मेरे सत्य साधना के कार्य यज्ञ भावना से निष्पन्न हों

मेरे सत्य साधना के कार्य यज्ञ भावना से निष्पन्न हों – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः देवा: । देवता प्रजापतिः । छन्दः स्वराट् शक्चरी ।

सत्यं च मे श्रद्धा च मे जगच्च मे धनं च मे विश्वं च मे महश्च मे क्रीडा च में मोदश्च मे जातं च मे जनिष्यमाणं च मे सूक्तं च मे सुकृतं च मे ज्ञेने कल्पन्ताम्॥

-यजु० १८।५

(सत्यं च मे ) मेरा सत्य ज्ञान ( श्रद्धा च मे ) मेरी श्रद्धा, ( जगत् च मे ) मेरा क्षेत्र, (धनंचमे ) मेरा धन, (विश्वं च मे ) मेरी विश्व के साथ ममता की भावना, ( महः च मे ) मेरा तेज, ( क्रीडा च मे ) मेरी क्रीडा, ( मोदः च मे ) मेरा मोद-प्रमोद, (जातं च मे ) मेरा भूत, (जनिष्यमाणं च मे ) मेरा भविष्य, (सूक्तं च मे ) मेरा सुवचन, (सुकृतंचमे)मेरा सुकर्म ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) यज्ञ से समर्थ बनें ।।

सफल जीवनयात्रा के लिए सर्वप्रथम मनुष्य को इसके ज्ञान की आवश्यकता होती है कि सत्य क्या है और असत्य क्या है। जब उसे सत्य का ज्ञान हो जाता है, तब उस सत्य को आचरण में लाना होता है। परन्तु मनुष्य सत्याचरण में तब तक तत्पर नहीं होता, जब तक सत्य में उसकी श्रद्धा न हो। श्रद्धा होते ही सत्य में प्रवृत्ति स्वत: ही होने लगती है। व्यक्ति जिस जगत्’ या क्षेत्र का होता है, उसी में वह सत्य को प्रवृत्त करता है। जैसे व्यापार के ‘जगत्’ या क्षेत्र में रमण करनेवाला व्यक्ति उसी जगत् में सत्याचरण करेगा। इसी प्रकार विद्याध्यापन या क्षात्रधर्म के जगत् का व्यक्ति भी अपने-अपने क्षेत्र में ही सत्य का प्रयोग करेगा । विभिन्न क्षेत्र में सत्य का प्रयोग करने  के लिए किसी न किसी रूप में धन भी चाहिए। किसी क्षेत्र विशेष में सत्य को क्रियान्वित करते समय विश्वहित की भावना को भी भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि वह बात सत्य नहीं मानी जा सकती, जिसके क्रियान्वयने से किसी क्षेत्रविशेष को तो लाभ पहुँचता प्रतीत हो, किन्तु शेष विश्व का अकल्याण होता हो। सत्य का प्रचार आसान नहीं है। उसके लिए आत्मा और मन में ‘महः’ अर्थात् तेजस्विता चाहिए। तेजस्वी लोग ही स्वयं सत्यव्रती होकर सत्य के प्रचारक बनते हैं। सत्य के प्रचारार्थ सत्य में ‘क्रीडा’ करनी होती है, सत्य में रम जाना होता है। ऐसी वृत्ति धारण करनी होती है कि सत्य में ही ‘मोद माने, सत्य के फूलने से मन प्रफुल्ल हो, सत्य के प्रचारित होने से अन्तरात्मा मुदित हो।

सत्य के साधक एवं प्रचारक को अपने जीवन का ‘जात’ और ‘जनिष्यमाण’ अर्थात् ‘भूत’ और ‘भविष्य’ भी देखना होता है। अपने भूत का आत्म-निरीक्षण करके वह यह निर्धारित करता है कि उसके भूत जीवन में कितना अंश सत्य का रहा है और कितना असत्य का। फिर वह यह विचार करता है कि आगे अपने भविष्य जीवन की योजना क्या बनाऊँ, जिसमें सत्य ही सत्य हो, असत्य का लवलेश भी न रहे। फिर सत्यप्रचार के लिए सुभाषित (सूक्त) और सुकर्म (सुकृत) को भी अपनाता है। इस प्रकार सत्य के साधक के लिए सारे साधन सत्य के पोषक ही हो जाते हैं। परन्तु यह ‘सत्य’ की साधना ‘यज्ञभावना’ के बिना अपूर्ण ही रहती है। लोकहित की भावना ही यज्ञ-भावना है। लोकहित की भावना से सत्य की साधना को बल मिलता है, क्रियाशीलता मिलती है, पूर्णता मिलती है।

आओ, हम भी अपने सत्य, श्रद्धा आदि को यज्ञ द्वारा सामर्थ्यवान् और सफल करें।

मेरे सत्य साधना के कार्य यज्ञ भावना से निष्पन्न हों – रामनाथ विद्यालंकार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *