षों के फल फूल, पत्ते, पत्तियां झाड़ कर अपना सर्वम्व स्वाहा करता है तब संसार की सृति होती है। 

__ यश देवों का है संसार में जो शक्तियां काम करती हैं देव है। अपने आप को इन देवों में मिलाने वाला नहीं, इनके देवत्व को देवत्व बनाने वाला मनुष्य देवो का देव हो जाता है। इन सब देवों की साझी आहुति से संसार का यज्ञ पूर्णता 

की प्राप्त करता है। 

हवन के मन्त्रों में एक जगह पृथ्वी कोदेवयजनीकहा है अर्थात् देवों के यज्ञ करने की जगह, एक और मन्त्र में आज्ञा है 

देवा यजमानश्च सीदत। 

अर्थात् हे देवो! यजमान और तुम बैठो और इकट्ठ यज्ञ करो। अभिप्राय यह है कि संसार यज्ञ है इसके अणु अणु में गति है। इस वृक्ष की पत्ती पत्ती कर्म शील है तो मनुष्य जिस का देह इन्हीं परमाणुओं से बना। जो इस समष्टि शरीर का व्यष्टि मात्र अंश ही है। वह भी बिना कर्म के नहीं रह सकता। प्राणियों का सम्पूर्ण जीवन यज्ञ है इस यज्ञ में और आहुति दो, प्राणों को कैसे रोकोगे। सफल वह आहुति है जो विधि पूर्वक हो कोई उल्टी सीधी आहुति पड़ी नहीं और देव कुपित हुए नहीं देव समर्थ हैं उनका सह पक्षी होने में सर्व कल्याण और वैपक्ष्य में सर्वनाश है। 

परमात्मा यज्ञ के ब्रह्मा हैं उनके संकल्प के साथ अपना संकल्प मिलाना शिवसंकल्प होना है स्वाहा वह आहुति है जो उनको आहुति के साथ दी जाए आगे पीछे दी हुई आहुति स्वाहा नहीं होती। 

भारत के अन्न से अपने आपको अन्नाद बनाने वालो! भारत के प्राणों से अपने प्राण बचाने वालो ! यज्ञ करो। भारत का वायु विष हो गया है क्योंकि तुम विष हो भारत का जल नहीं रहा गङ्गा बहती है और तुम्हें मुक्त नहीं करती। हिमा लय खड़ा है और शिव के शत्रुओं का श्वसुराल बन गया है। देव बन कर यज्ञ में अपना सर्वस्व स्वाहा करो देवता तुम्हें आशीष देंगे। 

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