मातृभूमि का आह्वान -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः वामदेवः । देवता अदितिः। छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।
महीमू षु मातरसुव्रतानामृतस्य पत्नीमवसे हुवेम। तुविक्षत्रामजन्तीमुरूची सुशर्माणूमदितिसुप्रणतिम्॥
-यजु० २१.५
आओ, ( महीं ) महिमान्विता, ( सुव्रतानां मातरम् ) शुभ व्रतों की माता, (ऋतस्यपत्नीं) सत्य की पालयित्री, ( तुविक्षत्रां’ ) बहुत क्षात्रबलवाली, ( अजरन्तीं ) जीर्ण न होनेवाली, ( उरूच ) बहुत प्रगतिशील, (सुशर्माणं ) सुन्दर भवनोंवाली, बहुत सुख देनेवाली, ( सुप्रणीतिम्) शुभ प्रकृष्ट नीतिवाली (अदितिं ) खण्डित न होनेवाली मातृभूमि को ( अवसे) रक्षा के लिए ( हुवेम) पुकारें।
मैं अपनी मातृभूमि को पुकारता हूँ, राष्ट्रभूमि का आह्वान करता हूँ। कैसा प्यारा शब्द है ‘मातृभूमि’! आनन्दमग्न हो जाता हूँ इसे याद करके जब कभी विदेश से स्वदेश को आता हूँ, तब विमान से मातृभूमि पर उतरते ही एक गुदगुदी मचती है हृदय में, जैसे बच्चे को माँ की गोद में आने पर होती है। बलिहारी होता हूँ अपनी मातृभूमि पर। इसकी धूल मस्तक पर लगा कर तृप्त हो जाता हूँ। मेरी मातृभूमि ‘मही’ है, महती है, महिमामयी है। यह सुव्रतों की माता है, जननी है। इससे राष्ट्रवासी राष्ट्रियता, बलिदान की भावना आदि सुव्रतों को ग्रहण करते हैं। यह ‘ऋत की पत्नी’ है, सत्य का लालन पालन करनेवाली है, सत्यव्रती लोगों का सम्मान करनेवाली है। यह ‘तुविक्षत्रा’ है, बहुत क्षात्रशक्तिवाली है। शत्रु इसकी ओर आँख उठाये, तो इसकी भुजाएँ फड़कने लगती हैं, शस्त्रधारिणी हो जाती है यह। यह ‘अजरन्ती’ है, जरा से ज़ीर्ण न होनेवाली है, कभी बूढ़ी नहीं होती। प्रजा बूढी होकर इससे वियुक्त हो जाती है, किन्तु यह नवोत्पन्न प्रजा को युवति, सप्राण, जागरूक और सलोनी ही दीखती है। यह ‘उरूची’ है, बहुत प्रगतिशील है। आज उसका जो स्वरूप है, एक वर्ष बाद वह उसकी अपेक्षा बहुत प्रगति कर जाती है। आज यदि इसकी प्रजा में ६० प्रतिशत लोग शिक्षित हैं, तो एक वर्ष बाद ७० प्रतिशत शिक्षित हो जाते हैं। आज यदि २० प्रतिशत गाँवों में चिकित्सालय हैं, तो एक वर्ष बाद ६० प्रतिशत ग्रामों में हो जाते हैं। इस प्रकार निरन्तर इसमें प्रगति होती रहती है। यह ‘सुशर्मा’ है, सुन्दर भवनोंवाली और बहुत सुख देनेवाली है। इसकी अधिकांश प्रजा उच्चकोटि के घरों में निवास करती है और वह सुखी रहती है। यह ‘सुप्रणीति’ है, शुभ और प्रकृष्ट नीति पर चलनेवाली है। प्रत्येक कार्य के लिए राज्यपरिषद् में नीति निर्धारित होती है, उसी के अनुसार कार्य होता है। सामान्य नीति यह रहती है कि ऐसा कार्य हो, जिससे अधिकाधिक लोगों का कल्याण होता हो। यह ‘अदिति’ है, खण्डित न होनेवाली है, अपनी भूमि को टुकड़े करके दो राष्ट्र बनानेवाली या अपनी भूमि में से कुछ भूमि पड़ोसी राष्ट्र को देनेवाली नहीं है। अपनी मातृभूमि को हम पुकारते हैं कि वह हम प्रजाजनों की रक्षा करे और हमें प्रगति की ओर ले चले।
पाद–टिप्पणियाँ
१. तुवि=बहु, निघं० ३.१। तुवि वहु क्षत्रं क्षात्रबलं यस्याः सा।
२. उरु बहु अञ्चति गच्छति या सा उरूची ।।
३. शर्मन्=गृह, सुख। निघं० ३.४, ३.६ ।।
४. दो अवखण्डने। दितिः अवखण्डनं न विद्यते यस्याः सा अदितिः ।अदितिः पृथिवीनाम, निघं० १.१ ।
५. अव रक्षणादिषु । तुमर्थे असे प्रत्ययः ।
मातृभूमि का आह्वान -रामनाथ विद्यालंकार