मेरी कामनाएँ पूर्ण हों-रामनाथ विद्यालंकार

मेरी कामनाएँ पूर्ण हों-रामनाथ विद्यालंकार 

 ऋषिः प्रजापतिः । देवता समित् । छन्दः स्वराड् अतिशक्वरी ।

एधोऽस्येधिषीमहि सुप्रिदसि तेजोऽसि तेजो मयि धेहि। मार्ववर्ति पृथिवी समुषाः समु सूर्यः । समु विश्वमिदं जगत्। वैश्वारज्योतिर्भूयासं विभून्कामान्व्यश्नवै भूः स्वाहा ।।

-यजु० २० । २३

हे परमेश्वर ! आप ( एधः१ असि ) संवृद्ध हो और संवृद्धि देनेहारे हो। आपकी कृपा से हम भी ( समिधीमहि ) संवृद्धि पायें। आप ( समिद् असि ) मशाल के समान आत्मा के प्रकाशक हो, ( तेजः असि ) तेजस्वी हो, ( तेजः मयि धेहि ) मुझमें भी तेज स्थापित करो। आपकी व्यवस्था से ( पृथिवी । समाववर्ति ) भूमि सम्यक् आवर्तन कर रही है, घूम रही है, ( सम् उषाः ) उषा भलीभाँति घूम रही है, ( सम् उ विश्वम् । इदं जगत् ) यह सारा जगत् ही घूम रहा है। ( वैश्वानरज्योतिः भूयासम्) मैं वैश्वानर अग्नि की ज्योति के समान होऊँ। (विभून् कामान् व्यश्नवै ) व्यापक कामनाओं को पूर्ण करूं। ( भूः ) मैं सत्तावान् होऊँ। (स्वाहा ) यह मेरी प्रार्थना पूर्ण हो।

जब मैं इस विशाल ब्रह्माण्ड के रचयिता जगदीश्वर की ओर दृष्टि फेरता हूँ और उसकी रची इस प्रकृति को निहारता हूँ, तब मैं आश्चर्यचकित रह जाता हूँ। हे सद्गुणनिधान परमेश्वर ! आप स्वयं संवृद्ध हो, सबसे महान् हो। आप परिश्रमी शरणागतों को भी संवृद्ध और महान् बनानेवाले हो। आपकी कृपा से हम भी संवृद्ध और महान् बनें। क्षुद्र कीट पतङ्गों की भाँति संसार में जन्म लें और चले जाएँ, ऐसा जीवन हम नहीं चाहते। आप तो हमें ऐसा महान् बना दो कि  सहस्राब्दियों तक जगत् हमारी महत्ता को स्मरण करता रहे। हे परमेश! आप जलती हुई मशाल हो, मशाल के समान जन जन की आत्माओं के प्रकाशक हो, मार्गदर्शक हो । हे देवेश ! आप तेजोमय हो, सूर्य चन्द्र-तारकावलि से बढ़कर तेजोमय हो। आप हमें भी तेजस्वी बना दो, हमारे आत्मा, मन, बुद्धि और प्राणों को तेजस्विता से ओतप्रोत कर दो।।

हे अखिलेश ! जब हम ब्रह्माण्ड में आपकी व्यवस्था को देखते हैं, तब मुग्ध हो जाते हैं। आपके रचे नियमों के अनुसार ही यह भूमि लट्ट के समान अपनी धुरी पर घूमती हुई अण्डाकृति मार्ग पर सूर्य के चारों ओर भी घूम रही है। इसी से दिन-रात और ऋतुचक्रप्रवर्तन की व्यवस्था आप कर रहे हो। हे विश्वपति ! आप ही उषा को भी घुमा रहे हो। आपके ही नियम का अनुसरण करके प्रतिदिन प्राची में उषा झिलमिलाती है और उसके पश्चात् सूर्य उदित होता है। तम:स्तोम छैट कर प्रकाश की आभा भूमण्डल में बिखर जाती है। केवल पृथिवी, उषा और सूर्य ही नहीं, यह सम्पूर्ण जगत् ही आवर्तन कर रहा है, कुम्भकार के चक्र के समान घूम रहा है और सर्जन कर रहा है अचरज पैदा करनेवाले नाना पदार्थों को। आपकी इस करनी पर हम नतमस्तक हैं।

हे जगत्स्रष्टा ! तुमने सर्वजनहितकारी, जाज्वल्यमान वैश्वानर अग्नि को बनाया है। मुझे भी तुम अग्नि के तुल्य ज्योतिष्मान् बना दो। कहाँ तक मैं तुम्हारी सृष्टि और अपनी कामनाओं का बखान करूं! एक सूत्र में इतना ही कहता हूँ कि मेरी कामनाएँ क्षुद्र न होकर विभु हों, महती हों, जनकल्याण चाहनेवाली हों और तुम्हारी कृपा से वे पूर्ण भी होती रहें। हे देवाधिदेव! मैं सत्तावान् बनूं, जग में मेरा महान् यशस्वी अस्तित्व हो। ‘स्वाहा’-मेरे इन सुवचनों को पूर्ण करो।

मेरी कामनाएँ पूर्ण हों-रामनाथ विद्यालंकार 

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