यज्ञ गन्धर्व है, दक्षिणाएँ अप्सरा हैं-रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ गन्धर्व है, दक्षिणाएँ अप्सरा हैं-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषयः देवाः । देवता यज्ञ: । छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

भुज्युः सुपर्णो यज्ञो गन्धर्वस्तस्य दक्षिणाऽअप्सरसस्तावा नाम। स नऽइदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट् ताभ्यः स्वाहा।

-यजु० १८ । ४२ ।

( भुज्युः१) पालनकर्ता, सुखभोग करानेवाला, (सुपर्णः ). शुभ पंखोंवाला ( यज्ञः ) यज्ञ: (गन्धर्वः ) पृथिवी को धारण करनेवाला है, ( दक्षिणाः ) दक्षिणाएँ ( तस्य) उस यज्ञ की । ( अप्सरसः ) अप्सराएँ हैं, (स्तावा:४ नाम ) जिनका नाम । स्तावा है । ( सः ) वह यज्ञ ( नः ) हमारे ( इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु ) इस ब्रह्मबल और क्षात्रबल की रक्षा करे। (तस्मै  स्वाहा ) उसके लिए स्वाहापूर्वक आहुति देते हैं, ( वाट् ) वह यज्ञ हमारी आहुति का वहन करे। ( ताभ्यः स्वाहा ) उन दक्षिणाओं के लिए स्वाहा करते हैं।

मनुष्य का जीवन यज्ञमय है। दैनिक यज्ञ, पञ्च महायज्ञ, पर्वयज्ञ, नैमित्तिक यज्ञ, काम्य यज्ञ आदि यज्ञों का तांता लगा रहता है। फिर मनुष्य को अपना जीवन भी यज्ञमय बनाना होता है, जिसके प्रथम २४ वर्ष प्रात:सवन होते हैं, अगले ४४ व माध्यन्दिन सवन होते हैं और उससे आगे के ४८ वर्ष सायंसवन होते हैं। इस प्रकार जीवन का यह यज्ञ ११६ वर्ष तक चलता है। यह ११६ वर्ष का यज्ञ महिदास ऐतरेय ने किया था, जिसका छान्दोग्य उपनिषद् में वर्णन है। ‘त्र्यायुषं जमदग्नेः’ आदि मन्त्र के अनुसार तीन सौ वर्ष का भी जीवनयज्ञ हो सकता है। इसी मन्त्र की एक व्याख्या के अनुसार यह यज्ञ चार सौ वर्ष का भी हो सकता है। यज्ञ त्याग और दान का सन्देश देता है। अपने पास जो कुछ भी ऐश्वर्य है, उससे दूसरों का भी पेट भरना है, दूसरों की भी आवश्यकताएँ पूर्ण करनी हैं। चींटी, कौओं को भी भोजन देना है, अतिथियों का भी सत्कार करना है। यह त्याग की भावना अग्निहोत्रयज्ञ द्वारा आती है। अग्निहोत्र से पर्यावरण शुद्ध होता है। इसलिए मन्त्र में कहा है कि यज्ञ ‘भुज्यु’ है, यज्ञकर्ता का तथा अन्यों का पालन करनेवाला है, उन्हें सुखभोग करानेवाला है। यज्ञ ‘सुपर्ण’ है। अग्निज्वाला और वायु ये यज्ञ के दो पंख हैं, जिनसे वह दूर-दूर तक उड़ता है, दूर-दूर तक यज्ञ की रोगहर पोषक सुगन्ध पहुँचाता है। यज्ञ ‘गन्धर्व’ है, भूमि को धारण करनेवाला है। यज्ञ से ही भूमि टिकी है, अन्यथा यदि सब स्वार्थ को ही देखने लगें, परार्थसिद्धि संसार से मिट जाए, तो भूमि छिन्नविच्छिन्न हो जायेगी। भूमि में राष्ट्र की भावना यज्ञ से ही आती है, जिस राष्ट्र के लिए राष्ट्रवासी बलिदान होने तक के लिए तैयार रहते हैं।

यज्ञ की त्यागभावना को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कहा है कि यज्ञ की ‘अप्सरा’ दक्षिणाएँ हैं। यज्ञ पुरुष-स्त्री दोनों से मिलकर चलता है। यजमान के आसन पर भी पति पत्नी दोनों बैठते हैं। ‘अप्सरस:’ का योगार्थ है जो प्राणों में साथ-साथ चलती हैं। दक्षिणाएँ यज्ञ के प्राणों के साथ-साथ चलती हैं, अन्यथा यज्ञ निष्प्राण हो जाए। यज्ञ-समाप्ति पर पुरोहित को भी दक्षिणा दी जाती है और अन्य उपयोगी संस्थाओं को भी दक्षिणा देने की परम्परा है। पर्यावरणशुदधिरूपी दक्षिणा तो न केवल यज्ञ के प्रारम्भ से यज्ञ-समाप्ति तक, अपितु उसके बाद भी चलती रहती है। इन दक्षिणाओं को मन्त्र में ‘स्तावाः’ कहा गया है, क्योंकि इनसे ही यज्ञ स्तुति पाता है। आओ, यज्ञ के लिए ‘स्वाहा’ करें तथा दक्षिणाओं को अपने जीवन का अङ्ग बना लें । यह मन्त्र ‘राष्ट्रभृत्’ आहुति का है, क्योंकि इससे राष्ट्र का भरण-पोषण होता है। यज्ञ से ब्रह्म-क्षत्र दोनों की रक्षा होगी। विद्वान् ब्राह्मण भी यज्ञ करें,  चक्रवर्ती राजा भी यज्ञ करे। यज्ञ से दोनों अपने-अपने त्यागपूर्ण कर्तव्यपालन की शिक्षा लें और राष्ट्र को उन्नत करें।

पादटिप्पणियाँ

१. यज्ञो वै भुज्युः, यज्ञो हि सवाणि भूतानि भुनक्ति। श० ९.४.१.११ ।।(भुज्युः) भुज्यन्ते सुखानि यस्मात् सः-द० ।।

२. गां पृथिवीं धरतीति गन्धर्वः । ।

३. (अप्सरसः) या अप्सु प्राणेषु सरन्ति प्राप्नुवन्ति ता:-द० ।।

४. दक्षिणा वै स्तावाः, दक्षिणाभिर्हि यज्ञः स्तूयते । यो यो वै कश्चदक्षिणां ददाति स्तूयत एव सः । श० ९.४.१.११

५. छाउपे० ३.१६

६.७. शतवर्षमितानि त्रीणि आयूंषि समाहृतानि त्र्यायुषम्-पा० ५.४.७७के अनुसार। ‘त्र्यायुषमित्यस्य चतुरावृत्त्या त्रिगुणादधिकं चतुर्गुण मप्यायुः ।…विद्याविज्ञानसहितमायुरस्ति तद् वयं प्राप्य त्रिवर्षशतं चतुर्वपशतं वा ऽऽ युः सुखेन भुञ्जीमहीति।” यजु० ३.६२, द०भा०, भावार्थ

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