मेरी प्रत्येक कार्य यज्ञ के साथ हो -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषयः देवाः । देवता यज्ञानुष्ठाता आत्मा। छन्दः क. स्वराड् विकृतिः,र, स्वराड् ब्राह्मी उष्णिक्।।
के आयुर्यज्ञेन कल्पतां प्राणो यज्ञेन कल्पतां चक्षुर्यज्ञेन कल्पताछ श्रोत्रं यज्ञेन कल्पत वाग्यज्ञेन कल्पां मनो यज्ञेर्न कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पता ब्रह्मा यज्ञेने कल्पत ज्योतिर्यज्ञेने कल्पता स्वर्यज्ञेने कल्पतां पृष्ठं यज्ञेने कल्पतां यज्ञो यज्ञेने कल्पताम्। रस्तोमश्च यजुश्चऽऋक् च सार्म च बृहच्छ रथन्तरञ्चे।स्वर्देवाऽअगन्मामृताऽअभूम प्रजापतेः प्रजाऽअभूम वेट् स्वाहा।
— यजु० १८।२९ |
( आयुः यज्ञेन कल्पत) आयु यज्ञ से समर्थ हो । ( प्राणः यज्ञेन कल्पता ) प्राण यज्ञ से समर्थ हो। (चक्षुः यज्ञेन कल्पत) चक्षु यज्ञ से समर्थ हो। ( श्रोत्रं यज्ञेन कल्पता ) श्रोत्र यज्ञ से समर्थ हो । ( मनः यज्ञेन कल्पत) मन यज्ञ से समर्थ हो। (आत्मायज्ञेनकल्पतां) आत्मा यज्ञ से समर्थ हो। ( ब्रह्मा यज्ञेन कल्पतां ) ब्रह्मा यज्ञ से समर्थ हो। ( ज्योतिः यज्ञेन कल्पत) अध्यात्म ज्योति यज्ञ से समर्थ हो। (स्वःयज्ञेनकल्पत) मोक्ष यज्ञ से समर्थ हो । ( पृष्ठं यज्ञेन कल्पता ) स्तोत्र यज्ञ से समर्थ हो । ( यज्ञः यज्ञेन कल्पत) यज्ञ यज्ञ से समर्थ हो। ( स्तोमः च ) स्तोम, ( यजुः च ) और यजुः, (ऋक् च) और ऋक्, ( साम च) और साम, ( बृहत् च) और बृहत् नामक सामगान, (रथन्तरं च ) और रथन्तर नामक सामगान [यज्ञ से समर्थ हों]। हम मनुष्यों ने ( देवाः ) देव होकर ( स्वः अगन्म ) जीवन्मुक्ति पा ली है। ( अमृताः अभूम) हम अमर हो गये हैं। ( प्रजापतेः प्रजाः अभूम) प्रजापति की यजुर्वेद- ज्योति प्रजा हो गये हैं। ( वेट्) वषट्, ( स्वाहा ) स्वाहा।
मैं चाहता हूँ कि मेरे सब कार्य यज्ञपूर्वक हों, मेरे सब साधन, मेरे शरीर का प्रत्येक अङ्ग, मेरी प्रत्येक क्रिया यज्ञपूर्वक हो। स्वार्थ की सिद्धि के साथ परार्थ की सिद्धि करना ही यज्ञ है। यदि केवल स्वार्थ की सिद्धि होती है, परार्थ के प्रति उदासीनता है, न परार्थ की हानि होती है, न सिद्धि, तो वह यज्ञ नहीं है। हम अग्निहोत्ररूप यज्ञ करते हैं, उसमें भी स्वार्थ की सिद्धि के साथ परार्थ की सिद्धि होती है, क्योंकि यज्ञ से जो पर्यावरणशोधन होता है, उससे सबको लाभ होता है। मैं अपनी आयु यज्ञपूर्वक व्यतीत करूं, आयु-भर अपनी उन्नति के साथ दूसरों की उन्नति भी करता रहूँ, इसी में मेरी आयु की सफलता है। मैं अपने प्राणों से यज्ञ करता रहूँ, अर्थात् प्राणों से स्वार्थसिद्धि के साथ परार्थसिद्धि भी करता रहूँ। मैं अपने चक्षु, श्रोत्र और वाणी से यज्ञ करता रहूँ। जो कुछ आँख से देखू, श्रोत्र से सुनें, वाणी से बोलूं उससे दूसरों का भी भला करूं। मैं अपने मन को यज्ञ में लगाऊँ। जो कुछ मन से सोचूँ विचारूं, सङ्कल्प करूँ, इन्द्रिय-व्यापार में मन को लगाऊँ, उससे दूसरों का भी कल्याण हो। सब ज्ञानों का कर्ता और सब ज्ञानों का ग्रहीता तो मेरा आत्मा है। वह जो कार्य करे और जो ज्ञान उपार्जित करे, उससे दूसरे लोग भी लाभान्वित हों। मेरे द्रव्ययज्ञ का ब्रह्मा जिस यज्ञ का सञ्चालन करता है, उस यज्ञ की पूर्णाहुति से मुझे तो लाभ होगा ही, किन्तु यज्ञ में सम्मिलित सभी भाई-बहिन उससे तृप्त हों। मेरे अन्दर जो ज्ञान की ज्योति जलती है, प्रभु-प्रेम की ज्योति जलती है, उससे मैं तो अध्यात्म-साधना में समुन्नत होऊँगा ही, वह ज्योति अन्यों को भी ज्योतिष्मान् करे। मेरी जीवन्मुक्ति भी मेरी ही मुक्ति का साधन न बने, अपितु अन्यों की दु:खमुक्ति में भी कारण बने। मेरे स्तोत्र केवल मुझे ही भगवत्स्तुति में विभोर न करें, प्रत्युत अन्य भी उन स्तोत्रों से आह्लादित हों। मेरा ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ, भूतयज्ञ भी मुझे आह्लादित करने के साथ-साथ अन्यों को भी आनन्दित करे। मेरा स्तोम, मेरा यजुर्वेद पाठ, ऋग्वेदपाठ, सामवेदपाठ, बृहत् नामक सामगान, रथन्तरनामक सामगान भी यज्ञपूर्वक हों अर्थात् मेरे साथ वे अन्यों को भी सुखी करें। इस प्रकार यदि मैं यज्ञपूर्वक सब कर्म सम्पन्न करूंगा, तो मैं उन-उन कार्यों में सफल माना जाऊँगा। केवल अपने लिए कुछ उपलब्धि कर लेने में सफलता नहीं है, जब तक अन्यों को भी उससे कुछ उपलब्धि न हो।
देखो, हम मनुष्य देव बन गये हैं। दिव्यता प्राप्त करके हमने ‘स्व:’ को पा लिया है, हम जीवन्मुक्त हो गये हैं, हम अमर हो गये हैं, हम मानव सम्राट् की नहीं, प्रजापति की प्रजा हो गये हैं। हम अग्निहोत्र करते हुए प्रत्येक आहुति के साथ ‘वषट्’ बोलते हैं, ‘स्वाहा’ बोलते हैं। हे मानवो! अपना प्रत्येक कार्य यज्ञपूर्वक करो, उसी में उस कर्म की सफलता है।
मेरी प्रत्येक कार्य यज्ञ के साथ हो -रामनाथ विद्यालंकार