भौतिक और दिव्य सम्पदा की याचना-रामनाथ विद्यालंकार

भौतिक और दिव्य सम्पदा की याचना-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः गोतमः। देवता प्रजा। छन्दः स्वराड् आर्षी पङ्किः।

सुगव्यं नो वजी स्वश्व्यै पुसः पुत्राँ२ ॥ऽउत विश्वपुषारयिम् । अनागास्त्वं नोऽअदितिः कृणोतु क्षत्रं नोऽअश्वो वनताहुविष्मन्॥

-यजु० २५.४५

( वाजी ) बलवान् धनी परमेश्वर (नः ) हमारे लिए ( सुगव्यं ) श्रेष्ठ गौओं का समूह, (स्वश्व्यं ) श्रेष्ठ घोड़ों का समूह, ( पुंसः पुत्रान्) पुरुषार्थी पुत्र-पुत्रियाँ ( उत ) और (विश्वापुषं रयिम् ) सबका पोषण करनेवाली सम्पत्ति (कृणोतु) करे, देवे। (अनागास्त्वं ) निरपराधता एवं निष्पापता (नः ) हमारे लिए ( अदितिः ) वेदवाणी (कृणोतु ) करे। ( हविष्मान्) प्रजा से कर लेनेवाला (अश्वः ) राष्ट्ररथ को चलानेवाला राजा ( नः ) हमें ( क्षत्रं ) क्षात्रबल और क्षत से त्राण (वनता ) प्रदान करे।

परमेश्वर ‘वाजी’ अर्थात् बहुत बलवान् है। शरीरधारी न होते हुए भी वह शारीरिक बल के और अध्यात्म बल के भी सभी कार्य करता है। लोकलोकान्तरों को उसने बिना डोर के ही आकाश में लटकाया हआ है, जैसे कोई बली परुष अपनी भुजा से पकड़कर भारी से भारी वस्तु को आकाश में स्थिर रखे। अध्यात्म बल के कार्य भी वह करता है, जैसे निर्बुद्धि को परम बुद्धिमान् बना देता है और आत्मा में इतना बल दे देता है कि वह अणु होता हुआ भी बड़े से बड़े कार्य कर सके। ‘वाजी’ का अर्थ धनी भी होती है। परमेश्वर धनवान् भी इतना है कि समस्त सांसारिक और आध्यात्मिक धन उसके पास हैं। हम चाहते हैं कि वह हमें ‘सुगव्य’ अर्थात् श्रेष्ठ गौओं का समूह और ‘स्वश्व्य’ अर्थात् श्रेष्ठ अश्वों का समूह प्रदान करे। पशुरूप गौओं और घोड़ों के समूह की प्रत्येक को यजुर्वेद ज्योति आवश्यकता नहीं होती, व्यापारी को ही हो सकती है। ‘गौ’ किरण या प्रकाश का वाचक भी है। ‘सुगव्य’ का अर्थ है। अध्यात्मप्रकाश की किरणों का समूह और ‘स्वश्व्य’ से श्रेष्ठ प्राणबल का समूह भी अभिप्रेत है, जिसकी प्रत्येक को आवश्यकता और चाह होती है। हम चाहते हैं कि ‘वाजी’ परमेश्वर हमें पुरुषार्थी पुत्र-पुत्रियाँ भी प्रदान करे। पुत्र और पुत्रियों का समास होने पर संस्कृत-व्याकरण में एकशेष के नियम से ‘पुत्र’ ही शेष रहता है। अतः ‘पुंसः पुत्रान्’ में पुत्रों के साथ पौरुषवती पुत्रियाँ भी सम्मिलित हैं। धनी परमेश्वर से हम ‘विश्वापुष रयि’ अर्थात् सबका पोषण करनेवाली सम्पत्ति की भी याचना करते हैं। वह समाज और राष्ट्र में प्रत्येक के निर्वाह के लिए आवश्यक सम्पदा प्रदान करे। संसार में कुछ का ही पोषण न होकर सबका पोषण होना चाहिए, यही वैदिक मर्यादा है।

इसके अतिरिक्त ‘अनागास्त्व’ अर्थात् निष्पापत्व भी हम पाना चाहते हैं। अदिति’ हमें निष्पापता प्रदान करे। अदिति का एक अर्थ वेदवाणी’ भी है। वेद में निष्पाप होने की प्रार्थना प्रचुरता के साथ मिलती है। अथर्ववेद पाप में चेतनत्व का आरोप करके उसे फटकारते हुए दूर भाग जाने का आदेश देता है। पाप धुएँ में घट कर, पानी में गल कर नष्ट हो जाए.५ यह कहा गया है। संसार की वस्तुओं का नाम ले-ले कर कहा गया है कि वे हमें पाप से मुक्त करें। वेद से प्रेरणा लेकर हम मानसिक और क्रियात्मक दोनों प्रकार के पापों से मुक्त रहें, तभी हम उन्नतिपथ पर अग्रसर हो सकते हैं।

प्रजा से ‘हवि’ अर्थात् कर लेनेवाला और राष्ट्ररथ को अश्व के समान चलानेवाला राजा हमें सैनिक शिक्षा देकर क्षात्रबल से युक्त करे। वेद सैनिक शिक्षा को सबके लिए अनिवार्य बताता है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. अदिति:=वाक्, निघं० १.११

२. वन सम्भक्तौ ।

३. (वाजं) धनम् ऋ० ६.५४.५, द० भा० ।।

४. अ० ६.४५.१ । ५. अ० ६.११३.२ । ६. अ०. ११.६

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